देशभक्ति एक सक्रिय प्रक्रिया है, भक्ति शब्द पूर्ण समर्पण और विश्वास मांगता है , परन्तु देश प्रतिमा या ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान और अदृश्य नहीं। इसमें परिवर्तन होते रहते हैं। इसका हित , अहित होता रहता है । अतः देशभक्ति भक्ति तो है परन्तु एक चुनौती के साथ। एक ममत्व भरी और सतर्क दृष्टि और एक खुली समझ के साथ।
देश में हों हम या विदेश में परन्तु यदि अपना मानते हैं तो उसके हित के बारे में ही सोचेंगे। प्रवास परिस्थिति या पसंद से हो सकता है परन्तु प्रेम नहीं-यह स्वभावजन्य और नैसर्गिक प्रक्रिया है।
कहते हैं -absence makes heart go fonder और विदेश में रहो तो पलपल ऐसे मौके आते हैं जब आपको देश की याद आती है-कभी आप उसकी अस्मिता को स्थापित करना चाहते हैं तो कभी उसके खोए गौरव को।
टावर औफ लंदन में घूमते हुए जहाँ कोहनूर है, महाराज कणधीर सिंह की तलवार है। स्थानीय लोगों के साथ क्रिसमस या फिर नये वर्ष की दावत खाते हुए, कभी साधारण बातचीत के बीच भी या फिर कई बार तो मात्र टी वी देखते हुए भी मन उद्वेलित हुआ है। मुद्दे उछले हैं।
आजाद भारत के गौरवमय 75 वर्ष पूर्ण करने के उपलक्ष में लेखनी के तीन विशेष अंकों की श्रंखला की दूसरी कड़ी है यह अंक। इसमें हमने भारत के वीर और महान सपूतों का गौरवगान किया है और अपने यानी प्रवासियों की तरफ से भी भारत माता के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।
उस आजादी और उनकी उपलब्धियों का जश्न मना रहे हैं हम इस वर्ष, जिसे अनगिनित वीरों के बलिदान से ही हासिल किया था हमने। कुछ के नाम मशहूर हुए पर कई ऐसे भी थे जो धुरी की कील की तरह अदृश्य ही रहगए। शहीदों की मजार पर लगेगें हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बस यही आखिरी निशां होगा। ऐसे ही जाने अनजाने वीरों की याद में चन्द श्रद्धा-सुमन की तरह है यह अंक। देश की प्रगति, दशा और दिशा का लेखा-जोखा भी रखना चाहता है मन। किधर जा रहा है भारत और क्या हम खुश हैं इसकी प्रगति व परिस्थियों से? और यदि नहीं तो क्या हो सकता है एक आम आदमी का योगदान आज की परिस्थितियों में और अपने देश को सुधारने की दिशा में?
स्वाधीनता, एकता और सेवाभाव तीन शब्द मस्तिष्क में आते हैं एक सुसभ्य और सुसंस्कृत जीवन के लिए।
आए दिन की प्राकृतिक आपदा और पड़ोसी मुल्कों द्वारा परोसी गईं बेवजह की मुसीबतें, न सिर्फ सचेत रहने को आगाह करती हैं अपितु अन्य खबरें पर्यावरण, धर्म और विस्तारवाद के लालच से जुड़ी हमारे आजके प्रगतिशील और सिद्धांतहीन समाज के खोखलेपन की तरफ भी ध्यान खींचती है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद शायद आज हमारे देश का सबसे बड़ा अभिशाप है।
जानती हूँ कि समय एक अनवरत धारा है, अगला-पिछला साथ लेकर बहता है फिर भी बहुत कुछ है जो तहों में जमता चला जाता है। पचास वर्ष से अधिक हो गए ब्रिटेन में रहते , यही तो वह देश था जिनसे हमने एक लंबे संघर्ष के बाद आजादी छीनी थी और अब उसी देश में…बेचैनी होती है सोचकर ही, क्या यह भी एक गद्दारी ही नहीं…चाहे कितना ही हम वसुधैव कुटुम्बकम का युग कह लें। पचास साल से अधिक हो गये प्रवास में फिर भी अपना घर भारत ही क्यों लगता है, नहीं जानती, जबकि मेरा घर तो यहीं हैं और अपना भारत, अपनों के बिना कई बार उतना अपना नहीं महसूस हुआ। यही शायद प्रवासी की पीड़ा है, जड़ों से उखड़ने और डाली से टूटने का दुख है। प्रवास जो सदियों से होता आया है, आदमी ही नहीं, पक्षियों तक में, फरक-फरक वजह और फरक-फरक परिस्थितियों में होता है और हर जमीन , हर देश के अपने-अपने सुख दुःख हैं। सब कुछ सुलझा पाना, समझ पाना, पा लेना भी तो संभव नहीं और फिर मिलन और विछोह का तो जीवन के साथ चोली-दामन का साथ है। प्रसाद याद आते हैं-मानव जीवन बेदी पर परिणय है विरह मिलन का/ सुख-दुख दोनों नाचेंगे हैं खेल आंख का मन का । अपने भ्रमण के लम्बे अनुभवों में दो तरह के प्रवासी हमेशा मिले, एक वे जो खुद को कभी अपने मूल देश से, उसकी संस्कृति से अलग नहीं कर पाये और दूसरे वे जिन्हें उसकी याद तक हीन भावना और आक्रोश से भर देती है। सच ही तो है जिसको जो दिया जिन्दगी ने उसने वही लौटाया और बांटा।
भारत में कहीं भी घूमने गई हूँ तो मुख्यतः भारत के इतिहास को तीन हिस्सों में बंटा पाती हूँ। ऋषि-मुनियों और भक्तों का भारतः वह शिव राम और कृष्ण का समय जिसे हमारी दादी नानी और साधु संत और विचारक आज भी मनकों पर फेरते रहते हैं, मुगल काल और अंग्रेजों का कालः यानी पराधीन भारत और अंत में 1947 के बाद का आज का भारत, विश्व में उसकी छवि और प्रगति और घटती-बढ़ती साख जो प्रायः चाहे-अनचाहे हम प्रवासियों से भी जुड़ जाती है।
छह महीने की थी जब भारत को अजादी मिली थी। संग ही बढ़ी हूँ इसके। दस वर्ष की उम्र तक लगातार कुछ सपने परेशान करते रहे थे। एक बेचैनी का अहसास और कुछ करने की ललक लगातार पीछा करती रहती है। हो सकता है आसपास की खबरों में, किस्से-कहानियों में इस तरह के तथ्यों की बाहुल्यता रही हो, इस वजह से ऐसा होता हो । हो सकता है एक क्रांतिकारी और देशभक्त पिता की पुत्री होने के कारण ऐसा हुआ हो, हो सकता है दादी की वे कहानियाँ मन में जा धंसी हों जब औरतों ने अपने मंहगे जेवर रुपये सब सहर्ष दे दिए थे आजादी की उस लड़ाई के लिए। गद्दारों की बात न करें , तो हर भारत वासी का योगदान था इस संघर्ष में। गांधी जी की एक पुकार पर धू-धू होली जलाई गई थी मंहगे विदेशी कपड़े और सामानों की। कल्पना में ही सही, उस पीड़ा को, उस संघर्ष को पूरी तीव्रता से अनुभव किया और जिया है । बचपन से ही जानती थी कि कोई न सुने या न समझे, बेवजह ही भगाते-दौड़ाते वे अवचेतन मन के सपने कुछ संकेत और संदेश देना चाहते हैं, मन की गुत्थियों को सुलझाकर भविष्य के लिए तैयार करते रहे हैं । कुछ और नहीं तो अनजाने ही, उद्देश्यों और संकल्पों की एक निरंतरता तो मिलती ही रही है इनसे और दूर रहकर भी सदा भारत का ही एक हिस्सा जान और मान पाई हूँ खुदको। आप चाहें तो इन्हें संस्कार भी कह सकते हैं।
देशभक्ति वह जजबा है जिसमें हम दूर हों या पास, सदैव अपने देश से जुड़ा महसूस करते हैं। उसकी संस्कृति और अतीत व वर्तमान को न सिर्फ जानते और समझते हैं, निरंतर इस प्रक्रिया में रत् रहते हैं । उसमें गौरव लेते हैं। कमियों को दूर तो करना चाहते हैं परन्तु अपमान बर्दाश्त नहीं करते, न अपनों द्वारा और ना ही विदेशियों द्वारा। हेय दृष्टि से देखते हुए उसका मजाक नहीं उड़ाते। यह जुड़ाव एक दिन में तो नहीं आता। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सोच और संस्कृति में समाहित होकर ही निर्धारक डी एन ए बन पाता है किसी व्यक्ति समाज या देश का यह। भारत में जहाँ जयचंद जैसे गद्दार हुए हैं, देशभक्त और बलिदानियों की भी गौरवमय और अभूतपूर्व गाथायें हैं।
तुलसीदास ने कहा था पराधीन सपनेहु सुख नाहीं, जिन्होंने हमें स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान किया, उनके प्रति भारत कभी उऋण नहीं हो सकता। बहुधर्मी भारत के हिन्दु, सिख मुस्लिम सभी सपूत थे जिन्होंने अपनी आहुति दी। और स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव का पर्व बलिदानी इन देशभक्तों के प्रति सारे धर्म और जाति के भेदभावों को भूलकर कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर है आपस में लड़ने का नहीं । मात्र शाब्दिक नहीं, ध्यान रखना होगा हर भारतवासी को कि जिनके त्याग और बलिदान के कारण आज हम स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में दुनिया के आगे यथोचित स्थान लेने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उनके परिवार के भरण -पोषण की जिम्मेदारी हमारी है, अपना परिवार मानकर ही उनका ध्यान रखे। सम्मान दे, कृतज्ञता दिखलाए। सिरफिरे नहीं थे वे जो देश के लिए फांसी पर झूले। जान से भी अधिक प्यार करते थे देश से। और यह जजबा आसान नहीं। परन्तु प्रेम भी तो एक स्वाभ और आदत है। उद्दात्त भाव है, जो त्याग , समर्पण और खुद से निकलकर दूसरे के संग जुड़ना सिखलाता है। दूसरे का दुख-दर्द समझने और दूर करने की बेचैनी देता है। देश प्रेम इसका सर्वोच्च उदाहरण है क्योंकि यहाँ हम किसी एक व्यक्ति से नहीं, पूरे राष्ट्र से प्रेम करते हैं। गौरव लेते हैं। सारी अच्छाई और बुराई को जान और पहचानकर उसके उत्थान व परिमार्जन में अपनी योग्यता अनुसार सक्रिय व सार्थक योगदान देते हैं। महर्षि अरविंदो ने कहा था- भारत को जागना है। अपने लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए और विश्व मानवता के हित में उनका यह संदेश हमें आज भी नहीं भूलना चाहिए। गुरु बनने के लिए गुरुत्व का होना जरूरी है अन्य देशों की तरह मात्र दादागिरी और घाटे मुनाफे की सोच से नहीं हो सकता यह। आपसी झगड़े और धार्मिक भेदभाव ही नहीं, व्यक्तिगत स्वार्थ से भी ऊपर उठना होगा हमें। भारत कभी एक सामंदवादी और विस्तारवादी देश और समाज नहीं रहा। शांति से रहते थे हमारे पूर्वज। योग आध्यात्म और सर्वे भवन्तु सुखिनः दर्शन के सहारे विश्व बन्धुत्व का सपना देखते हुए शांति के प्रहरी थे वे। और हमें वही परंपरा जारी रखनी है।जिनकी नीति ही फूट डालकर राज्य करने की थी , वह भले ही धर्म के आधार पर देश के दो टुकड़े करके चले गए हों, परन्तु हमें उस जाल से बाहर निकलना है। आपस में लड़ना छोड़ना ही होगा । आत्मविश्नास और सद्बुद्धि , सारे भेदभाव भूलकर आपस में सद्भाव व प्रेम, इन्ही दो बातों का संकल्प शायद देश के अमृत महोत्सव पर सबसे महकता और खूबसूरत भाव सुमन होगा हम आम भारत वासी और भारत वंशियों द्वारा।
गांधी जी ने कहा था अहिंसा कायरों का शस्त्र नहीं-यही बात प्रेम पर भी तो लागू होती है, चाहे प्रेम व्यक्ति विशेष से , राष्ट्र से हो या फिर एक सिद्धांत से। जो खुद में संतुष्ट होगा, समर्थ होगा वही प्रेम की मिठास को पैदा कर पाता है, चख पाता है। नफरत जहाँ घोर काली रात की तरह गहन अंधेरा है, जिसमें हम अंधे हो जाते है, ठोकरें खाते हैं। चोट लगाते हैं, खुद को भी और दूसरों को भी, प्रेम भक् उजाला है जो सच को उजागर ही नहीं करता उसका शिव रूप यानी कल्याणकारी रूप दिखलाता है । जीवन की सुन्दरतम राह बतलाता है । सुलझना और सुलझाना ही होगा अपनी और देशवासियों की सोच को कि राम-रहीम , पैगम्बर एक ही दैवीय शक्ति है जिसकी हम सभी सन्तान हैं और किसी भी रूप में पूजें वह हमारी प्रार्थना सुनता है। ध्यान रखता है हमारा । शर्त बस प्रेम की है, नफरत की नहीं। अगर हमने प्रेम करना सीख लिया तो गरीबी , भ्रष्टाचार और अन्य कुरीतियों से स्वतः मुक्ति पा लेंगे , क्योंकि तब हम मात्र अपने बारे में नहीं , दूसरों के बारे में भी सोचेंगे । उनके सुख-दुख को अपना ही सुख-दुख मानेंगे और अपनी नागरिक जिम्मेदारी भी अधिक“ ध्यान से मानें और समझेंगे। जाति और भाईवाद के आधार पर निर्णय और चयन नहीं करेंगे देश के कर्णाधारों का, ना ही किसी लालच में आकर,अपितु योग्यता के आधार पर । और तब एक दो या चार कमरो का घर ही हमारा घर नहीं होगा, जिसका कूड़ा हम छाड़कर बाहर सड़क पर फेंक देंगे अपितु पूरा भारत , पूरा विश्व घर होगा, जिसके स्वास्थ और स्वच्छता का ध्यान रखते हुए हम आत्म-गौरव और संतोष से भर उठेंगे।
करोना से डराता धमकाता 2021 तो हम झेल गये- 2022 विश्व के लिए राहत और सुख शांति लेकर आए -इसी प्रार्थना के साथ नये वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनायें।
पुनश्चः लेखनी आने वाले मार्च-अप्रैल के अंक के साथ अपनी अनवरत् साहित्य यात्रा के 15 वर्ष पूरे कर रही है। आपके साथ और सहयोग के साथ लेखनी की यह यात्रा सुखद और सार्थक रही है और एकबार फिर पहले अंक की तरह ही इसके केन्द्र में नारी और उसकी अस्मिता है। प्रेंम , सहृदय और बसंत का कोमल भाव-प्रकृति और पुरुष के मिलन की इंद्रधनुषी छटा है। गद्य-पद्य और हिन्दी व अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में आपकी रचनाओं का निम्नांकित ई.मेल पर हमें 20 फरवरी तक इंतजार रहेगा। …
शैल अग्रवाल
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