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सच और झूठ बदल सकते हैं हमारे व्यक्तिगत दृष्टिकोण और समझ की वजह से परन्तु सच्चाई नहीं। गोरख पांडे ने कभी लिखा था-
सच्चाई
मेहनत से मिलती है
छिपाई जाती है स्वार्थ से
फिर मेहनत से मिलती है।
पर क्या है यह सच और क्या जरूरत है इसकी, समाज में व्यक्तिगत जीवन में, क्यों इसके अनुयायी सूली पर चढ़ने से, गोली खाने से भी नहीं डरते! क्यों उन्होंने औरों की तरह झूठ की लाठी पकड़कर मौज से रहने, मनचाही और मनमानी करने के बजाय, सच का कठिन पथ स्वीकार किया!
वजह कई हो सकती हैं, परन्तु ध्यान से देखा और समझा जाए तो झूठे के जीवन में सब भरभरा कर टूटता, बौखलाया हुआ ही दिखेगा। आपस में ही लड़ता-झगड़ता-शांति विहीन, संतोष विहीन। और मज़ा यह कि उसपर भी सभी को आजीवन संतोष की तलाश है, शांति की तलाश है, वह भी अपने-अपने आधिपत्य व पूर्ण तानाशाही के साथ। तो क्या झूठ भरमाता है, उलझाता है क्योंकि उसके कई रूप हैं , जबकि सच एक है, जो बदलता या पलटता नहीं। चाहें या न चाहें, मानें या न मानें, भूत हो या वर्तमान किसी तथ्य की अंतरात्मा और बाह्य शरीर दोनों एक है और एक ही रहेंगे, चाहे कितना भी जुर्म हो, ताकत हो-और यही सच की वास्तविक ताकत है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। हमारी आत्मा तक शरीर बदलती रहती है, परन्तु सच नहीं।
परन्तु हमारी अभिलाषा और आकांक्षा, जिन्हे हम परिस्थितियां कहते हैं, कई-कई मुलम्मे चढ़ाए रहती हैं इस सच पर । कभी-कभी तो इतनी परतें कि वास्तविक सच को पहचानना तक मुश्किल हो जाता है। वजह सोचें तो मुख्यतः दो तरह के सच होते हैं – एक वास्तविक और एक ऐच्छिकः, जैसे कि मृत्यु एक वास्तविक या ध्रुव सच है, जिसे बदला नहीं जा सकता और उस पर विजय, अमरत्व की तलाश- एक एच्छिक सच। जरूरी नहीं दोनों सच में आपसी मेल या सामंजस्य तक हो, पर आदमी हार कब मानता है! एक उसकी चाह के अलावा बाकी सब झूठा ही तो । इसके कई-कई उदाहरण हैं इतिहास में भी और वर्तमान में भी। जैसे कि रशिया और यूक्रेन का युद्ध और दोनों नेताओं के सहयोगियों के अपने-अपने स्वार्थ और पक्ष व व विपक्ष में भांति-भांति के तर्क, वह भी अपनी-अपनी सुविधानुसार।
तो क्या यह सच झूठ की पड़ताल भी एक तरह का मद या नशा ही है, जो सबके वश का नहीं। दिनकर ने भी तो रश्मिरथी में लिखा था-क्षमा सोहती उस भुजंग को जिसके पास विष हो..फिर हम जैसे साधारण और मरियल क्यों सोच रहे हैं इसके बारे में…शायद सच भी एक आदत है एक संस्कार है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी डी.एन.ए बना खून में जा बसता है। कितनी भी तकलीफ़ें उठानी पड़ें, छुटकारा संभव ही नहीं।
जीवन की नदी ताउम्र आँखों के आगे बहती रहती है। सच झूठ के हज़ारों रहस्य छुपाए। कई बार तो हम ख़ुद, आकंठ डूबे रहने के बावजूद जान नहीं पाते कि सच क्या है और झूठ क्या है! एक ख़तरनाक खेल है यह भी।
कई बार तो प्याज़ के छिलकों सी इतनी परतें आंखों को किरकिरा कर देती हैं कि सबकुछ जानते हुए भी न तो सच को सच मान पाता है मन और न झूठ को झूठ ही। सच का साथ साहस और धैर्यपूरण समझ और अटूट सहनशक्ति से ही संभव है।
इसी संदर्भ में एक चिंतन जो अक्सर मेरे चित्त को मथता है- किसके जीवन का लक्ष सच के अधिक क़रीब था , यशोधरा का या सिद्थार्थ का…अपनी ही एक कविता जो फूटी थी इसी मंथन से -याद आती है,
‘ बुद्ध तुम पुरुष थे
सब कुछ छोड़कर
सच की तलाश में
निकल सकते थे
परन्तु यशोधरा नहीं
राहुल की माँ थी वह। ‘
और उसके जीवन का सबसे बड़ा सच भी यही था कि वह राहुल की माँ है। राम-लखन का शौर्य और कर्तव्य-परायणता तो थी ही परन्तु मुझे रामायण में रिश्तों की बात करें तो सीता और भरत की राम के प्रति निष्ठा, लक्ष्मण व हनुमान का निस्वार्थ सेवाभाव व प्रेम भी उतना ही भाव-विह्वल करता है।
कई बार किसी अन्य सच से ज़्यादा शक्तिशाली आत्मा के सच या हमारे निजी सच होते हैं। जिनपर से आस्था आख़िरी साँस तक नहीं टूटती। शायद उसके बाद भी नहीं, तभी तो जन्म-जन्मांतर की कल्पना या अनुभूति की थी हमारे पूर्वजों ने।
हाँ, इन बाह्य और आन्तरिक द्वन्दों से प्रायः शुरु हो जाता है सफ़ेद और काले के बीच फैला एक सिलेटी रंग का विस्तार, जिसकी धुँध प्रायः बेहद गहरी और अकाट्य है क्योंकि मन-मस्तिष्क पर प्रंकित मूर्त-अमूर्त छलनामय छवियाँ रक्तबीज हैं, जिनसे कई बार चोरी-चकारी,भृष्टाचार और भाँति-भांति के परोक्ष और अपरोक्ष अपराध जनम लेते हैं। क्योंकि सच का चोग़ा ओढ़े झूठ कई बार हमें पूर्णतः सम्मोहित कर लेता है और तब सही गलत, सच झूठ का भेद कर पाना आसान नहीं। सोचें, प्यार और नफ़रत दोनों में यही तो होता है। ज्ञान-अज्ञान का सच झूठ से भी वही संबंध है जो आंख और कान का देखने और सुनने से है या फिर न देखने और सुनने से भी है। कई बार मनःस्थिति अनुकूल न हो तो कुछ सुनाई नहीं देता , दिखाई नहीं देता। फिर आधा सच तो युद्धिष्ठिर ने भी लक्षसिद्धि के लिए बोला ही था।
पकड़ में न आए, समझ में न आए, पर हैं तो दोनों ही सच अपनी-अपनी तरह के -एक यथार्थ और दूसरा वैकल्पिक।
जैसे आँख के आगे बहती नदी से साफ़ और मैला पानी अलग-अलग नहीं दिखता, अलग नहीं किया जा सकता, वैसे ही सच-झूठ भी तो प्रायः जीवन के जादुई पिटारे गुत्थम-गुत्थ और गडमड ही मिलते हैं हमें।
आसान नहीं इन्हें चीन्ह पाना। ऐसे में जो जान लिया, मान लिया। यही दृष्टि रह जाती है। पर इससे सच-झूठ बदलता तो नहीं।
पल-पल उलझाते और भटकाते हैं ये हमें। इनसे ही निपटने के लिए तो नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र और गीता-कुरान बाइबल जैसे धर्म ग्रंथ रचे गए और आज भी ज्ञानी, विचारक और चतुर वैज्ञानिक सभी तो प्रयत्नरत हैं इन रहस्यों को सुलझाने में। कहते हैं हमारे पूर्वज जिज्ञासु जंगल-जंगल भटके। बाहुबली और सम्राटों ने जबरन इसे पाने के लिए हमले किए और साधु सब छोड़कर सन्यासी बन गए। आज भी हज़ार बहस और तर्क-वितर्क के बाद भी तो वहीं-कि-वहीं खड़े हैं हम और बस या तो लड़ाइयाँ रह जाती हैं निपटाने को या फिर और भी भ्रमित करता निरर्थक बहस का शोर…
क्या है यह सच जो अक्सर दृष्टि में आता ही नहीं, जिसे हम जान ही नहीं पाते, पर जो है, हवा की तरह, ईश्वर की तरह हमारे चारो तरफ़-जीवनदाता और हमें सँभाले हुए । पर नायक का तो अस्तित्व ही खलनायक से है- जैसे यह घूमता समय का चक्र और इसे बस में करने की हमारी अबूझ, अनंत प्यास। हमारी धरती और इसका सूरज और चंदा तारों से रिश्ता …कहीं सुबह तो कहीं और रात का यह शाश्वत सच या भ्रम। वह भी एक ही वक़्त में, एक ही साथ। सच और जिसे हम झूठ मान बैठते हैं अपनी अज्ञानता वश, दोनों ही तो सच हैं। पर सिर्फ़ उसके लिए जिसने यह चमत्कार देखा है, इसे जाना व समझा है। तो क्या उस लोककथाएँ की तरह पाँच अंधे हैं हम सभी। पैर हाथ में आने वाले को हाथी खंबा लगता है और कान वाले को सूप और पूँछ वाले को झाड़ू। इसी को महावीर जी ने जैन धर्म में व्यवहार नय या दृष्टि कहा है जबकि निश्चय नय या समग्र दृष्टि में वह हाथी है और सदैव हाथी ही रहेगा। इसे वही जान पाएगा जो समग्र रूप में देख सकता है। जीवन में हमारी समझ अनुसार, जितना और जो पकड़ में आ जाए…वही ठीक है, सच है, अंततः बस यही तथ्य रह जाता है और आम आदमी उसी से संतुष्ट भी हो जाता है और भटकता भी चला जाता है।
कई बार ताकत या जिद में मदान्ध इन्सान झूठ को भी सच की तरह रख देता है और सबकुछ जानते-समझते हुए भी कई स्वीकार लेते हैं, क्योंकि भिड़ने या नकारने की सामर्थ नहीं। इन्हें हम मजबूर सच भी कह सकते हैं। कुछ परिस्थिति जन्य सच होते हैं तो कुछ भौमिक सत्य हैं, जैसे हर प्राणी का आयु अनुसार विभिन्न अवस्था- बचपन , युवावस्था , वृद्धावस्था और अंततः मृत्यु, इस क्रम से गुजरना, परन्तु कई सच हमारे निजी अनुभव और दृष्टिकोण पर भी निर्भर हैं और इन्हें निर्धारित भी करते हैं। जैसे आशावादी को गिलास आधा भरा दिखता है और निराशावादी को आधा ख़ाली। और मज़ा यह कि दोनों ही सही हैं। यही तो जीवन है। जीवन का अनेकवाद या चीजों को देखने का अपना-अपना नज़रिया है। छोटी थी और विश्व भ्रमण नहीं किया था, एक ही समय में कई समय होते हैं इस तथ्य की जानकारी नहीं थी तो घड़ी का समय ध्रुव सत्य लगता था। दो बजे हैं तो बस दो ही होते थे यह नहीं पता था कि इसी समय कहीं सुबह हो रही है, तो कहीं शाम और कहीं पर रात और कहीं पर तो अगली तारीख़ की सुबह भी होने वाली है।
शिक्षा और ज्ञान हमारी दृष्टि को विस्तार देते हैं। हमारे सच और झूठ के मायनों को बदल देते हैं। हमारे सामने दूरबीन और भाँति-भांति के आयाम के दर्पण लाकर रख देते हैं। एक लम्बा नजरिया और दीर्घ मनन का विषय है यह सच-झूठ का निर्धारण व मंधन भी और तरह-तरह की कंटीली व दुश्वार मुश्किलों से भरा हुआ भी। इनसे बिना क्षत्-विक्षत हुए निकल पाना आम आदमी के बस की बात तो नहीं ही। विशेषतः आज जब पूरी दुनिया ही झूठ के स्केट लगाए दौड़ रही है , वह भी कृतिम और त्वरित बुद्धि व ज्ञान के सहारे।
आसान तो है यह बिना मेहनत के सब पा जाने की प्रवृत्ति। पर फिसलन भरे रास्तों पर संतुलन बनाए रख पाना भी तो उतना आसान नहीं। मक्खन तबतक अच्छा है जबतक पचाया जा सके, वरना बीमारी का ही घर…यही चेतावनी भरा संदेश लेकर आपतक पहुँचना चाहता है लेखनी का यह अंक।
कई सुरुचिपूर्ण कहानी, कविता और आलेखों को संजोया है हमने। उम्मीद है अंक आपको पसंद आएगा।
पुनश्चः लेखनी का अगला अंक हमने संस्कृति और संस्कार पर रखा है। क्या है इन शब्दों का अर्थ, कैसे प्रस्थापित होते हैं ये परिवार और समाज में और क्या जरूरत रह गई है इनकी आजके वैश्विक परिवार और समाज में। हमारे चिंतन और सृजन का विशेष केन्द्र होगा भारतीय संस्कृति और पूरे विश्व में फैला भारतीय समाझ। आपके विचार और रचना आमंत्रित हैं। भेजने की अंतिम तिथि 20 जून । ई मेलः shailagrawala@gmail.com. आपके पूर्ण रचनात्मक सहयोग के अनुरोध और विश्वास के साथ,
सस्नेह अभिवादन सहित,
शैल अग्राल
shailagrawala@gmail.com