अपनी बातः हद या सरहद !

हद या सरहद एक धमकी नहीं प्रदर्शन बन चुकी है अब। न सरहदों के विस्तार की ही कोई मर्यादा रह गई और ना ही इसके नाम पर अमानवीय क्रूर अत्याचारों की।

कोई कहता है हम अपनी सुरक्षा के लिए हमला कर रहे हैं तो कोई कहता है आत्मसम्मान और देश प्रेम के लिए लड़ रहे हैं। परन्तु हद कहाँ है लालच की विस्तार की स्वार्थ की या फिर देश प्रेम की भी!कबीर याद आ रहे हैं.अति का भला न बरसना अति कि भली न धूप, प्रेम, डर, भय, शंका …अति तो किसीकी भी अच्छी नहीं।
जब सबकुछ ही धुंआ-धुंआ तो उद्देशय क्या इन युद्धों का!
विश्व पर मंडराते ये संकट के बादल, यह घटनाओं के तेज बदलाव, डरावने हैं- सोचने पर मजबूर कर रहे हैं।
एक खालीपन, जीने की ललक रहित सूनापन-कहीं अवसाद में तो नहीं मन?
जितनी चिन्तायें उतनी ही वजह। बदन का पोर-पोर दुखता हुआ- कहीं कोरोना तो नहीं?
तीन तीन वैक्सीन के बाद भी रोज ही कुछ नया -सिर में दर्द , बहती नाक-सी शरणार्थियों की कतारें …कितने और देश उजड़ेंगे इस तरह, मानो एक कभी न खतम होवे वाला रोग हो यह भी हमारी अर्थवादी सभ्यता का। कैसे बचें इससे? अभी तक हम जो आमलोग जूम पर ही सही, सबके संग-संग बैठे थे , एक अवसाद से उबरने की कोशिश कर रहे थे, अब निराशा की गहन परतों में फिर से धंसते जा रहे हैं। दोस्तों में दुश्मन और दुश्मनों में दोस्त छांटने पर मजबूर हैं। मानो दया करुणा ने ही इन्सानों से दूरी बना ली है और एक दमघोटू भय हमारी बेबसी पर तांडव कर रहा है…आखिर ये धमाके क्यों और कबतक…मानवता को बचाने के लिए युद्ध कभी भी विकल्प नहीं , आवश्यक हो तो भी नहीं। दादागिरी तो हरगिज ही नहीं।
पर चल रहा है सबकुछ और पता नहीं कबतक ऐसे ही चलेगा, जैसे बूस्टर पर बूस्टर लगवाते रहो और प्रार्थना करो कि सब ठीक रहेगा, हो जाएगा । दो ढाई बरस हो चुके थे करोना से जूझते और हम अपने दुखों से उबरने की कोशिश कर रहे थे। अब यह नया आतंक। दंड बढाओ, अनुशासित करो, तो कहीं डराओ, आक्रमण करो, तबाही मचाओ…सभी डरावने और गैर जिम्मेदार नारे हैं। विध्वंस की कगार पर घसीट रहे हैं। मृत मात्र एक संख्या नहीं। दूसरी तरफ हम मरते दम तक अपने देश की रक्षा करेंगे-साहसी और उद्दात्त आदर्श है परन्तु जब हम ही नहीं तो कैसा हमारा देश और किसकी रक्षा! जरूरत पड़ने पर रणभूमि तो कृष्ण ने भी छोड़ी थी और रणछोड़ कहलाये थे! कृश्ण जो संपूर्ण अवतार और चौंसठ कलाओं से पूर्ण थे।
देशप्रेम की यह भावना अब उस जहाज की तरह लग रही है जिसका छेद कहीं सबको ही न ले डूबे। कौन रुकेगा, कैसे रुकेगा जैसे सवाल विह्वल कर रहे हैं । किसे परवाह है परन्तु-सभी के अपने-अपने ध्येय और एजेंडा हैं और इन सबसे भी बढ़कर सभी के आगे आदमकद अहं के शीशे लटके हुए हैं। दया , करुणा जैसे उद्दात्त शब्द और सारे अर्थ मानो सैनिकों की तरह मृत हो चुके हैं इस रणभूमि में और विवेक ओर सुमति मानो आपस में ही लड़-लड़कर रूठ चुके हैं प्रेमरहित परिवार की तरह। मानवता, देशप्रेम , करुणा हर शब्द के खून की आखिरी बूंद तक मानो रिसी जा रही है । कराह रहे हैं सब मरणासन्न और हमारी प्रार्थनाओं को इन थमाकों में भगवान तक नहीं सुन पा रहा।
युद्ध और मानवता का कभी कोई रिश्ता नहीं, चाहे हम इसे देशप्रेम और बलिदान जैसे भावों की चूनर से सजाते फिरें या फिर ताकत और विस्तारवाद का सेहरा पहनाकर बरात निकालें इसकी।
मित्र पूछते हैं शो अच्छा है चलोगी? पिक्चर? रैस्टोरैंट ? सिवाय ना के मस्तिष्क कुछ और नहीं सोच पा रहा। इच्छायें मानो मरती सी जा रही हैं। पहले भीड़ से डर लगता था अब खबरों से भी।
जो फेसे हैं, फंसे ही रहेंगे, जो अपना सबकुछ छोड़कर निकल आए लम्बे संघर्ष में भटकेंगे और थोड़े दिन बाद उन्हीकी आंख में खटकेंगे जो आज उनकी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं। देश पर देश स्वाहा हो रहे हैं इस युद्ध या हवस की आग में । टूटफूट की यह राजनीति किसलिए और किसके हित में ! कहाँ है इन बढ़ती सरहदों की हद …अजगर की तरह दिन पर दिन फैलती ये हरकतें सबको ही निगल लेंगी, संभले नहीं तो।
यही तो करोना काल है, करोना का नित नया वैरियैंन्ट-युद्ध करोना है। अंधे चमगादड़ से उत्पन्न और पूरी मानवता को ही चमगादड़ सा उलटा लटकाता। आदमी ही आदमी से डरता और प्यार, सामीप्य, साथ- जो भी सुख देने वाला था , सुरक्षित महसूस करवाता था हमसे दूर-दूर भगाता…पर जैसे सूखे पेड़ पर भी कहीं एक हरा पत्ता लटका रह जाता है और पेड़ फिरसे हरा होता ही है-फल फूलों संग, मानवता जीवित रहेगी, दुनिया भी जीवित रहेगी सिर्फ चन्द बीजों के सहारे, पतझड़ के साथ बसंत मिटता तो नहीं। यही प्रकृति का नियम है, यही प्रकृति का क्रम है। बसंत जाता नहीं, फिर फिरके आता है और बाहर निश्चित ही बसंत का ही मौसम है- आमीन।

हमेशा की तरह एकबार फिर लेखनी पत्रिका अपने लघु प्रयस में रचनाओं का एक मोहक गुलदस्ता लेकर आई है। इसके केन्द्र में अपनी सारी परिधियों लिए एकबार फिर नारी ही खड़ी है-शताक्षी नारी …अष्टभुजा नारी। वही नारी, जिसके भाग्य के शिलालेखों को वक्त की लम्बी जंग और काई तक नहीं मिटा पाती, पर यह हार नहीं मानती। क्योंकि विध्वंस नहीं, सृजन है इसका नैसर्गिक गुण। हंसी आती है और गर्व भी होता है जब सोचती हूँ इसकी लगन और हठ , आत्मविश्वास और जीवटता के बारे में। कहते हैं वक्त बलवान होता है और सात साल में घूरे तक के दिन बदल जाते हैं। परन्तु इसके तो नहीं ही बदलते।
आज भी देश के कई हिस्सों में पांचाली की तरह कई-कई पतियों की प्रथा है। गरीब की लुगाई तो सबकी भोजाई है ही और अनजान नारी बस एक मांस का लोथड़ा ,सड़क पर पड़ा , किसी भी कुत्ते की हवस के लिए। भेड़ बकरियों की तरह बिकती और हांकी जाती है ये। दहेज और जाने किस-किस भय से अब तो उसके जन्म लेने तक का अधिकार छिनता दिखता है कई जगह। कुछ नहीं बदला कहीं इसके लिए।
वैसे ही, वहीं पर खड़ी है नारी आज भी ।
जब सर्व विजेता समय ने ही हार मार ली, तो स्वयं नारी के और उसके हितैषियों के प्रयासों की तो औकात ही क्या, विशेषतः भारत और पूर्वीय सभ्यताओं में -कहने को तो श्रद्धा है, पर आए दिन ही भद्दे हंसी मखौल और लोलुपता व वासना का शिकार। आंचल का दूध और आंख का पानी भले ही सूख गया हो, पर इसके मन का संताप और शोषण कभी नहीं सूख पाता। आज भी पुरुषों के हाथों में ही है इसकी डोर…आज भी एडम की एक पसली से उसके मनोरंजन के लिए, उसके साथ के लिए ही बनी है ईव ।

इस अंक के साथ लेखनी 15 वर्ष पूरे करके 16 वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। परन्तु उल्लास का स्वर उलझन और बेघर की चीखों में थम गया है। किरच किरच चिन्ताओं को सहेजे शब्द असहाय हैं। परन्तु सहज रहना जरूरी है। विवेकपूर्ण रहना, जीवन जरूरी है। जीवन और जीवन क्रम सम पर ही रहना चाहिए। और यही कोशिश की है लेखनी ने भी नियमित रहते हुए ।
परिधि से केन्द्र तक नारी के मन और उसकी संरचना को दर्शाती, विविध, भावप्रवण और विचारोत्तेजक कविता, कहानी, आलेख और अन्य सामग्री विशेष के साथ लेखनी का नया मार्च-अप्रैल अंक अब आपके हाथों में है। आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं का हमें इंतजार रहेगा।
एकबार फिर तहेदिल से आभार सभी रचनाकार और पाठक मित्रों का। प्रार्थना है कि इस कठिन और विपन्न समय में हम एक दूसरे का हाथ और अधिक मजबूती से पकड़े रहेंगे। मार्च 2007 के अपने पहले अंक के 15 वर्ष बाद एकबार फिर से कुछ कहना चाह रही है लेखनी आपसे, गुहार लगाती, विश्व मानवता को और विश्व में फैले घर-परिवार को संजाने-संवारने की प्रार्थना, उजड़ने की नहीं, साथ रहने की प्रार्थना। क्या आप साथ हैं इसके …साथ देंगे …हद हो गई अब तो इन बढ़ती सरहदों की, कहीं तो होगी इन सरहदों की हद…भूलें नहीं बूंद बूंद मिलें तो लहर बन जाती हैं और लहरें सुनामी। छोटे-ठोटे इरादे भी बड़ा असर रखते हैं। युद्ध और शांति में बस जरा से धैर्य और सामंजस्य की ही दूरी है।
आज महाशिवरात्रि के दिन यह अंक आपके हाथों में पहुंच रहा है…उम्मीद है सदाशिव सब भला ही भला करेंगे।
घने काले मौत की सारी विभीषका लिए, आणविक युद्ध की धमकी से भरपूर इन बादलों से बचना और बचाना हम सभी का पहला कर्तव्य है। भगवान हमारी प्रार्थना कबूल करें और नेताओं का विवेक बनाये रखे। ये संकट के बादल बिन बरसे ही गुजर जाएँ। कहीं कोई घर न उजड़े, कोई प्राणों से हाथ न धोए, …लेखनी का अगला अंक हमने इसी ‘ युद्ध और मानवता’ इनके असर और आपसी संबंध और इसके दूरगामी प्रभावों पर रखा है। आपके विचार और रचनाओं से सहयोग का हमें इंतजार रहेगा,
भेजने की अंतिम तिथि-20 अप्रैल ।

सर्वे भवन्तु सुखिनः की प्रार्थना के साथ,

शैल अग्रवाल
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