रोज़ सुबह सुबह कड़क कलफ़ की हुई साड़ियाँ, मैचिंग, सैंडिल और हाथ मे सुन्दर सा मैचिंग बैग लिये अपने पास पड़ोस की महिलाओं को स्कूल जाते देख मन मे कसक सी उठती कि भई पड़े लिखे तो हम भी हैं, अभी चाय नाश्ते मे ही लगे हुए हैं,अस्त व्यस्त सी वेषभूषा मे। अब इनको देखो स्कूल मे जाकर चार पांच घन्टे स्टाफ़ रूम मे कपड़ों ज़ेवर और शौपिंग की चर्चा केरेंगी, कुछ घन्टे बच्चों को डांट फटकार लगायेंगी बस। पढाई तो आजकल ट्यूशन के बल बूते पर ही होती है।उधर हमारी सुबह का यह आलम है,कि सबके टिफिन लगाओ अस्त व्यस्त घर को समेटो ,फिर खाने की तैयारी करो यह देखकर विचार आता कि काश बी. एड. कर लिया होता तो हम भी अध्यापिका बन सकते थे।
सुबह नौ बजते बजते दफ्तर जाने वाली महिलायें सज धज कर निकलने लगती ,हम सोचते कि ये दफ्तर जा रही हैं या किसी पार्टी मे, और एक हम हैं कि अभी तक नहाने की भी फ़ुर्सत नहीं मिली है।घर ठीक ठाक करते ग्यारह बारह यों ही बजा देते हैं। ये भी कई ज़िन्दगी है कि अपने लियें वक्त ही नहीं है। अलमारी मे टंगे कपड़े हमे बुरे लगेने लेगे थे। अब जब हम रोज़ कहीं जाँये तभी तो बढिया लिबास पहनेगे। बस जी करता या तो अपनी डिगरयाँ जला डालें या कुछ काम करें।घर का काम तो काम की श्रेणी मे आता ही नहीं है। किसी फ़ार्म मे व्यवसाय के स्थान पर गृहणी लिखने मे हमे हीनता महसूस होने लगी थी।
ये करें या वो करें सोचने के सिलिसले मे कई वर्ष यों ही बीत गये। बच्चे भी बड़े होने लगे, वो भी कभी कह देते मम्मी कुछ काम क्यों नहीं कर लेती। शायद वो भी हमारी हर वक्त की टोका टाकी से परेशान होने लगे थे। अब बी.एड.नहीं कया था इसलिये अध्यापिका तो बन नहीं सकते थे, बढती उम्र मे बिना अनुभव कोई और नौकरी भी कहाँ मिलती।
एक दिन सोचा ,चलो ट्यूशन पढाने का काम कर लेते हैं। आजकल अंग्रेज़ी माध्यम मे पढने वाले बच्चों की हिन्दी काफ़ी कमज़ोर होती है यह काम तो कर ही सकते हैं। हम ठहरे पुरानी पीढी के, इस प्रश्न का उत्तर 50 शब्दो मे दो, उस प्रश्न का उत्तर 100 शब्दों मे दो हमने कभी सीखा ही नहीं था। महादेवी वर्मा जी के छायावाद मे डूबते थे तो आस पास से गुज़रने वालों की छाया तक नज़र न आती थी। प्रसाद जी की कामायनी, मैथिलीशरण गुप्त जी की यशोधरा और साकेत को आत्मसात करने के बाद ये शब्दों के बंधन मे बंध कर पढाना भी कठिन साबित हुआ। जो हम बच्चों को पढाते वो उनको अगर समझ भी आ जाता तो उनकी अध्यापिकाओं को नहीं समझ आता क्योकि, उन्हें भी कु़ंजियों से रटे उत्तर जाँचने की आदत पड़ चुकी थी, हमारे पढाये बच्चे कभी कभी शब्दों की सीमा भी लांघ देते थे। हमे लगा कि यह काम भी हमसे नहीं होगा। हमारा बेटा भी उस समय दसवीं कक्षा मे था, उससे भी कह दिया कि भई हिन्दी मे पास होना है, तो कोई बजारू कुंजी ख़रीद कर पढलो हमसे पढोगे तो
पास होन कठिन होगा। हम निराश थे कि कभी मुँशी प्रेमचन्द के गोदान और ग़बन को इतनी बार पढा था कि इन उपन्यासों के पात्र अपने पास चलते फिरते नज़र आते थे। आज यह आलम है कि हम नवीं दसवीं कक्षा को भी हिन्दी नहीं पढा पा रहे हैं। हम तो और हीनता की भावना से ग्रस्त होते चले गये, इस भावना को जितना हराने की कोशिश करते उतने ही उसमे डूबने लगे। कुछ तो करना है, इसका भूत हमारे सर से उतर ही नहीं रहा था।
हम इतनी जल्दी हार मानने वालों मे से भी नहीं थे। हमारे कढ़ाई सिलाई के शौक को देख कर हमारी मित्र मंडली बड़ी तारीफ़ करती थी। एक दिन एक मित्र ने सुझाव दिया कि क्यों न हम इस शौक को ही व्यवसाय बना लें। हमने सोचा जब इतनी तारीफ़ मिल रही है, तो कोशिश करने मे क्या हर्ज है। पतिदेव से पूछा तो अख़बार मे सर गढाये गढ़ाये ही कह दिया कि हम जो चाहै वह कर सकते है, उनकी तरफ़ से कोई रुकावट नहीं है, पर जैसे ही हमने पूँजी लगाने की बात की उन्होने अख़बार से सर उठाकर हमारी तरफ़ ऐसे देखा कि हम समझ गये कि ये आसानी से नहीं मानने वाले। अब बिना पूँजी के तो कोई व्यवसाय हो नहीं सकता था। बड़ी मिन्नतें की, अनेक उदाहरण दिये, रोये धोये, यानि कि अपनी तरकश के सारे तीर प्रयोग करके उन्हे चार पाँच हज़ार की पूँजी लगाने को तैयार कर लिया। अब घर अस्तवयस्त रहने लगा। श्रीमान जी की कमीज़ मे बटन टंके या न टकें, हम कुशन कवर मेज़पोश और चादरें काढ रहे थे। हम अपनी रुचि के अनुसार गुलाबी रंग का फूल काढते तो पड़ौसिने कहती कि ये फूल पीले रंग से काढतीं तो ज़्यादा सुन्दर लगता। अब आलम यह था कि जो पड़ौसिने हमारी तारीफ़ करते न थकतीं थीं, उन्हें हमारे काम मे नुक्स दिखने लगे। हमे लगा कि जिस तरह बिना बी. एड. करे हम अध्यापिका नहीं बन सके उसी तरह बिना एम.बी.ए. करे, बिना मार्केटिग और सेल्स का ज्ञान प्राप्त किये हमारी दस्तकारी हमारे ही पास ही धरी रह जायेगी। अब विभिन्न अवसरों पर वही चीज़े हमने मित्रों और रिश्तेदारों को उपहार मे देनी शुरू कर दीं, तारीफ़ फिर मिलने लगी, पर व्यवसाय तो नहीं कर सके।
ऐसे समय मे हमने अपनी एक मित्र जो कि एक पौश कौलोनी मे अपना बुटीक चलाती थी, सलाह मांगी,उन्होंने तुरन्त हल बता दिया,कि हम उनके बुटीक से चाहें जितना सामान ले जा सकते हैं। हम अपने घर पर सेल लगायें और बीस प्रतिशत लाभ ले लें। उस समय हम सरकारी कौलोनी मे रहते थे। यह योजना हमे बहुत भा गई। ना सिलाई कढ़ाई का चक्कर ना पूँजी की चिन्ता। हम अपनी मित्र के बुटीक से काफ़ी सामन उठा लाये। कुछ पर्चे छपवा कर अख़बार वाले से आस पास मे बंटवा दिये। हमने अपने ड्राँइगरूम को दुकान बना डाला। आने जाने वाली महिलाओं का ऐसा तांता लगा कि हमे खाने और नहाने की फ़ुरसत मिलना मुश्किल हो गया। हमने सोचा ख़ूब बिक्री होगी, पर महिलायें आती सामान उलट पट कर देखतीं, जब दाम के टैग को देखती तो.. बस चल देतीं। तीन दिन तक हमने कोशिश की। थोड़ा बहुत जो कमाया था वह सामान लाने ले जाने मे ख़र्च हो गया।
इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी, कुछ तो करना ही है, जैसे विचार हमारा पीछा नहीं छोड़ रहे थे।किसी से बात करने का मन नहीं करता भूख ख़त्म हो गई रातों की नींद उड़ गई थी। बड़ी बेचैनी रहने लगी, असफला के कारण हीन भावना मन मे बैठ गई। कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कभी बेवजह रोने का भी मन करता। अचानक ख़याल आया कि ये लक्षण तो क्लिनिकल डिप्रैशन के है, आख़िर मनोविज्ञान मे ऐम. ऐ किया था तो भला अपने डिप्रैशन को न पहचानते। हमे मालूम था कि स्वयं को या परिवार के किसी सदस्य को कोई मनोवैज्ञानिक समस्या हो तो ख़ुद समाधान नहीं ढूढ सकते कयोंकि अपनी समस्या को निरपेक्ष रूप से बिना किसी पूर्वाग्रह के नहीं देखा जा सकता। हम तुरन्त एक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक के पास पहँच गये। काफ़ी दिनो से रेडियो पर उनका एक कार्यक्रम सुन रहे थे और बहुत प्रभावित भी थे, यों समझिये कि उनके फ़ैन बन चुके थे ।उन्होने हमारी समस्या बहुत ध्यान से सुनी समझी और कुछ व्यायाम बताये, फिर कहने लगी कि कुछ ऐसा करो जो तुम्हें अच्छा लगे। हम सोचने लगे कि इस कुछ करो ने ही तो हमे आपके पास पहुँचाया है, अगर हमे पता होता कि क्या करना है तो हमे आपके पास आना ही नहीं पड़ता। उन्होंने एक और सलाह दी थी कि हम हर रोज़ डायरी लिखा करें। हम सोचने लगे कि क्या डायरी लिखना भी किसी काम की श्रेणी मे आता है, कम से कम ये कोई व्यवसाय तो नहीं हो सकता। हमे यह भी कहा गया था कि डायरी लिखकर सप्ताह मे एक बार उसे पढ़े भी अवश्य। दुविधा तो थी परन्तु हमे अपनी मनोवैज्ञानिक पर बहुत भरोसा था, अतः हम उनके आदेशों का पूरी तरह पालन करने लगे।
हम रोज़ डायरी लिखने लगे। जब डायरी पढ़ते तो अपनी हिन्दी पर तरस आता, जिसमे अनेक शब्द अंग्रेज़ी के डाल देते थे। वैसे ये भाषा हमे बुरी लग रही थी, परन्तु आजकल की तो यही विधा है। लोगों ने तो इसे हिंगलिश नाम भी दे दिया है। हम दुखी थे कि हमारी हिन्दी को क्या हो गया है। कितना ज़ंग लग गया था हमारी भाषा को, अवसाद की उस स्तिथि मे प्रवाह हीन भाषा ने हमे और भी दुखी कर दिया। हमारी मनोवैज्ञानिक हमारा उत्साह बढाती रहीं, उन्होंने हमारा मनोबल टूटने नहीं दिया। डायरी लिखते लिखते हमारी भाषा मे सुधार आने लगा। सीमित शब्द कोष बढ़ने लगा, ऐसा नहीं था कि हम उसके लियें कोई विशेष प्रयास कर रहे थे, बस यों समझिये कि दिमाग़ पर से धूल की जमी पर्तें हट रहीं थीं। भाषा मे प्रवाह वापिस आ गया था। एक दिन हमने अपनी डायरी मे लिखा, “पहले ख़ुद को ढंढू पाऊ फिर अपनी पहचान बताऊँ।“ हमे लगा हमारी भाषा मे वाक्य काव्यात्मक भी होने लगे हैं। हमने अचानक दो कवितायें लिख डाली। उन्हें हमने एक प्रतिष्ठित पाक्षिक पत्रिका को भेज भी दिया और भूल गये।
अचानक एक दिन डाक मे एक ख़ाकी लिफ़ाफ़ा आया, हमने उसे अपने पति की मेज़ पर रख दिया आमतौर पर सरकारी लिफ़ाफ़े ऐसे ही होते है। पत्र के साथ एक छोटी सी राशि का चैक भी था । शाम को पतिदेव ने आकर बताया कि हमारी दोनों कवितायें स्वीकृत हो गईं हैं।
हम तो बच्चों की तरह उछलने लगे। सबको बताते रहे कि हमारी कवितायें अमुक पत्रिका मे प्रकाशित होने वाली हैं। पत्रिका का हर अंक देखकर हम निराश होने लगे। अब हमे क्या पता था कि स्वीकृत होने के बाद प्रकाशन मे नौ दस महीने का समय लगने वाला है। संपादक महोदय की कृपा से हमारी दोनो कवितायें प्रकाशित हो गईं। हमारा खोया मनोबल और आत्मविशवास लौटने मे इन कविताऔं के प्रकाशन ने औषधि का काम किया। इसी बीच हमने लगभग एक वर्ष मे 40-50 कविताये लिख डालीं, जीवन के अनुभवों और विचारो को लेखों का रूप मिलने लगा।
कुछ दिन तक हम अपनी रचनायें उसी पत्रिका को भेजते रहे, हमारी रचनायें खेद सहित वापिस आने लगीं पता ऩहीं हमारे लेखन का स्तर गिर गया था या उक्त पत्रिका का स्तर उठ गया था। ख़ैर, बाज़ार मे और बहुत सी पत्रिकायें थी, तू न सही कोई और सही।
पिछले अनुभव से हम सीख चुके थे कि रचना के भेजने के बाद स्वीकृति और प्रकाशन मे कई महीने का समय़ लग जाता है। हमने निश्चय किया कि अब हम दिवाली पर होली खेलेंगे और होली पर दिये जलायेंगे, ग्रीष्म ऋतु मे शीत-लहर का वर्णन करेंगे और सर्दियों मे तवे सी जलती धरती और लू चलने की कल्पना करेंगे। वर्षा ऋतु मे राग बसंत बहार गायेगे ,बसंत के मौसम मे बारिश पर छँद कहेंगे। इस प्रयोग मे हमे एक अन्य पत्रिका से जल्दी ही सफलता मिल गई।
अब हमने कुछ विस्तार की योजना बनाई, अख़बार वाले से कहा कि हमे हर महीने अलग अलग पत्रिकाये चाहियें, उसने पूछा कि हमे कौन कौन सी पत्रिकायें चाहियें तो हमने कहा जितनी छपती हैं, सब देखनी हैं। अख़बार वाले चेहरे पर ऐसे भाव आये कि उसका वर्णन करना कठिन है। इस बीच हम बहुत कुछ लिखते रहे । अब तक हम बहुत सी पत्रिकाऔं की संपादकीय नीतियाँ और रूपरेखा समझ चुके थे, उसी के अनुसार हमने अपनी रचनाये भेजनी आरंभ कर दी। इस बार बारी हमारी थी, अधिकतर रचनायें स्वीकृत होने लगीं। एक पत्रिका ने तो कई रचनायें एक साथ स्वीकार करके एक तुरन्त प्रकाशित भी कर दी। अब तो ज़मीन पर पैर रखना मुश्किल होने लगा था।
अब हमने महिला पत्रिकाऔं के लियें “उपहार कैसे चुने” और “कम ख़र्च मे आकर्षक गृहसज्जा” जैसे कुछ लेख भी लिख डाले, यही नहीं अपनी रसोई से रोज़ के खाने मे थोड़ी हेरा फेरी करके कुछ पाक विधिय़ां भी लिख डाली, उनके क्लोज़अप फ़ोटो लिये,कुछ धाँसू से नाम देकर उन्हें भी पत्रिकाओं मे भेज दिया।हमने सोचा जो बिक रहा है वही लिख लेते हैं।
ख़ैर, हमारा उद्देश्य पैसे कमाना तो था नहीं, जो मानदेय या पारिश्रमिक मिलता था वह तो डाक टिकिट ,स्टेशनरी और फ़ोटो-स्टेट कराने के लियें भी पूरा नहीं पड़ता था। ऊपर से हर प्रकाशित रचना के लियें बच्चे ट्रीट की मांग करते थे। अतः लेखन भी हमारे लियें घाटे का सौदा ही साबित हुआ। फिर भी हम ख़ुश थे, रात मे कुछ तो करना है जैसे विचार नहीं सताते थे। आत्म संतुष्टि मिल रही थी।
समय बीतता है तो बदलता भी है। अब प्रकाशन के क्षेत्र मे भी इंटरनेट का जाल बिछ गया था।
संपादको को हस्त लिखित प्रतियाँ पढने मे दिक्कत पेश आने लगी थी। धीरे घीरे सभी पत्रिकाओं ने लेखको को संदेश दे दिये कि टाइप की हुई ई मेल द्वारा भेजी रचनाओं को ही प्राथमिकता दी जायेगी। हम समझ गये कि अब हस्त लिखित प्रतियों को संपादकों की रद्दी की टोकरी मे जगह मिलने का समय आगया है। हमे टाइप करना आता नहीं था, कोई सीखने की कोशिश भी नही की क्योकि हम संतुष्ट थे।
प्रकाशन न होने से लेखन भी कम होता चला गया, ना के बराबर रह गया। एक बार हम फिर गुमनाम हो गये। वैसे ऐसा कोई नाम भी नहीं कमा लिया था,जो कहें कि गुमनाम होने लगे। 6-8 पत्रिकाओं मे कुछ रचनाये छपने से कोई लेखक या कवि नहीं बन जाता, यह हम जानते हैं।हमे किसी को कुछ सिद्ध करके दिखाना भी नहीं था। हम जीवन से संतुष्ट थे।
उम्र के इस दौर मे जब हम पैंसठवें साल मे प्रवेश कर रहे हैं, कुछ समय से एक खालीपन महसूस होने लगा था। हमने फिर से क़लम उठा ली है, इस बार चुनौती और बड़ी है, क्योंकि क़लम के साथ कम्पूटर का की बोर्ड और माउस भी संभालना है। हमने देवनागरी मे टाइप करना सीख लिया है। कुछ ओनलाइन पत्रिकाओं ने हमारी 17-18 कवितायें स्वीकृत करली हैं, वैब स्थल पर आना आरंभ भी हो गया है। अब हम गद्य रचनायें भी स्वयं टाइप करने मे सक्षम हैं। इस काम मे हमे हमारी बेटी से बहुत सहयोग मिला है। सब उसी से सीखा है।
हमने अपनी आत्मकथा…अरे कैसी आत्मकथा, आत्मकथा तो बड़े बड़े लोग लिखते हैं। यह तो आत्मव्यथा है। हम तो एक मामूली सी गृहणी हैं, हमारी व्यथा हो या कथा क्या फ़र्क पड़ता है। इसे पढने मे किसी की दिलचस्पी क्यों होने लगी फिर भी यदि किसी पत्रिका ने इसको प्रकाशित करने की हिम्मत दिखाई तो उन्हे अपनी पत्रिका के साथ एक सर दर्द की गोली मुफ़्त मे देने की योजना बनानी पड़ेगी। हमने ऐम.बी.ऐ.नहीं किया तो क्या घास भी नहीं काटी है , इतना तो जानते हैं कि किसी घटिया प्रौडक्ट को बेचना हो तो उसके साथ कुछ भी मुफ़्त लगा दो, माल हाथों हाथ बिक जायेगा।
बीनू भटनागर
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