अपनी बातः नमन मेरे देश

देखते-देखते भारत ने आजादी के पिचहत्तर वर्ष पूरे कर लिए हैं और हम सबके लिए यह गर्व और बधाई का विषय है। बहुत कुछ बदला और सुधरा है इस बीच । आज भारत विश्व में एक ताकत की तरह उभर रहा है। कई कीर्तिमान हासिल किए हैं हमने धरती पर ही नहीं अंतरिक्ष में भी। यहाँ तक कि भगवान तत्व ढूँढने में भी हमारे वैज्ञानिकों की ही अहम् भूमिका रही है। पुराने जमाने में राजा होते थे और उनके दरबार में भाट या चारण होते थे जिनका काम होता था कि अपने राजा का कीर्तिगान करें। पर तबसे अब वक्त बहुत आगे निकल आया है और हमें अपने देश से प्यार है जैसे एक बच्चा अपने मां-बाप से करता है या फिर भक्त भगवान से करता है और यदि इनकी कोई भूख प्यास दिखे या फिर पोशाक पर कोई दाग-धब्बा दिखे तो उसे पूरा करना, बदलना या फिर साफ करना भी हमारा ही कर्तव्य है।
बदलता देश और समाज है या फिर खुद हम! इतनी हिंसा, इतनी अराजकता…जो कुछ हो रहा है देश में, जिस तरह की साजिशों के साथ, जिस तरह के मन्तव्यों के साथ , विचलित कर रहा है। और इसके खिलाफ बड़ी ही सहृदयता व समझ के साथ हमें एकजुट होकर खड़े होना होगा, सतर्क होना होगा। विषबेल को उखाड़कर फेंकना होगा।

आज हमारे भारत में सभी को संरक्षण और आरक्षण चाहिए और वह भी आक्रामक व हिंसक रवैये के साथ । बैसाखी और सीढ़ियां की चाह वह भी तलवार हाथ में लेकर। घुन-सा व्याप्त अपनों द्वारा ही देशद्रोह और भृष्टाचार चाटे जा रहा है देश को, इसके चरित्र को। हर हाथ में आज पत्थर है और हर जुबान पर एक मुद्दा । चेहरे जाने कैसे-कैसे गुबारों से मटमैले हैं और हम हैं कि आइने ही साफ किए जा रहे हैं। कबतक इन कुकर्मों के लिए पड़ोसी देशों को जिम्मेदार ठहराते रहेंगे हम?

वजह कई और कुछ भी हो सकती हैं। स्वतंत्र भारत में पली-बढ़ी जनता हो या नेता, प्रायः जिम्मेदारियों अब अहसास हीन हैं और दूसरों पर आरोप लगाकर आराम से छुटकारा भी पा लिया जाता है इनसे। स्वतंत्रता एक नागरिक उच्छ्रंखवता का रूप ले चुकी है। क्योंति न तो कुर्बानियां दी गई हैं और ना ही पराधीनता का दुख झेला है इस पीढ़ी ने।
सुलभ इस संस्कृति में हर आदमी अपने पद और ओहदे का भरपूर फायदा ले रहा है, लेना चाहता है। वह शायद कोई और वक्त था, जब मूल्य भिन्न थे जीवन के। जब भारतीय चरित्रवान और गरिमामय थे और अपनी साफ छवि में गौरव लेते थे। आदर्श और सिद्धान्तों के लिए हर त्याग आसान था उनके लिए। आज तो तिजोरियां भरने और स्वमूर्ति गढ़ने से ही फुरसत नहीं..किसी भी पद पर हों अफसर से लेकर चपरासी तक …डॉक्टर, नेता, अभियंता, जज, पुलिस सब। हम भूल चुके हैं कि आजादी सिर्फ मनमानी उच्छृंखलता ही नहीं, साथ में जिम्मेदारी और कर्तव्यबोध न हो तो यही आजादी फिसलन बन सकती है , चोट दे जाती है-
अपनी ही लिखी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं,

‘यह वो भारत तो नहीं, जिसके लिए लाखों ने शीश कटाए,जान गंवाई
अपने ही खून का ले आचमन चोला लाल रंगाया
जाने कब आएगी आखिर अपनी आजादी !’

नफे-नुकसान की नपी-तुली संस्कृति में जी रहे हैं हम। एक हाथ दो, तो दूसरे से लो। यही उपकार और परोपकार है। सारा दमखम छवि और तिकड़म की ही तो है। इसीलिए शायद आज भारत की पहचान इसका आध्यात्म और विवेक नहीं, बौलीवुड है विश्व के आगे । कोई बुराई नहीं इसमें पर एक आत्माहीन शरीर शिव तत्व को खोकर शव ही तो है।

जैसा कि हर बदलाव के साथ होता है बहुत कुछ झरा और टूटा है। विशेषतः हमारी आंतरिक संरचना और जीवन के मूल्य। भारतीय संस्कृति जो जुड़कर चलने, प्रेम और सद्भाव पर आधारित थी। करुणामयी थी , बड़ों का आदर करना, ध्यान रखना जानती थी, आज या तो सेक्स और शराब में डूब चुकी है या फिर सास भी कभी बहू थी जैसे कसैले घरेलू मुद्दों में उलझ कर रह गई है। पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित तेजी से बदल रही है यह और जो काम का नहीं उसे बेरहमी से फेंक रही हैं…भाई-बहन, मां-बाप..रिश्ते, सद्भाव सभी को।

निश्चित ही आज का यह भृष्ट भारत हमारे सपनों का भारत नहीं। क्या खो गया है हमारे पास से जिसे ढूँढना ही होगा तकि एक बार फिर हम भारतीय होने में गर्व का अनुभव कर सकें। कभी कोई धर्म गुरु तो कभी कोई नेता ..सस्ता मनोरंजन बहुत हो चुका। क्या हमने ऐसे ही स्वतंत्र भारत का सपना देखा था? यदि नहीं, तो क्या था हमारा सपना और इन सपनों को पूरा करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? जबाव शायद इन फुंफकारते सवालों के फनों में ही कहीं उलझे-लिपटे हैं । देखना यह है कि हमारे राम और कृष्ण के देश में आज भी कितने साहसी और सूझबूझ वाले हैं जो पुनः कालिया मर्दन कर सकते हैं!

आज के भारत का असली मुद्दा सामाजिक विषमताओं का है…विषमताएं कुछ प्रकृति देय और अधिकांश हमारी अपनी संवेदन-शून्यता की वजह से…अन्याय और कुरीतियों के आगे मूक समर्पण या हमारे स्वभाव की बेबसी की वजह से…या फिर चलने दो जैसे चल रहा है वाली पलायनवादी प्रवृत्ति की वजह से।..ऐठी मालिकाना प्रवृत्ति और रीढ़ की हड्डी हीन जी हजूरी वाले इस मानसिक प्रदूषण को साफ करना अब हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। जाति वाद और अपना अपना धर्म व सम्प्रदाय के स्थापन के कुकुरमुत्ती भेदभाव की वजह से हम आजतक वैसे ही विपन्न और असमर्थ हैं जैसे कि परतंत्र भारत में थे, जिससे उबरने के लिए कभी हजारों ने जान दी थीं।

माना हर परिस्थिति बस में नहीं होती, प्रारब्ध का बड़ा हाथ होता है जीवन में और फिर प्रकृति भी तो बदल रही है , अप्रत्याशित परिवर्तन आसपास का मौसम ही नहीं हमारा जीवन भी दूभर कर रहे हैं परन्तु इस कठिन वक्त में सिर्फ मौसम ही नहीं हम भी तो बदल रहे हैं…आत्म संरक्षण के भय और दबाव तले मानवता खो रहे हैं…स्वार्थी और संवेदना विहीन होते जा रहे है। जितना विकसित और संपन्न समाज, उतने ही आवेगी अपराध।

आज के अमानुष और ताकतवर समाज के अनगिनित कुरूप और घिनौने कुकर्मों की सड़ांध अब तो करीब-करीब पूरे ही विश्व को दूषित कर चुकी है, और हम ही नहीं, आने वाली कई-कई पीढ़ियां हरज़ाना भुगतने को मजबूर हैं। बहुत कुछ बदल रहा है और तेजी से बदल रहा है। नजरिया हमारे मूल्य सभी कुछ। आज भौतिकता और ऐश्वर्य की अदम्य लालसा ही जीवन का ध्येय और शर्त बन चुकी नजर आती है, जो कभी धर्म का लबादा ओढ़ लेती है तो कभी ताकत और उन्माद प्रदर्शन का। जुड़ने की बजाय टूटने और तोड़ने में ही अधिक उपलब्धियाँ और विकास दिखता है इसे।
नैतिकता व मानवीय मूल्य पिछड़ेपन की निशानी बनते जा रहे हैं। सब चोरी कर रहे हैं और जबतक पकड़े न जाएं, कोई भी चोर नहीं।
अपने भारत में तो पकड़े जाने पर भी चोर नहीं। सफलता और ताकत ही प्रमाणपत्र है उँचे चरित्र के भी और ऊंचे ओहदे के भी। और यह हाल मात्र भारत का ही नहीं, विश्व का होता जा रहा है। ताकत ही राज करती है और इसी के सब दीवाने हैं। नेता या अभिनेता नहीं, चन्द धनाढ्यों की बात नहीं…कल का आम, लाचार और मजबूर आदमी भी अब त्वरित परिणाम चाहता है…कमा कर बराबरी नहीं कर सकता तो चोरी चकारी, लूटपाट या अपहरण किसी से भी नहीं हिचकिचाता …जरूरत पड़े तो इस लालच में हत्या भी कर देगा…अभी राजस्थान में हुई घटना गवाह है इसकी। जैसा कि पहले थ्रिलर या हौरर मूवीज में होता था, क्योंकि उसने अपने हर आदर्श हर सिद्धांत को टूटते बिखरते देखा है, उनके सूत्रघार और ठेकेदारों तक को फिसलते देखा है। दौड़ में आगे रहने की प्रवृत्ति ने किसको धक्का दिया किसके ऊपर पैर रखकर आगे बढ़े; सब भुलवा दिया है सबसे। जब आदमी आदमियत के गौरव को ही भूलता जा रहा है तो जिम्मेदारियों को कैसे याद रख पाएगा। ‘मैं ‘ का आकार इतना बड़ा हो गया है कि ‘हम’ ‘तुम’ सब विलुप्त हो चुके हैं। ध्यान न रखा तो यह हांफता भागता मैं भी थककर संज्ञाहीन होने में अधिक वक्त नहीं लेगा। इसकी बेचैनी और हवस ही ले डूबेगी इसे।

खतरा बाहर से नहीं हमारे अपने अंदर से है। जागरूक हस्तक्षेप जरूरी है…समाज के आम आदमी, उसके रहन सहन , उसकी सोच, उसके साहित्य, उसके मनोरंजन सभी को जिम्मेदार होना पड़ेगा…नफे-नुकसान की बात भूलनी पड़े तो भूलनी होगी। ज़ाहिर है विश्वीकरण के इस युग में जीने के ही नहीं, रुचि और मनोरंजन के साधन भी बदल रहे हैं। स्पर्धा के मकड़ जाल में हरेक को कुछ नया परोसने और ढूंढने की अंधी चाह है। तुरंत की लोकप्रियता की तलाश में विवेक और जिम्मेदारी दोनों ही बहुत पीछे छूट गए हैं, न सिर्फ लेखकों से, अपितु प्रकाशक और प्रस्तुतकर्ताओं से भी…आधुनिक तकनीकियों से सब कुछ तुरंत ही सामने आ जाता है। अच्छा बुरा सब। इन्द्रजाल भी अपवाद नहीं। हाथ पर हाथ धरे हम तमाशबीन बने बैठे हैं और क्रूरता व अश्लीलता के चित्र व विडिओ बाजारों में, इन्द्रजाल आदि पर घूमते रहते हैं। आसानी से उपलब्ध हैं। जाने किस आस या उपहास में आए दिन लगातार भेजे और दिखाए जाते हैं…चित्र जिन्हें आम आदमी देखते ही आंखें बन्द करने पर मजबूर हो जाए। सोचने पर मजबूर हूँ कि वाकई में कौन इन्हें देखना चाहेगा, और आखिर क्यों कोई इन्हें दिखाना भी ?…किस तरह के प्रभाव और परिणाम की अपेक्षा की जाती है इनसे…। क्या मानसिक न्यूनता और रुग्णता का नाम ही आज कला और साहित्य है। माना साहित्य तत्कालीन समाज का दस्तावेज है पर भविष्य के प्रति इसके दायित्व को भी नहीं भूल सकता…हर यात्रा का पहला कदम स्वयं से ही शुरु होता है और मंजिल स्वतः मिल जाती है यदि हम सही दिशा की तरफ देख रहे हों, तो। शोषण और पोषण की इस संस्कृति में अपने आस-पड़ोस, समाज में तो कुछ बदल नहीं पाए, विश्व की समस्याओं से जूझकर क्या हासिल कर पाएँगे हम !

इंगित मात्र कर देने से तो हल नहीं निकल आते। जबतक हर आदमी अपने कामों और अभिप्रायों की जिम्मेदारी नहीं लेता किसी भी बदलाव की अपेक्षा बेमानी ही है। न तो कहीं कोई डरा या शर्मिन्दा है, और ना ही किसी की यातना में कोई कमी आ पाई है, या दिला पाया है, तो सिर्फ इन कटे सिरों की तस्बीरों और चिनगारी भरी बातों से क्या फायदा ! आज भी तो हम आँखें बन्द करके मलाई खा लेते हैं। आज भी तो लाठी वाला ही भैंस हांकता है और आज भी तो शेर की खाल ओढ़े गीदड़ ही राज करते हैं; क्योंकि आज भी तो अच्छी तरह से सब कुछ जानने, समझने के बावजूद भी समाज के अपराधी और भ्रष्टों का ही हम राजतिलक कर आते हैं; क्योंकि आज भी तो बस बातें ही आसान हैं।

अमीर हों या गरीब, ध्येय प्राप्ति ही एकमात्र लक्ष्य और साधन दोनों हैं आज। यही वजह है कि आम रोजमर्रा की खबरे तक किसी भी डरावनी तस्बीर से कम भयावह नहीं। पहले जिन बातों को सुनने मात्र से आदमी लाल हो उठता था आज हम उन्हें अनसुना करना सीख चुके हैं। अभाव और अतृप्ति से हारा इन्सान या तो आक्रोश में हैवान बन जाता है या फिर शुतुर्मुर्ग की तरह रेत में अपने आँख कान दबा कर असहाय और अनजान। दोनों ही स्थितियाँ हानिकारक हैं। जरूरत आज मानवीय गुणों को बचा कर रखने की है। विषम परिस्थितियाँ ही विवेक और धैर्य की कसौटी होती हैं विशेषतः उनके लिए जो प्रबुद्ध हैं, सक्षम हैं, समाज के लिए कुछ कर सकते हैं। धैर्य और संयम नहीं खोना चाहिए, ना ही भरोसा और आशा ही। समस्याओं की जड़ों तक जाने की जरूरत है।

बर्तोल ब्रेख्त ने अपनी एक कविता में लिखा है-

‘ नया ज़माना यक्-ब-यक् नहीं शुरू होता ।
मेरे दादा पहले ही एक नए ज़माने में रह रहे थे
मेरा पोता शायद अब भी पुराने ज़माने में रह रहा होगा ।

नया गोश्त पुराने काँटें से खाया जाता है ।

वे पहली कारें नहीं थीं
न वे टैंक
हमारी छतों पर दिखने वाले
वे हवाई जहाज़ भी नहीं
न वे बमवर्षक,

नए ट्राँसमीटरों से आईं मूर्खताएँ पुरानी ।
एक से दूसरे मुँह तक फैला दी गई थी बुद्धिमानी ।’

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल
कई साल पहले बाबर ने बनवाई थी बावरी मस्जिद और आज तक शिकायत है इससे हमें क्योंकि मस्जिद रामलला की जन्मस्थली पर बनवाई गई थी और अब बनारस में शिव परिवर्तित हो गए फव्वारे में वह भी वजूखाने में स्थापित। सारी थूक नाक और गन्दगी सहते, साफ करते। वह भी कबीर और तुलसी जैसे संतों के शहर में। पर शिव तो शिव -विषपायी और नीलकंठ-सद्भाव और भाईचारे की अद्भुत मिसाल, सारा अत्याचार सहकर भी सर्वे भवन्तु सुखिनः की ही प्रार्थना करते हैं।
अक्सर हम विदेशी आक्रमणकारियों को दोश देने लग जाते हैं। उन्होंने भृष्ट किया देश को विशेषतः बाबर और चंगेज खां जैसे आताताइयों को जिन्होंने भारत को जीता ही नहीं, वरन इसका रहन-सहन, खाना-पीना व संस्कृति सबकुछ बदल दी। जब इतिहास को बदला नहीं जा सकते, तो इसका एक सकारात्मक पहलू भी तो ले सकते हैं हम- आज जो यह भारत की विविध और इंद्रधनुषी संस्कृति है, अप्रतिम स्वाद हैं, क्या वे इन विदेशियों से मिले-जुले बगैर संभव भी थे कभी! लड़ने के तो हजार बहाने हैं पर जुड़े रहने के लिए सिर्फ प्रेम और सद्भाव की ही जरूरत है, जिसकी आज हम सभी को बहुत जरूरत है। धर्म एक अनुशाशन है समाज में नियंत्रण का और सही गलत जानने-समझने का। लड़ने या ताकत दिखाने की वजह नहीं। धर्म की लाठी सहारे के लिए ही हाथ में आनी चाहिए, सिर फोडने के लिए नहीं।
…धूल झाड़ने और सोचने की जरूरत है, क्योंकि जबाव इसी समाज में हैं और हमारे अपने अन्दर ही हैं। इन्सानियत में विश्वाश पुख्ता रखने के लिए त्याग और सद्भावना की मिसालें आज भी यदा कदा सुनने को मिल ही जाती हैं । भारत एक विशाल और सुन्दर देश है और रहेगा। विविध संस्कृतियों की इन्द्रधुषी छटा से भरपूर यह देश आज भी विविधता में एकता का न सिर्फ संदेश देता है अपितु जीता है इसे और सारी घटनाओं और अफवाहों को भूलकर यूँ ही जीते भी रहना चाहिए इसे। कई तूफान पार किए हैं हमने, इस आधुनिकता की हवस और उच्छृंखलता से उबरने की शक्ति भी ढूँढ ही लेंगे, क्योंकि बहे जरूर हैं पर डूबे नहीं हैं। जीन भूले नहीं हैं , आँसुओं से भी मोती की चमक ढूँढ लेना आता है हमें।
सपना और कामना है एक ऐसे भारतीय समाज की, जहाँ व्यक्ति का मूल्यांकन उसके कार्यों और गुणों के अनुसार हो, न कि धार्मिक, जातिगत या सामाजिक पहचान से। जहाँ हम एक दूसरे से नहीं, देश की गरीबी और भृष्टाचार से लड़ें। जहाँ एक भी बच्चा भूखा-नंगा नहीं, अनाथ व अशिक्षित नहीं । कम-से-कम रोटी कपड़ा और मकान तो हों ही सबके पास। जयचंद नहीं, महाराणा प्रताप और लक्ष्मीबाई जैसी प्रजा हो और राम, कृष्ण जैसे नायक। अपने ही देश में अपने ही देशवासियों द्वारा देश को धोखा और नुकसान न सहना पड़े। कमी ही कमी है चारो तरफ- पानी की, अनाज की, इन्सानियत की। फिर भी संभले नहीं तो यह चिरयौवना दिखती धरती भी अचानक एकदिन दम तोड़ सकती है और फिर तब हम किस ग्रह पर कैसे जाकर रहेंगे!
महत्वाकांक्षी सपने तो बहुत हैं, वही सोने की चिड़िया वाले भारत के लिए आज भी। व्यापार और विश्व पटल पर देश की योग्य और सफल तस्बीर भी जरूरी है। परन्तु उदारता, प्यार और त्याग की शुरुआत जबतक आसपास और अपने परिवार से नहीं होगी, हम नफरत करना, लड़ना नहीं छोड़ेंगे। छोटी-छोटी बातें ही कारण होती हैं बड़े-बड़े युद्धों की।
थमकर सोचने पर लगता है कि बस डाल-डाल पर गाती -चहकती चिड़िया भी भारत बना रहे एक शान्त और युद्ध विहीन विश्व में , तो वह शायद सोने की चिड़िया से भी अधिक खुशहाल व समृद्ध उपलब्धि होगी । बहुत कुछ संजोया है आपके लिए हमने इस अंक में, उम्मीद है आपको पसंद आएगा। बतायें, जुड़ें लेखनी आपकी अपनी पत्रिका है।
75 वर्ष तक जीते, फलते-फूलते आजाद भारत के अमृत महोत्सव की हर भारत वासी, भारत वंशी और भारत प्रेमी को पुनः पुनः और बहुत-बहुत बधाई। अगले अंक तक अपना ख्याल रखिएगा, पुनः मिलते हैं सितंबर में एक नये अंक के साथ….नमस्कार।

पुनश्च, हिन्दी को लेकर कई सकारात्मक ध्वनियाँ और संकेत मिल रहे हैं और लेखनी का अगला अंक समाज व्यक्ति और भाषा के आपसी इसी रिश्ते पर रखने का मन बनाया है हमने। रचनाय़ें भेजने की अंतिम तिथि 20 अगस्त है -shailagrawal@hotmail.com पर आपकी रचनाओं का हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखनी को इंतजार रहेगा।


शैल अग्रवाल

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