ठीक-ठीक याद करना कठिन है कि मैंने व्यंग्य लिखना कब से आरंभ किया। अपनी आरंभिक रचनाओं को टटोलता हूं तो उनमें कुछ एक निबंध मिल जाते हैं जिनमें अपने आस-पास के कुछ लोगों का उपहास करने का प्रयत्न किया गया था। ‘मैं बच्चों से घृणा करता हूं’ ऐसा ही एक निबंध था जो मैंने सन् 1957-58 में लिखा था। उसमें उन लोगों का मजाक उड़ाया था, जो अपने बच्चों की अभद्र आदतों को भी घर आए मेहमानों के सामने गौरव मंडित करते हैं। किंतु ऐसी रचनाओं को ठीक-ठीक व्यंग्य नहीं माना जा सकता, यद्यपि उनमें परिहास, विनोद और कहीं-कहीं तिरस्कार भी है। उसी समय लिखी गयी कुछ कहानियों में परिवेश की विसंगतियों का चित्रण भी मिल जाता है। किंतु वे ऐसी कहानियां हैं, जहां गरिमा का आवरण हटाकर किसी पात्र के व्यवहार की विसंगति को चित्रित किया गया है।
मेरे मित्रों का कहना है कि मेरी आरंभिक रचनाओं में भी चाहे वे कहानियां हों अथवा निबंध- व्यंग्य का थोड़ा-बहुत अंश है। किंतु उन रचनाओं में विद्यमान ‘वक्ता’ को स्वीकार करते हुए भी उन्हें मैं अपनी व्यंग्य-रचनाएं नहीं मान पाता।
आरंभिक व्यंग्य-रचनाओं के रूप में मुझे अपनी कुछ लंबी कविताएं याद आती हैं;यह संपादकों का मेरे कवि पर उपकार ही था कि सैकड़ों की संख्या तक पहुंचती मेरी कविताओं में से, कोई एक भी कविता किसी संपादक ने कभी प्रकाशित नहीं की। आज मैं उनके प्रति नतमस्तक हूं कि उन्होंने ठीक समय अपना निर्णय दे दिया। अन्यथा उनकी भूल के कारण आज मैं कवि बनकर फजीहत झेल रहा होता।
ऐसी पहली कविता ‘इतना मत रोना मेरी राधे’ थी, जिसमें कृष्ण के विदेश गमन पर गोपियों के असंतुलित रुदन से लेकर, देश की सेवा के नाम पर कच्चे बांध बांधने वाले ठेकेदारों, इंजीनियरों तथा मंत्रियों इत्यादि के प्रति अपना आक्रोश प्रकट किया गया था। यह कविता मैंने भाखड़ा बांध में आ जाने वाली दरार का समाचार पढ़कर, आक्रोश से पीड़ित होकर लिखी थी। अपने अनेक साथियों तथा गुरुओं के बीच एकाध बार उस कविता को पढ़कर सुनाया था और प्रशंसा पायी थी!
वह कविता मैं तब तक लोगों को सुनाता रहा, जब तक मेरे विरोधी; गुरु ने मुझे नीचा दिखाने के लिए, एक गोष्ठी में यह सिद्ध नहीं कर दिया कि वह रचना व्यंग्य तो है, किंतु कविता नही है। बात मेरी समझ में आ गयी। मैंने तब भी उनके प्रति कृतज्ञता का अनुभव किया था और आज भी करता हूं कि उन्होंने मुझे अपने व्यक्तित्व के प्रतिकूल विधा की ओर बढ़ने से बचा लिया। मैंने न केवल कवि बनने का हठ छोड़ दिया, वरन उस कविता को भी गद्य में लिख डाला। सुखद आश्चर्य यह था कि उसे पहले ही संपादक ने अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर पारिश्रमिक के बीस रुपए भिजवा दिए। मैंने तत्काल अपनी अन्य व्यंग्यात्मक कविताओं में से ‘कवित्व’ घटा डाला और कविताई का श्राद्ध कर दिया।
बीच में व्यंग्य-लेखन की दृष्टि से एक लंबा अंतराल आ गया। आज सोचता हूं तो पाता हूं कि यह मेरे जीवन का वह समय था, जिसमें व्यक्ति अपनी नयी-नयी उपलब्धियों और छोटे-छोटे सुखों की घटनाओं में भूला रहता है। वह उन अनुभवों की नवीनताओं में खोया रहता है। उस बहाव में वह अपने जीवन तथा परिवेश की विसंगतियों की ओर ध्यान नहीं दे पाता। कम से कम मेरे साथ यही हुआ। पढ़ाई समाप्त हुई। डिग्री पायी और नौकरी आरंभ की। भारतीय किस्म का, मर्यादित-सा प्रेम किया और विवाह कर लिया। संतान का जन्म हुआ और चार महीनों तक चक्करघिन्नी के समान नचाकर वह चल बसी। ये सारी घटनाएं ऐसी थीं, जो अपनी नवीनता और प्रवाह से मुझे स्तंभित कर गयीं- जिनके कारण और बहुत कुछ लिखा गया, किंतु व्यंग्य नहीं लिखा गया।
मेरे व्यक्तित्व में से कभी-कभी, किन्हीं कारणों से, व्यंग्य का तत्व कुछ ऐसा छन जाता है कि उसकी ओर ध्यान खींचे जाने पर, मुझे स्वयं आश्चर्य होता है। एक पाठक ने मुझसे पूछा था कि ‘आतंक’ लिखते हुए मैं अपने व्यंग्यकार को कहां सुला आया था? और तब मुझे स्वयं भी आश्चर्य हुआ कि सचमुच ही उस उपन्यास में व्यंग्यकार की परछांई भी नहीं है।
किंतु घटनाओं के इस मोड़ तक आते-आते जीवन का रोमांस स्थिर हो चुका था और यथार्थ अपने वास्तविक रूप में सामने खड़ा था। पहली संतान की मृत्यु के पश्चात दूसरी संतान की अस्वस्थता का कष्ट तथा उसकी मृत्यु से जुड़ी हुई जीवन की अनेक विभीषिकाओं का साक्षात्कार हुआ। उसने मन को जो पीड़ा दी, उसकी असह्यता ने मेरे व्यक्तित्व के वक्ता को पुन: मुखरित कर दिया और स्वयं को हलका करने के लिए व्यक्तिगत अनुभवों पर मैंने कटाक्ष किए। अपनी पीड़ा का ही उपहास किया। अपने घावों को छील-छीलकर स्वयं को रुलाया। इसी अवस्था में ‘अस्पताल’ तथा अन्य एब्सर्ड उपन्यास तथा अनेक अन्य व्यंग्य-रचनाएं लिखी गयीं।
उन रचनाओं को पढ़ अथवा सुनकर मेरे अनेक मित्रों ने स्तंभित होकर, बंद मुंह और फटी आंखों से मेरी ओर ताका। मुझे क्या हो गया है, कहीं मैं अपना मानसिक संतुलन तो नहीं खो चुका? कहीं ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति अपनी मृत संतान, उस संतान के दुखी माता-पिता, उसका उपचार करने वाले तथा अपनी असावधानी या नासमझी से उसकी मृत्यु का कारण बनने वाले डॉक्टर-नर्स सभी पर हंसने लगे! कोई किसी की पीड़ा, किसी के रुदन पर भी व्यंग्य करता है क्या?
किंतु मैंने अपना संतुलन खोया नहीं था, लिखकर अपना संतुलन लौटाया था। और तभी मैंने अनुभव किया कि विनोद, परिहास, प्रत्युत्पन्न मति तथा वक्ता इत्यादि गुण लेखक के व्यक्तित्व का अंग अवश्य होते हैं, किंतु कुछ अनुचित, अन्यायपूर्ण अथवा गलत होते देखकर जो आक्रोश जागता है- वह यदि कर्म में परिणत नहीं हो सकता और अपनी असहायता में वहां होकर जब अपनी तथा दूसरों की पीड़ा पर हंसने लगता है तो वह विकट व्यंग्य होता है। वह पाठक के मन को चुभलाता-सहलाता नहीं, कोड़े लगाता है, अत: सार्थक और सशक्त व्यंग्य कहलाता है।
व्यक्तिगत पीड़ा से उबर आने पर भी व्यक्तित्व की कृति नहीं बदलती। पीड़ित आक्रोश ने जो दृष्टि दी, उसने अपने व्यक्तिगत अनुभवों से बाहर निकल राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों को भी देखा और अपने पीड़ित आक्रोश को प्रकट करने के लिए मैं व्यंग्य लिखता रहा।
‘पांच एब्सर्ड उपन्यास’ के पश्चात स्फुट रचनाओं के अतिरिक्त जो दो बड़ी व्यंग्य-रचनाएं ‘आश्रितों का विद्रोह’ तथा ‘शंबूक की हत्या’ लिखी, उनके पीछे यही दृष्टि थी। ‘आश्रितों का विद्रोह’ में शासन द्वारा जनता के साथ किए गए समझौते के प्रति विश्वासघात की पीड़ा केन्द्रीय विचार है। जनता की रक्षा के लिए, जनता के आवाहन से पुलिस का संगठन किया जाता है और फिर उसी पुलिस से जनता का दमन किया जाता है। इससे बड़ी विसंगति और क्या होगी कि जनता अपने दमन के लिए संगठित की गयी पुलिस का व्यय स्वयं अपनी जेब में से दे रही है। यह तथ्य केवल इसी क्षेत्र तक सीमित नहीं है, शासन के प्रत्येक विभाग में यही स्थिति है। अत: ‘आश्रितों का विद्रोह’ में शासन-तंत्र के अनेक विभागों को इसी दृष्टि से देखा गया।
‘शंबूक की हत्या’ तक आते-आते सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियां पहले से ही बहुत अधिक विकट हो चुकी थीं। यद्यपि मेरा दृष्टिकोण पहले वाला ही था, किंतु मैं उसी शिल्प को दोहराना नहीं चाहता था, अत: एक पौराणिक पात्र ‘शंबूक’ के पिता के माध्यम से शासन के सम्मुख यह मत प्रस्तुत किया कि प्रजा के दुखों के लिए प्रत्यक्ष रूप से शासन ही उत्तरदायी है।
पिछले कुछ वर्षों से मेरा स्फुट व्यंग्य-लेखन प्राय: स्थगित है। इन वर्षों में या तो उपन्यास ही लिख पाया हूं, अथवा आवश्यक होने पर व्यक्तिगत निबंध। अपनी सृजन-प्रक्रिया में होते हुए इस परिवर्तन से परिचित तो हूं, किंतु उस पर मेरा वश नहीं है। जीवन के अनुभवों के गहरे और विस्तृत होने के साथ-साथ या तो छोटी रचनाएं भी बहुत कुछ कहने की आवश्यकता की मजबूरी में खिंचकर लंबी होती जाती हैं, या किसी उपन्यास के लेखन में लगे होने के कारण छोटी रचनाओं के विचार स्वयं ही टल जाते हैं, या मैं ही उन्हें टाल देता हूं। यह तो जानता हूं कि ‘कथा’ तथा ‘व्यंग्य’ दोनों तत्व मेरे भीतर उहापोह मचाते रहते हैं, किंतु लौटकर फिर छोटी कहानियों तथा छोटे व्यंग्यों पर आउंगा, या अब उपन्यास तथा व्यंग्य-उपन्यास ही लिखूंगा- यह कहना कठिन है।
अपनी व्यंग्य-रचनाओं में से ‘श्रेष्ठ’ का चुनाव कैसे करूं? श्रेष्ठ रचनाएं किन्हें मानूं, जो मुझे प्रिय हैं या जो प्रशंसित हुई हैं? जो लोगों का मनोरंजन करती हैं या जो प्रखर प्रहार करती हैं? जिनमें बात कटु है या जिनका शिल्प नया बन पड़ा है?
मुझे लगता है कि लेखक एक सीमा तक ही अपनी रचनाओं के प्रति तटस्थ हो सकता है। फिर भी उसके लिए अपनी रचनाओं में से कुछ का चुनाव असंभव हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अन्य लोग भी तो अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते। इसलिए मेरा ही चुना क्या बुरा है! अत: मैंने बिना किसी से पूछे, अपने आप अपनी रचनाएं छांट डाली हैं। वे रचनाएं श्रेष्ठ हैं या नहीं, इसका निर्णय मैं नहीं कर सकता। मैं तो केवल यह कह रहा हूं कि अपनी रचनाओं में से चुनाव मैंने अपनी इच्छा और पसंद से किया है। ‘श्रेष्ठता’ के साथ मैंने प्रितिनिधित्व का भी ध्यान रखा है। प्रयत्न किया है कि विषय, शिल्प तथा तकनीक के वैविध्य को भी महत्व दूं।
मैंने पाया है कि सामान्यत: जिन्हें हम ‘व्यंग्य’ कहते हैं, वे निबंधात्मक-व्यंग्य हैं। किंतु जब अनेक शिल्पों में लिखी गयी व्यंग्य-रचनाओं को सामने रखा जाता है तो निबंधात्मक व्यंग्य संख्या में सबसे अधिक होते हुए भी महत्व में कुछ हलके ही पड़ते हैं, इसलिए मैंने केवल वे निबंधात्मक व्यंग्य लिए हैं, जो किसी न किसी कारण से कुछ अधिक ‘कड़वे’ हैं। कथात्मक व्यंग्य को सामान्यत: कहानी के रूप में ही स्वीकार कर लिया जाता है। ‘हिंदुस्तानी’ तथा ‘सार्थकता’ भी कहानियों के रूप में प्रकाशित रचनाएं हैं, जो मेरे कहानी-संग्रह ‘परिणति’ में संकलित थीं किंतु विधा की दृष्टि से मैं उन्हें व्यंग्य ही मानता हूं, चाहे उन्हें कहानी के शिल्प में ही क्यों न लिखा गया हो।
अपने पांचों उपन्यासों में से मुझे ‘अस्पताल’ ही सबसे अधिक प्रिय है, और संयोग से ;कुछ अपवादों को छोड़कर- जिन्हें या तो व्यंग्य की समझ नहीं थी, या ईर्ष्या के मारे सच नहीं बोल सके; आलोचकों और पाठकों ने भी उसी की सबसे अधिक प्रशंसा की है। तीन फंतासी-व्यंग्य ‘अनागत’, ‘कैनोपी का स्वयंवर’ तथा ‘कबूतर’ भी मुझे बहुत पसंद हैं, यद्यपि हिंदी के समीक्षक और संपादक उन्हें बहुत पसंद नहीं करते। ‘अनागत’ तो फिर भी धर्मयुग’ में प्रकाशित हो गयी थी, किंतु ‘कैनोपी का स्वयंवर’ तथा ‘कबूतर’ बीसियों सम्मानित पत्रिकाओं से सखेद लौट आयी थीं। यदि मुझे ठीक याद है तो पहले वे संकलनों में प्रकाशित हुईं और बाद में कुछ छोटी पत्रिकाओं ने उन्हें साभार उद्धृत किया। इसका अर्थ यह नहीं है कि फंतासी लोगों की समझ में नहीं आती। मैं आज भी मानता हूं कि उन रचनाओं का पत्रिकाओं में अस्वीकृत होने का कारण उनकी प्रखरता थी।
यह ऐतिहासिक ‘आपात-स्थिति’ से बहुत पहले की बात है, जब पत्रिकाओं पर कोई सेंसर नहीं था, किंतु फिर भी प्राय: व्यावसायिक पत्रिकाओं ने स्वेच्छा से स्वयं पर एक भयंकर सेंसर लागू कर रखा था, जो अनेक कोटियों की प्रखर रचनाओं को अपनी ‘स्क्रीनिंग’ के कारण पाठकों तक नहीं पहुंचने देती थीं।
अपनी सारी उपलब्धियों के बावजूद हिंदी का आधुनिक ;गद्य व्यंग्य-साहित्य यह स्वीकार करता है कि उसके पास व्यंग्य का भंडार न तो बहुत विशाल है, और न बहुत वैविध्य पूर्ण। किसी व्यंग्यकार की कुछ ही रचनाएं पढ़कर पाठक उससे पुनरावृत्ति की शिकायत करने लगता है। इस पुनरावृत्ति से बचने के लिए ही लेखक को विधाओं तथा तकनीकों के वैविध्य का सहारा लेना पड़ता है।
व्यंग्य-मात्र लिखना मेरी मजबूरी नहीं है। अपनी लेखन आकांक्षा की तृप्ति मैं कहानियों, निबंधों और उपन्यासों के माध्यम से भी कर लेता हूं। व्यंग्य तभी लिखता हूं, जब केवल व्यंग्य लिखने के लिए मेरे पास कुछ नया हो। लिखने को नया हो तो शिल्प भी बन जाता है। यही कारण है कि मैंने व्यंग्य-लेखन में निबंध, कहानी, एब्सर्ड-उपन्यास, फंतासी उपन्यास तथा नाटक के शिल्प का प्रयोग किया है।
इन विविध प्रयोगों को मैंने शिल्प के रूप में ही ग्रहण किया है- उन्हें मैं भिन्न विधाएं नहीं मानता। केंद्रीय विधा तो एक ही है- व्यंग्य। कुछ लोगों को व्यंग्य को स्वतंत्र विधा मानने में आपत्ति हो सकती है। अत: व्यंग्य को स्वतंत्र विधा के रूप में मान्यता देने से पहले यह विचार कर लेना आवश्यक है कि ‘विधा’ अपने-आप में है क्या? साहित्य की विभिन्न विधाओं के भेद पर विचार करते हुए, मुझे सदा यही लगा है कि विधाओं के भेद का मूल कारण, साहित्यकारों के व्यक्तित्व का भेद है। विधा की शर्त, साहित्यकार के व्यक्तित्व की शर्तें ही हैं।
यदि साहित्यकार के व्यक्तित्व में बिंब प्रधान हो, तो वह कवि होता है घटना प्रधान हो तो कथाकार, विचार प्रधान हो तो निबंधकार- ठीक उसी प्रकार, साहित्यकार के व्यक्तित्व में यदि आक्रोश की बहुलता हो तो वह व्यंग्यकार होता है। यह दूसरी बात है कि आक्रोश सात्विक और ईमानदार न हो तो रचना झूठा प्रचार हो जाती है, ईमानदार और सुजनशील आक्रोश , कलात्मक होकर व्यंग्य की स्वतंत्र विधा को जन्म देता है।
व्यंग्य को स्वतंत्र विधा मानने के विरुद्ध( सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि व्यंग्य आज विभिन्न विधाओं में लिखा जा रहा है- कविता में, कहानी में, निबंधों में, उपन्यास में, नाटक में। किंतु ऐसी आपत्ति करने वाले भूल जाते हैं कि कथा-साहित्य भी महाकाव्यों में लिखा गया, नाटकों में लिखा गया, बृहत् उपन्यासों, लघु उपन्यासों, कहानियों तथा लघु कथाओं में लिखा गया। कविता महाकाव्य, खंडकाव्य, काव्य, गीत, नाटक इत्यादि छोटे-बड़े अनेक रूपों में लिखी गयी। नाटक पद्य-रूपक, गीति-काव्य, स्वतंत्र नाटक, एकांकी इत्यादि रूपों में लिखा गया।
इन सारी विधाओं पर विचार करने से, सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि विधा की दृष्टि से साहित्यकार के व्यक्तित्व का मूल तत्व ही निर्णायक तत्व है : जो व्यंग्य के संदर्भ में साहित्यकार का सात्विक, सृजनशील तथा कलात्मक,आक्रोश है। इतनी बात हो जाने के पश्चात, आगे का वर्ग-विभाजन भी किया जा सकता है कि व्यंग्य की कैसी रचना को ;शुद्ध व्यंग्य माना जाए और किस रचना के साथ अन्य विधाओं का मिश्रण होने के कारण किसी अन्य विशेषण की आवश्यकता होगी।
हिंदी के व्यंग्य-साहित्य को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से, सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों के कारण, भारतेन्दु-युग के पश्चात व्यंग्य का टूटा हुआ सूत्र न केवल फिर से पकड़ा गया, वरन् नवीनता और निखार के साथ दृढ़ किया गया। ‘व्यंग्य संकलन’ के नाम से पुस्तकें छपीं, उनमें ऐसे व्यंग्यात्मक निबंध थे, जो न तो निबंधों की परंपरागत परिभाषा में आते हैं, न कहानी की। हिंदी के स्वातंत्रयोत्तर व्यंग्य साहित्य की रीढ़ ये रचनाएं ही हैं, और इन्हीं रचनाओं ने व्यंग्य को हिंदी साहित्य में स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस मूल विधा की परिभाषा पर व्यंग्य-कथाएं, व्यंग्य-उपन्यास तथा व्यंग्य-नाटक स्थापित हुए।
कविता में भी व्यंग्य लिखे अवश्य गए, किंतु कवि इस विधा की स्वतंत्रता के विषय में इतने गंभीर दिखाई नहीं पड़े, जितने कि गद्य-लेखक। व्यंग्य-कवियों की महत्वाकांक्षा कवि बनने की ही रही, व्यंग्यकारों की, व्यंग्यकार बनने की।
कुछ अतिरिक्तद्ध शास्त्रीय समीक्षक व्यंग्य को केवल एक ‘शब्द-शक्ति’ के रूप में ही मंजूर करते हैं। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि हिंदी साहित्य के रीतिकाल तक, व्यंग्य या तो एक शब्दशक्ति था, या अन्योक्ति अथवा समासोक्ति जैसा अलंकार। किंतु समय और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ विधाओं का विकास भी होता है, और नयी विधाओं का निर्माण भी। हम व्यंग्य को आज के संदर्भ में देखें तो पाएंगे कि आज के व्यंग्य-उपन्यासों, व्यंग्य-निबंधों, व्यंग्य-कथाओं तथा व्यंग्य-नाटकों में व्यंग्य के शब्दशक्ति अथवा अलंकार मात्र नहीं हैं। उसका विकास हो चुका है और वह शास्त्रकार से मांग करता है कि वह व्यंग्य-विधा के लक्षणों का निर्माण करे।
किसी विधा को एक ही भाषा के संदर्भ में देखना भी उचित नहीं है। संभव है कि यह कहा जा सके कि अमुक भाषा में व्यंग्य नहीं है। किंतु संसार की किसी भाषा में व्यंग्य ; सैटायर स्वतंत्र विधा ही नहीं है और वह स्वतंत्र विधा हो ही नहीं सकता ऐसा कहना मुझे उचित नहीं जंचता।
***
नरेन्द्र कोहली
(6 जनवरी 1940 से 22 जून 2021)
महा समर, अभ्युदय, तोड़ो, कारा तोड़ो, वसुदेव, साथ सहा गया दुःख, अभिज्ञान, पांच एब्सर्ड उपन्यास, आश्रितों का विद्रोह, प्रेमचन्द, हिन्दी उपन्यास : सृजन और सिद्धान्त के रचयिता और शलाका सम्मान, पंडित दीनदयाल उपाध्याय सम्मान, अट्टहास सम्मान आदि जैसे उल्लेखनीय सम्मानों से सम्मानित।
सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net