एक खुला पत्र
Dec 3, 2015
स्नेहिल राजी जी
आपके भेजे तीन संग्रह, तीन स्वरूपों में सामने आए …ऐसे जैसे, आप से अलग-अलग रूप में परिचित होने की संभावना का दर खुला हो। इसे एक उपहार के तौर मान लूँ, आप के स्नेह का उपहार-उपहार ही तो है, मैं सीढ़ी के निचले पायदान पर खड़ी आपकी ऊंचाइयों को देख रही हूँ-शब्दों के बीच में आपको ढूंढ रही हूँ…!
मैं ये तीन संग्रह USA ले जाऊंगी यह तय है-आपके लिखे हुए पत्र के अंश अनुसार -“तुम्हारे पास रहेंगी, फुर्सत से पढ़ती रह सकती हो।”
यकीनन आपकी एक कहानी ‘तीसरा कौन’ सिन्धी में अनुवाद करते हुए शिद्दत से पात्रों में धँसती रही, गहराई में उतरती रही…. आपकी बोली, भाषा का प्रवाह, उसकी कसी हुई बुनावट , संवाद करत हुआ मौन ! खुद को एक निशब्द प्रशंसक कहूँ, या नया कोरा पाठक। बस सोचती रही कि कहानी का छोर कहाँ से पकड़ूँ। अनुवाद की नौका में सवार हिलती-डुलती रही, जब तक आपने स्नेहिल हाथ देकर पार न करवाया। कहानी का उन्वान ही बदल दिया था- “तीसरा कौन” …..आप, मैं और और हमारे बीच वाला वह ….? जो कहता है, मैं हूँ भी और नहीं भी हूँ। इस दृश्य…अदृश्य…के रचना संसार की एक पात्र आप है, एक मैं और एक वह…!
कहानी में मौन मनोभावों का सुंदर विश्लेषण हुआ है, कुछ न कहकर भी कह पाने के बीच के मव्वाद में ही उसकी परिभाषा स्पष्ट होती है:
-वह कोई तो है जो कुछ न कहकर भी कहता है
-कुछ न सुनते हुए भी बहुत कुछ सुनता है
-सिले हुए लबों से गुफ़्तार करता है
-यकीनन वह कोई तीसरा है!!
और फिर काल चक्र के चलते रहते किसी एक कोण पर हमारा फिर से फोन पर जुड़ना हुआ..लगभग दो साल बाद…एक दूसरे से अनजान, फिर भी लगता है जान-पहचान क़ायम है …माध्यम फिर भी कहानी की मांग। यह मांग भी एक अजीब रिशते को क़ायम रखने के लिए सींचती है…और रिश्ता दो के बीच ही बनता है–एक मांगने वाला एक देने वाला। मैंने तो विभाजन के दर्द पर आपके अपने तजुर्बे का एक हिस्सा मांगा और आपने उठाकर पूरा का पूरा आकाश दे दिया…..! राजी सेठ की श्रेष्ठ कहानियाँ, राजी सेठ की यादगारी कहानियाँ, राजी सेठ: चुनी हुई कहानियाँ (सम्पादन- डॉ. बलदेव वंशी) और नेमतों की बारिश कहूँ… मंगता को चाहिये क्या? मिलता क्या है? तीनों पुस्तकों में अपने स्नेहिल हस्ताक्षर –प्रिय देवी के लिए सप्रीत- राजी सेठ, with all my love for Devi-Rajee Seth, और Love and personal regards for Devi –Rajee seth…all dated 24.11.2015…..!
और तो और एक स्नेह भरा पत्र ! बिचारा पात्र तो प्रेम की मार से ही मर जाय….और तो और हर संग्रह के अनुक्रम में मुझे हिदायत देते निशान …मेरी हर मुश्किल को आसान करने के लिए। एक मैं अकेली और इतने सारे शब्दों की भरमार….कहानियाँ ही कहानियाँ। सच कहा है-–“तुम्हारे पास रहेंगी, फुर्सत से पढ़ती रह सकती हो।” यह तो होना ही है ! हर कहानी की सोच, कथानक, पात्र एवं घटनाओं का कोलाज, मुझे एक नए संसार से जोड़ता है, एक नए अनुभव को मेरे पुरानी तजुर्बों की पोटली में दर्ज करते हुए इजाफा करता है। ….अब देखो ना…! कहानी ‘खाली लिफाफा’ ज़ेरोक्स भेजी है और पेंसिल से उन्वान के ऊपर लिखा है- “देवी! If you read in between the lines this is also post-partition story” this was not listed in the books….That’s it! ग्यारह पन्नों की यह कहानी तीन किस्तों में आज पूरी की। पढ़कर पूरी क्या की है, बस अनगिनत प्रश्न चिन्ह मेरे सामने टंगे रह गए हैं।
• रिश्तों में नए रंग भर रही है भाषा…नया इतिहास रच रही है…!
• जो कुछ सम्झना ज़रूरी समझा गया था मुझे समझा दिया गया है…!
• रिश्तों के बीच बहती एक अदृश्य नदी किन्हीं दो आत्माओं के बीच और इस आदान-प्रदान की किसी को खबर नहीं….!
• क्यों कहा गया जो कि कहा गया…!
• क्रोध कौन से सुराख से उफनता हुआ चला आ रहा था…?
• दरवाजा बंद होते ही मुझे लगा वहाँ कुछ है, कोई है…मेरे और तेरे अलावा…नियति जैसा कुछ….!
• नियति की लिखावट पर किसी शरीरी वजूद का कोई दखल ही नहीं है…!
• तुम मेरे देखने को देख तो रही थी, पर अनदेखा कर रही थी…!
• कोठरी में फिर वही पुरानी बंदपने की हुमस और झुसपुसा अंधेरा था …!
• उस झुसपुसे में मेरी हथेली को दबोचते तुम्हारे हाथ का बढ़ता घटता दबाव ज़रूर कुछ बोल रहा था….!
सोच भी ठिठक कर रुक गयी है, पल भर के लिए नहीं, कई पलों के लिए। पलों के बीच का फासला जैसे थम सा गया है ।
• यह किस तरह की गुफ्तार है, पत्रों के बीच…?
• यह कैसा नाता है जो बोले – अनबोले शब्दों के बीच बतियाता है …?
• कैसा रिश्ता है…..? अपनेपन और परायेपन की दूरियों को पास लाता हुआ…! मिलन और विछोह को पास लाता हुआ …!
स्पर्श बोलता है यह हक़ीक़त है। पर यह स्पर्श की भाषा अपनी परिभाषा उसी पर व्यक्त करती है, जब सुनने वाला दिलो जान से, लगन से, श्रद्धा से सुन कर भी न सुन पा रहा हो, बस महसूस कर रहा हो। स्पर्श महसूसात की भाषा है, जो लफ्जों में बयान नहीं हो सकती। लफ्जों की रिदा दृश्य को अदृश्य के फासले दूर करती है। ..यह भी तो शब्दों का कमाल है, अल्फ़ाज़ की जादूगरी है।
पेंसिल से उनवान के ऊपर लिखा हुआ नोट फिर पढ़ा- “देवी! If you read in between the lines this is also post- partition story, सहमत हूँ इस बात से, इस पठनीयता के बाद, पुनः पढ़ने और दो बार और पढ़ने पर भी शायद ही रिश्तों की यह अबूझी पहेली हल हो…!
• उसने खींच कर मुझे गले लगाया, जहां पिघलती पिघलती हुई सी मैं तुम्हारी छाती में खड़खड़ाई साँसों की आवाज़ सुन पा रही थी। तुम्हें देख नहीं रही थी, तुम्हें सुन रही थी।
• वह तिलिस्म फिर उसी कोठरी की गंध में छूट गया, हमें मुक्त कर गया।
पर यह क्या, मिलन हुआ भी और नहीं भी, अहसास जागा और फिर विलूप हो गया। अहसास मुक्त कर गया…! जैसे मिलन और जुदाई साथ-साथ साकार हुए हों और एक माँ और बेटी के भावनाओं की चरम सीमा पर लाकर परस्पर आमने-सामने खड़ा किया हो।
• माँ को लगता है लड़कियां पहाड़ नहीं होती, वे नदियां होती हैं। नदियों पर पुल बन जाते हैं…बन सकते है।
लड़की सुसराल जाने की तैयारी में सोचती है कि आज के दिन माँ ये क्या ऊटपटांग बातें ले बैठी है और बंद लिफाफों की महत्वता बताने में जुई हुई है, जिनमें चिट्ठी का नामो निशान नहीं…!
कोई भी कहानी, साहित्य की रचनात्मक सशक्तता से ही महत्वपूर्ण बनती है। आज की कहानी जीवन के बिलकुल निकट आ गई है । उसमें मानव के हृदय की धड़कन का अहसास होता है। पर यह क्या? ‘बंद लिफाफा’ पढ़ने के पश्चात अब तक सोच में हूँ कि किस पल में, कौन से मूड में आकर राजी जी ने यह कहानी लिखी होगी, जिसमें सोच, कथानक, पात्र एवं घटनाओं का कोलाज अपने होने और न होने के बीच का रहस्य फिर भी परतों में छुपाए हुए है….!
साहित्य की पीचीदा पगडंडियों से गुज़रते हुए अपनी भावनाओं को जिस भाषा में राजी जी ने व्यक्त किया है उनमें शामिल हैं हमारी बाहरी और भीतरी मन की अवस्थाएँ, आशाएँ, आकांक्षाएँ, असुविधाएँ, मजबूरियां। कहानियाँ क्या है, जैसे किसी दुकान में सजी दिल के झरोखे से झाँकती गाथाएँ हैं। हाँ! रिश्ते भी तो अब दुकान बनते जा रहे हैं। यह तेरा, यह मेरा, ये उसके बच्चे, ये मेरे बच्चे, यह मेरी धरती, यह तेरी धरती…हर जगह विभाजन ही विभाजन….! बंटवारा ही बंटवारा ….! न जाने इस जीवन पथ पर कितनी अग्नि परीक्षाएँ और देनी बाक़ी हैं।
राजी जी के शब्द read in between the lines, अब उन पंक्तियों की परतें हटाने की कोशिश में उलझ रहा है, शायद उसीका नतीजा है-मेरी भावनाओं की यह अभिव्यक्ति।
सादर
आपकी आपनी-
देवी नागरानी
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