अपनी बातः वक़्त के साथ-साथ

वक़्त के दोराहे पर खड़ा नव-वर्ष जहाँ अतीत से टूटने, कुछ पीछे छूटने का अहसास है , नए की ललक भी तो, कई कई स्वप्न और संकल्प संजोए एकबार फिर लेखनी का नया अंक आपके लिए तैयार है।
उजली-धुली किरणों ने स्वागत किया था नए साल की नई ख़ुशनुमा सुबह का। पर चारों तरफ़ ख़बरें वही विचलित करने वाली ही थीं। पिछले वर्ष की तरह ही प्राकृतिक आपदा और युद्ध के दृश्य दिखलाती…कल तुर्की तो आज जापान, भूकंप और सुनामी की संभावना, जलती और ढहती इमारतें…रोते घायल बच्चे… विध्वंस हो या नव सृजन, हम भले ही उलझे रह जाएँ, ख़ुद अपनी रची समस्या और आकांक्षाओं में, पर वक़्त का मुसाफ़िर कब ठहरता है…अपराजेय और अथक चलता ही तो रहता है उसका यह चक्र।

एक बार फिर गुजरे वर्ष को अतीत की संदूकची में संजोकर नए वर्ष की यात्रा पर निकल चुका है वक़्त का मुसाफिर। एकबार फिर पीछे छूटी यादें … मिलन और विछोह, उपलब्धि और असफलता…सारे सुख-दुख, मन के एलबम में तस्बीरों से सजने को तैयार बेताब हैं। हंसाती, रुलाती, उलझाती…कभी-कभी तो बेमतलब ही थकाती भी ये यादें कितना उलझाती हैं, पर हमें तो वक़्त के साथ-साथ ही चलना है और वैसे भी सब कुछ हमारा अपना होकर भी तो हमारे हाथों में कुछ भी नहीं ! निर्माण और विध्वंस सारे निर्णय उसके और सिर्फ़ उसके और हमें गुमान है कि,

ऐ ज़जबाए दिल ग़र तू चाहे हर चीज़ मुनासिब हो जाए
मंजिल के लिए दो पैर चलूँ और मंजिल सामने हो जाए।

किसने लिखा, यह तक याद नहीं आज तो। कॉलेज के उन्मादी और बेफिक्र दिनों में एक दूसरे को सुना-सुनाकर बस खुश हो लिया करते थे हम और एक नयी स्फूर्ति से भर जाते थे। पर अब ना तो वो जोश और ना ही वे साथी। भोलापन और सहेलियां ही नहीं, शायद वक्त की भीड़ में सही सोच और शब्द तक खो जाते हैं …पर आज भी तो मुश्किल से मुश्किल पल में यही तो समझाया है खुद को, कि सब यह मन का ही खेल है…चाहे तो जीत लो, चाहे तो हार जाओ।

वैसे भी अगर मन-चाहा सब पूरा ही हो जाए, तो फिर जीने को ही क्या रह जाएगा!

बहुत कुछ सहा और देखा है हमने पिछले तीन-चार वर्षों में। हम बदले हैं। हमारा संसार बदला है। मिज़ाज-मौसम सब कुछ ही बदल चुका है। पर हम लड़ रहे हैं, जमकर लड़ रहे हैं। बात-बेबात पर अपनी बात मनवाने को लड़ रहे हैं। अपना बल और ग़ुरूर दिखाने को लड़ रहे हैं। कहीं सर कट रहे हैं तो कहीं बम फट रहे हैं। हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता। आँख पर पट्टी बांधकर लड़ रहे हैं। विनाश के कगार पर खड़े होकर लड़ रहे हैं। फूटते ज्वाला मुखियों से भी उग्र बमों के साथ, पिघलते हिम-खंडों से भी बड़ी आँसुओं की नदी की पूर्ण अवहेलना करके हम बस ज़िद पर हैं।…

पर सामने एक नई सुबह है। नई और चमकीली आशा भरी किरणों के साथ। कुछ संदेश आस और विश्वास के देती और एक नारंगी रंग की चेतावनी भी संग-संग-वक्त रहते संभले नहीं तो पूर्ण विनाश अवश्यंभावी है। पर हम तो बेसुध हैं अभी भी । गीत-सा गुनगुन और फूलों सा गमकता अभी भी बहुत कुछ है हमारे आस-पास सहेजने और सँभालने को, बचाने को, धरोहर की तरह सौंपने को। अपनी आने वाली पीढ़ी का पूरा भविष्य हमारे हाथ में है। पर हमें या हमारे नेताओं को इसकी कोई परवाह नहीं। अपने मद और छोटे-ठोटे झगड़ों में इतना उलझ गया है विश्व कि मौक़े हाथ से फिसले जारहे हैं और सारी राहें अंधेरी होती रही हैं।

आस्था और विश्वास से संबल मिलता है, परन्तु जीत कर्म से ही होती है। कृष्ण और उनकी गीता याद आ रही है- कर्मण्ये वाधिकारस्ते…शिव याद आ रहे हैं, जिन्होंने संसार की भलाई के लिए विष तक अपने गले में रख लिया। राम याद आ रहे हैं, जिन्होंने हर सांसारिक मर्यादा का ध्यान रखकर ही कर्तव्य-पथ पर पैर रखा और इसके लिए कोई भी त्याग बड़ा नहीं था उनके लिए।

राममय है भारत इस वक़्त और २२ जनवरी एक ऐतिहासिक और विशेष दिन होगा।

एक गीत इन दिनों कई-कई संस्करणों में सोशल मीडिया पर धूम मचाए हुए है-

मेरे द्वारे चलकर चारों धाम आएँगे, राम आएँगे।
मेरी कुटिया के भाग जग जाएँगे, राम आएँगे।

गीत यह चारों तरफ़ पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ गूंज रहा है और इन्तज़ार में गौरवमय अतीत को दोहराती अयोध्या नख-शिख सज-संवर उठी है। इस नए भारत में ग़रीबों को ही नहीं, सैकड़ों साल से अपने घर से निष्कासित राम लला को भी अपना घर वापस मिल चुका है। पर भारत में ही कहीं उल्लास है तो कहीं रोष। कहीं इसे राजनीति कहा जा रहा है तो कहीं भक्ति। कहीं स्वागत की तैयारियाँ हैं तो कहीं राह में रोड़े डालने की तैयारियाँ।

असंतोष मानो अब समाज की पहचान बनता जा रहा है। प्रगति है तो क्यों है, नहीं है तो क्यों नहीं है? मुद्दे ही मुद्दे हैं चारों तरफ़ और एक भी हल नहीं। नेता, अभिनेता और जनता सबने मानो एक मंच सँभाल रखा है और सब अभिनय कर रहे हैं, वह भी चेहरे पर कई-कई चेहरे लगाकर।

परहित और परोपकार की तो छोड़ो अब तो लोगों को यह तक पता नहीं कि ख़ुद उनका हित क्या है?

बेवजह ही लोग एक दूसरे पर हमले कर रहे हैं। गाजर मूली की तरह जड़ से उखाड़ रहे हैं। अर्थ-व्यवस्था ही नहीं, पूरा-का-पूरा देश और समाज ही नष्ट करना चाहते हैं।

मूल्यहीन जीवन और मूल्यहीन मानवता का युग है ये…

आदर्शवादी और व्यावहारिक दोनों ही तो कुछ नहीं कर पा रहे… हमको मालूम है जन्नत की हकीकत और जन्नत देखी कब और किसने? हर व्यक्ति बुद्धिमान है और हर व्यक्ति बेवकूफ, क्योंकि न तो प्रकृति का कोप रुक रहा है और ना ही ताक़तवरों का…

जब कुछ न कर पाओ तो कुछ पल थमना, भूलना अच्छा लगने लगा है।

और इसी भूलने-भुलाने के लिए एक और साझा प्रयास यह भी, जैसे मन की बेचैनी में एक छोटी-सी चूरन की गोली। अपने नियमित और कुछ नए मित्रों के साथ मिल-जुलकर बहुत कुछ नया संजोया है हमने लेखनी के पन्नों पर। उम्मीद है हमारी मेहनत आपका मन छूएगी। सोचने को प्रेरित करेगी । आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।

अन्य अंकों की तरह इस अंक में भी हम कुछ नए मित्रों का स्वागत कर रहे हैं। भटिंडा पंजाब की स्नेहा गोस्वामी एक बहुत ही खूबसूरत कहानी-मन के तार- के साथ लेखनी परिवार में शामिल हो चुकी हैं।

गीत और ग़ज़ल में भी दीपक शर्मा जी की कलम से हम पहली बार रूबरू हों रहे हैं।

दोनों मित्रों का लेखनी परिवार में तहेदिल से स्वागत।

हमारे परिचित मित्र और लेखक महेन्द्र दवेसर जी हमें छोड़कर गोलोक वासी हो गए हैं। कई यादें और कई रचनायें बिखरी पड़ी हैं महेन्द्र दवेसर जी की लेखनी के पन्नों पर। हमने अपना एक अच्छा मित्र और हितैषी खो दिया है। लेखनी परिवार की तरफ़ से संतप्त परिवार को हार्दिक सहानुभूति और दिवंगत आत्मा के प्रति विनम्र क्षद्धांजलि। भगवान उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दे।

श्रद्धांजलि स्वरूप हम पुनः लेकर आए हैं उनकी एक भावभीनी कहानी पुष्प-दहन, जो जुलाई १३ के अंक में लेखनी में पहले भी छप चुकी है।

लेखनी का अगला मार्च-अप्रैल अंक १७ वर्ष पूरे करके अठ्ठारवें वर्ष का प्रवेशांक होगा और साथ-साथ वसंत के मौसम के स्वागत का भी। मौसम चाहे कुछ भी हो, बाँसुरी सी छिदी-बिंधी ज़िन्दगी को सुरीला तो रखना ही होगा। हम इसे प्रेम, हर्ष और उल्लास से भरपूर रखना चाहते हैं। आपके रचनात्मक सहयोग बिना यह संभव नहीं। विषय संबंधी रचना भेजने की अंतिम तिथि एक बार फिर २० फ़रवरी है। निम्नांकित ई.मेल पर हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं में आपकी रचनाओं का हमें इंतज़ार रहेगा।

नववर्ष २०२४ आप सभी के लिए धैर्य, विवेक, सुख शांति और संपन्नता लेकर आए, इसी कामना के साथ,

शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com
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