हमारा विमान एक ऐसे देश की ओर उड़ान भर रहा था, जो कभी रक्ष-संस्कृति का पोषक था. रक्ष-संस्कृति का जन्मदाता और कोई नहीं, बल्कि परमपिता ब्रह्मा जी का परपोता तथा देवों के देव महादेव से अनेकों वरदान प्राप्त कर चुका रावण था, रावण एक महान विद्वान ऋषि विश्वश्रवा तथा कैकसी का पुत्र था। कैकसी से रावण के अलावा कुंभकरण, विभीषण अहिरावण, खर, दूषण तथा सूर्पणखा पैदा हुए थे।
देवताओं की दुश्मन कैकसी, चुंकि राक्षसी थी, अतः उससे उत्पन्न सभी पुत्रों और पुत्री ने देवताओं को अपना जन्म-जात दुश्मन माना और आसुरी शक्तियों तथा महादेव से प्राप्त वरदानों के बल पर अत्याचार करने लगे। जिस तरह से जंगल का राजा सिंह, जब आखेट पर निकलता है, तो जंगल में भगदड़ मच जाती है. जानवर अपनी जान बचाने के लिए किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर छिपने का प्रयास करते हैं कि कहीं उन पर सिंह की नजर न पड़ जाय. ठीक इसी तरह जन-सामान्य ही नहीं, बल्कि देवताओं का भी यही हाल होता था। वे उनका सामना नहीं ले पाते थे और किसी कन्दरा में छिप जाते थे। वहीं अहंकार के मद में चूर रावण ने एक नहीं, बल्कि अनेक देवताओं को बंदी बना लिया थाा और त्रिलोक पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।
रावण को जहाँ एक ओर दैत्य, राक्षस, अत्याचारी बताया गया है, वहीं उसे एक महान विद्वान, प्रकाण्ड पंडित, महाज्ञानी, राजनीतिज्ञ, महाप्रतापी, महापराक्रमी योद्धा और अत्यन्त बलशाली जैसे नामों से भी पुकारा गया है। यदि वह चाहता तो देवताओं की उच्च-श्रेणी में रहकर सर्वत्र पूजा जाता, लेकिन उसने देवत्व ग्रहण करने की बजाय, आसुरी शक्तियों के बल पर देवताओ पर विजय पाकर, स्वयंभू देवता बनने का कुत्सित प्रयास किया।
रावण के आतंक को सदा-सदा के लिए समाप्त करने के लिए, अयोध्यापति दशरथ जी के ज्येष्ट पुत्र श्रीराम, अयोध्या से चलकर लंका पहुँचते हैं और समूची रक्ष-संस्कृति का विनाश कर सनातन धर्म की स्थापना करते हैं। राम-रावण का युद्ध त्रेता में हुआ था. ( त्रेता युग-12,96000, वर्ष) + (द्वापर युग=864000 वर्ष) दोनों का योग= 21,60,000 वर्ष होता है। एक जानकारी के अनुसार कलयुग के 5143 वर्ष बीत चुके है। त्रेता और द्वापर युग के जोड़ में, कलयुग के बीते वर्षों 5143 को और जोड़ देते हैं तो कुल 21,65,143 वर्ष होते हैं। स्पष्ट है रावण
का वध 21,65,143 वर्ष पूर्व हुआ था। इस विनाशकारी युद्ध में सोने की लंका जलकर राख हो गई थी. दशानन रावण,मेघनाथ, कुंभकरण सहित सारे राक्षस मारे जा चुके थे।
सिवाय अवशेष के अब वहाँ कुछ भी बचा नहीं रह गया था। फ़िर भी न जाने, वह कौन-सा आकर्षण है, जो लंका देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक यहाँ खींचे चले आते हैं? यहाँ आकर सभी देखना चाहते हैं कि रावण की मायावी नगरी कैसी रही होगी?
प्रायः सभी को मालुम हैं कि सोना जलकर राख नहीं होता, बल्कि ताप पाकर पिघल जाता है।तो क्या उन्हें पिघली हुई लंका के अवशेष देखने को मिलेगी?
अशोकवाटिका कहाँ थी ? अशोक का वह वृक्ष कहाँ था, जिसके नीचे माता सीता जी विराहाग्नि में तिल-तिल कर जलते हुए बैठी रही होगी? वह कौन-सा स्थान था, जहाँ पवनपुत्र श्री हनुमानजी, माता सीता की खोज में उतरे थे? विभीषण का महल कहाँ रहा होगा? अनेकानेक प्रश्न मन में उमड़-घुमड़ रहे थे, उनका समाधान कारक उत्तर पाने के लिए हमारा उत्साही मन तरह-तरह की जिज्ञासाएं लिए लंका की ओर उड़ान भर रहा था।
अभी कुछ ही समय पूर्व मैंने रामकथा पर चार उपन्यास यथा-“वनगमन, “दण्डकारण्य़ की ओर”, लंका की ओर तथा “युद्ध और राज्याभिषेक” लिखे हैं, जिसका प्रकाशन ए.आर.पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने किया है। उपन्यास लिखने से पूर्व मेरे छः कहानी संग्रह, यात्रा वृत्तांत पर एक किताब- “ पातालकोट-जहाँ धरती बांचती है आसमानी प्रेम पत्र”, कविताएं, लघुकथा, लेख-आलेख सहित अठारह ई-बुक्स प्रकाशित हो चुकी हैं। लगभग एक हजार से ऊपर लेख-आलेख आदि प्रकाशित हो चुके हैं। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि मैं उपन्यास लिखूँगा. लेकिन मानस को पढ़ते हुए सहसा एक प्रश्न मन में कौंधा कि वह कौन-से कारण थे कि माता कैकेयी ने अलोक-प्रिय निर्णय लेकर निरपराध राम को चौदह वर्षों के लिए बनवास पर भेज दिया और सदा-सदा के लिए कलंकित हो गईं? इसका समुचित उत्तर खोजने के लिए मैंने वाल्मिकी रामायण, कंबण रामायण,अद्भुत रामायण, आनन्द रामायण आदि का अध्ययन किया. कुछ समाधान कारक उत्तर मिले भी, लेकिन मन संतुष्ट नहीं हुआ। दो-एक ऐसे कारण पढ़ने को मिले, जो मेरे उपन्यास लिखने को सार्थक बना सकते थे। वे कौन-से कारक थे, इसका उल्लेख मैंने अपने उपन्यास “वनगमन “में किया है।
उपन्यास के तीन खण्ड- वनगमन, दण्डकारण्य की ओर तथा लंका की ओर का प्रकाशन तिल-संक्रांति के दिन हुआ और उपन्यास का चौथा खण्ड –युद्ध और राज्याभिषेक” का प्रकाशन 22 जनवरी 2024 में हुआ। यह वही शुभ दिन था, जब भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री
नरेन्द मोदी जी ने, अयोध्या में नव-निर्मित मन्दिर में रामजी के बाल-विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा की थी. उपन्यास के समापन के ठीक पश्चात,मैंने संकल्प लिया था कि मुझे शीघ्र ही लंका की यात्रा करनी चाहिए। माह जनवरी में उपजा संकल्प, माह फ़रवरी में पूरा होने जा रहा था। यह सब प्रभु श्रीराम के आशीर्वाद और कृपा का सुफ़ल है कि मैं रामकथा पर चार उपन्यास लिख पाया और लंका की यात्रा पर यान में बैठकर लंका की ओर जा रहा हूँ।
नागपुर की एक ट्रेवल एजेंसी -. “प्रवासी हालिडेज “ के बैनर तले मुझे और मेरे मित्र प्रो. राजेश्वर अनादेव, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती अनिता अनादेव, हरीश खण्डेलवाल तथा अजय पराड़कर तथा अन्य सहयात्रियों के साथ श्रीलंका की यादगार यात्रा पर जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
01-02-2024 दिन शुक्रवार
एक फ़रवरी 2024 की सुबह छः बजे हम छिन्दवाड़ा से नागपुर के लिए रवाना हुए, जहाँ से हमें दस बजे जी.टी. पकड़नी थी। जी.टी. ठीक दस-तीस बजे नागपुर जंकशन से चेन्नेई के लिए रवाना होती है। नागपुर रेलवे प्लेटफ़ार्म पर प्रवासी हालिडेज की संचालिका सुश्री गौरी वक्ते से भेंट होती है। उनके साथ नागपुर से सात यात्री भी साथ चलने के लिए तैयार होकर आए थे। सभी से सौजन्य भेंट होती है। जी.टी. अपने
निर्धारित समय पर प्लेटकार्म पर आकर रुकती है और हम सभी सहयात्री चेन्नेई की ओर रवाना हो जाते हैं।
02-02-24 ( दिन शनिवार).
जी.टी. करीब देढ़ घंटा विलंब से चेन्नेई जंक्शन पर पहुँचती है. अतः हमने बिना समय गवाएं चेन्नेई के अंतरराष्ट्रीय एअरपोर्ट की ओर रवाना हो जाना उचित समझा। चेन्नेई से कोलंबो की ओर उड़ान भरने वाली इंडोगो की फ़्लाइट 6E1175 दिन के 11.25 पर कोलंओ के लिए रवाना होती है और ठीक देढ़ घंटे बाद हम कोलबो के भंडारनायके इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर जा उतरे। दाम्बुला ((Dambulla) जाने के लिए एअरपोर्ट के बाहर बस हमारा इंतजार कर रही थी।
(day 1)
कोलंबो एअरपोर्ट से पिन्नावाला –दाम्बुला-(184 किमी ( 4 घंटे 30 मिनिट.) दो रात-(कैंडी-एक रात) ( नुवारा इलिया-1 रात.)
दाम्बुला जाने वाले रास्ते में “पिन्नावाला एलेफ़ेंट आरफ़नेज” (Pinnawala Elephant Orphanage) पड़ता है. यह स्थान हाथियों का अनाथालय के नाम से जाना जाता है। जंगली हाथियों को पकड़कर उन्हें समाज में रहने लायक बनाने के लिए काफ़ी परिश्रम करना होता है। अनाथालय से लगभग 1 किमी की दूरी पर “ मा ओया ” ( MA OYA ) नदी प्रवहमान होती है। विशालकाय हाथियों को नहलाते हुए अनेक महावत यहाँ देखे जा सकते हैं..
नदी में नहाते हुए नन्हें शिशु हाथी तथा विशालकाय हाथियों को आपस में क्रीड़ा करते हुए नहाते हुए देखना, एक अलग ही किस्म का रोमांच पैदा होता है। होटेल लौटने से पूर्व हमारे गाईड ने बतलाया कि यहाँ प्रतिदिन शाम के पांच बजे श्रीलंकन थियेटर में प्रोग्राम होता है, जो सभी के लिए निःशुल्क होता है। अतः हम सभी ने थिएटर जाने का मन बनाया.कलाकारों की नृत्य मंडली की विभिन्न-विभिन शैली में नृत्य करता देख्कर सारी थकान उतर गई थी। कुछ कलाकारों से मेरी भेंट हुई. उनके साथ फ़ोटों खिचवाने का सुअवसर भी मुझे प्राप्त हुआ।
Day-2
3 फ़रवरी दिन रविवार
Dambulla-Sigiriya-Golden Cave Temple-Dambull
दाम्बुला-सिगिरिया केव टेम्पल—दाम्बुला.
सिगिरिया.( Sigiriya.)
(नोट- नीचे से देखने पर सिगरिया चित्र नंबर (1) सा दिखाई देता है. ऊपर जाने पर एक सिंह द्वार मिलता है, जिससे होकर 1200 खड़ी सीढ़ियां बनी हुई है। 1200 सीढ़ियां चढ़कर ही ऊपर पहुँचा जा सकता है. इसके ऊपर रावण का महल था, ऐसा बताया जाता है।
सिगिरिया ( : සීගිරිය (सीगिरिय), तमिल : சிகிரியா ; संस्कृत के ‘
'सिंहगिरि' से व्युत्पन्न)
श्रीलंका के केंद्रीय मातले जिले (Matale District) में स्थित विशाल पाषाण, प्राचीन शैल-दुर्ग तथा राजमहल का खंडहर है. इसके चारो ओर घने बाग, जलाशय तथा अन्य भवन हैं. यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। यह अपने प्राचीन चित्रकला (पेंटिंग) के लिये भी प्रख्यात है, जो भारत की अजन्ता की गुफाओं की याद दिलाते हैं। विश्व के सात धरोहरों में से एक धरोहर श्रीलंका में है। यूनेस्को ने इसे विश्व का आठवाँ आश्चर्य घोषित किया है। मान्यता यह भी है कि प्राचीन रामायण काल में यही सोने की लंका थी, जहाँ कभी रावण राज किया
करता था।
सोने की लंका के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी.
एक जानकारी के अनुसार माता पार्वती ने शिव से प्रार्थाना की कि बच्चे अब बड़े हो रहे हैं. वे आपकी तरह जंगलों मे रहना नहीं चाहते. अतः उनके लिए एक सुन्दर सा भवन बनवाइए. बार-बार के आग्रह के बाद शिवजी ने धन के देवता कुबेर को बुलाया और एक महल बनाने को कहा .कुबेर ने तत्काल ही विश्वकर्मा को बुला भेजा और आज्ञा दी कि वह शिवजी के लिए एक सुन्दर सोने के महल का निर्माण करें। कुछ ही
समय में महल बनकर तैयार हो गया। अब शिवजी को एक ऐसे विद्वान ब्राह्मण की आवश्यकता थी, जो वास्तु-पूजा करा सके. चुंकि रावण ब्राह्मण था. अतः उन्होंने उससे पूजा करवाई । पूजा के पश्चात पुरोहित को दक्षिणा देनी होती है। सोने का महल देखकर रावण के मन में लालच आ समाया और उसने दक्षिणा में शिवजी से सोने का महल मांग लिया। महादानी शिव ने बिना आनाकानी किए उसे महल दान में दे दिया। रावण के इस कपटपूर्ण व्यवहार से माता पार्वती को भारी पीड़ा हुई और उन्होंने तत्काल रावण को शाप दिया –“ रावण ! तूने
कपटपूर्वक शिवजी से मेरा महल मांग लिया है, याद रख, एक दिन शिवजी का ही अंश तेरे सोने की लंका को जलाकर खाक कर देगा. पवनपुत्र श्री हनुमानजी का एक नाम” शंकर सुवन” भी है अर्थात- श्री हनुमानजी भगवान शंकर के एक अंश से उत्पन्न हुए थे. पवनपुत्र हनुमानजी ने इसी सोने की लंका को जलाकर राख कर दिया था।
एक अन्य कथा के अनुसार- (वाल्मिकी रामायण के अनुसार)
धन के देवता “कुबेर” लंका का अधिपति था. रावण ने उसे युद्ध में हराकर लंका पर अपना अधिकार जमा लिया. इस तरह कुबेर को लंका छोड़कर हिमालय पर रहने जाना पड़ा था।
क्या लंका के सभी भवन सोने के थे?
(विश्राम सागर, रामायण खंड , अध्याय-23.) के अनुसार.
नहीं. ऐसी बात नहीं है. संपूर्ण लंका सोने की नहीं थी। माता सीता की खोज में हनुमानजी ने संपूर्ण लंका का कोना-कोना छान डाला था। एक दिन श्रीराम ने हनुमान जी से सोने की लंका के बारे में जानना चाहा। तब हनुमान जी ने बतलाया-“ 100 योजन समुद्र लांघने के बाद मुझे 40 कोस का उपवन मिला। त्रिकूट पर्वत पर लंका बनी है, वह मिले, जिसमें सुबेल नामक पर्वत है। पांच लाख पत्थर, नौ लाख पीतल के, दो करोड़ तांबे के, चार करोड़ चांदी के तथा चार करोड़ सोने के स्वच्छ भवन हैं। इनके अलावा एक करोड़ रत्नों के, छः करोड़ घास-फ़ूस और बांस के तथा सौ करोड़ अन्य भांति-भांति के भवन हैं इसके अतिरिक्त नौ करोड़ स्फ़टिक के, एक लाख काले पत्थर के भवन बने हुए हैं। लंका
का विस्तार सौ योजन हैं।
इस तरह हनुमानजी के बताए अनुसार लंका के सभी भवन सोने के नहीं थे, बल्कि चार करोड़ घर ही सोने के थे. कुल मिलाकर सोने की लंका में सभी प्रकार के भवनों की संख्या-1,26,15,00,000 होती है सोने की लंका का तात्पर्य स्वर्णमयी लंका से ही है।
रणगिरी दाम्बुला.गुफ़ा मन्दिर.
(सदियों से दाम्बुला एक पवित्र तीर्थ स्थल है. गुफ़ा-मठ अपने पांच अभ्यारण्यों के साथ श्रीलंका का सबसे बड़ा और सबसे अच्छी तरह से संरक्षित गुफ़ा-मन्दिर परिसर है.)
मध्य श्रीलंका में स्थित, रंगिनी दांबुला गुफा मंदिर एक जीवित बौद्ध स्थल है, जो पाँच गुफा मँदिरों की श्रृँखला पर केंद्रित है। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से जंगल में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने यहाँ निवास किया था। ये प्राकृतिक गुफाएं पूरे ऐतिहासिक काल में लगातार दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी एशियाई क्षेत्र में सबसे बड़े और सबसे उत्कृष्ट बौद्ध परिसरों में से एक में परिवर्तित हो गई हैं, जो आंतरिक ले-आउट के लिए अभिनव दृष्टिकोण का प्रदर्शन करती हैं।
सजावट-. जीवित बौद्ध अनुष्ठान प्रथाओं और निरंतर शाही संरक्षण से जुड़ी एक लंबी परंपरा को ध्यान में रखते हुए, 18 वीं शताब्दी में अपने वर्तमान आंतरिक स्वरूप को ग्रहण करने से पहले गुफा मंदिरों में कई नवीकरण कार्यक्रम हुए। यह स्थल दो सहस्राब्दियों से अधिक समय से जीवित बौद्ध अनुष्ठान प्रथाओं और तीर्थयात्रा की निरंतर परंपरा से जुड़े होने के कारण बौद्ध जगत में उल्लेखनीय है।
हजारों वर्ष पूर्व गुफ़ा मन्दिर में बनाई गयी पेंटीग आज भी ताजा लगती हैं। सभी मूर्तियां भगवान बुद्ध को समर्पित हैं। कुल मिलाकर 153 प्रतिमाएं बुद्ध की, 3 मूर्तियां तत्कालीन राजाओं की तथा 4 प्रतिमाएं देवी-देवताओं की बनी हुई है।
04-02-2024 (दिन सोमवार).
Day-3- Dambulla-Matale-kandy ( 80 KM.-2 hours) 1 night stay
दाम्बुला में रात्रि विश्राम के बाद हमारा अगला पड़ाव होता है, 80 किमी दूर मताले-(कैंडी) में .
मुथुमारिअम्मान” मन्दिर
यहाँ पहुँचकर हमने “मुथुमारिअम्मान” मन्दिर देखा. “मुधु” का शाब्दिक अर्थ “मोती” होता है। तामिल भाषा में “मारी” का अर्थ बारिश (बरसात) होता है और “अम्मान” का अर्थ “माँ” होता है। “ मथु + मारि + अम्मान को जोड़ कर देखें तो सरल भाषा में यह कहा जा सकता है कि यह मन्दिर बरसात और उर्वरा की देवी मारियम्मन को समर्पित है। इस मन्दिर की विशेषता यह है कि इस मन्दिर में बना गोपुरम 108 फ़िट ऊँचा है, जो आकर्शण का केन्द्र हैं। श्रीलंका के सबसे बडे टावरों में इसकी गिनती होती है। इस मन्दिर की भव्यता देखकर हम आगे बढ़ते हैं आइलैंड के सबसे बड़े मन्दिर “टेम्प्ल आफ़ टूथ” की ओर.
दांत मन्दिर.
“ दांत मन्दिर” के नाम से सुप्रसिद्ध यह मन्दिर श्रीलंका के कैंडी शहर में स्थित है। कैंडी कभी श्रीलंका की राजधानी हुआ करता था। श्रीलंका में जब राजशाही का अंत हुआ तब कैंडी में औपनिवेशिक आवाजाही बनी रही। अनेकानेक बौद्ध मन्दिर के कारण कैंडी का बहुत ज्यादा धार्मिक महत्व है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान बुद्ध के देह त्यागने ( ईस्वी पूर्व 483 ) के बाद उनका अंतिम संस्कार कुशीनगर (उत्तराप्रदेश) में हुआ था। अंतिम संस्कार से पूर्व बुद्ध के अनुयायियों ने उनके दांत निकाल लिए और उसे ससम्मान तत्कालिन राजा ब्रह्मदत्त को सौंप दिया। काफ़ी
समय तक दांत राजा ब्रह्मदत्त के पास रहा। इस दिव्य दांत को प्राप्त करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गयीं। यह पवित्र दांत एक राजा से दूसरे राजा के पास जाता रहा। आखिरी में बुद्ध के एक अनुयायी ने इसे चोरी-छुपे श्रीलंका पहुँचा दिया। उस समय के कैंडी के तत्कालीन राजा ने
अपने महल के पास एक विशाल मन्दिर बनवाया और उस मन्दिर में इसे स्थापित कर दिया। तभी से यह “दांत मन्दिर” के नाम जाना गया। ऐसा कहा जाता है कि भगवान बुद्ध का वह दांत अपने आकार-प्रकार में बढ़ता रहता है।
दांत-मन्दिर के दर्शन के पश्चात हम कालापुरवा हर्बल गार्डन पहुंचे। यहाँ आकार हमने नौका विहार करते हुए जड़ी-बुटियों के क्षेत्र में प्रवेश किया। यहाँ के निवासी जंगल से बहुत प्रकार की जड़ी-बुटियों के जानकार हैं, जिनका उपयोग आयुर्वेदिक दवाओं सहित मसालों में भी बहुतायत से उपयोग में लाया जाता है।
(कालापुरवा हर्बल गार्डन)
केंडी मे रात्रि विश्राम करने के पश्चात हम रवाना होते हैं नुआरा इलिया की ओर जो केंडी से 80 किमी. की दूरी पर स्थित है।
O5-02-2024 ( दिन मंगलवार)
Day-4-NUWARA ELIYA (80 K.M.) STAY ON NIGHT.
(रामभक्त श्री हनुमाज जी का भव्य मंदिर- रामबोधा.)
नोट- (कोलंबो से 150 किमी दूर इस स्थान को पहिचानते हुए, चिन्मय मिशन के तेजोमयनंदा स्वामी जी ने सन 1981 में यहाँ श्री हनुमानजी के मन्दिर का निर्माण करवाया। यह स्थान समुद्र तट से 4200 फ़िट की ऊँचाई पर स्थित है।)
ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों, घुमावदार रास्तों और घने जंगलों के बीच से होकर हमारी बस, रामबोधा की ओर रवाना हुई। रास्ते में हमें दो जलप्रपात देखने को मिले। आकाश के मध्य स्थित सूर्यदेवता अंगार बरसा रहे थे। चारों ओर घना जंगल आच्छादित रहने के कारण शीतल हवा के झोंके भी चल रहे थे। करीब बीस-पच्चीस सीढ़ियां चढ़कर हम जा पहुँचते है रामबोधा के दिव्य हनुमान मन्दिर में। पर्वत की चोटी पर अवस्थित यह वही स्थान है, जहाँ पवनपुत्र श्री हनुमानजी माता सीता जी की खोज करते हुए लंका पहुँचे थे।
ततस्तु सम्प्राय समुद्रतीरं *समीक्ष्य लंका गिरिवर्यमूर्धिन कपिस्तु तस्मिन निपपात वर्वत * विधूय रूपं व्यथन्मृगद्विजान ( सुम्दरकांड प्रथम सर्ग-212)
अर्थात- माता सीताजी की खोज में आकाशमार्ग में उड़ान भरते हुए पवनपुत्र श्री हनुमानजी ने लंका में विद्यमान श्रेष्ठ पर्वत के ऊपर बसी हुई लंका को देखा। अपने विशाल स्वरूप को त्यागकर वे पर्वत पर उतर गए और अमरावती के समान सुशोभित लंका को देखने लगे। जब वे इस पर्वत पर उतरे थे, तब सूर्यदेव आकाश-पटल पर विद्यमान थे। दिन के प्रकाश में लंका में प्रवेश करना उचित नहीं होगा. यह सोचकर उन्होंने गुप्तरूप से इसी पहाड़ में छिपकर रहना श्रेयस्कर समझा तथा सूर्यास्त के पश्चात ही लंका में प्रवेश करने का निश्चय किया था।
स तस्मिन्नचले तिष्ठन वनान्युपवनानि च * स नगाग्रे अथितां लंका ददर्श पवनात्मजः ( वा.रामायण द्वितीय सार्ग –श्लोक *)
इसी पर्वत पर विराजित होते हुए पवनपुत्र श्री हनुमान जी ने बहुत से वन और उपवन देखे तथा उस पर्वत के अग्रभाग में बसी हुई लंका का अवलोकन किया।
श्री हनुमान के दर्शनो के उपरांत नुवारा (फ़ूलों की पंखुड़ियां.), ( सुंदर और आकर्षक.), इलिया ( वन.)=अर्थात फ़ूलों के समान सुन्दर और आकर्षक वन में स्थित माता सीताजी का सुन्दर मन्दिर देखा जा सकता है।
मन्दिर के अंदर माता सीताजी के नयनाभिराम प्रतिमा स्थापित है। एक अन्य कोने में अशोकवृक्ष के नीचे माता सीताजी की प्रतिमा स्थापित है। बताया जाता है कि कभी इसी स्थान पर अशोक का एक वृक्ष हुआ करता था, जो कालांतर में नष्ट हो गया। इस वृक्ष के नीचे माता सीता जी क्रूर राक्षसियों से घिरी हुई रहती थीं। यहाँ उन्होंने अपने जीवन के 435 दिन बिताए थे। चारों ओर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि वहाँ नाना-प्रकार के वृक्ष तो दिखाई देते हैं, लेकिन अशोक का एक भी वृक्ष दिखाई नहीं देता। मन में प्रश्न उठना स्वभाविक है कि क्या अशोक-वाटिका में सभी वृक्ष अशोक के ही थे?
तुलसीदास जी रामचरित मानस में लिखते है-
हारि परा खल बहु विधि ,भय अरु प्रीति देखाइ * तब अशोक पादप तर, राखिसि जतन कराइ,(मानस/3/29क)
स्पष्ट है कि अशोकवाटिका में एक ही अशोक का पेड़ था जिसके नीचे माँ सीता जी बैठीं हुई थीं। इसके अतिरिक्त वन, बाग, उपवन और वाटिकाएं भी थीं, जिसका उल्लेख मानसकार ने मानस में किया है। वाल्मिकी रामायण में अनेकानेक वृक्षों के नामों का उप्पेख किया है-
सरकान् कर्णिकारांश्च् खर्जूरांश्च् सुपुष्ष्पितान् * प्रियालान् मुचुलिन्दांश्च् कुटजान् केतकानपि
प्रिय्गन् गन्धापूर्णाश्च् नीपान् सप्तच्छदांस्तथा* असनान् कोविदारांश्च करवीरांश्च पुष्पितान्
पुष्पभारनोइबद्धांश्च तथा मुकुलितानपि* पादमान् विहगाकीर्णान् पवनाधूपमस्तकान्
(सुंदर् कांड द्वितीय सर्गः 9-10-11)
अर्थात्- उस कपिश्रेष्ठ ने वहाँ सरल (चीड़), कनेर, खिले हुए खजूर, प्रियाल (चिरौंजी), मुचुलिन्द (जम्बीरी नीबू), कुटज, केतक ( केवड़े), सुगन्धपूर्ण प्रियंगु। (पिप्पली), नीप (कदम्ब या अशोक.) छितवन, असन, कोविदार तथा खिले हुए करवीर देखे। फ़ूलों के भार से लदे हुए तथा मुकुलित (अधखिले) बहुत-से प्रकार के वृक्ष उन्हें दृष्टिगोचर हुए, जिनमें पक्षी भरे हुए थे और हवा के झोके से जिनकी
डालियां झूम रही थीं।
दूसरा प्रश्न मन में सहज ही उठ खड़ा होता है कि जब वहाँ एक अशोक वृक्ष के अलावा दूसरा वृक्ष नहीं था, तो फ़िर इसका नाम अशोक-वाटिका क्यों पड़ा?.
उत्तर-
रावण बहुत बड़ा विद्वान भी था। अतः उसने एक ऐसी वाटिका बनाई थी जो शोक से रहित थी. ( अ+शोक= अशोक, अ याने नहीं,और शोक याने दुःख रहित थी।) जब भी वह तनाव में घिरा रहता था अथवा किसी चिंता में ग्रसित रहता था अथवा जब बहुत ज्यादा थक जाता था, तो इसी वाटिका में आकर उसकी थकान आदि मिट जाती थी। इसलिए इस वाटिका का नाम “अशोक वाटिका” रखा गया था। उसे विश्वास था कि रामजी के वियोग में सीताजी दुःखी नहीं होंगी, इसलिए उसने उन्हें अशोक-वाटिका में रखा था।
नोट- रावण जब माता सीता का अपहरण कर श्रीलंका पहुँचा तो सबसे पहले सीता जी को इसी जगह रखा था। इस गुफा का सिर कोबरा सांप की तरह फैला हुआ है. गुफा के आसपास की नक्काशी इस बात का प्रमाण है। इसके बाद जब माता सीता ने महल मे रहने से इंकार कर दिया तब उन्हें अशोक वाटिका में रखा गया। सीता अशोक के जिस वृक्ष के नीचे बैठती थी वो जगह सीता एल्या के नाम से प्रसिद्ध है। 2007 में श्रीलंका सरकार की एक रिसर्च कमेटी ने भी पुष्टि की है कि “सीता एल्या“ ही “अशोक वाटिका” है।
Day-5 ( बुधवार. )Nuwara Eliya-Bentola (210 km.)- ( 5 hours 20 minutes) 2 Night.
नुआरा इलिया-बेनटोला (210 किमी.) -२ रात्रि.
नुवारा इलिया का भ्रमण करने के पश्चात 210 किमी दूर हम तलवाकेला तथा चाय के बागानों के बीच के गुजरते हुए रास्ते में हमें दो झरने दिखाई देते हैं (१) क्लेअर वाटरफ़ाल (२) डॆवन फ़ाल।
Claire and devon
(waaterfaal at benaton-shrilanka)
रास्ते में खूबसूरत झरनों को देखकर करीब ढ़ाई घण्टे के सफ़र के पश्चात हम सभी केलानी नदी के तट पर पहुँचे। यह स्थान वाटर राफ़्टिंग तथा नहाने के लिए निर्धारित किया गया था। यात्री को स्वयं के खर्च पर राफ़्टिंग करनी थी। अतः हम सभी ने समय न गंवाते हुए अपने होटेल में जाना पसंद किया।
यहां रात्रि विश्राम के पश्चात सुबह चाय-नाश्ता के बाद हमारा अगला पड़ाव था बेनटोटा।
6 day ( 07 फ़रवरी ) ( दिन गुरुवार.)
बेनटोटा बीच( Bentota Beach.)- ( Turtie hatchery)
टर्टल हैचरी-
यहाँ अंड़ों की जब तक सुरक्षा की जाती है, जब तक कि वे फ़ूट न जाएं और तैरकर घर वापिस आने के लिए तैयार न हो जाएं। यह परियोजना उन कछुओं को भी बचाती है जो समुद्र में मछली पकड़ने के जाल-मोटर आदि के कारण घायल हो जाते हैं। वापस छोड़े जाने के पहले अक्सर उनका पुनर्वास किया जाता है। एक से देढ़ घण्टे में पर्यटक नाना प्रकार के छोटे-बड़े कछुओं को न सिर्फ़ देख सकते
हैं, बल्कि उनके जीवन चक्र के बारे में और अंडॆ सेने की प्रक्रिया से अवगत हो सकते हैं। रंगीन समुद्र तटॊं को देखने और टर्टल हैचरी को देखने के बाद हम अपनी होटेल में लौट आते है। श्रीलंका की यात्रा का यहां समापन होता है।
Day- 7= 08-फ़रवरी-2024 ( दिन शुक्रवार.)
सुबह के भोजन के पश्चात हम कोलंबो की ओर लौट पड़ते हैं। यहाँ इंडिगो का विमान क्रमांक 6R1176 हमारी प्रतीक्षा कर रहा होता है। दिन के 13.50 बजे वह उड़ान भरता है और करीब देढ़ घंटे की उड़ान के बाद चेन्नेई के अंतरराष्ट्री एअरपोर्ट पर उतर जाता है।
हम अब अपने देश भारत में थे, लेकिन हमारा मन अब भी “एशिया का वंडर” कहलाने वाले देश” श्रीलंका “ के आकाश में विचरण कर रहा होता है. यहाँ सात दिन रहते हुए हमने, न केवल उन अविस्मरणीय क्षणॊं को आत्मसात किया था, बल्कि उन ऐतिहासिक स्थलों के दर्शन भी किए थे, जिनसे हमारे तार त्रेतायुग से ही जुड़े हुए हैं।
गोवर्धन यादव
103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
गोवर्धन यादव.
9424356400
goverdhanyadav44@gmail.com
सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net