सुबह से एक गीत गूंज रहा है , सांसें उसे गुनगुना चाहती हैं। एक तस्बीर है आँखों में उंगलियाँ जिसे कागज पर उतारना चाहती हैं पर आज तो सितंबर की पहली तारीख है और यह सब भूल-भुलाकर लेखनी का नया अंक देना है, जो कि रिश्तों पर है। रिश्ते जो पारिवारिक तानेबाने की प्रमुख कड़ी हैं। इन्हीसे तो परिवार और समाज बनता है । हम एक-दूसरे से जुड़ना सीखते हैं।
रिश्ते यानी परवाह और परवाह यानी प्यार…हर रिश्ते की जड़ में प्यार ही वह मुख्य तत्व है जो इसे जीवित रखता है। जड़मम से लेकर चेतन तक पूरी सृष्टि में यही सर्वाधिक स्पष्ट भी है और मुखर भी। इसके बिना सब सूख जाता है, झर जाता है, मर जाता है। वैज्ञानिक, संत, दार्शनिक सभी मानते हैं यह। और अगर इसी की कमी हो जाए, लालच , लालसा या अंधी महत्वाकांक्षा हावी हो जाए इसपर, तो विनाश ही विनाश है। कलियुग आ जाता है। यानी मशीनी , हृदयहीन समय और यंत्रवत् संचालन व पतन…जिसे डौमिनो इफेक्ट भी कहा जा सकता है। कहीं कुछ गिराने या मिटाने की जरूरत नहीं पड़ती सबकुछ स्वतः ही गिरता और मिटता जाता है। जैसा कि भस्मासुर से लेकर, रावण , धृतराष्ट्र और आज के वक्त में भी हो रहा है। जहाँ भी अंधा ‘मैं’ हाबी हुआ फिर तो ऐसी धूलभरी आंधी चल पड़ती है जो दृष्टि ही नहीं, विवेक तक को ढक देती है।
सबको साथ लेकर चलने में ही सबका जीवन व संचय है , पल्लवन और प्रष्फुटन है। एक भी दुखी हो , उसका दुख सबको ही बींधेगा; इस तथ्य को हम जितनी जल्दी स्वीकार लें , उतना ही अच्छा है।
रिश्ते हमें दूसरों के साथ एकात्म होना सिखाते हैं। चीजों को और भावनाओं को बांटना और पहचानना सिखाते हैं। जुड़ना और जीना सिखाते हैं। शर्त बस यही है कि अंधा आधिपत्य या मोह न घुनने लगे। ईर्षा न जलाने लगे और हम हक की बात करना न शुरु कर दें। साहित्य और समाज दोनों ही भरे पडे हैं प्रेम में दी हुई कुर्बानी और उद्दात्त उदाहरणों से। प्रेमचन्द का हामिद और उसका चिमटा याद आता है। गुलेरी की उसने कहा था याद आती है। प्रसाद की गुंडे याद आती है। प्यार और परवाह के साथ-साथ धोखे और बेवफाई की पीर को पहचानना, उस दुःख से निपटना भी तो सीखते हैं हम इससे। फिर यह तो वक्त ही बेहद उथल-पुथल भरा चल रहा है। पहले करोना और अब आसपास से आती वैश्विक खबरें भी हिंसा और भय से भरी हुई व विचलित करने वाली हैं। कब अनायास ही एक काली आँधी आती है और पूरे मन को ही किरकिरा करके चली जाती है मानो वक्त तक नहीं देती अक्सर जिन्दगी । पर मन को तो थिर करना ही होगा। दूसरों से ही क्या , इन रिश्तों द्वारा ही हम खुद तक से जुड़ना खुद को पहचानना सीख पाते हैं। ये रिश्ते ही तो प्रायः जीने की वजह, सांसों की नींव होते हैं। कहते हैं मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वही परिवार या समाज टूटा और बिखरा है जिसने रिश्तों की परवाह करना उन्हें निभाना छोड़ दिया। बाधाएं और भटकन तो चारो तरफ हैं आती ही रहेंगी। समन्वय और एकाग्रता का संतुलन जिसने सीख लिया वही जीवन का असली गुरु है। परिवारिक और समाजिक रिश्ते भी वही समर्पण माँगते हैं, जितना कि हम कर्तव्य की पुकार को देते हैं। ज्ञान की भूख को देते हैं। मैं योगी और मुनियों की बात नहीं कर रही जो कन्दराओं में एकाकी जीवन बिताते हैं, मैं उस सामाजिक व्यक्ति की बात कर रही हूँ जो किसीका बेटा, पति , भाई या मित्र है। मैं उन नारियों की बात कर रही हूँ जो एक ही जन्म में नौ दुर्गा के रूप धर कई-कई जिम्मेदारी निभाती हैं। कर्तव्य यदि पारिवारिक और सामाजिक भूख है तो रिश्ते प्राण वायु। फिर व्यवधान कहाँ नहीं? जो अपरिहार्य हो उसी पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है।
रिश्तों की एक अद्भुत माला गूंथी है हमने इस अंक में । उन्हें और उनके पीछे छुपे गूढ़ मनोभावों को समझने व पकड़ने की कोशिश है यह अंक। उम्मीद है अंक आपको रोचक लगेगा । अगला और वर्ष 2021 का अंतिम अंक हमने बदलती प्रकृति और इसके कोप यानी पर्यावरण के इस स्पष्ट और अपरिवर्तनीय परिवर्तन व उसके परिणामों पर रखा है। आपके रचनात्मक सहयोग के निवेदन के साथ, विषय-परक कविता कहानी और लेख व लघुकथा आदि रचनाओं का इंतजार रहेगा। रचना भेजने की अंतिम तिथि 20 अकतबर @ shailagrawal@hotmail.com पर। इस अंक पर आपके विचार और प्रतिक्रिया का हमें इंतजार रहेगा।
शैल अग्रवाल
आणविक संकेतः Shailagrawal@hotmail.com