मोहनीश, मामू और मशीनेंः
मोहनीश ने मामू से कहां मामू अब अपने बैंको में सी.डी.एस. मशीन लग गई है। अब बैंको को अमीर बनाने के लिये धक्के खाने की जरूरत नहीं है। मामू बोले “बेटा मेरी धक्के खाने की आदत पड़ गई है। अगर धक्के न खाऊं तो रात को हाथ पैर दुखते रहते है। मैं तो लाइन में इसी लिये खड़ा होता हँू कि जोर से धक्के खा लँू। मैं इसी लिये ए.टी.एम. से पैसे भी नहीं निकालता हँू। ये क्या कि आप ए.सी. केबिन में घुसे और दो मिनिट में हंसते हुये बाहर आ गये। फिर चोरो की तरह यहां वहां देखते रहो कि किसी ने आपका पिन नम्बर तो चोरी नहीं कर लिया।
मोहनीश जोर से हंसा । जब पर्याप्त हंस लिया तो बोला “आपका पिन नम्बर” कौन चोरी करेगा। मात्र पांच हजार तो आपके एकाउंट में रहते है। कुछ लोग जो भिखारियों को भीख न देकर दया करके पांच दस रूपये आपके एकाउंट में डाल देते है। मामू का चेहरा लाल हो गया। वे रोने के किनारे खड़े थे कि मोहनीश बोला “मेरा इरादा आपका दिल दुखाने का नहीं है। मेरा कहना है कि जब नई “टेक्नालाजी” आ गई है तो क्यों न उसका उपयोग कर लिया जाये। अब इस “कम्प्यूटर” युग में आप अभी भी अशोक पेन खरीदते फिरते हो।”
मामू ने सोचा कि नई टेक्नालाजी को अनुग्रहित कर ही दिया जावे। एक दिन उन्होने ए.टी.एम. से दो हजार रूपये निकाले और सी.डी.एम में स्वयं के खाते में डाल दिये। एक हजार रूपये तो तत्काल उनके खाते में जमा हो गये और एक हजार के लिये मशीन चुप रही। मामू के हाथ पैर फूल गये। चेहरे पर हवाइयां ( ? क्या होती है) उड़ने लगी। वे उस मशीन रूपी घोड़े के घुड़ सवार के पास गये। क्लर्क से उन्होने कहा “मेरे एक हजार मशीन ने जमा कर दिये और एक हजार खा गई।
क्लर्क कान में स्पीकर लगाकर म्यूजिक सुन रहा था। यानि नई टेक्नालाजी का फायदा उठा रहा था। हिलते हिलते उसने पूछा “यस” ? मामू ने अटक अटक कर उनकी समस्या दुहराई। वह घुडसवार बगैर रूके बोला “आपकी वह छोटी राशि प्रोसेसिंग में है। मामू लगभग रोने पर आ गये। बगैर रोये आज आम आदमी का जिन्दा रहना मुश्किल है। क्लर्क ने सहानुभूति बतलाते हुये कहा “यह ऐसा समझ लीजिए कि एक हजार जमा करने के लिये आपके एक हजार रूपये की रिश्वत दे दी। मामू करूण रस से वीर रस पर चढ़ गये बोले वह मेरी खून पसीने की कमाई है। मैनें दो दिन पहले ही गेहूँ लाने के लिये खून बेचा था और मुझे पसीना आ गया था। मैं तुम्हारी शिकायत करूंगा। “करो, मैं शिकायतें सुनने के लिये ही बैठा हूँ। ” वह क्लर्क बोला और जिससे कि उसे शिकयत न सुनाई दे उसने फिर म्यूजिक सिस्टम कान में लगा लिया।
मामू बैंक के मेनेजर के पास गये। आजकल अधिकारी से ”क्या मैं अंदर आ सकता हूँ” नहीं पूछा जाता। वे सीधे ही घुस गये और बोले “सुनिये”। मेनेजर बोला “सुनाइये हम सब न सुनने के लिये ही बैठे है।” मामू बोले “आपकी मशीन मेरा एक हजार का नोट खा गई” मेनेजर ने हंस कर जवाब दिया आजकल हमने सीधे सीधे रिश्वत लेना बंद कर दिया है । फिर गंभीर होकर बोला उसके भी बाल बच्चे है रख-रखाव लगता है।”
मामू बोले “मैं सूचना के अधिकार का उपयोग करूंगा”। मेनेजर ने नियमावली निकाली फिर पेज नम्बर चार सौ बीस को देखा और पढ़ा “वह एक हजार का नोट नकली था।” मामू चकरा गये और बोले वह नोट तो आपके ही बैंक का था। मेनेजर ने पूछा “कोई सबूत ? जबकि हमारे पास सबूत है कि वह नोट नकली था।” यह कह कर उसने जेब से वह नोट निकाल कर दिखाया मामू चकरा गये। उन्हें दुखी देखकर मेनेजर बोला “दुखी मत हो। मैं तुमसे अधिक दुखी हूँ। कबिरा दुखिया सब संसार। हमारे गुरू जी के शिष्य बन जाओ तुम्हें शांति मिलेगी। वे शांति बेचते है। ज्यादा दुखी हो तो वह सी.आर. मशीन रखी है। एक दस के नोट के साथ उसमें शिकायत डाल दो।”
“गजब “मामू बोले” अब मशीने भी रिश्वत खाने लगी है वे कम्पलेन रिकार्डिंग मशीन के पास गये और बगैर नोट संलग्न किये उनकी शिकायत उस मशीन में डालने लगे। मशीन ने उनकी उंगली पकड़ ली। और उसमें से आवाज आई“ आपने दस का नोट मुझमें नहीं डाला । आपने दस का नोट मुझमें नहीं डाला” मामू को पसीना आ गया। मशीन के पास खड़े चपरासी ने कहा “अब पांव नम्बर का बटन दबा दो।” उन्होने पांच नम्बर का बटन दबाया तो मशीन में से आवाज आई “उंगली छुड़ाने के लिये पचास रूपये का नोट डालो। उंगली छुड़ाने के लिये पचास रूपये का नोट डालो।”
मामू ने जलती आंखो से मोहनीश को देखा। मोहनीश ने डरते हुये जेब से पचास का नोट निकाला और चुपचाप सी.आर.एम (शिकायत रिकार्ड करो मशीन या कम्पलेट रिकार्डिंग मशीन) में डाल दिया। मामू का हाथ तो निकल गया पर मोहनीश से उनकी बोल चाल बंद हो गई।
विज्ञापनों में हिंसा
विज्ञापन उत्पादको द्वारा ग्राहको तक पहुँचाया जाने वाला वह संदेश हैं जिसके सहारे उत्पाद अधिक से अधिक बिक सके। विज्ञापन ग्राहको को वह उत्पाद भी बेच सकता हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता नहीं होती हैं। विज्ञापन ग्राहको को उस वस्तु की कमी अनुभव कराता हैं जिसकी वास्तव में उन्हें कमी हैं ही नहीं। विज्ञापन वस्तु के उन गुणो का वर्णन भी कर जाते हैं जो प्रतियोगी वस्तु में नहीं होते है और उसमें भी नहीं होते हैं।
उत्पाद ग्राहको का पैसा उनके उत्पाद के बदले खींचना चाहते हैं। पहले वस्तु विनिमय का जमाना था जिसे अंग्रेजी में वाटिंग कहते हैं। जैसे गेहँू के बदले जूते ले लेना। अब विनिमय का एक सामान्य माध्यम आ गया हैं जिसे मुद्रा कहते हैं। आज भी कहीं कहीं वस्तु विनिमय होता हैं जैसे “माल” आपकी कागज की रद्दी या पुराने इलेक्ट्राँनिक सामान के बदले उनका सामान बेचने लगे हैं। विज्ञापन के संदेश निम्न प्रकार के हो सकते हैं
(1) व्यक्ति से व्यक्ति तक
(2) लिखित
(3) श्रव्य
(4) द्रव्य और श्रव्य
श्रव्य और दृश्य माध्यम इलेक्ट्राँनिक माध्यम हैं। व्यक्ति से व्यक्ति तक संदेश पहुँचाने का तरीका हैं। कुछ बैंक, फाइनेन्स कंपनी, बीमा कंपनी इत्यादि यह तरीका अपनाती हैं। लिखित विज्ञापन सिनेमा, समाचार पत्रो, पम्पलेट, मोबाईल, कम्प्यूटर, पोस्टर इत्यादि द्वारा होता हैं। इलेक्ट्राँनिक मीडि़या विज्ञापन से टी.व्ही. वीडियो, कम्प्यूटर, लेपटाप एवं अन्य अनेक माध्यमो से किये जाते हैं। हिंसा केबल विडियो गेन्स मोबाइल या सिनेमा में ही नहीं दिखाई जाती वरन विज्ञापनों में भी हिंसा की अन्र्तधारा होती हैं।
एक मोबाइल के विज्ञापन में पहले एक छोटा बच्चा मम्मी मम्मी चीखता हुआ आता हैं फिर एक बड़ा बच्चा पापा पापा चीखता हुआ आता हैं यह जो चीख है यह ध्वनि द्वारा ग्राहको पर आक्रमण हैं।
एक सीमेन्ट के विज्ञापन में मुख्य राज मिस्त्री चीख कर कहता हैं, “हम क्या तुम्हें बेवकूफ दिखते हैं।” यह जो चीख हैं और जनता को वह सीमेन्ट खरीदने की बलात सलाह हैं यह क्या ग्राहको पर आक्रमण सा नहीं लगता हैं।
एक गर्म कपड़ो के विज्ञापन में कपड़ा ही ग्राहक को चांटे मारता हैं इसका क्या मतलब हैं?
ऐसा ही एक विज्ञापन मोटर साइकिल के विज्ञापन में दिखता हैं। क्रेता को मर्द दिखाने के चक्कर में हिंसा की एक अन्र्तधारा डाल दी जाती हैं। ये जो एक सीरियल में कोई विज्ञापन बार बार बगैर बदले दिखाया जाता हैं इसमें उत्पादक तो हालांकि यह सोचता हैं कि वह उपभोक्ता को मानसिक गुलाम बना रहा हैं पर उल्टे कोफ्त पैदा करता हैं। यह विज्ञापन का बार बार दिखाना वितृष्णा पैदा करता हैं। ग्राहक के मन में हिंसा पैदा करता है एवं उत्पाद के प्रति घृणा।
यूँ तो बनियानों के विज्ञापना में भी हिंसा दिखाई जाती है। यह अवांछनीय हैं। विज्ञापन का कार्य तो उपभोक्ता को उत्पाद तक ले जाना होता हैं। बाद का काम तो उत्पाद की गुणवत्ता करती हैं। और व्यक्ति से व्यक्ति के संदेश को उत्पन्न करती हैं।
कभी शेविंग क्रीम कभी चप्पल जूते कभी कपड़ो, कभी तेल, कभी अण्डो (हिन्दी नहीं आती क्या ? की डांट सुनकर मुर्गी एक और अंडा दे देती हैं) यानि सभी प्रकार के विज्ञापनों में हिंसा बलात देखी जाने लगी है जैसे एक पुरूष की शेविंग क्रीम में हीरोईन की टांगे दिखाई गई थी हालांकि उन विज्ञापनों को शालीन और मनोरंजक भी बनाया जा सकता था। इन हिंसक विज्ञापनों में ग्राहक की मूल हिंसक भावना को भड़का कर खुद के उत्पाद बेच कर ग्राहक के जेब खाली करवाना होता हैं।
ये विज्ञापन बगैर सीरियल के नहीं चल सकते। इसी तरह सीरियल भी विज्ञापनों की बैशाखियों पर चल रहे हैं। सीरियल्स में भी घरेलू हिंसा दिखाई जा रही है और विज्ञापनों में भी। आदमी उन्हें देखकर चिड़चिड़ा होता जा रहा हैं।
आजकल विज्ञापन इस तरह प्रस्तुत किये जा रहे है जैसे वे कोई समाचार हो और समाचार तो किसी न किसी के विज्ञापन हैं ही दोनो के बीच की सीमा रेखा धंुधली होती जा रही हैं। एक गोंद के विज्ञापन में हीरो इतनी जोर से सांस खींचता हैं कि उसकी कमीज फट जाती हैं मर्द का सीना दिखाना तो हर विज्ञापन की आवश्यकता सी बनती जा रही हैं। यह लिंग भेद हैं। जब मर्द सीना दिखा सकते हैं तो औरते क्यों नहीं। अगर औरतों का सीना विज्ञापनों फिल्म में ठूंसा जाने लगे तो अश्लीलता मानी जायेगी। मर्दो का सीना दिखाना भी बंद होना चाहिये।
एक बनियान के विज्ञापन में हीरो किसी की पिटाई लगा कर तीन चार कुलांटे खाता हैं फिर प्रशंसा पाने पर किसी लड़की से कहता हैं तुम्हारे बटन खुला हैं। इस विज्ञापन में सैक्स और हिंसा दोनो ही ठंूस दिये गये हैं। यह माना कि सेक्स और हिंसा मानव जाति की आदिम भवनायें हैं पर क्या अपना उत्पाद बेचने के लिये उन्हें भड़काना जरूरी है ?
हिंसक विज्ञापन ऐसे ही हैं जैसे कोई गुण्डा चाकू दिखा कर अकेले व्यक्ति को लूट ले। इन विज्ञापनों से ऋणात्मक प्रभाव उत्पाद की बिक्री पर पड़ता हैं। ऐसी कोई सी भी वस्तु नहीं हैं जिसका विक्रय ऐसे विज्ञापनों से बढ़ा हो।
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डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव
‘साहित्यकार’
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