कविता आज और अभीः अपदस्थ

कुल्हाड़ी

नीले आकाश तले
वृक्षों के उस झुरमुट में,
दूर कहीं किसी वन में
एक नन्हा सा फूल महकता है।

कोयल की बोली सुन कर
एक भंवरा जगता है,
मदहोशी के आलम में पंख फैलाये हुए
उड़ता है, मचलता है।

उपवन का हर वासी
रंगो भरे उस आँगन में,
उनींदी आँखे भर कर प्यार लुटाता है,
प्रेम गीत गाता है, चहकता है।

मधुबन की इन खुशियों को
शैतानी नज़रों से,
बस दूर ही रहने दो
कुल्हाड़ी लिए हाथों में ये कौन निकलता है

दीपक गोस्वामी
शिक्षा: इंजीनियरिंग में स्नातक, एमबीए
निवास: 1002, लाभ शुकन टावर, जज बंगलो के पास, बोड़क देव , अहमदाबाद 380054

क्यों कर मेरा आँगन महक गया है

अचानक यूंहि तुमसे
हुई भेंट थी
अनायास ही ये अखियां
मिल लाचार हुई थी
क्यों कर तुम तभी से
मुझे याद आ रहे हो

अल्हड यौवन क्यों कर
कुछ खोया खोया सा है
और चंचलता क्योंकर
गहरी चुप्पी साधे है

क्योंकर तभी से यह
एक नया परिवर्तन है

अज्ञात भय से कांप उठे थे हाथ मेरे
जब मैने छेडा वीणा नवीना को था
एक नया स्वर पाया था
जिसे न चाहकर भी पाया था

क्योंकर अब रोम-रोम मेरे
गीत तुम्हारे गुनगुनाने लगे है

अलसाये सपनो ने
ली अब एक नई अंगडाई है
बदल बदलकर रूप नित नये
मन को मेरे गुदगुदाने लगे है

क्यों कर सपने मेरे
बहक बहक गये है

बाग की हर डाली डाली
झूल गई यौवन के भार से
मिलकर इनसे पवन झकोंरा
एक नई फ़ुवांर बांट रहा

क्योंकर मेरा आँगन
महक महक गया है

लांघ गई धूप

यौवन की देहलीज
लांघ गई धूप
डाली से टूट
बिखर गये फ़ूल

सपनॊं की अमराई
नहीं बौरायापन
मस्ताती कोकिला
राह गई भूल
यौवन की देहलीज
लांघ गई धूप

सूनी प्यालों की गहराई
रीते पलकों के पैमाने
सिसक रही मधुबाला
पीकर आँसू खारे

कंगन की खनकार
हो गईं अर्थहीन
पांव बंधी पायल
हो गई मौन
यौवन की देहलीज
लांघ गई धूप

न जाने कितनी है बाकी
जीवन में और सांसे
और न जाने कितनी
भरनी है युंहि आहें

थम गये पाँव
थम गई छांव
उमर की ढलान
लगा गई दांव

यौवन की दहलीज
लांघ गई धूप

गोवर्धन यादव
छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश, भारत

“नहीं रुकूंगा मैं”
——————
अभी भी
घरों में रिरिया रहे हैं बच्चे
खाली बर्तनों की आवाजें
कर रहीं हैं
मनों को कमज़ोर
कैसे कह दूं कि
विचारों को बोने से
भरेगा पेट,
नहीं रह सकता मैं मौन
करूंगा हल्ला
नहीं रुकूंगा
हाथों में रोटी और आंखों में
चमक आने तक,
फिर छोड़ दिया है उसने घर
माता-पिता, सम्बन्धी,
बचपन के दोस्त,
क्यारी और बाड़ी,
भरकर खेतों को आंखों में
छूकर हवाओं को
कुछ अदद रोटियों,
प्याज और सत्तू के साथ
आ गया है सड़क पर परिवार
आंसुओं को बोने,
और उगाने को सपने,
मैं नहीं खा सकता भरपेट,
न ही सो सकता हूं
आते हैं सपनों में
दरारों से भरे चेहरे
और सूनी आंखें
नहीं सो सकूंगा मैं
उनके हाथों में
गेहूं की बालियां और शब्दों में
हवाओं की खनक आने तक,
जारी है तनाव
क्योंंकि,
मन पिघलते नहीं जमते हैं
भरता जा रहा है
धुआं सा रिश्तों में
और चेहरों पर
पढ़ी जा सकती है कश्मकश
आंखे चौकन्नी तो
कभी छिपकर तलाशती हैं
अपने हिस्से की चुप्पियां
नहीं बैठ सकता मैं चुप
बस्तियों में
शब्दों के अंखुए फूटने
और आंगनों में
धूप के उतरने तक,
कैसे कह दूं कि सब ठीक है
जब तक
कुछेक हाथों में ही होंगी
धान और गेहूं की बालियां
कुछेक के आंगनों में ही उगेंगे
बेमौसम लोक गीत
रहेगी सीमित
कुछ अंजुरियों तक ही चांदनी
और चेहरों पर चमक
कैसे कह दूं कि सब ठीक है
जब तक बिखरते दर्द,
आंखों से बहते स्वप्न,
कल के इंतज़ार में
लड़ते रात से,
ओढ़े हुए कोहरों को,
हर कदम टकराते
परिस्थितियों की कीलों से
पीते घूंट दर घूंट
अधूरेपन का दर्द
बचे रहेंगे ऐसे लोग जब तक
नहीं बदल सकता है कुछ भी
नहीं बदलती तस्वीर जब तक
कैसे कह दूं
कि सब ठीक है
जारी रहेगी लड़ाई
नहीं रुक सकता मैं
सब कुछ ठीक न होने तक
मैं नहीं रुक सकता
नहीं रुकूंगा मैं।

“आओ देखें ”
———
आओ देखें
आस पड़ोस में
खेतों में ज़िंदगी सींचते किसानों को,
देखें रेलवे लाइन किनारे
वेतरतीव झुग्गियों को,
उन बच्चों को देखें,
आधा दिन बीत जाने पर भी
तलाश रही हैं जिनकी आंखें
सूखी रोटी के
चंद टुकड़े,
देखें जहां अभी भी
संघर्षरत हैं महिलाएं
अस्तित्व के लिए,
देखें घूरती आंखों को
और देखें उन आंखों में
तैरते खारीपन को,
देखें उस ओर भी
जिधर नहीं
देखता है कोई भी,
या फिर
कर देता है अनदेखा
देख कर भी,
आओ देखें
जहां जमी है ज़िंदगी पर
अभी भी वर्फ़
और तुली हैं तमाम नज़रें
करने को बलात्कार,
नहीं है ठीक कहना कुछ भी
क्योंकि एक जमात नामर्दों की
कर रही है
जुगाली शब्दों की,
और हो रहीं हैं शिकार
बारी-बारी सभी बस्तियां,
शायद यही ठीक
समय होगा
जबकि आने वाली है शाम,
शायद यही ठीक
समय होगा लड़ने का अंधेरे के खिलाफ़,
यही है ठीक समय
विवश करने का
हर घूरती नज़र को,
परन्तु इस सबके लिए
देखना होगा
हर उस ओर जिधर
टांक दी गईं हैं ढेरों आंखें
सिल दी गईं हैं जुवानें और घोल दिया है
शीशा कानों में, मगर
प्रतीक्षारत हैं चेहरे, क्योंकि
नहीं देखा है किसी ने उस ओर
या फिर नहीं जुटा सका है कोई हिम्मत,
आओ देखें
बटोरें दृष्टियों को,
भरें शब्दों को मुंह में, और
चल दें इसी समय
सुबह के जन्म लेने से पहले ही,
तय करनी होगी यात्रा,
देखना होगा भीड़ का रुख और
भांपना होगा अंधेरे की साजिशें
देखना होगा हर उस ओर
जिधर नहीं देखा है किसी ने
न ही चाहता है देखना,
देखें हर आंख में झांककर,
हर चेहरे के पीछे के चेहरे को,
चीखों में बदलते शब्दों में
बेहतर यही होगा
कि देखें आस- पास में,
बरना मर जाएंगे सारे शब्द
देखें आस पड़ोस में
क्योंकि नहीं है कोई विकल्प
सिवाय देखने के,
आओ,
तय करना होगा कुछ न कुछ
इसलिए
आओ देखें,
आस-पास एक नई तैयारी के लिए
रात को आत्महत्या करते हुए, और
जन्म लेते ज़िदंगी की इबारत को,
आओ देखें,
क्योंकि देखना लाज़िमी है,
बेहतर सुबह के लिए तो देखना ही होगा,
आओ देखें।
————————-
@ पंकज मिश्र ‘अटल’
रोशन गंज, कुमरा गली,
शाहजहांपुर – 242001
उत्तर प्रदेश,भारत

अपदस्थ

धरम
धैर्य और शील
जब लालच
झूठ और षड्यंत्र
बन गए वकील

अपदस्थ
आस और हिम्मत
स्नेह विश्वास
जब कामुकता
कृष्ण बनकर
बजाए बाँसुरी
हरती जाए चीर

अपदस्थ
जनता
समाज और संस्कृति
जब पत्थर के देवता
महलों में बिराजते
छप्पन भोग लगाते
और सड़कों पर
भूखे भटकते देखे
कितने मासूम…

शैल अग्रवाल

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