चाँदनपुर महावीर जी
बचपन में माँ बाबुजी के साथ की गई ।
इस विशेष यात्रा की यादों को संजोता मन जब जीवन के 55 बसंत पार करके फिर से पहुँचा राजस्थान के इस छोटे से मनोहारी अतिशय क्षेत्र पर, जो कि सवाई माधोपुर स्टेशन से उतरकर कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर बस की सेवा के साथ लेकर गया हमें उस पावन धरती पर, जहाँ गम्भीर नदी के अवशेष अभी भी मौजूद हैं।
बाबुजी बताया करते थे इसका पुरातन इतिहास।
एक गुर्जर ग्वाला प्रतिदिन गायों को चराकर घर आता तो एक गाय दूध नही देती।
ग्वाला परेशान हो गया।
एकदिन वह उस गाय के पीछे-पीछे गया, वहाँ एक टीले पर गाय खड़ी हुई और उसका सारा दूध अपने-आप वहीं बह गया।
उसे बहुत आश्चर्य हुआ । उसने उस टीले की खुदाई की और वहाँ प्राप्त हुई उसे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर की मूर्ति।
प्रसन्नता का अतिरेक फूटा।
अपने परिवार की सहायता से उस मूर्ति को अपने घर पर स्थापित किया और भक्तिभाव से पूजा करने लगा।
बात 1700 ईसवीं की है।
वहाँ के तत्कालीन राजा तक खबर पहुँची।
मंत्री ने आकर देखा और भगवान महावीर की प्रतिमा को भव्य रूप से स्थापित करने की योजना बनी।
श्वेत संगमरमर का भव्य विशाल मन्दिर।
भगवान के मूर्ति के लिए सजी पालकी और रथ।
परन्तु ये क्या !
भगवान की प्रतिमा रथ में, पर रथ चले ही नहीं। अनेकों बलवान पुरुषों ने जोर लगाया पर रथ नहीं चला।
***
उधर विकल था गरीब ग्वाला, जो धर्म के नामों से परिचित नहीं, बस टीले का बाबा कहकर वह उस मूर्ति को पूजता था।
जिसकी हृदय से पूजा की थी, सेवा की थी भक्ति भाव से, आज विह्वल था उसके बिछोह के दर्द से। आँसू थे कि रुकते ही नहीं, भोजन का निवाला गले से उतरा ही नहीं,, ।
**
इधर राजा और मंत्री सभी परेशान।
रात्रि का अंतिम प्रहर।
अचानक मंत्री ने स्वप्न देखा, भगवान ने कहा, वत्स, जब तक ग्वाला रथ में हाथ नहीं लगाएगा, रथ नहीं चलेगा। विकल है वो, उसका समाधान करो।
***
मंत्री को अपनी भूल का अहसास हुआ।
उसने राजा से सारी बात कही।
मंत्री ग्वाले के घर पहुँचा और जहाँ उसने भगवान की प्रतिमा स्थापित की थी उस स्थान पर भगवान के चरणों का निर्माण करवाया, साथ ही मन्दिर के परिसर के साथ उस स्थान को जोड़ा व उसकी सेवा का भार उस ग्वाले के परिवार को दिया।
तब ग्वाले ने प्रसन्नचित्त होकर उस रथ को खींचा और भगवान की पालकी पहुँची इस भव्य मंदिर के पास।
स्थापना हुई और बन गया एक अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीर जी, राजस्थान की भूमि पर।
अतिशय क्षेत्र इसलिए भी कि कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
उस मंत्री के किसी शत्रु ने राजा के कान भरे किसी अन्य मामले में, और राजद्रोह मानकर राजा ने उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई।
मंत्री निर्दोष थे, उन्होंने कारावास में भगवान का ध्यान किया और इधर राजा को सत्य का आभास हुआ और उसने मंत्री से क्षमा माँगी।
सभी मन्दिर की इस चमत्कारिक मूर्ति से प्रभावित होते चले गए और आज दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का यह अतिशय तीर्थ क्षेत्र है, जो इसकी इस महत्ता के साथ इसकी कलात्मकता के लिए भी प्रसिद्ध है और एक पहाड़ी स्थल की शुद्ध और पवित्र वायु के लिए भी।
***
ये तो कथा थी जो हमारे बाबुजी ने मुझे और मैंने आपको सुनाई, अब बात मेरी यात्रा और अनुभव की।
फरवरी का महीना।
हम सभी श्रीमहावीर जी स्टेशन से बस से पहाड़ी उबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए हिचकोले खाते हुए करीब आधे धंटे में मुख्य मन्दिर के बाहर पहुँचे, रात के दस बज चुके थे।
विशाल श्वेत संगमरमर का मन्दिर पीली रोशनी से नहाया हुआ बरबस आकर्षित कर रहा था।
पट बन्द न हो जाए इसलिए हम मन्दिर की लम्बी-चौड़ी सीढ़ियों को तय करते हुए मुख्य मंदिर के उस स्थान पर थे जहाँ इस मूर्ति की हम शक्ल मूर्ति स्थापित थी। एक शान्ति, एक ठहराव, ध्यान मग्न सभी प्रतिमाएँ, ध्यान का शान्ति का संतोष का संदेश देती ,,,,, दर्शन करके बाहर निकले तो वहाँ से स्तम्भ का अद्भुत नजारा, जिसमें चारों ओर शिखर पर चार देव प्रतियाँ विराजमान थी।
चारों ओर दृष्टि घूमी तो विशाल परिसर धर्मशाला के कमरों से धिरा अभयदान देता प्रतीत हो रहा था।
और मन्दिर के भीतर से आती भजनों की मधुर भक्तिमय स्वर लहरी संगीत के साथ,,, इस आनन्द को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता।
परिसर से बाहर निकले तो सजा-सँवरा ग्रामीण परिवेश का बाजार और चाट पकौड़े की खुशबू ।
बचपन में खाए हुए वहाँ की विशेष राजस्थान की पकौड़ी और चटनी का स्वाद तो अभी भी मन नहीं भूला था और गर्म -गर्म केसरवाला दूध।
रात हो गई थी, हम सभी अपने-अपने कमरों में विश्राम के लिए चले गए।
प्रातःकाल का नजारा तो और भी मनभावन था, जहाँ बड़े-छोटे सभी श्वेत धोती और दुपट्टा को लपेटकर मन्दिर की सीढ़ियों पर चढ़ते नजर आए।
श्वेत संगमरमर का मन्दिर सूर्य की रोशनी में नहाया हुआ और शिखर पर सोने का चमकता गुम्बद और मन्दिर से धण्टों का मधुर स्वर, नाद बनकर गूँज रहा था पूरे वातावरण में। और छोटे-बड़े सभी पूजा की थाल लिए, अविस्मरणीय नजारा था।
हम भी सभी जल्दी से तैयार हुए और मन्दिर में गए, मुनिराज द्वारा पूजा का विधान, अभिषेक और फिर आरती के पवित्र स्वरों में जैसे खोता जाता मन।
मन्दिर में मुख्य टोक के आगे एक टोक और दोनों प्रतिमाएँ एक समान। बात समझ में नहीं आई तो बाबुजी से पूछा, उन्होंने बताया कि मुख्य टोक की प्रतिमा मुख्य प्रतिमा है, जो न जाने कितने सालों से भूमि के भीतर दबी थी, उसका प्रतिदिन अभिषेक होने पर वो प्रतिमा धिस रही थी, उसके संरक्षण के लिए वहाँ के संरक्षकों ने वैसी ही दूसरी प्रतिमा बनवाकर उसके सामने स्थापित कर दी, जिसका अभिषेक और पूजा प्रतिदिन की जाती है।
पूजा करके हम नीचे उतरे और मन्दिर के पीछे जहाँ ग्वाले के लिए भगवान के चरण बने थे उसकी ओर चल पड़े । यह रास्ता और वह स्थान मन्दिर के पीछे, मन्दिर के साथ ही जोड़ा गया था, जिससे उसी परिसर से होकर जाना था, ऐसा लगा जैसे ये किसी महल के पीछे की सुन्दर फुलवारी है, जिसमें यह टोक बनाया गया हो। भगवान के चरणों पर सिर झुकाकर वहाँ के संरक्षक एक बूढें ग्वाले से बात करने की इच्छा हुई। मैंने उससे पूछा तो उसने बताया कि हमारी पिछली पीढ़ियों से ही इस स्थान की जिम्मेदारी हमें दी हुई है। जिस ग्वाले को यह प्रतिमा मिली थी, हम उनकी संतान हैं, पर अब परिवार बहुत बड़ा हो गया है, एक गाँव ही बस गया है। अतः हम बारी-बारी से यहाँ देखभाल करते हैं और पूजा से प्राप्त सामग्री का उपभोग करते है।
अच्छा लगा कि तीन सौ से अधिक साल बाद भी आज वो परम्परा निभाई जा रही है और ग्रामीण ग्वालों के भरण पोषण की व्यवस्था हो रही है।
मुख्य मन्दिर के नीचे बायी ओर एक ध्यान मन्दिर भी है, उसमें भगवान की विशाल फोटो के समक्ष बैठकर ध्यान करना नहीं पड़ता, हो जाता है।
बिल्कुल शान्त और पवित्र वातावरण।
इस बार वहाँ जाकर एक और सुखद आश्चर्य हुआ। जयपुर के एक धर्म प्रेमी हीरे जवाहरात के व्यापारी ने वहाँ बहुमूल्य रंग बिरंगे हीरे-जवाहरात की सैंकडों छोटी-बड़ी मनमोहक तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लगा रखी हैं, जिन्हें देखना और उसकी ऊर्जा को महसूस करना एक अलग ही अनिर्वचनीय आन्नद प्रदान करने वाला है।
अन्य अनेकों मन्दिरों और धर्मशालाओं का निर्माण लगातार मानव की श्रद्धा व भक्ति रूप वहाँ दृष्टव्य है।
पता चला कि एक नया म्यूजियम भी बनाया जा रहा है, वहाँ गए तो सुखद आश्चर्य हुआ यह देखकर कि अनेकों प्राचीन मूर्तियों व शास्त्रों का भी संग्रह किया जा रहा है, जो शोधकर्ताओं के लिए भी एक अच्छा अवसर देने वाला है। साथ ही अनेकों अंग-भग मूर्तियों को देखकर मानव की नासमझी और क्रूरता पर अफसोस भी हुआ।
तीन दिनों तक इस पवित्र तीर्थ स्थान का आन्नद प्राप्त कर पुनः-पुनः आते रहने के पवित्र भाव के साथ हम सभी लौट चले।
(श्री महावीर जी राजस्थान के करौली जिले के हिंडौन ब्लॉक में श्री महावीरजी कस्बे में स्थित एक महत्वपूर्ण और प्रमुख जैन तीर्थ स्थल है । धार्मिक स्थल के महत्व को देखते हुए, भारतीय रेलवे ने विशेष रूप से पश्चिम मध्य रेलवे ज़ोन के तहत श्री महावीरजी रेलवे स्टेशन के नाम से एक रेलवे स्टेशन विकसित किया है जो मंदिर से 10 मिनट की ड्राइव दूर है और मंदिर के अधिकारियों ने स्टेशन से मंदिर तक नियमित बसों की व्यवस्था की है। मंदिर में हर साल लाखों जैन और हिंदू भक्त आते हैं।)
इंदु झुनझुनवाला, बैंगलुरु
——–
सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net