क्या है किसी युग का युग धर्म!
युग जो धारा सा निरंतर बह रहा है,पलपल स्वभाव और रूप बदल लेता है, अपना स्वाद बदल लेता है, उसे पकड़ना और पहचान पाना भी तो इतना आसान नहीं।
हलचल ही जीवन है और जीवन में निरंतर ही कुछ न कुछ होता रहता है, बदलता रहता है और पानी से बहते इस निरंतर समय को इसके प्रवाह और स्वभाव को, कैसे हम हिस्सों में बांट सकते हैं, पकड़ सकते हैं?
यहाँ ब्रिटेन में ही पिछले तीन चार दिनों में ही राजा बदल गया, प्रधान मंत्री बदल गया और हम इस समय को समझने की बात कर रहे हैं, अपने कर्तव्य और इसका धर्म जानना चाहते हैं?
पर पहले भी तो हुआ है यह ,
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥
(मनुस्मृति)
हमारे धर्मग्रन्थों में चारो विभक्त युगों के अपने-अपने धर्म बताये गए हैं।
यानि सत्ययुग का परम श्रेष्ठ धर्म तप या तपस्या था जिससे मानव अपने सभी श्रेय एवं प्रेय प्राप्त कर सकता था। त्रेता में ज्ञान प्राप्त करना था, द्वापर में यज्ञ करना था और कलियुग का धर्म दान मात्र है।
यह तो थे पंडित और ज्ञानियों के विचार परन्तु एक साधारण और जिम्मेदार नागरिक की दृष्टि से किसी भी युग की जरूरतें और उन्हें पूरा करना ही उस युग का सबसे बड़ा धर्म और कर्तव्य है मेरी नजर में।
माना युग बदलता है तो जरूरतें बदल जाती हैं और जरूरतें बदलती हैं तो धर्म और कर्तव्य भी, पर उन्हें समझना , महसूस करना, उनकी नब्ज पकड़ना शायद हमारी पहली जरूरत है। पर हम तो इस तेजी से बदलते युग में जी रह रहे हैं, जहाँ पलपल चीजें पलट रही हैं। पुरानी मान्यतायें टूट रही हैं, नई गढ़ी जा रही हैं और कईबार तो सबकुछ वैसे ही आधा-अधूरा छोड़कर आगे बढ़ रहे हैं लोग, जैसे अतीत के खंडहर जिन्हें न तो तोड़ा ही जाता है और ना ही उनकी तरफ ध्यान ही दिया जाता है, फिर कैसे पकड़ें और सहेजे-संवारे इसे जब चारो तरफ चौंकाने वाली प्रगति और आविष्कार हो रहे हैं और उतने ही तीव्र पतन व ह्रास भी!
विशेषतः नैतिक और पारस्परिक मानवीय जिम्मेदारियों तो मानो भूलते ही जा रहे हम, सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचने की होड़ में, कुबेर जैसे वैभव के सपने देखते-देखते, ऐसे में फिर क्या है या हो सकता है आज का युगधर्म…विचार करती हूँ तो मन बेचैन हो उठता है और बुद्धि बौखलाने लग जाती है। कठिनाइयाँ और जीवन की परेशानियाँ तो सदैव रही हैं और रहेंगी और इनसे जूझा व निपटा भी है हर युग ने-अपने-अपने तरीके और अपनी-अपनी योग्यता अनुसार।
महाभारत काल को धर्मबीर भारती ने अँधायुग कहा था-अंधा तो, परन्तु हृदय और मस्तिष्क थे उनके पास, जिनका वे कभी-कभी इस्तेमाल भी कर लेते थे, किन्तु आजकल घटती घटनाओं और युद्ध प्रवर्तक व प्रेमी विश्व नेताओं को जानकर तो प्रतीत होता है कि इस युग में तो मानो हृदय और मस्तिष्क को चीरकर अलग फेंक दिया गया है, तो क्या कहें इस हृदय और मस्तिष्क विहीन युग को…जौम्बी युग? स्वार्थी युग ? विवेक हीन, विनाशोन्मुख युग कहें?
क्या हो सकते हैं इन विश्लेषणों के साथ इस विचित्र और संवेदना हीन युग के युग धर्म !
मुनाफा पहला शब्द ध्यान में आता है लालच के इस अति मोह और प्रचलन को देखकर । पर इससे तो बस मुठ्ठीभर लोगों का ही भला होगा, युगधर्म तो वह है जो सभी का भला करे!
सोचना होगा, हम सभी को मिलकर ही सोचना होगा।
धर्म की लाठी पकड़ी थी कभी विद्वानों ने समझाने के लिए पर आज तो इससे सिर्फ सिर ही फोड़ा जाता है। और शस्त्र भी तो अब लाठी से कहीं अधिक सशक्त अविष्कृत हो चुके हैं। फिर हम तो संहार नहीं संरक्षण चाहते हैं। शांति और व्यवस्था चाहते हैं अपने युग में, ताकि छोटे बड़े सभी खुलकर सांस ले सकें, जी सकें, अनावश्यक युद्ध और दूसरों के अधिकारों का अपहरण नहीं। तो क्या, कृष्ण की गीता और बांसुरी हैं इसके जबाव, गांधी का चरखा है, कार्ल मार्क्स की समाजवादी व्यवस्था है या फिर हमारे युग की ये आधिपत्य जमाने की लड़ाइयाँ ही बची हैं, जिनके बल पर लोग चारो तरफ मनमानी किए जा रहे हैं। सीधे-साधे लोगों को डरा-धमका रहे हैं।
तो क्या दीन-हीन की सुरक्षा…रक्षा बनता है आजका प्रथम युग धर्म और मानवीय जिम्मेदारी…रक्षा सच की, रक्षा मूल्यों की…रक्षा मानवता की।
भाषा संस्कृति और संस्कार सबकुछ ही तो फिसलता जा रहे हैं। पर, कैसे बचायें ?
तेजी से बदलते युग में जी रहे हैं हम, पलपल बदल रही हैं इसकी जरूरते।
कभी ज्ञानी डाकू नजर आता है तो कभी हत्यारे और पापी संत…सोचें, सोचें, मिलकर सोचें, क्या होना चाहिए इस युग का युग धर्म….यूँ गूंगे बहरे बनकर बैठे रहना तो हरगिज ही नहीं है।
कल अचानक ही महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का जाना पूरे देश के लिए ही एक बड़ा धक्का सिद्ध हुआ, सभी शोक में हैं। पिछले सत्तर साल से उनका साशन था। आदत पड़ गई थी हमें उनकी। नई प्रधानमंत्री लिज टस के अनुसार वह एक ऐसी चट्टान थीं जिनके सहारे आधुनिक ब्रिटेन फलाफूला और समृद्ध हुआ। और टैरेसा मे के अनुसार सबसे विलक्षण व्यक्ति थीं वह, जिनसे वे मिलीं अपने अबतक के जीवन काल में। ऐशी मशाल-सी प्रेरक साम्राज्ञी के अवसान पर अंधेरा स्वाभाविक है। उनके मित्र और परिवार के हर सदस्य के साथ-साथ हर ब्रिटिश और महारानी की इज्जत करने वाले नागरिक को हार्दिक सहानुभूति और संवेदनायें देता है लेखनी परिवार। प्रार्थना है कि भगवान स्वर्गीय महारानी की दिवंगत आत्मा को चिर शांति दे… ऊँ ,
शान्ति, शांति, शांति!!!
पुनश्च, लेखनी का नवंबर-दिसंबर अंक हमने खोजी मानव की अनंत तलाश की प्यास पर रखा है। क्या यह खोज की प्रवृत्ति मात्र उसके निरंतर असंतोष से जनमती है या फिर आगे बढ़ती और नित बदलती जिन्दगी के साथ सामंजस्य की एक नितांत और अनिवार्य शर्त भी है- आपके क्या विचार हैं इस ‘खोजना’ विषय पर? विषय पर आपकी रचनाओं का स्वागत है। भेजने की अंतिम तिथि- 20 अक्तूबर।
शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com