अपनत्व से पूरित स्नेहमयी आदरणीय चित्रा दीदी,
बहुत सालों बाद फिर से बात हुई थी आपसे और चलने लगा बातों का सिलसिला। माथे पर चमकती बड़ी -सी गोल बिन्दी, चेहरे पर गजब का नूर, सौहार्द से पूर्ण शहद -सी मीठी पर दृढ़ता लिए आपकी वाणी। आपसे बातें करके एक सुकून तो पाता ही रहा मन, साथ ही आपकी बातों से चुनौतियों से लड़ने का हौसला भी मिलता, जो बहुत जरूरी था मेरे लिए, “जीवन इतना आसान भी तो नहीं होता न इन्दु, खासकर स्त्रियों के लिए पुरुषप्रधान समाज में” – आपने कहा था ।
करीब 15 वर्ष पूर्व पी एच डी के लिए मुझे विषय मिला था – चित्रा मुद्गल के साहित्य में नारी विमर्श।
तब आपसे बात की थी मैंने। आपके सारे उपन्यास, कहानियाँ सभी मँगवा लिए थे, साथ ही अनामिका जी मृदुला सिन्हा और भी कई लेखिकाओं की पुस्तकें इस विषय पर, आपके दिए नम्बरदार प्रकाशकों से ,जिसमें सामयिक प्रकाशन व प्रभात प्रकाशन याद है मुझे, साथ ही अमन प्रकाशन भी।
एक वर्ष में सभी पढ़ डाले ।
पढ़ा ही नहीं, जैसे उन नारी पात्रों को जीने लगी मैं, अपनी संवेदनशीलता के वशीभूत।
तब लगा, मैं नारी विमर्श के योग्य नहीं।
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एक लम्बे अन्तराल के बाद अभ्युदय अंतरराष्ट्रीय के साहित्यिक आयोजन के संदर्भ में आपसे पुनः बातचीत हुई, सूत्रधार थे अमर जी, मेरे धर्मभाई भी, गुरु भी( डॉ अमरनाथ अमर- दिल्ली दूरदर्शन के कार्यक्रम विशेषज्ञ और हमारी संस्था के संस्थापक सह अध्यक्ष भी।
आप बीमार थी, पर आपकी आत्मशक्ति कभी बीमार नहीं हुई।
आपकी बातों में ममता और अपनापन के साथ जो अबोध बच्चे-सी सरलता और सच के प्रति आपका पूर्ण झुकाव और दृढ़ता, मन को गहरे तक छूने लगा था।
बहुत छोटी हूँ दीदी, आपसे उम्र में, अनुभव में, ज्ञान में भी। पर आपने अनुभव ही नहीं होने दिया, जब आपने पहली बार कहा मुझे कि इन्दु, तुमसे एक जरूरी सलाह लेनी है, मेरी इन कविताओं के लिए, तो मैं हतप्रभ रह गई।
जब आपने अपने और अवध जी के प्रेम प्रसंगों की चर्चा की तो मानो आपकी सखी बना लिया आपने मुझे।
जब आपने ये कहा “अचरज होता है, लोगों को देने आदत कम हो गई है। तुम उस आदत की गूंज लक में क्यों नहीं फंसी?” तो मैं हर्षविभोर गई।
जब आपने अपनी पहली कहानी और कविताओं के बारें में बताया कि वे चित्रा ठाकुर के नाम से कहाँ- कहाँ कब – कब छपी, तो मैं आपकी याददाश्त की कायल हो गई।
आपने बताया था दीदी-
“किशोरावस्था में पहली कहानी ‘,डोमिन काकी’- स्कूल की कथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत होकर स्कूल की वार्षिक पत्रिका ‘अर्चना’, में चित्रा ठाकुर, कक्षा 7’ब’ मैं छपी । लेकिन किसी बड़ी पत्र-पत्रिका में ,’सफेद से नारा’, को लोग मेरी पहली कहानी मानते हैं।”
फिर आपने लिखा-
“मैं तुम्हें स्कूल के वक्त में हाई सेकेंडरी तक जिन बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में मेरी कविताएं छपी, उस की कॉपी भी भेज रही हूं नाम सब के ऊपर लिखे हैं और वर्ष भी, ‘मंजिलें है मेरी दूर अभी’ कविता स्कूल की पत्रिका ‘अर्चना’, में प्रकाशित हुई। तुम्हारे अवलोकनार्थ यह मेरी कविताएँ हैं, जो नवभारत टाइम्स मुंबई में 1962,1963 ,1964 में प्रकाशित हुई चित्रा ठाकुर के नाम से मेरे और पापा के बीच यह मेरी कविता धर्म युग में प्रकाशित हुई थी 1961 में। अभी अम्मा की दी हुई पुरानी फाइल पलट रही थी तो यह कविताएं मिली। तुमसे एक जरूरी सलाह भी चाहिए, किशोरावस्था की यह कविताएं धर्मयुग नवभारत टाइम्स स्कूल की पत्रिका अर्चना और ब्लिट्ज में प्रकाशित इन कविताओं को क्या मुझे अपनी कविता पुस्तक में शामिल करना चाहिए?”
-”आपकी भेजी उन कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा था मुझे दीदी।”
तब मैंने कहा था- “ये तो बहुत ही प्यारी धरोहर है दीदी। आपकी कविताऐं भी आपकी तरह ही बहुत प्यारी और सच्चे दिल की बयानी है, बहुत अच्छा लग रहा है इन्हें पढ़कर। आप तो श्रेष्ठ कवयित्री भी हैं।”
आपने एक सखी की तरह कहा-
“ठीक है शामिल कर लेती हूँ।जब मोहब्बत नहीं की थी तो मोहब्बत की कविताएँ लिखी थी। लग रहा था कि मैं तुमसे और अमर से पूछ लूँ, हंसोगे तुम लोग मुझ पर।”
तब मैंने कहा था- “दीदी, बहुत सुन्दर कविताऐं हैं, अब आपके कार्यक्रम में मैं तो अब इसी विषय पर बोलूँगी।”
तब मैंने भी बताया आपको – :” मैंने भी जब नहीं जाना था कि मोहब्बत क्या होती है, तब कालेज में अपनी सहेलियों के लिए प्रेम पत्र लिखकर देती थी।”
इसी तरह की बातें होती रही थी।
पर उस दिन आपने जो मुझे बताया, 13 फरवरी 2022 की शाम थी। आपने अपने आई सी यू की जो बातें बताईं और उसके साथ आपके और अवध जी के प्यार के दिल छू लेने वाले किस्से,,, पता नहीं मुझे क्या हुआ,,,
मैंने धृष्टता की, पहन लिया आपका चोला, परकाया प्रवेश, बन गई चित्रा मुद्गल और लिखा एक पत्र अवध जी के नाम –
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तुम्हारी बाहें
तीसरी बार बिस्तर पर,,,, नहीं बिस्तर पर ही नहीं,,,, अस्पताल के इन्देन्सिव केयर यूनिट में।
अब मैं नहीं बचूँगी, 80 साल की हो जाऊँगी एक दो सालों में।
ना जाने जीवन के कितने उतार-चढाव देखे।
बहुत कुछ खोया तो बहुत पाया भी ।
मेरे जीवन की अमूल्य निधि अवध तुम, तुम्हारा बेइन्तहा प्यार और साथ।
सारी तकलीफों और कष्ट से ऊपर ।
आज इन कल्पित अन्तिम क्षणों में फिर से उन बीते पलों में दिल गुम हो जाना चाहता है, अवध, तुम्हारी बाहों का सिरहाना चाहता है, पर कैसे?
तुम तो छोड़कर जा चुका हो बहुत पहले। तुम्हारे बिना जीना क्या आसान बात थी, पर इतने साल जी चुकी अवध, तुम्हारे बिना। अब तो बस तुम्हारे पास आकर ही सुकून मिलेगा। नहीं जानती कि उस पार तुम कहाँ होगे, पर एक अटूट विश्वास आज भी है। जो तब था जब हम पहली बार मिले। तो मिलते चले गए। और तुमने जो भी कहा, मैं करती चली गई। तुमने कहा चित्रा, कल तुम साडी पहनकर आना और मैं आई। हम दोनों ने साथ में फोटो भी खिचवाई ।
तुम्हारी एक आदत – दिन महीने तारीख लिखने की फोटो के पीछे, वो सी डी पर लिखने वाले पेन से, मुझे डर लगता था कोई पढ ना ले,पर तुम बेखौफ लिख देते थे।
हमारा छुप-छुपकर मिलना, वो एक जमाना था अवध। जब प्यार आज की तरह न तो खुलेआम कहा जाता था न किया जाता था, न स्वीकार जाता था। पर पता नहीं तुममें क्या बात थी अवध कि मै तुमसे प्यार कर बैठी, बेइन्तहा प्यार। और आज भी मुझे फक्र है अपने प्यार पर, गर्व है मुझे कि तुम मेरे जीवन साथी रहे।
ये और बात है कि जीवन के इन क्षणों में तुम्हारी और अधिक आवश्यकता महसूस होती है। पर जानती हूँ तुम्हारी मजबूरी भी।
तुम अपनी इच्छा से थोड़े ही गए थे मुझे छोड़कर, वहाँ भला कौन अपनी इच्छा से जाता है!
पर हाँ अवध, मैं अब अपनी इच्छा से वहाँ आना चाहती हूँ, जहाँ तुम हो।
ढूँढ लूँगी तुम्हें और तुम भी तो भूले नहीं हो मुझे, मेरा ही तो इन्तजार है तुम्हें भी। अच्छी तरह जानती हूँ। तभी तो आज डर नहीं लग रहा। आज एक-एक कर तुम्हारी हर बात याद आ रही है मुझे ।
याद है तुम्हें, जब पहली बार नौकरी के लिए तुम मुझे छोड़कर दूसरे शहर चले गए थे, तब हमने चिठ्ठियाँ लिखी थी पहली बार एक-दूसरे को ।
हम दोनों को ही तो लिखने-पढने का शौक था और डायरी के पन्नों को शब्दों से रंगना आदत थी हमारी, वो भी पूरे दिन समय और वार के साथ। ये आदत तुमने ही तो बनाई थी। बहुत कुछ सीखा था तुमसे मैंने अवध।
वे चिठ्ठियाँ और वे डायरी के पन्ने! मुझे कविता लिखनी नहीं आती। पता नही जो लिखा वो शास्त्रीय दृष्टि से कविता है या नहीं? पर मेरी उन पंक्तियों मे “मैं” थी और उस “मैं” को तुमने आत्मसात कर “हम” बनाया। एक दिन या कुछ महीनों के लिए नहीं, जीवनभर के लिए अवध, ये उपकार भी तो था।
अरे, वे डायरी के पन्ने और चिठ्ठियाँ, काश आज मेरे पास होते, तो तुम्हें अपने और करीब महसूस कर पाती, पर सम्भव नहीं। आई सी यू में इजाजत नहीं।
बहुत उदास हो गई हूँ अवध, जैसे तुमसे मिलने का एक और मौका खो दिया है।
याद है,, शादी के पहले भी एक बार ऐसा ही हुआ था, तुम मुझसे मिलने आने ही वाले थे कि अचानक हिन्दुस्तान और चीन के बीच बढी युद्ध की आशंका ने हमदोनों के बीच भी जैसे एक दिवार खींच दी हो।
अवध, अब मन बेचैन होने लगा है।
शाश्वत, तुम्हारा लाडला, बगल के बिस्तर पर सो रहा है। उससे क्या कहूँ? पर नींद नहीं आ रही।
सीने में फिर से हल्का दर्द। तुम्हारे प्यार का या…पता नहीं।
पर ,पूरी रात तुम्हारी यादों में खोई, गुजर गई। ठीक उसी प्रकार जैसे तुम्हारे जाने के बाद से अब तक वे यादें ही तो सहारा रही मेरा।
सुबह हो गई है। आध्या मेरे पास आ गई और शाश्वत चला गया घर ।
आध्या भी तो एक संवेदनशील युवती हो गई हैं न अवध!
मुझे देखते ही बोली , क्या बात है अम्मा, आप इतनी बेचैन क्यों हैं ?
उसका इतना पूछना था कि मेरी आवाज भीग गई।
मैंने कहा- बेटा मुझे घर से मेरी डायरी और कुछ पन्ने चाहिए, पर,,,?
अरे अम्मा,आप परेशान ना हों। मैं लेकर आऊँगी।
पर बेटा?
आप मुझपर छोड़ दो ना अम्मा।
मुझे तो समझ नहीं आया मैं क्या कहूँ, कहीं इस बच्ची को मेरे कारण डाँट न सुनना पड़े।
मैंने फिर कहा, “रहने दे बेटा, कोई खास बात नहीं ।इतना भी जरूरी नहीं।”
मैं उसे समझा रही थी या खुद को पता नहीं।
जरूरी तो बहुत था मेरे लिए, अन्तिम समय में अवध की यादों के खजानों के साथ रहना।
खैर, दिन बीत गया।
शाम जब वो घर जाकर फिर से आई, तो मैं चकित रह गई।
मेरा खजाना, मेरी संजीवनी लेकर आई वो, ना जाने किस तरह, अपने कपड़ों के भीतर छुपाकर डायरी और तुम्हारी मेरी चिठ्ठिया उसके हाथों में थी, जिन्हें छूकर तुम्हें महसूस किया मैंने।
मेरा दर्द कम नहीं हुआ, बल्कि मुझे लगा अब दर्द है ही नहीं।
खोले कुछ पन्ने और फिर अपने सिरहाने रखकर तुम्हारी बाहों में सिर रखने का सुकून महसूस किया।
आध्या के लिए असीम दुआओं के फूल अन्तरात्मा ने बिखेरे और गहरी नींद आई मुझे उस रात।
सुबह डाक्टर ने कहा,आप खतरे से बाहर हैं। मुझे तुम्हारी बाहें याद आ गई, जिसने हर बार मुझे सम्भाला हैं।…
तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी चित्रा…
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मैंने चोला उतारा दीदी, इतना सब लिखकर और फिर भेज दिया आपको ये पत्र व्हाट्स पर ही,,।
इसे थोड़ा पढ़कर आपने लिखा मुझे –
“इसे पढ़कर अभी कुछ कहना मुश्किल है, भरी आंखों से ठीक से पढ़ भी नहीं पाए।”
मुझे लगा कि ख्वामख्वाह आपको दर्द दे दिया क्या मैंने ?
“कल आपसे बात हुई तो भाव उमढ-धुमढ रहे थे, रात भर बेचैन थी और सुबह उठकर सबसे पहले पन्नों पर उतारा, क्षमा कीजिए दीदी। “
तब आपने कहा था-
“जब भी कुछ बोलना चाहती हूं इंदु तुम्हारे लिए, आँखों में डबडबाआई, तुम ही बोलने नहीं देती…..
इस दीदी को जिस बड़े रूप में तुम देखना चाहती हो, जहाँ होने की कल्पना करती हो, उसकी इबादत मैं रोज करना चाहती हूँ अपने कागज-कलम के साथ होकर। अचरज होता है, लोगों को देने आदत कम हो गई है। तुम उस आदत की गूंज लक में क्यों नहीं फंसी?
तुम्हारे भीतर की लड़की को बहुत-बहुत प्यार, जो सपने अपने लिए ही नहीं, औरों के लिए भी देखने की आदी हो चुकी है, बहुत कुछ मैं भी पढ़ रही हूं, तुम्हारी कक्षा में जा बैठी हूँ।”
ऐसा कहकर आपने मुझे निःशब्द कर दिया था दीदी। आपके स्नेह की छाँव से मेरा मन भी भर गया था।
मैंने लिखा तब
“स्नेहमयी चित्रा दीदी,,
आपका आशीर्वाद इतने आत्मीय शब्दों में मिल रहा है दीदी कि मैं निःशब्द होती जा रही हूँ, बिल्कुल बौनी हूँ आपके महान व्यक्तित्व के समक्ष और आपने इस धूल के फूल को हृदय में स्थान दिया, उससे अधिक और क्या पा सकेगा कोई जीवन में। शत शत नमन दीदी आपको, आपकी लेखनी को और आपके उस सहृदयता को, जहाँ हर किसी के लिए एक प्यारा-सा स्थान हमेशा बना रहता है अक्षय पात्र की भाँति।”
बस इतना ही कह पाई थी तब मैं, आपसे फिर से मिलने की ललक लिए, आपके स्नेह भरे हाथों को थामकर सुकून के कुछ पल पाने के लिए, आपके आशीर्वाद के लिए, पहाड़ -सी दृढ़ता और नदी -सा आत्मविश्वास पाने के लिए, आपकी सूर्य-सी तपन और चन्द्रमा-सी शीतलता पाने के लिए!
आपकी छोटी बहन
इन्दु झुनझुनवाला