प्रागैतिहासिक मानव द्वारा अग्नि की खोज मानव जाति की सभ्यता में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। अग्नि या प्रकाश ने मनुष्य का जीवन हमेशा के लिए बदल दिया। लगभग सभी सभ्यताओं में प्रकृति को प्रकाश, जल, वायु, धरती और ध्वनि के रूप में सदैव से पूजा जाता रहा है। अँधियारे में दीप या मोमबत्ती जलाने से मनुष्य को अँधियारे के भय को दूर करने और जानवरों से अपनी सुरक्षा करने में सहायता मिली।
हिन्दुओं में घरों या मंदिरों में दीप प्रज्वलित करके भगवान की उपासना चिरकाल से चली आ रही है। सूर्य और अग्नि के प्रतीक के रूप में दीप सदैव मंगलकारी माना गया है। दीप को पावनता प्रदान किये जाने के कारण शिल्पकार को इसे अधिक सुंदर, कार्यशील और सुरुचिपूर्ण बनाने की प्रेरणा मिली।
आरंभ में दीप का मुख्य भाग पत्थर या सीप का बनाया जाता था। उसके बाद पकी मिट्टी (टेराकोटा) और धातु के दीप बनने लगे। भारत के प्रमुख ग्रन्थों में स्वर्ण और बहुमूल्य पत्थरों से बने दीपों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
आरंभ में दीप का मुख्य भाग पात्र के आकार का था जिसके एक तरफ बत्ती के लिए चोंच बनी होती थी। बाद में इसे अधिक गरिमामय आधार प्रदान किया गया। अनेक घरों में विशेषकर दक्षिण भारत में एक साधारण सा ‘कुथुविलक्कू ‘ या एक छोटा पीतल का दीप होता है जिसे प्रतिदिन प्रज्वलित किया जाता है। यह साधारण आम-सा दिया भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न रूप में दिखाई देता है, साधारण मिट्टी का, जो प्रकाश के त्योहार ‘दिवाली’ में प्रत्येक घर में जलाया जाता है से लेकर केरल और तामिलनाडु के मन्दिरों के विशालकाय आनुष्ठानिक दीप और कुछ ऐसे दीपों के रूप में जो केवल संग्रहालयों में ही दिखाई देते हैं।
पारम्परिक भारतीय दीप को मुलतः चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है। आरती दीप, खड़े किये जाने वाले दीप, श्रंखला दीप और मुगल दीप। आरती दीप को सामान्यतः प्रार्थना के समय हाथ में पकड़ा जाता है जिसके कारण इस दीप का हैंडल नाग या मझली के रूप में सुरुचिपूर्ण ढंग से घुमाव लिये हुए होता है। खड़े किये जाने वाले दीप कई प्रकार के होते हैं और आम तौर पर धातु से बनाये जाते हैं और मन्दिरों में प्रयुक्त होते हैं। एक वृक्ष दीप प्रकार भी होती है जिसमें कई शाखाएँ होती हैं। इस श्रेणी में दीपलक्ष्मी संभवतः सबसे प्रचलित है। यह दीप नारी आकृति के समान होता है और इसका उद्गम भारत में रहने वाले रोमन लोगों के बनाये दीपों से हुआ माना जाता है। तामिलनाडु के धातु शिल्पकारों ने समय एवं कलानुरूप इसे नैन-नक्श, आकार, परिधान व आबूषणों से सज्जित कर विभिन्न रूप प्रदान किये।
लटकने वाले दीपों का प्रयोग भी मुख्यतः मंदिरों में होता है। इसमें अनेक पंक्तियां होती हैं। ये मंदिर के सभा-कक्ष या गर्भ-गृह की छत से लटके होते हैं और इनके प्रकाश से प्रतिमा की आभा और सौंदर्य में चार चांद लग जाते हैं। इस दीप का एक प्रमुख प्रकार ‘थुंगा विलक्कू’ या अखंड दीप होता है। इस दीप का उल्लेख चोल शिलालेखों में भी होता है। इसे निद्राहीन दीप भी कहते हैं क्योंकि यह सारी रात प्रज्वलित रहता है और वह भी इसमें बिना तेल डाले या बत्ती बदले हुए। इस दीप की रचना भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसका तैल एक गोल पात्र में रखा होता है जिसमें से बत्ती एक बारी में एक बूंद ही सोखती है। इस दीप में तैल निकासी छिद्र, बत्ती की मोटाई और वायु प्रवेशिका के आकार में पूर्ण सामन्जस्य होना आवश्यक है।
मुगल दीप दो प्रकार के होते हैं, लटकने वाले गोलाकार दीप और मंजूषा के आकार के दीप। मुगल शाषकों के हरमों में ग्रीष्माकाल के दौरान सुगंधित जल से भरे छोटे कुंड होते थे। उनके जल की सतह छोटे-छोटे दीपों से सज्जित होती थी और उन दीपों पर रेशमी आवरण होता था। युवतियां बाजुबंदों से क्रीडा करती थी जिन्हे किसी गेंद के समान इधर-उधर फेंका जाता था। दीपों का आकार कुछ इस तरह का होता था कि तैल कभी छलकता नहीं था।
इन दीपों को गढ़ने के प्रमुख केन्द्र भारत के केरल और तामिल नाडु राज्य में स्थित हैं।