9 अक्तूबर सन् 2007 ई. के ‘इक्नॉमिक्स टाइम्स’ में एक निबंध छपा है, “sethusamudram project: It’s all a matter of faith… isn’t it ?”. यह निबंध सुदर्शन रॉड्रिग्स, जैकब जॉन, रोहन आर्थर, कार्तिक शंकर और आर्ति श्रीधर की एक लंबी रपट ” Review of environmental and economic challenges of the sethusamudram ship canal project.” पर आधृत है। स्पष्ट है कि यह निबंध रामसेतु के विषय में न होकर सेतुसमुद्रम परियोजना के विषय में है। इस रपट के लेखकों की मान्यता है कि यह एक पुरानी योजना है, जो नौवीं बार पुनर्जीवित की गई है। इस योजना के विषय में पर्यावरणविदों और अर्थशास्त्रियों ने अपनी चिंता व्यक्त की है। उनका कहना है कि परियोजना में व्यय का जो अनुमान दिया गया है, वस्तुत: इसमें उससे कहीं अधिक व्यय होने वाला है। समुद्र में से गाद निकालने या तल-मार्जन के व्यय को जानबूझ कर बहुत कम आंका गया है, ताकि योजना का समर्थन किया जा सके। यह चिंता उन वैज्ञानिक शोधों पर आधृत है, जो यह उद्घाटित करते हैं कि पाल्क खाड़ी में एक वर्ष में तलछट की मात्रा एक सेंटीमीटर बढ़ जाती है। कुछ और अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि तलछट की मात्रा इससे पच्चीस से पचहत्तर गुणा अधिक हो सकती है। किंतु सन् 1989 ई. के पश्चात् के पर्यावरणविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, सागरविज्ञान, समाजशास्त्र तथा सुरक्षा-क्षेत्र के सारे अध्ययनों, शोधों और रपटों को भारत सरकार के द्वारा कूड़े की टोकरी में डाल दिया गया है। वायु के वेग, समुद्री झंझावातों तथा सूनामी जैसे संकटों के भी आधुनिक आंकड़ों की अनदेखी की गई है। इस निबंध के लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सेतुसमुद्रम परियोजना पर जो व्यय होगा और उस मार्ग को जहाज़रानी के उपयुक्त बनाए रखने के लिए जो स्थायी व्यय होगा, वह भारत सरकार के धन को समुद्र में बहाने के समान है। उसकी आय, उसके व्यय से बहुत कम होगी। उससे विदेशी धन आएगा नहीं, विदेशी ही हमारा धन लेकर जाएंगे। सागर का वह भाग हमारा न होकर अंतर्राष्ट्रीय होगा, अत: उसमें विदेशों के सैनिक और व्यावसायिक समुद्री बेड़े अपनी मनमानी करने को स्वतंत्र होंगे।
उनकी मान्यता है कि इस परियोजना से हम प्राकृतिक विभीषिकाओं तथा विदेशी नौसेनाओं के उत्पात् को आमंत्रित करेंगे। केरल और तमिलनाड के बड़े क्षेत्रों के लिए बहुत संकट होगा। उस क्षेत्र के मछुवारों के प्राण और व्यवसाय नष्ट होंगे। विद्वान् लेखकों को इस परियोजना को सरकार द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में न तो न्याय दिखाई पड़ता है, न कोई तर्क। अत: उन्होंने शीर्षक ही दिया है कि सरकार का इस परियोजना के संबंध में निर्णय केवल आस्था का मामला है, तर्क और व्यावहारिकता का नहीं। यहां ‘आस्था’ शब्द पर्याप्त व्यंग्यात्मक है। उन्होंने खेदपूर्वक इस तथ्य को स्वीकार किया है कि इस देश में जो योजना एक बार स्वीकार कर ली जाती है, वह सदा के लिए स्वीकृत ही रहती है, उसपर पनर्विचार होता ही नहीं।
विद्वान् लेखकों ने इसमें थोरियम के भंडारों के नष्ट होने जैसे पक्षों की चर्चा नहीं की है। फिर भी देश के हित में, राष्ट्रीय कल्याण के पक्ष में, इस योजना को अनर्गल माना है और स्पष्ट कहा है कि यह सरकार की हठधर्मी है कि वह इस परियोजना का त्याग नहीं किया जा रहा।
ध्यान देने की बात है कि यहां न धर्म की चर्चा है, न धार्मिक आस्था की, न राम के नाम की दुहाई है, न सांस्कृतिक धरोहर ही। यहां तक कि इस परियोजना का कोई अन्य वैकल्पिक मार्ग भी प्रस्तवित नहीं किया गया है। यहां शुद्ध रूप से सांसारिक तर्कों पर आर्थिक विकास और देश की अखंडता तथा उसके भूखंडों की प्राकृतिक विपदाओं से रक्षा की बात कही गई है। और इस शोधपूर्ण रपट को प्रस्तुत करने वाले विद्वान् हिंदू भी नहीं हैं। फिर भी वे लोग स्पष्ट रूप से भारत सरकार के विकट देशद्रोह की गाथा गा रहे हैं।
किंतु इस समस्या का एक एक अन्य पक्ष भी है; और वह इसका धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पक्ष है। अत: मद्रास उच्च न्यायालय का सरकार से पूछा गया यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है कि देश की प्रगति के नाम पर क्या सरकार ताजमहल को तोड़ देगी ? इस संदर्भ में यह विचार किया जा सकता है कि मथुरा के तेलशोधक कारखाने और मायावती के ताज कॉरिडर के संबंध में सारा शोर-शराबा अनावश्यक था, क्योंकि वह सब भी तो देश की प्रगति के नाम पर भी हो रहा था। दिल्ली में मेट्रो के लिए एक भूमिगत मार्ग इसलिए स्वीकृत नहीं हुआ, क्योंकि उससे हुमायूं के मकबरे के दरक जाने का काल्पनिक भय था।
और यहां तो संबंध राम का है। राम, जो इस देश की सांस्कृतिक और धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं; भारत के आराध्य हैं। किंतु राम का एक निर्गुन रूप भी है। वे परब्रह्म परमेश्वर के रूप में स्वीकृत हैं। वे निर्गुण निराकार हैं। पूर्ण ब्रह्म हैं। निर्गुण निराकार ब्रह्म के रूप में मध्य काल के सारे कवियों और उनको मानने वाले संप्रदायों के वे आराध्य हैं। किंतु उनके लिए ऐतिहासिक प्रामाणिकता का कोई संकट नहीं है। निर्गुण ब्रह्म शरीर धारण कर इस पृथ्वी पर आया ही नहीं। उसने जन्म नहीं लिया, उसने विवाह नहीं किया, वह वन नहीं गया, उसकी पत्नी का हरण नहीं हुआ, उसने लंका पर आक्रमण करने के लिए सेतु-निर्माण नहीं किया। इसलिए सारा विषय उस सगुण साकार का है, जो शरीर धारण कर इस पृथ्वी पर आया। ब्रह्म ने अपनी इच्छा से शरीर धारण किया और श्रीराम के रूप में जन्म लिया। जन्म लिया तो जन्मस्थान भी होगा; और है। उन्होंने विवाह किया। वे वन गए। राक्षसों से उनका विरोध था और उसके परिणाम-स्वरूप सीता का हरण हुआ और राम को लंका तक जाने के लिए सेतु निर्माण करना पड़ा। इस सेतु-निर्माण का विस्तृत वर्णन वाल्मीकीय रामायण से आरंभ होता है और प्राय: सारी रामकथाओं में मिलता है। यहां तक कि भारत के उत्तर से दक्षिण तक का वर्णन करना हो तो उसे ‘आसेतु हिमालय’ कह कर प्रस्तुत कर दिया जाता है। यहां हिंद महासागर से भी अधिक महत्व राम-सेतु का है।
सेतु-बंधन का वर्णन प्राय: सारी रामकथाओं में समान ही है। गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में राम अपनी सेना के साथ सागर-तट पर आते हैं; और पार उतर जाने के लिए समुद्र से मार्ग की याचना करते हैं। समुद्र अपनी जड़ता दिखाता है और राम की प्रार्थना का उसपर कोई प्रभाव नहीं होता। राम का सात्विक क्रोध जाग उठता है और वे न केवल लक्ष्मण को धनुष-बाण लाने के लिए कहते हैं, वरन् यह घोषणा भी कर देते हैं कि वे अग्निबाण से समुद्र का जल सुखा देंगे।
उन्होंने अग्नि-बाण का संधान किया। बाण चला नहीं है; किंतु समुद्र के ह्दय में अग्नि धधक उठी। जलचर जलने लगे। किंतु बाण तो अभी चला भी नहीं है। लगता है कि उसके परिणाम की आशंका से ही समुद्र में बसे जीवों में हलचल मच गई है। उनका कष्ट देख कर स्वयं समुद्र, हाथ में मोतियों से भरा थाल लेकर, ब्राह्मण के वेश में प्रकट हो गया; और विनयपूर्वक बोला कि आपकी शक्ति से मैं सूख जाऊंगा। किंतु न उससे मेरी मर्यादा रह पाएगी, न आपकी।
यहां राम स्वयं नारायण ही हैं; अत: प्रकृति के स्वामी हैं। उनकी इच्छा मात्र से प्रकृति में वह घटना घटित हो जाएगी, जो वे चाहते हैं। किंतु प्रभु ने पांच जड़ तत्व उत्पन्न किए हैं। उनकी विशेषता जड़ बने रहने में ही है। जड़ तत्व, चैतन्य के समान व्यवहार करे, यह तो प्रभु की इच्छा का ही उल्लंघन होगा। अत: समुद्र का न सूखना ही प्रकृति का विधान है। समुद्र आश्वासन देता है कि उसके सूखे बिना भी राम की सेना सागर पार कर सकती है। और उसके लिए उपाय यह है कि राम समुद्र के ऊपर एक सेतु बंधवाएं। वह यहां तक कह देता है कि आपकी सेना में नल और नील नामक दो भाई हैं, जो सेतु-निर्माण में समर्थ हैं। आप उन्हीं को आदेश करें। प्राय: रामकथाओं में सेतु-बंधन का कार्य केवल नल करता है किंतु ‘मानस’ में यह कार्य नल और नील मिलकर करते हैं।
नल और नील को बुला कर जांबवान उन्हें समझा देते हैं; और वानरों से निवेदन करते हैं :
धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु विटप गिरिन्ह के जूथा।।
यहां दो पदार्थों की मांग की गई है — विटप तथा गिरि; अर्थात् लकड़ी और पत्थर। वह सेतु लकड़ी और पत्थर से बांधा गया। वानर ऊंचे-ऊंचे पर्वतों और वृक्षों को लीला में ही उखड़ लेते हैं; और लाकर नल और नील को दे देते हैं। नल और नील उन वृक्षों और शिलाओं से सेतु की रचना कर रहे हैं। वानर विशाल शैल लाकर देते हैं और नल और नील कंदुक के समान उसे पकड़ लेते हैं।
अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाई।
वानर आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाई।।
सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं।।
देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपा बोले बचना।।
अध्यात्म रामायण में भी स्थिति लगभग ऐसी ही है। भगवान् रामने समुद्र की ओर देख कर क्रोध से आंखें लाल कर कहा, ”लक्ष्मण देखो, यह समुद्र कितना दुष्ट है। मैं इसके तीर पर आया हूं; किंतु हे अनघ ! इस दुरात्मा ने दर्शन कर के भी, मेरा अभिनंदन नहीं किया। यह समझता है, ‘यह एक मनुष्य ही तो है। वानरों के साथ मिलकर भी मेरा यह क्या कर सकता है। सो देखो, है महाबाहु ! आज मैं इसको सुखाए डालता हूं। फिर वानर गण निश्चिंत होकर पैदल ही इसके पार चले जाएंगे।” ऐसा कह कर भगवान् राम ने क्रोध से नेत्र लाल कर, अपना धनुष चढ़ाया और तूणीर से एक कालाग्नि के समान तेजोमय बाण निकाल कर उसे धनुष पर रखते हुए कहा, ”समस्त प्राणी राम के बाण का पराक्रम देखें; मैं इसी समय नदीपति समुद्र को भस्म किए डालता हूं।”
भगवान् राम के ऐसा कहते ही वन और पर्वतादि सहित संपूर्ण पृथ्वी हिलने लगी और आकाश तथा दिशाओं में अंधकार छा गया। समुद्र और उसके जलचरों का क्षोभ प्रकट हो गया। नाना आभूषण धारण किए हुए दिव्य रूपधारी समुद्र प्रकट हो गया। उसने संपूर्ण विनय के साथ कहा कि भगवन् आपने सृष्टि की रचना करते हुए मुझे जड़ ही बनाया था। अब मैं आपके द्वारा प्रदान किए गए स्वभाव से भिन्न कैसे हो सकता हूं।
अपनी जड़ता इत्यादि का वर्णन कर अंतत: समुद्र उपाय सुझाता है कि राम की सेना में नल नामक एक वानर है, जो विश्वकर्मा का पुत्र है। वह समुद्र पर सेतु-बंधन का कार्य कर सकता है। आप उसे आदेश दें।
अब समस्या राम के अमोघ बाण ही है। वह बाण निष्क्रिय होकर तूणीर में वापस नहीं जा सकता। समुद्र उसे ‘द्रुमकुल्य’ प्रदेश पर छोड़ने का परामर्श देता है।
राम नल को आज्ञा देते हैं; और नल अन्य वानरों की सहायता से पर्वतों और वृक्षों का उपयोग कर सौ योजन लंबा एक सेतु बना देता है।
कृतिवास रामायण में भी प्राय: इसी वर्णन के अनुसार राम निराहार रह कर सागर से अनुनय-विनय करते हैं; और सिंधु प्रकट नहीं होता। तब राम क्रोधित हो अग्निबाण का संधान करते हैं। अंतर इतना ही है कि यहां राम बाण छोड़ देते हैं, जो पाताल तक जा पहुंचता है और फिर पुन: राम के तूणीर में प्रवेश भी करता है। यह वर्णन वाल्मीकीय रामायण के अनुसार है।
भयभीत सागर राम के सम्मुख प्रकट होकर क्षमा मांगता है; और सेतु-बंधन का मार्ग सुझाते हुए नल का परिचय देता है। राम, नल को बुला कर पूछते हैं तो वह कहता है कि मुझ में यह क्षमता तो है; किंतु मैं आपके सम्मुख स्वयं ही अपने गुण का बखान कैसे करता।
राम उसे सेतु-निर्माण का आदेश देते हैं। नल सागरतट के वन की सफाई करता है और वहां वानरों द्वारा लाए गए वृक्षों को बिछा देता है। उसके ऊपर शिलाओं को जमा देता है। वानर वृक्ष और शिलाएं ला कर दे रहे हैं; नल मुद्गर की चोट से उन्हें अपने अनुकूल कर लेता है। वह निरंतर कार्य करता जा रहा है। इस प्रकार वह दस योजन का सेतु निर्मित कर देता है।
हनुमान बहुत भारी शिला लाकर देते हैं और नल उसे अपने बाएं हाथ में लोप कर अपना कार्य करता जाता है। हनुमान् को, नील द्वारा शिला को बाएं हाथ से संभाल लेना अपने लिए अपमानजनक लगता है। वे उत्तर दिशा में जाकर गंधमादन पर्वत के खंड कर दोनों हाथों में लेकर अंतरिक्ष की ओर से आ रहे हैं। नील उनका क्रोध जानकर डर जाता है। वह अपनी व्यथा राम को सुनाता है। राम मार्ग में हनुमान को रोक कर समझाते हैं कि शिल्पी अपने बाएं हाथ में सामग्री लेकर दाएं हाथ से निर्माण कार्य करता है। इस प्रकार नील द्वारा तुम्हारे बल का कोई अपमान नहीं हुआ है। हनुमान समझ जाते हैं और नील से मिलाप कर लेते हैं।
यह कवि का अपना कौशल भर है। सेतु-निर्माण के संदर्भ में इस वैमनस्य का कोई महत्व नहीं है। इसी संदर्भ में कृतिवास ने गलहरी द्वारा शिलाओं के मध्य की संधियों को भरने का भी वर्णन किया है। यह भी कवि के काव्य-कौशल का चमत्कार ही है; या फिर उनकी भक्ति-भावना है।
कंबन का वर्णन भी कुछ ऐसा ही है। राम समुद्र से प्रार्थना करते हैं। समुद्र पर कोई प्रभाव नहीं होता तो राम अपनी अवमानना सहन नहीं कर पाते और अत्यंत भयंकर शरों का संधान कर समुद्र को सुखा देने की चेतावनी करते हैं। उनके बाणों से समुद्र जलने लगता है। कंबन उस समय के समुद्र को एक जलते हुए अग्निकुंड के समान बताते हैं। परिणामत: जल में रहने वाले सारे जीव-जंतु जलने लगते हैं। ”अग्नि यों भड़की कि उससे पर्वत भी भस्म हो गए, अनेक सहस्रकोटि तीक्ष्ण बाण ऐसे निकले कि उनसे अति गंभीर समुद्र भी सूख गया। उसका कीचड़ भी जल गया और पाताल में स्थित आदिशेष के सिर भी झुलस गए।”
कंब ने समुद्र तथा उसके जीव-जंतुओं के जलने का विस्तृत काव्यात्मक वर्णन किया है। किंतु इतना कुछ हो जाने के पश्चात् भी समुद्र प्रकट नहीं होता तो राम ब्रह्मास्त्र के प्रयोग की तैयारी करते हैं। तब सभी देवता भय से कांप उठते हैं। ”सभी पर्वत हाहाकार कर उठे। वरुण का मुख सूख गया। सभी प्राणी दुहाई देने लगे। सभी नदियां ठहर गईं।” ज्ञानियों ने वरुण को दोषी माना। वरुण का सिर और शरीर भी झुलस गया था। तब वह प्रकट हुआ और अपनी ओर से उसने बहुत सारा स्पष्टीकरण दिया। क्षमा मांगी। और बताया कि आपके ही नियमों के अंतर्गत मेरा निर्माण हुआ है। मेरी गहराई मेरे लिए भी अपरिमेय है। अंतत: उसने भी सेतु-बंध का उपाय सुझाया और ब्रह्मास्त्र को ‘मरुकांतार’ प्रदेश पर छोड़ देने का परामर्श दिया।
कंबन ने सेतु-निर्माण का विस्तृत वर्णन किया है। उसमें अद्भुत काव्य-तत्व है। उपमाओं और रूपकों के ढेर लगे हैं। किस प्रकार वानर बड़ी-बड़ी शिलाएं लाते हैं और उनको एक के ऊपर एक पटकते हैं। उस पटकने और उसके प्रभाव के संबंध में कंबन ने अलंकारों का एक सुंदर संसार प्रस्तुत किया है।
वाल्मीकि ने इस सारी घटना का वर्णन कुछ अधिक विस्तार और युक्तियुक्त ढंग से किया है। मुझे लगता है कि उन्होंने अनेक नए प्रकार के संकेत दिए हैं, जो मात्र काव्यात्मक न होकर तथ्यात्मक हैं, ऐतिहासिक हैं। आदि कवि तो वाल्मीकि ही हैं। उनका अध्ययन और विश्लेश्षण आवश्यक है। इतिहास की सूचनाएं तो वे ही देंगे। यहां भी राम जब अपनी सेना के साथ सागर-तट पर पहुंचते हैं तो सागर प्रकट नहीं होता। वे तीन दिनों तक अनुनय-विनय करते हैं; किंतु सागर के स्वभाव की जड़ता के कारण कोई विशेष लाभ नहीं होता। राम का शौर्य जागता है और वे धनुष पकड़ लेते हैं।
वाल्मीकि आदि रामायणकार हैं। जो कुछ इसमें है और बाद के रामकथाकारों ने किसी कारण से उसका चित्रण नहीं किया, मान लेना चाहिए कि उन्होंने उसे छोड़ दिया। क्यों छोड़ दिया ? अनावश्यक मान कर ? अथवा कालांतर के कारण उसे न समझने के कारण ? अथवा अपनी मौलिकता के मोह में ?
मानस में राम ने बाण चढ़ाया अवश्य; किंतु प्रहार नहीं किया, बाण छोड़ा नहीं। किंतु वाल्मीकि के राम अपने तीखे बाणों से समुद्र पर प्रहार करते हैं। कंबन और कृतिवास ने भी वाल्मीकि का ही अनुसरण किया है।
विचारणीय है कि यदि ‘बाण’ का अर्थ वही माना जाए, जो हम आज समझते हैं, तो असंख्य बाण मारने पर भी समुद्र के जल पर उसका क्या पभाव हो सकता है ? वे सारे बाण समुद्र में जाकर डूब जाएंगे; और समयानुक्रम में सड़-गल कर समाप्त हो जाएंगे। तो ऐसे बाण मारने का क्या लाभ ? किंतु वाल्मीकि कहते हैं कि राम के उन बाणों का भयंकर प्रभाव हुआ। बाणों के प्रहार से समुद्र में भयंकर तूफान उठने लगे, जल के पहाड़ उठ-उठ कर गिरने लगे, धुंवां उठने लगा और बड़ी-बड़ी लहरें चक्कर काटने लगीं।
हम जानते हैं कि महासागर के गर्भ में भी एक पूरा संसार बसा हुआ है। वहां विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े जीव-जंतु ही नहीं, अनेक प्रकार की चल-अचल वानस्पतिक जीव और हमारे लिए अपरिचित जलचर भी हैं। राम के बाणों से, समुद्र के भीतर बसा वह सारा संसार, समस्त जलचर जीव, क्षुब्ध हो उठे। वह सब कुछ इतना भयंकर था कि जब रामने पुन: अपना धनुष खींचा तो कठोर दंड के समर्थक, स्वयं लक्ष्मण कूद कर उनके निकट ही नहीं आ गए। उन्होंने राम का धनुष पकड़ लिया, ”बस। बस। अब नहीं। अब नहीं।”
और तब लक्ष्मण ने अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही कि अब आप सुदीर्घ काल तक उपयोग में लाए जाने वाले किसी अच्छे उपाय पर दृष्टि डालें – कोई दूसरी उत्तम युक्ति सोचें। ”दीर्घं भवान् पश्यतु साधुवृत्तम्।”
स्पष्ट है कि लक्ष्मण तक को लगा कि यह विनाशकारी उपाय न तो हितकारी है और न दीर्घकालीन है। यह तात्कालिक उपाय है। सागर को सुखा कर शायद वानर-सेना तो पार उतर जाए; किंतु विश्व-मानवता के लिए, अन्य जीवों के लिए, सागर के जलचरों के लिए, वनस्पति के लिए कदाचित् यह हितकारी न हो।
उसी समय अंतरिक्ष में अव्यक्त रूप से विद्यमान महर्षियों और देवर्षियों ने भी ”हाय, यह तो बहुत कष्ट की बात है। अब नहीं, अब नहीं।” कहते हुए बहुत जोर का कोलाहल किया।
ये वे शक्तियां हैं, जिनसे मनुष्य चाहे अपरिचित हो, किंतु वे अपने स्थान पर स्िथत प्रकृति की रक्षा करती रहती हैं। महाभारत में भी जब अर्जन पाशुपतास्त्र प्राप्त कर अपने भाइयों के पास लौटा था; और उसके भाइयों ने उत्सुकतावश ही उसका प्रयोग देखना चाहा था, तब भी आकाश से अनेक महर्षि और देवर्षि उतर आए थे; और उन्होंने पांडवों को उस अस्त्र के, चाहे प्रदर्शन के लिए ही क्यों न हो, किए जाने वाले प्रयोग के संकट बताए थे। पांडव उस प्रदर्शन से विरत हो गए थे। उसके पश्चात् दूसरी बार अश्वत्थामा और अर्जुन के युद्ध में भी जब ब्रह्मास्त्र की बारी आई तो इसी प्रकार आकाश और पृथ्वी के ऋषि एकत्रित हो गए थे। यहां भी वही स्थिति है।
किंतु अभी तक समुद्र की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है। अत: राम और भी कठोर उपाय करने की बात सोचते हैं। वे ब्रह्मदंड को ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित कर लेते हैं। उसे धनुष पर चढ़ा लेते हैं और धनुष की प्रत्यंचा खींचते हैं। अभी ब्रह्मास्त्र छोड़ा नहीं गया है; किंतु पृथ्वी और आकाश मानों फटने लगते हैं. और पर्वत डगमगा उठते हैं। अंधकार छा जाता है। सरिताओं और सरोवरों तक में हलचल उत्पन्न हो जाती है। चंद्रमा और सूर्य नक्षत्रों के साथ तिर्यक् गति से चलने लगते हैं। सूर्य की किरणों से प्रकाशित होने पर भी आकाश में अंधकार छा गया है। सैकड़ों उल्काएं प्रज्वलित होकर आकाश को प्रकाशित करने लगती हैं। अंतरिक्ष से अनुपम और भारी गड़गडाहट के साथ वज्रपात होने लगता है।
निश्चित रूप से यह मात्र काव्यात्मक वर्णन नहीं है। यह कोरी कवि-कल्पना नहीं है। हमें यह समझना चाहिए कि श्रीराम ने सागर को जो धमकी दी है कि वे समुद्र का संपूर्ण जल सुखा देंगे और सागर वानर-सेना को लंका तक पहुंचने से रोक नहीं पाएगा, इसका कुछ वास्तविक अर्थ भी है।
श्रीराम को अपनी सेना के साथ लंका तक पहुंचना है। उनके और लंका के मध्य सागर का जल है। उस जल को सुखा दिया जाए, तो वहां मरुभूमि प्रकट होगी, जिसपर वानर पैदल चल कर लंका तक पहुंच जाएंगे। किंतु समुद्र के जल को सुखाने के लिए वे जिस शक्ति का प्रयोग करेंगे, वह कोई अलौकिक शक्ति न होकर भौतिक शक्ति ही है। वह उनका शस्त्र-बल है। रामायण के बाद के काल में चाहे हमारे कवियों ने उस शक्ति का स्वरूप न समझा हो और उसे कोई अलौकिक शक्ति मान कर, सुंदर उपमानों से सजाकर उसका काव्यात्मक वर्णन किया हो, किंतु आज परमाणु शक्ति के युग में, जब हम जानते हैं कि पदार्थ को ऊर्जा में परिणत किया जा सकता है, हमें यह समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि राम किस प्रकार की शक्ति के प्रयोग की धमकी दे रहे हैं। लक्ष्मण ही नहीं, देवर्षियों को भी समझ में आ रहा है कि यदि समुद्र अपने हठ पर अड़ा रहा और राम को अपनी शक्ति के प्रयोग को बाध्य होना पड़ा, तो वह इतना बड़ा उत्पात् होगा कि समस्त जीवों के लिए प्रलय की सी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। प्रकृति इतने बड़ी दुर्घटना की अनुमति नहीं देती।
तब जल के मध्य में से समुद्र स्वयं प्रकट होता है। विनयपूर्वक अपनी जड़ता के लिए क्षमा मांगता है और स्पष्ट करता है कि सागर की गहराई अथाह है। यदि सारा जल सूख भी जाए, तो भी वानरों के लिए शायद उस अपार गहराई को पार करना संभव न हो। जल के सूखने से उसके सहारे जीवित रहने वाले जंतु तो मरेंगे ही, जल को सुखाने के लिए राम के शस्त्रों से जो ताप उत्पन्न होगा, उसके भी दुष्परिणाम होंगे, जिन्हें पृथ्वी सहन नहीं कर पाएगी। अत: राम कोई दूसरा उपाय करें। दूसरा उपाय है, सेतु-बंधन। सेतु-बंधन की क्षमता राम की सेना में उपस्िथत विश्वकर्मा के औरस पुत्र नल नामक वानर में है। सामग्री वानर ला देंगे। लक्ष्मण के परामर्श ”दीर्घं भवान् पश्यतु साधुवृत्तम्।” के ही अनुसार यह उपाय दीर्घकालीन हितकारी है। दीर्घकालीन का तात्पर्य है कि सेतु बन जाएगा तो जाने कितने समय तक साधारण जन भी उसपर से चल कर सागर पार कर लिया करेंगे। न सागर का अहित होगा, न उसके जलचरों का, न पृथ्वी का। शायद यह एकमात्र अवसर है, जहां राम अपने क्रोधी भाई लक्ष्मण से भी अधिक कठोर व्यवहार करते दिखाई देते हैं। लक्ष्मण का कथन सत्य था। अंग्रेज़ों के शासनकाल में सन् 1803 की ग्लॉसरी ऑफ मद्रास प्रेसेडेंसी में यह तथ्य स्वीकार किया गया है कि सन् 1480 ई. तक यह सेतु न केवल वर्तमान था, वरन् वह प्रयोग में था और उसपर से लोग यात्रा किया करते थे।
किंतु राम ब्रह्मदंड को ब्रह्मास्त्र से अभिषिक्त कर अपने धनुष पर चढ़ा चुके हैं। हमारे सारे पौराणिक साहित्य में इन शस्त्रों की विशेषता यह है कि एक बार वे धनुष पर चढ़ जाएं तो उनको रोका नहीं जा सकता। केवल उनका लक्ष्य बदला जा सकता है। अत: राम, सागर से ही पूछते हैं, ”यह बाण कहां छोड़ूं ?”
सागर उन्हें परामर्श देता है कि वे उसे ”द्रुमकुल्य” क्षेत्र पर छोड़ें, क्योंकि वहां अत्यंत दुष्ट जातियां निवास करती हैं। राम अपना ब्रह्मास्त्र उसी प्रदेश को लक्ष्य कर छोड़ देते हैं। वह शस्त्र पृथ्वी को इतनी दूरी तक बींध देता है कि पृथ्वी भी कराह उठती है। शस्त्र से बना वह कूप पृथ्वी के गर्भ तक जाता है और वह प्रदेश ‘मरुकांतार’ नाम धारण करता है।
नल के द्वारा सेतु-बंध्ान आरंभ होता है। वानर वृक्षों और शिलाओं अथवा पर्वतों को ला रहे हैं। अर्थात् लकड़ी और पत्थर से सेतु का निर्माण हो रहा है। किंतु वाल्मीकि कुछ अतिरिक्त सूचनाएं भी देते हैं। वानर वृक्षों को उखाड़ कर, तोड़ कर, काट कर समुद्र तक लाते हैं; किंतु बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वतों को उखाड़ कर ”यंत्रों” द्वारा समुद्र तक पहुंचाते हैं। वाल्मीकि ने ”यंत्रों” के विषय में कुछ नहीं बताया, किंतु इतना भर कहा है कि यह कार्य वानर यंत्रों के द्वारा कर रहे हैं। स्पष्ट है कि वृक्षों को घसीटना और बात है; और पर्वत-खंडों का परिवहन कुछ और। अनेक वानर सौ योजन तक लंबा सूत्र पकड़े हुए हैं। कई वानर नापने के लिए दंड लिए खड़े हैं। इस प्रकार यह सेतु अलौकिक शक्ति से न बन कर, भौतिक सामग्री और विधि-विधान से तैयार होता है। वानरों की सहायता से नल पहले दिन चौदह योजन, दूसरे दिन बीस योजन, तीसरे दिन इक्कीस योजन, चौथे दिन बाईस योजन, और पांचवें दिन तेईस योजन लंबा सेतु बांधता है। हम देख सकते हैं कि प्रत्येक दिन उनके अनुभव और दक्षता में वृद्धि हो रही है। उनकी गति कुछ बढ़ रही है और वे पहले से अधिक कार्य करने में सफल हो रहे हैं। पांच दिनों में सौ योजन लंबा तथा दस योजन चौड़ा सेतु तैयार हो जाता है।
एक और बात अत्यंत महत्वपूर्ण है। सेतु-निर्माण हो जाने पर अपने सचिवों के साथ विभीषण, हाथ में गदा लेकर समुद्र के दूसरे तट पर खड़े हो गए, जिससे शत्रु पक्ष के राक्षस यदि पुल तोड़ने के लिए आएं, तो उन्हें दंड दिया जा सके। यदि यह अलौकिक शक्ति से बना हुआ कोई वायवीय सेतु होता तो उसके भंग होने या तोड़े जाने का कोई संकट नहीं होता।
हमारे प्राय: तथाकथित इतिहासकारों द्वारा सरल मार्ग अपना लिया जाता है कि यह इतिहास नहीं, काल्पनिक कथा है। अत: सेतु-निर्माण की घटना, सामग्री, विधि-विधान को गंभीरतापूर्वक ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। किंतु मैं पुराणों तथा पौराणिक काव्यों को कल्पना मानने को तैयार नहीं हूं। उसमें काव्य तत्व का सम्मिश्रण अवश्य हुआ है। किंतु किसी नींव पर ही बार-बार भित्ति उठाई गई है। यही कारण है कि प्रत्येक शिल्पी ने अपने समय, बुद्धि और प्रतिभा के अनुसार उसमें कुछ परिवर्तन कर दिए हैं। किंतु पुराणों को सत्य माना जाना चाहिए और उनके सत्य का अनुसंधान करना चाहिए
मैं ए. एस. आई. (आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) – भारतीय पुरातत्व विभाग – द्वारा उच्चतम न्यायालय में दिए गए शपथपत्र से आहत और पीडि़त ही नहीं, स्तब्ध भी हूं। यह शपथपत्र पाकिस्तान की आई. एस. आई. ने दिया होता तो बात और थी। फिर भी मैं पुरातत्व विभाग से पूछना चाहूंगा कि क्या वे दस-पंद्रह पीढ़ी पहले के अपने पूर्वजों के अस्तित्व का कोई भौतिक प्रमाण दे सकते हैं ? काल-चक्र प्रत्येक भौतिक प्रमाण को खा जाता है, चाहे वह पत्थर का बना हुआ ही क्यों न हो। यहां तो घटना सत्तरह लाख वर्षों से भी पुरानी है। इतनी बात तो किसी की भी समझ में आ जाती है कि ऐसी घटनाओं की सूचनाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं, उनके भौतिक प्रमाण, काल के गाल में समा जाते हैं। फिर भी आश्चर्य है कि राम-सेतु बचा हुआ है; और रामायण की घटनाओं की साक्षी दे रहा है। जो प्रमाण सामने है, जिसके माध्यम से रामायण के पात्रों की प्रामाणिकता जुटाई जा सकती है, ये उस प्रमाण को मिटा कर, रामायण के पात्रों को अप्रामाणिक बता रहे हैं। जिन्हें देश के इतिहास के साक्ष्य जुटाने का दायित्व सौंपा गया, वे ही साक्ष्य को नष्ट कर रहे हैं। यह तो ऐसा ही है, जैसे पुलिस स्वयं साक्ष्य को मिटा कर कहे कि कोई साक्ष्य ही उपलब्ध नहीं है।
राम-सेतु के बहाने रामायण के पात्रों को काल्पनिक बता कर केन्द्र सरकार ने एक बार फिर से हिंदुओं को अपार मानसिक क्लेश दिया है। मैं सोनिया गांधी की बात नहीं करता, किंतु प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह तो हमारी समझ से भारतीय ही हैं। वे क्यों नहीं बोलते ? अंबिका सोनी को हम भारतीय और हिंदू ही मानते हैं। भगवान् ही जानें कि वे स्वयं को क्या मानती हैं। संभव है कि उनका भी धर्मांतरण हो चुका हो। इस देश में तो जैसे माफिया-राज चल रहा है। हिंदुओं की छाती पर बैठ कर, उनका उपहास किया जा रहा है। अर्जुन सिंह जैसे लोग भी हैं, जो कुछ संगठनों को पैसा देकर रामकथा का विकृत रूप प्रस्तुत कर, विरोधी मतधारा की प्रदर्शनी लगवाते हैं। क्या किसी और देश में वहां के धर्म-ग्रंथों, अध्यात्म ग्रंथों तथा इतिहास ग्रंथों के विषय में ऐसी अपमानजनक बातें कही जा सकती हैं ? सामी मतों के अनुयाइयों ने, जिनमें पश्चिम के लोग भी सम्मिलित हैं, कहा कि मूसा ने तूर पर्वत पर ईश्वरीय प्रकाश देखा था। हमने उनकी सच्चाई का विश्वास किया। कभी कोई शंका प्रकट नहीं की, कोई संदेह नहीं जताया, कोई प्रश्न नहीं किया। हमारा दुर्भाग्य यह है कि स्वतंत्रता के बाद से ही, भारत के लोगों द्वारा तथाकथित रूप से चुनी गई भारत की सरकार, हिंदुओं से दृढ़बद्ध द्वेष रखती आई है। इसका बीज स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने बोया था। यह सरकार हिंदु-द्रोही तो है ही, वह राष्ट्रद्रोही तथा देशद्रोही भी है। हिंदुओं का जितना उत्पीड़न अब हो रहा है, उतना तो औरंगज़ेब के शासन-काल में भी नहीं हुआ।
पुरातत्व विभाग के अधिकारी अंग्रेज़ों का लिखा इतिहास पढ़ते हैं। उनकी जानकारी भी उतनी ही है, जितनी विदेशी और विधर्मी मनीषा ने उन्हें दी है, या जितना वह देना चाहती है। स्वामी विवेकानन्द ने अलवर में अपने शिष्यों से कहा था कि हिंदुओं ने कभी स्वयं अपना इतिहास नहीं लिखा। उसे सदा विदेशी ही रचते रहे। और विदेशियों ने वह इतिहास इसलिए नहीं लिखा कि भारतीय अपने गौरव को जानकर अपना सिर ऊंचा उठा सकें। उन्होंने भारत का इतिहास इसलिए लिखा कि वे हमारा आत्मबल नष्ट कर सकें। इसलिए हिंदुओं को अपने आर्ष ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए, अपने आदर्श पुरुषों के विषय में जानकारी प्रस्तुत करनी चाहिए; और अपना इतिहास स्वयं रचना चाहिए।
जवाहरलाल नेहरू ने भी अपना इतिहास अंग्रेज़ों से ही पढ़ा था। इसी आधार पर पुरातत्व विभाग तथा भारत के प्राचीन इतिहास के ये जाली विद्वान् कहते हैं कि आर्य भारत में बाहर से आए। यहां सरस्वती नामक नदी कभी थी ही नहीं। न महाभारत का महायुद्ध हुआ, न राम-रावण का युद्ध। हम शेष सब कुछ छोड़ भी दें तो प्रश्न यह है कि क्या इन महान् पुरातत्ववेत्ताओं ने कभी कुरुक्षेत्र के क्षेत्र की खुदाई की है ? मथुरा, हस्तिनापुर और द्वारका को खोजने का वास्तविक, सच्चा और ईमानदार प्रयत्न किया है ? यदि नहीं तो वे राष्ट्र के लिए इस प्रकार के अपमानजनक निष्कर्ष कैसे निकाल सकते हैं ? आज हमारे सत्ताकर्मी अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक से उद्धरण्ा दे रहे हैं, जैसे नेहरू वाल्मीकि से अधिक प्राचीन और प्रामाणिक हों। हम जानते हैं कि जवाहरलाल पश्चिमी शिक्षा की संतान हैं और उन लोगों की ही बोली बोलते हैं। जवाहरलाल की ही देन है – आज का यह पुरातत्व विभाग, उनकी चिंतन पद्धति और हिंदुओं के विरुद्ध यह द्वेषपूर्ण अभियान। यह तो संयोग ही है कि जवाहरलाल की परंपरा में आज वे महिला आ गई हैं, जो विदेशिनी भी हैं और विधर्मिणी भी।
विरोधियों का बल इस बात पर है कि रामसेतु मानव निर्मित नहीं है। इसका उनके पास क्या प्रमाण है, वे ही जानें। किंतु इतना तो स्पष्ट ही है कि वे नहीं जानते कि लाखों वर्ष समुद्र के जल में रहकर मानव-निर्मित ढांचा भी अश्मीभूत (फॉसिल) ही हो सकता है। फिर राम-सेतु के निर्माण की प्रक्रिया पर भी विचार किया जा सकता है। यह सेतु इसी स्थान पर क्यों बनाया गया, कहीं और क्यों नहीं ? रामायण का कहना है कि राम के द्वारा शस्त्र-प्रयोग की संभावना देखते हुए, समुद्र ने उन्हें मार्ग दिया। मार्ग देने का क्या अर्थ ? ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि समुद्र तल में चट्टानों को स्थापित कर सेतु-बनाया गया। समुद्र ने जो मार्ग दिया, अर्थात् जहां समुद्रतल में आधारभूत प्राकृत शिलाएं रही होंगी, जो हनुमान के समुद्र-लंघन में भी प्रकट हुई थीं, उनको नींव मान कर उनके ऊपर वानरों ने शिलाओं को रख-रख कर, उसे समुद्र के जल से ऊपर उठा दिया और लंका तक जाने का मार्ग बन गया। काल के इतने दीर्घ अंतराल ने स्थान-स्थान से कुछ शिलाओं को हटा दिया; किंतु फिर भी वह आधारभूत मार्ग और उसके ऊपर की शिलाएं आज जिस किसी रूप में भी वर्तमान हैं, वह राम-सेतु है। भवन टूट कर खंडहर भी हो जाए, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह कभी भवन था ही नहीं।
पुरातत्व विभाग के इन तात्विक ज्ञानियों की जानकारी की सीमा केवल पिछले दो सहस्र वर्षों तक ही सीमित है; क्योंकि पश्चिम के इन नौसिखिए राष्ट्रों के विद्वानों के लिए उससे पहले संसार था ही नहीं। किसी विकसित सभ्यता का कोई अस्तित्व नहीं था; उन सभ्यताओं का भी नहीं, जिन्हें उन्होंने स्वयं अपने क्रूर हाथों से नष्ट किया है। उनके अनुसार संसार में जो कुछ हुआ, वह इन्हीं दो सहस्र वर्षों में ही हुआ और उनके अपने देशों के द्वारा ही हुआ। पश्चिम के अनुकरण में हमारे देश के इन स्वाभिमान शून्य, तथाकथित महान् ज्ञानियों का ज्ञान भी वहीं तक सीमित है। उधार का ज्ञान इतना ही हो सकता है। इन मिट्ठुओं को जो उनके श्वेत स्वामियों ने पढाया नहीं, वह कभी घटित ही नहीं हुआ। इसीलिए दो सहस्र वर्षों के पूर्व भारत में घटित सारी घटनाओं को, सारे ज्ञान को, सारे वाड़मय को, वे पूरी निर्लज्जता से तत्काल अमान्य घोषित कर देते हैं। जिनके हाथ में पुरातत्व और प्राचीन इतिहास के ज्ञान को संचित करने का दायित्व है, वे आज भी विदेशियों द्वारा दी गई जानकारी के आसरे हैं; और इस देश के प्रति द्वेष से भरे हुए हैं। प्रत्येक स्वीकृति के लिए वे मुख उठा कर पहले अपने पश्चिमी प्रभुओं की ओर देखते हैं।
बिल्कुल ऐसा ही मिश्र में हुआ। वहां पिरामिड आज भी खड़े हैं; किंतु उनके निर्माण की तकनीकी कुशलता स्वीकार करने में पश्चिमी विद्वानों को दिक्कतें आ रही थीं। वे सदा यही कहते रहे कि दासों की पीठ पर कोड़े मार कर, इतनी ऊंचाई तक पत्थर पहुंचाए गए। यही अब हमारे साथ हो रहा है। हां, यहां अज्ञान में नहीं, शत्रुता, दुष्टता और द्वेष के मारे हमारे प्रतीकों का अपमान किया जा रहा है।
मैं अभी आस्था की नहीं, केवल भौतिक प्रमाणों की बात कर रहा हूं। भूगोल की दृष्टि से, सेतु-निर्माण के समय जिस भूमि पर, राम ने शिव की आराधना की, वह रामेश्वरम तो आज भी है। वहां पहले जो रजवाड़ा था, उसका नाम ही रामनाड अर्थात् राम की भूमि था। वह जिला आज भी इसी नाम से जाना जाता है। वहीं से आगे समुद्र तट पर धनुषकोडि रेलवे स्टेशन था, जो 1960 ई. के समुद्री तूफान में नष्ट हो गया। रामनाड के राजा की उपाधि ‘सेतुपति’ थी। कहीं कोई सेतु था, तभी तो राजा सेतुपति था। उपग्रह चित्रों में भी स्पष्ट रूप से सेतु दिखाई पड़ता है। इस संदर्भ में श्री. तरुण विजय द्वारा प्रस्तुत एक उद्धरण है :
” But this is what NASA says about the bridge , ‘Exploring space with a camera by NASA’s [193] Gemini XI, this photograph from an altitude of 410 miles encompasses all of India, an area of 1,250 000 square miles,’ George M Low, then the deputy director, Manned Spacecraft Center, NASA, notes. ‘Bombay is on the west coast, directly left of the spacecraft’s can-shaped antenna, New Delhi is just below the horizon near the upper left. Adam’s Bridge between India and Ceylon, at the right, is clearly visible…’ We can see the picture dramatically resembles thedescription given in Kalidasa’s Raghuvamsham . Kalidasa wrote, (sarga 13): ‘Rama, while returning from Sri Lanka in Pushpaka Vimaana told Sita: “Behold, Sita, My Setu of mountains dividing this frothy ocean is like the milky way dividing the sky into two parts”.’
यह सेतु कहीं पानी के तीन फुट नीचे है, कहीं तीस फुट। ईश्वर की कृपा है कि नासा ने सेतु के चित्र उसकी संपूर्णता में संसार के सम्मुख प्रस्तुत कर दिए हैं, जिसे वे ‘एडम्स ब्रिज’ की संज्ञा देने को ललचा रहे हैं। अब और क्या साक्ष्य चाहिए, हमारे देश के इन पुरातात्विक धुरंधरों को ? आश्चर्य की बात है कि हमने लाखों वर्षों से अपनी धरोहरों को बचा कर रखा है। पुरातत्व विभाग के अधिकारी हों अथवा तथाकथित विद्वान् और वामपंथी चिंतक; सत्य खोजने का प्रयत्न उनका लक्ष्य ही नहीं है। उनका लक्ष्य है, इस देश की संस्कृति का विनाश और हिंदुओं का अपमान। किसी भी प्रकार हिंदुओं का आत्मबल और स्वाभिमान तोड़ कर उनका धर्मांतरण किया जा सके – यह है कार्य-योजना। यह प्रवृत्ति अत्यंत घातक और विषाक्त है। इसका परिणाम क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा। हिंदुओं का विनाश होता है, या हिंदुत्व-शत्रु आत्मघात करते हैं। महर्षि अरविन्द ने सौ वर्ष पहले ही कहा था, कि वह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन था, जब इस देश के तथाकथित पढे-लिखे, पश्चिमीकृत मस्तिष्क ने हमारे सारे प्राचीन ग्रंथों को कपोल कल्पना मान लिया था; उनकी वाणी सत्य प्रमाणित हो रही है। किंतु हमें ध्यान देना चाहिए कि अरविन्द ने हिंदुओं के विनाश की नहीं, हिंदुत्व-विरोधियों के ही विनाश की भविष्यवाणी की थी।
जिन लोगों को आज इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता माना जा रहा है, उन्होंने विभिन्न लोगों से चर्चा में स्वीकार किया है कि वे तो उसी को ऐतिहासिक प्रमाण मानेंगे, जो सिक्कों, अथवा ध्वंसावशेषों द्वारा प्रस्तुत होगा। वे प्राचीन ग्रंथों का साक्ष्य स्वीकार नहीं करेंगे। विशेष रूप से जबकि वे ग्रंथ भारतीय हों। यह सोचने की बात है कि सिक्कों और ध्वंसावशेषों के प्रमाण यदि वे न खोजना चाहें तो वे प्रमाण कहां से उपलब्ध होंगे। फिर दूसरी बात यह है कि ऐसे प्रमाण कितने काल तक टिके रह सकते हैं ? इसका स्पष्ट अर्थ है, कि उन विद्वानों की दृष्टि से इस सृष्टि का इतिहास कभी भी कुछ सहस्र वर्षों से पीछे नहीं जा सकता। ग्रंथों के प्रमाणों को वे क्यों स्वीकार नहीं करते, उसका दूसरा कारण है। इन इतिहासकारों में से अधिकांश हिंदू नहीं हैं। जिनके नाम हिंदू लगते भी हैं, वे अपना धर्मांतरण कर ‘मार्क्सवादी’ या ‘नास्तिक’ हो चुके हैं। हम उनके नामों और परिवारों के कारण चाहे उन्हें हिंदू मानते रहें, किंतु वे अपने मन से हिंदू नहीं हैं। वे किसी अन्य धर्म के अनुयायी ही नहीं हैं, हिंदू-द्वेषी भी हैं। एक धर्म को त्याग कर दूसरा धर्म स्वीकार करने वाला व्यक्ति सदा ही अपने परित्यक्त धर्म की अधिक से अधिक हानि करना चाहता है। मार्क्सवादी अथवा नास्तिक होने का अर्थ है कि वे अंतिम सत्य जड़ तत्व को ही मानते हैं। उनके विषय में वही सत्य है, जो श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है। वे जड़ तत्व के अतिरिक्त किसी तत्व को नहीं मानते। इसलिए यह संसार उनके लिए स्त्री-पुरुष के संयोग से ही बना है। वे किसी चैतन्य अस्तित्व को नहीं जानते। उनके लिए इस जीवन के परे और कोई जीवन नहीं है। कोई अस्तित्व नहीं है। शेष सब कुछ क्रमिक विकास के रूप में अपने आप निर्मित होता गया है।
मुझे उनकी मान्यताओं के विषय में कुछ नहीं कहना। वे अपनी मान्यताओं के अनुसार अपना जीवन जीने को स्वतंत्र हैं; किंतु अपनी इन मान्यताओं के कारण वे किसी भी आध्यात्मिक संस्कृति विचारधारा से संबंधित, किसी आध्यात्मिक पुरुष, किसी अवतार, किसी विकसित आत्मा का लौकिक इतिहास लिखने के अयोग्य हो जाते हैं। हमारी कठिनाई यह है कि वैसे ही लोगों ने इस देश का इतिहास लिखने का बीड़ा उठा लिया है। हमारी सरकार उनकी सहयोगिनी है, क्योंकि उसमें उसका राजनीतिक स्वार्थ है। मेरी दृढ़ धारणा है कि इन लोगों को पिछले दो सहस्र वर्षों के परे के, तथा आध्यात्मिक सांस्कृतिक पुरुषों के इतिहास पर कलम उठाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है; क्योंकि वे उसके प्रमाण एकत्रित करने के स्थान पर उसे नष्ट करने का दृढ़बद्ध संकल्प किए हुए हैं; और सदा से उसका प्रयत्न करते रहे हैं। वे एक कट्टरपंथी संप्रदाय के सदस्य हैं, जो अपनी मान्यताओं के बाहर किसी विचार के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। उनका संगठन सांप्रदायिक और संकीर्ण है। उनकी चिंतन में विचार-भेद और वैविध्य के लिए कोई स्थान नहीं है। उनके लिखे इतिहास को अधिक से अधिक एक संप्रदाय विशेष के द्वारा, एक विशेष लक्ष्य के लिए लिखा गया इतिहास ही माना जा सकता है। अत: राम-सेतु जैसे किसी भी विषय पर उनकी ऐतिहासिक मान्यताओं का कोई महत्व नहीं है।
(20.10.2007)