ईश हमारे- शैल अग्रवाल


भव्य भारती है यह
तारों के रहस्यों से लेकर
सूरज चांद की अनबूझी चाल
शून्य का अविष्कार और
मानवता का देवत्वमय श्रुति गान
पृथ्वी से लेकर आकाश तक
रहस्यों की खोज अविरल
और मेरे भारत की खोज ही
मेरे अस्तित्व की, जड़ों की खोज
शिव राम और कृष्ण की खोज
शिव सत्य और सुंदर की खोज
यही तो हमारी धर्म और संस्कृति
पूरा भूगोल व इतिहास
चेतना और प्रेरणा
जिज्ञासा ज्ञान पिपासुओं की
जन मानस को सदा
इन पर ही विश्वास।

शिव, ईश हमारे
कहते हैं तुम द्रविडों के देव थे
इसलिए आर्यों ने तुम्हें
यह विचित्र और वीभत्स रूप दिया
भस्म लपेटकर शमशान में बिठलाया
और उसपर भी मन नहीं भरा तो
सांपों को भी गले से लटका दिया
पर मेरे लिए तो तुम सदा ही
सहज और सुंदर उमापति
सोम्यता से भरे, शिवता से भरे
अपने से पहले दूसरों के लिए सोचते
शत् शत् नमन तुम्हें मेरे भोले बाबा
शीश पर लहलहाए हरहर गंगे
और त्रिशूल पर काशी टिकी
राम पूजें तुम्हें और तुमने सदा ही
रामनाम की ही माला जपी
राम हैं मर्यादा पुरुषोत्तम
कोमल मन और बलिष्ठ तन
असुरों के संहारक
मुनियों के सहायक
और तुम…
नाथ अनाथों के
रुद्र से रुद्र रूप लेकर भी
आशुतोष, सदा ही
भवभय दारुणम्।

मातु जानकी

उत्साहित था हर अयोध्यावासी
लेकर मंगल थाल दीप आरती
सजाए बन्दनवार नयनन् द्वार
लौटेंगे अब उसके सीता राम

सीता राम, राम सीता दोनों अलग कब पर
एक दूसरे के पूरक समर्पित जीवन साथी
पर आते ही सीता फिरसे निष्काषित वन को
क्यों विछुड़ जाती है नित नित यह सीता
क्यों संभाल नहीं पाते हम मातु जानकी को
सीता जिसके लिए राम दरदर भटके
रावण संग भीषण युद्ध लड़े

क्या इतने कच्चे थे राजाराम कान के
या फिर झूठी-सच्ची हर अफवाह का
महत्व अधिक था प्रत्यक्ष प्रमाण से
अग्नि परीक्षा लेकर भी त्याग
वह भी गर्भवती पत्नी का !

बहुत उदास होता है मन जब जब सोचती हूँ
मर्यादा पुरुष राम, तुम्हारी पत्नी के बारे में
राजमहल से सीधे वन तक जो साथ चली
उसके साथ तुम राज महल में
चार कदम भी न चल सके?

दूसरे की पत्नी को तारने वाले राम अपनी पत्नी के बचाव में क्यों
तुम्हारा दैवत्व सहायक नहीं हुआ
क्या दोष था उसके त्याग और विश्वास में
या फिर कुछ ऐसा है जो हम नहीं जानते,

पतिव्रता रूपवती गुणशीला
जिसके बिना तुम्हारा जीवन था रीता
खोने क्यों दी तुमने बारबार अपनी सीता
कभी वन से तो कभी मन से!

अग्नि से जो जीवित निकल आई
सामने तुम्हारे खड़ी धरती में जा समाई
और तुमने रोका तक नहीं, कैसा दारुण विषाद रहा होगा उस पत्नी का
जिसके पति को उसकी परवाह ही नहीं!

दोष किसका था सोने के मृग का, राक्षसों का
जिनके संहार का माध्यम बनाया था तुमने इसे
या फिर विधि का जिसके आगे सब मजबूर,

या फिर कहानी यह मानस की
हमें कुछ और बताना चाहती है
सनातन आंतरिक द्वंद दर्शाती है,

राम-रावण को अतस में संजोए
आदमी तो यह सदा से ही श्रापित
राजमहल तक में भी रहा भटका भूला
आत्मा का तेज संभाले न संभले इससे
छलते नित राक्षस लोभ मोह के
बर्गला जाते वचन ओछों के
हर लेते आत्मा को देह से छीन के।

सीता का जब जब होगा हरण
भटकेंगे तब तब राम वन वन
और सोने की लंका का दहन,
पर बचता नहीं कुछ
न हार न जीत
रह जाती बस एक भटकन।

खुद की ही तलाश है शायद यह मातु जानकी, इसे भूल कर निष्काषित कर
खुद से ही हो जाते हम दूर
जीता सब कुछ हार जाते।

इस शक्ति को पाना
सहेजना-संभालना, एक युद्ध निरंतर
बनवास और तपस्या
आज भी..


सियाराम मय

‘सुंदर कांड पढ़ ले, डर नहीं लगेगा ‘ माँ समझाती जब जब आधी रात में अचानक ही
नींद से लथपथ पसीने-पसीने मैं जाग जाती ‘रामायण पढ़कर तो देख, शांति मिलेगी ‘ हंसकर कहतीं और कभी मनातीं रूठजाने पर- ‘हनुमान तो नहीं जो दिखा दूँ तुझे सीना चीर’
सिराहने आते ही कर जाती थी कितने राक्षस ढेर यह किताब बचपन की उन मासूम डरावनी रातों से बचपन था वो हमारा,जहाँ बात-बात में थी रामायण
शबरी खिलाती थी भगवान को स्नेहवश झूठे बेर
राम की करुणामयी सत्ता में जाने कितने हैं पात्र
राजा रानी महल संग वन का वो जटिल जीवन पत्थर की अहिल्या, नदिया पार ले जाते खेवट निषाद
गरुण, जामवंत और जटायू के साथ सुग्रीव, हनुमान
सभी राम के सहयोगी, सभी राम के साथ
सभी की मित्रता गर्व करने योग्य
एकोsहं और सर्वोSहँ का संदेश देते- सबके थे राम और सबमें ही राम
आज क्यों नहीं पढ़ी जाती पर घर-घर धूल खाती यह किताब
बड़े चाव से पढ़ी जाती थी जो कभी
कन्द में लिपटी पूजाघर में रहती थी भावातुर माँ दादी नानी जिसे
नित उठते ही माथे से लगाती थीं
मंगल भवन अमंगल हारी, हर खुशी, आपदा में
विह्वल हो-होकर गाती और दोहराती थीं
आज वो बड़े नहीं पर रामायण है पर अब फुरसत नहीं
दौड़ती-भागती जिन्दगी को थमने और पलटने की शब्दों में, मौन में, सुख-दुख और हार-जीत के हर उद्वेलित कब और कौन में पसरा रह जाता है बस एक सन्नाटा प्रश्न पूछता, उत्तर तलाशता-
जय रामजी से लेकर हरे राम तक
रामराम से रामनाम सत्य तक
जब सांस-सांस में ही रचे बसे
पलपल रहते तुम साथ
हे राम क्यों फिर एक प्रथा एक उच्छवास ही
रहगया आज तुम्हारा यह पावन नाम
कहाँ गई वो श्रद्धा, वो जादू,
उठाओ फिरसे अपने धनुष बाण
क्या हम ही नहीं तुम्हारे
या तुम ही नहीं रहे अब दीनानाथ !

सो गए क्या सुख शैय्या पर क्षीर-सागर में जाकर—
अपहरण, अराजकता, लूटपाट, हिंसा और भय का यह संक्रमण भूले कर्म, कर्तव्य हम, तप-संकल्प, एक-एक त्याग तुम्हारा
किसी भ्रांति में मत रहना तुम मंदिर भी जो बनवाए हमने तो
अपनी ही कीर्ति-ध्वजा फहराने को
आओ, याद दिलाओ वे सारे आदर्श और सपने
जिनके बलपर राक्षस ही नहीं, खुद को भी कभी तुमने जीता था
वचनों की वह प्रतिबद्धता सहजता से जिन्हें निभाया था
राक्षसों को मारना तो आसान था पर गर्भवती सीता को छोड़ा था
आज वो न्याय नहीं
आपसी सम्मान और समता का भाव नहीं अपनों पर अपनों को ही विश्वास नहीं
रिश्तों का अर्थ रह गया बस गूढ़ आघात क्या मार सकोगे फिरसे वे राक्षस
द्वारे-द्वारे जो अदृश्य खड़े करते हैं अट्टाहास !
प्रसंग फिरसे वही सोने की लंका और सोने के मृग का ही तो सुरसा के फैलते मुख और सूपर्णखां की कटती नाक का ही तो जा बसे हैं अब दूर बेटे तज के घर-घर में बूढे माँ-बाप महलों के सपनों में खोई सीता भी अनुगामिनी नहीं आज
सूनी आखें रोती नही अब, श्रापित है अपना लोलुप समाज
विश्वास में रही ना ताकत, ना ही प्रेम में वह साहस
समरथ को जग गोसाईं, ढोंगियों से भर चुका समाज कहाँ वो पुत्र जो त्यागें पिता के वचनों पे राजपाट कहाँ वो पिता जो पुत्र वियोग में तज दे प्राण
लखन-से भाई नहीं जो भाई के दुःख में देवें साथ!
प्रेम प्रतीत के बलपर ही तो कपि कीन्हो दुर्गम काज
पर्वत उठाए हाथ में लियो समुन्दर लांघ
प्रेम प्रतीत के बल ही तो बन-बन भटकी थी जानकी
भरत ने राखी थी कितने भक्तिभाव से कुल की साख
कथा ये प्रेम और त्याग की, सेवामय विश्वास की गौरव पाते जिससे मानव, बनती संस्कृति व संस्कार कथा शौर्यभरे परमार्थ की, जोड़े रखे जो बिखरा समाज ‘प्रवसि नगर कीजै सब काजा हृदय राखि कौशल पुर राजा ‘ समदर्शी थे गुरु गोस्वामी सांची शरण हमें दीन बखानी ‘सिया राम मय सब जग जानी करहु प्रणाम जोरि जुग पाणि।‘

एक युद्ध लगातार
जय-पराजय लगातार
अन्याय की भीड़ में कुचला
घायल न्याय लगातार
न रावण मिटे न राम ही चैन से
आज भी वही द्वन्द्व लगातार
फिर भी मन, फिर भी ए मेरे मन
संकल्प, एक प्रयास लगातार…

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