‘आधा चाँद मांगता है पूरी रात
पूरी रात के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चाँद को मिलती है पूरी रात…
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य’
नरेश सक्सेना जी की यह कविता कभी पढ़ते ही गहन उदासी के साथ मन में उतर गई थी । लेखनी का यह अंक भी हमने इसी आधे-अधूरेपन पर संजोया है- जो सृष्टि की शुरुवात से ही माटी के पुतले को सक्रिय रख रही है। एक अनंत और अथक तलाश पर ले जाती है, जहाँ हम सारे रहस्य जान लेना चाहते हैं, पाने और पूरा होने की चाह में आजतक बारबार बनते और टूटते ही जा रहे हैं, फिर भी उम्मीद नहीं टूटती। उम्मीद है अथक और अनंत की इस प्यास को चंद शब्दों में भरने का यह प्रयास जीवन की तरह ही, मात्र एक भूलभलैया नहीं।
कहते हैं कि-जिन खोजा तिन पाइयाँ… पर सारे प्रयास और अविष्कारों के बाद भी, सूरज, चांद, सागर और पृथ्वी ही नहीं, हम सब भी भी तो आधे-अधूरे हैं आज भी। ॉ
कहीं साधन हैं तो विवेक नहीं, विवेक है तो अवसर नहीं, जैसे भूखे के पास भोजन नहीं और भरपेट के पास पचाने का स्वास्थ नहीं,आनंद लेने को रस और रसना को।
आधी-अधूरी इस दुनिया में हम सभी सब जानते हैं फिर भी रेगिस्तान के शुतपरमुर्ग की तरह असहाय और आंख-कान सब बन्द किए बैठे हैं हम … आपदा की रेत में धँसे और किरकिरे।
2022 सिमटने को है पर फरवरी में रूस द्वारा यूक्रेन में लगाई गई लपटें अभी भी शांत होने का नाम नहीं ले रही। धुँआ पूरे विश्व को परेशान कर रहा है। याद दिला रहा है कि हमने भले ही सरहदें खींच ली हों पर पृथ्वी एक ही है और एक का दुख सबको परेशान ही नहीं, बीमार कर सकता है, तोड़ सकता है। बढ़ते विध्वंस और बढ़ती मंहगाई ने पूरे विश्व में त्राहि-त्राहि मचा रखी है। समर्थ और शक्तिशाली देशों तक की आर्थिक व्यवस्था चरमरा उठी है और टूटने की कगार पर है। ताश के घरों सी आए दिन ही सरकार बन और बिगड़ रही हैं, वह भी ऐसे देश में जिसने पूरे विश्व पर राज्य किया था, जिसके राज्य में सूरज कभी डूबता ही नहीं था। किसी के पास कोई हल नहीं, न मंहगाई का और ना ही लड़ाई का और ना ही सही कहा जाए तो इस महामारी का जिसे हम करोना कह रहे हैं और जिसने 2019 से त्राहि-त्राहि मचा रखी है। डर भले ही कम हुआ हो , पर गई नहीं है आपदा। सामान्य जीवन पर लौटने को जन और जीवन दोनों ही बेचैन है पर अभी भी बसंत नहीं, पतझर का ही मौसम है, जहाँ इस हड़बड़ी में अभी भी बहुत कुछ टूट और बिखर रहा है, झर रहा है। अंधेरे में अंधी तलाश ही तो है सारी। टीके लगवाते रहो और जबतक जी सकते हो , जीते रहो। सुजलां सुफलां नहीं , चुनौती भरी पृथ्वी पर जी रहे हैं हम। लगता है आदत डालनी होगी इस सारे उलट-फेर के साथ जीने की , सहते रहने की।
तोड़ना-फोड़ना, बिगाड़ना-लड़ना तो पल भर का काम है पर संभालने और खड़ा करने में पीढ़ियाँ निकल जाती हैं। अपने-अपने गुमान में भरे देश और नेता तरह-तरह के दावे कर रहे हैं, व्यापार के नए-नए दावे कर रहे हैं परन्तु बात घूम-फिरकर फिर उन्ही शस्त्रों की सहायता और खरीद-बेच पर ही वापस आ जाती है, मानो इसके सिवाय किसीके पास अब कुछ शेष ही नहीं रहा! मानो दुनिया को किसी और चीज की जरूरत ही नहीं रही अब! दया और सहायता की जगह हर सौदा सिर्फ नफा-नुकसान का ही तो रह गया है, और हर देश , हर आदमी इस स्वार्थी युग में नितांत अकेला है।
पर जो हार जाए वो विकास और चिंतन के उच्चतम शिखर पर खड़ा मानव तो नहीं…उसका सत्य शिव और सुंदर के स्तंभों पर खड़ा सर्वे भवन्तु सुखिनः का सपना नहीं।… क्या है यह खोजी मानव की अनंत तलाश की अथक प्यास… क्या यह खोज की प्रवृत्ति मात्र उसके निरंतर असंतोष से जनमती है या फिर आगे बढ़ती और नित बदलती जिन्दगी के साथ सामंजस्य की एक नितांत और अनिवार्य शर्त भी है? यही सच है शायद, तभी तो उसने स्वर्ग और नर्क की कल्पना की होगी । ईश्वर की कल्पना की होगी, जिससे वह इच्छित माग सके -अंधेरे में रौशनी , व्याधि में औषधि और असह्य स्थितियों में सहायता कम-से-कम उसके सहारे उसका यह भ्रम तो जीवित रहे। पर वह तो दिखता ही नहीं। तो खुद को और अपनी उम्मीद को जिन्दा रखने के लिए शुरु हुई होगी वह अनंत तलाश प्रिय और परम की। जिस पर बाद में कई कई धर्म बने उनके अनुयाई समूह और जातियाँ बनीं। इन्सान कई-कई टुक़ड़ों में बंटा और फिर आपस में ही लड़ने लगा अपने-अपने आधिपत्य और फायदे का चश्मा लगाकर। यानी बात पुनः वहीं पहुँच गई , जहाँ से शुरु हुई थी। जिस अधूरेपन और अभाव से वह भाग रहा था , वही उसके समाज का स्थायी भाव बन गया। हित और अहित सब गायब हो जाते हैं जब लालच और ताकत मिलकर विष्फोट करते हैं। तलाश है हमें आज सभी को सुख-शांति की , सहृदयता की विवेकी और दूरदर्शी शाषक की, साथ-साथ सहयोगी व विवेकी प्रजा की भी। क्रोध की बैटरी पर चलते पुतलों की नहीं, जो सभ्यता को सदियों पीछे धकेले जा रहे हैं। शश्य श्यामला धरती में सबकुछ होते हुए भी , मूर्ख इसे ही नष्ट किए जा रहे हैं। न इन्हें दुख दिख रहा है, न बिखरते-उजड़ते परिवार।
…कई और आसमां हैं संभवतः जो अभी हमें या हमारी सोच को दृष्टिगत नहीं, पर कल तो हमेशा एक नया दिन ही है , खुशनुमा और नई आस के नए सूरज की सुनहरी किरणों से जगमग…इसी आस और मानव के अंदर बैठी अच्छाई पर विश्वास करते हुए अपनी बात यहीं पर खतम करना चाहूँगी। हम भारतीय मूल के हैं ब्रिटेन के नए प्रधान मंत्री रिषी सूनक जी, यह बात मन को गौरव और जिम्मेदारी, दोनों से ही भर देती है। उन्हें अशेष व अनंत शुभकामनायें कि वह अपनी सूझबूछ और चातुर्य से इस डगमग जहाज को तूफान से बाहर ला पायें और देश का ही नहीं, पूरे विश्व का सम्मान व प्यार पायें।
नया वर्ष सभी के लिए हजार खुशियाँ लेकर आए…बेहतर और खुशहाल हो नव वर्ष 2023 । पुनः पुनः अशेष शुभकामनायें, मित्रों।
पुनश्चः लेखनी का जनवरी-फरवरी का आगामी अंक बाल साहित्य पर होगा। भेजने की अंतिम तिथि 20 दिसंबर है। आपकी रचनाओं का स्वागत है।
शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com