कविता आज और अभीः एक नया पन्ना


अकेला गाछ
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वह जो अकेला गाछ
खड़ा-अड़ा वहाँ सालों से
मौन साधक सा
आज कितना अकेला हो गया
कभी घेरे रहतीं थीं उसे
चारों ओर से थेथर-पुटुश की झाड़ियाँ
गाछों के पड़ोसी झुरमुट
घासों-कुशों के रिश्तेदार

वह बूढ़ा फुटकल गाछ
खोजता है इर्द-गिर्द अपने
रिश्तों की गर्मियाँ
चाहता है अब भी पूर्ववत
घेरे रहें उसे उसके
भाई-बंधु, रिश्ते, पड़ोस
पर उन्हें मानव की
लिप्सा ने दूर कर दिया

यारी शिद्दत से निभानेवाले
नीम, पीपल, बरगद, पपीते
और झरबेरी बेर से
गले मिल रोना चाहता है वह
खो गए को फिर से नहीं
खोना चाहता है वह

तकता रहता राह
कभी नहीं हार माननेवाले
थेथर की झाड़ियों,
पुटुश के गुलाबी-पीले फूलों
छुईमुई की लजीली पत्तियों की
छूते ही जो लाज से होकर दुहरी
उसके सामने ही सिकुड़ जाया करतीं थीं

वह अकेला गाछ नहीं रहना चाहता
निपट अकेला
खो दिया जिन्हें उन सबके साथ
नए रिश्तों, पड़ोसियों के लिए भी
उसके दिल में अपार स्नेह है
अब वह पुनः नवीन साथियों की अगवानी
मेहमानी पूरे खुले दिल से
करने को कितना है बेताब,
समझें हम सब।
अनिता रश्मि

मातृत्व
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हर स्त्री में छिपा है
मातृत्वबोध
किसी के
रूदन औ मुस्कान संग
खुलता-खिलता हुआ

उस दीन बलत्कृत बाला ने
मुस्कुराना सीखा
पहली बार तब
जब माॅर्निंग वाॅक पर
निकलीं महिला की सभ्रांत मुस्की में
अपने लिए अपनापन देखा

प्रथम दिन डरी
फिर दूजे दिन हल्का आदान-प्रदान
चौथे दिन तक घुल चुका था
माॅर्निंग वाॅक में
मीठी मुस्कानों का सिलसिला

अब दोनों के बीच है इक
अबोला बंधन स्नेह का
मुस्कुराहट की डोर थामे
थम जातीं दोनों
थोड़ी देर की
बतकहियों में जाता घुल
इक अबूझ रिश्ता
रेशमी साड़ी की
सरसराहट औ
फटी फ्राॅक के बीच

ना ये बढ़ पातीं आगे
ना वह रूके बिना
निकल पड़ती दनदनाती हुई
अपने काम पर
इनके मातृत्व के बोझ तले
आकंठ डूबी दोनों
अनजान थीं, रहीं नहीं अब

रिश्ते ऐसे भी गढ़े जाते हैं।

अनिता रश्मि


शून्य की परछाईं

सितारों में लीन हो चुके हैं स्याह सन्नाटे
ख़लाओं को हाथों में थामें
दिन फूट पड़ा है लम्हा-लम्हा
रोशनी को अपनी
ढलती चाँदनी की चादर पर बिखराता
अंधेरों की गहरी मौत
शून्य की परछाईं में धड़कती है
अब तक
ज़िंदा है
न जाने कब से —
न जाने कब तक
-मीना चोपड़ा

शब्दकोश में रखे शब्द
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शब्दकोश में रखे शब्द
उदास औजारों की तरह
निष्क्रिय पड़े रहते — ज्यों ;
कारखाने के भीतर झांकती
अंधेरे में रेंगती
एक अचल संभावना ।
कौनसा पुर्जा कसा जाएगा
और यकायक लौट जायेगी
पृथ्वी की गुम मुस्कराहट
कौनसी भाषा जिसमे समा जाएंगे सारे चीत्कार
सुबह अभी कहाँ
और, बंद हैं दिशाएं
किस जीवन सरोकार में
डुबाया जायेगा कोरा जिस्म
किस रचना का आंचल भरेगा
कैसा कौनसा आदिम शब्द
किस बिम्ब को बींध बींध लाएगा
वह कौन सा बिरला शब्द
वह यह नहीं जानते
महज —;
बचाए रखते आत्मा का उजास
बावजूद इसके यह बोध जिन्दा रहता शिद्दत से
कि एक शब्द उठेगा धरती को चीरता हुआ
आकाश की ओर झुका झुका डाली की तरह
गाहे बगाहे उसे याद आता ठौर : बंधी जिससे
अपनी नियति : प्रारब्ध अपना
एक दिन –‘
टूटना है उसे जीवन के हक में सनसनी की तरह
और सन्नाटे को चीरकर
फिर किसी कविता की पंक्ति में
खिलना है धूप की तरह।

विजय सिंह नहाटा

मैंने कहा ज्यूं “मैं”
मलिक मुहम्मद जायसी से प्रेरित

मैंने कहा ज्यूं “मैं” हुआ बोझिल जिया
चुनी ऐसी दीवार, हुए ओझल पिया

खोया सब संसार जो मैंने खोऐ पिया
स्वयं को खो इक बार मिले थे सांवरिया

प्रेम रोग इक घाव कभी न जाऐ सिया
सुलगि सुलगि हुई श्याम तो जाके मिले पिया

चाँद को चाहे चकोर न चाहे सूर जिया
धन यौवन सब छोड़ तुझे ये चाहे पिया

तन दर्पण किया साफ़ तो निर्मल हुआ जिया
मन को लिया जब माँज प्रकट तब हुए पिया

मैंने कहा ज्यूं “मैं” हुआ बोझिल जिया
चुनी ऐसी दीवार, हुए ओझल पिया

-दिव्या माथुर

अभागिन
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बड़ी अभागिन हूं मैं, मुझे न प्यार करो तुम ,
मैं जिसके भी साथ रही हुआ वह पत्थर जैसा,
जिसे देखने लगी , वही श्री हीन हो गया ,
जिसको भी मैंने चाहा, उसके बुरे दिवस आ पहुंचे !
इसीलिए तुमको समझाती हुं मैं ,
अपने कदमों को तुम अन्यत्र धरो,
बड़ी अभागिन हू मै, मुझे न प्यार करो तुम !
सदा विधाता मेरा मेरे विपरीत रहा है ,
मेरी हर अभिलाषा अधूरी रही हमेशा ,
मिले मुझे है हर पथ पर काटे ही काटे,
मेरी जीवन – नौका उलटी बही हमेशा ,
मेरे भंगुर उपवन में आकर ,
नहीं चाहती ,विवश कुसुम के सद्रश्य झरो तुम,
बड़ी आभागिन हूं मैं मुझे न प्यार करो तुम !
मैं वह फूल कि जिसमें नहीं सुगंध तनिक भी ,
मैं ऐसी कविता , जिसमें गतिभंग अनेकों,
मै वह उपन्यास जिसमें पीड़ा ही पीड़ा ,
वह नाटक रसहींन कि जिसमें रंग अनेकों !
इस नीरस अव्यवस्थित जीवन से ,
तुम्हें सचेत कर रही हूं मैं ,
बड़ी अभागिन हूं मैं मुझे न प्यार करो तुम !
जीवन के रस का मुझ में भी आकर्षण है ,
चाहत की भी मुझको इच्छा है ,
देख स्वयं पर अर्पित होता तुमको ,
मेरे मन में भी फुलझड़ी सी झरने लगती ,
बड़ी अभागिन हू मैं पर मुझे न प्यार करो तुम !

डॉ श्रुति मिश्रा,
४३३/ १ मंगलपाण्डेय नगर , नियर c c यूनिवर्सिटी , मेरठ !


एक नया पन्ना
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धूप बिछी है बाहर
बर्फ की पतली परत पर
ताजे नए पन्ने की तरह
ऊदी-ऊदी और चमकीली
पेड़ों की झुकी ये टहनियाँ
कितनी आकृतियाँ संजोए
कुछ रचने को आतुर अब
धवल सपाट इस पन्ने पर
एकबार फिर वही बेचैनी
कुलबुला उठी कोने-कोने
कोमल पंखों की उड़ान ले
उठ रही है एक नई सुबह
खामोशी के गर्भ से
रंग नए भरती
सृजन के भोर भरे
आशिक इस पल में …


निराश मत होना
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शाश्वत है यह मेरी
परिवर्तनशील प्रकृति
उम्मीद मत छोड़ना
लौटता हूँ, लौटूंगा मैं
नए वेश में हो सुसज्जित
ज्यों मानव नए कपड़ों में
कह गए थे कृष्ण भी तो यही
अर्जुन से कल गीता में।

-शैल अग्रवाल

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