सदियों से हैं नारी पुरुष धरा पर, साथ-साथ और जीवन गाड़ी के दो पहियों से परिवार संभालते, जीवन आगे बढ़ाते और सुचारु रूप से सृष्टि चलाते। फिर भी नारी एक पहेली ही क्यों रही है? दूसरों के लिए तो सही, खुद अपनी नजर में भी क्यों…हम सभी जानते हैं, फूलों से आरी का काम नहीं लिया जा सकता और आरी फूलों के साथ क्या कर सकती है, किसी से छुपा नहीं।
अधिकांश पुरुष ने उसे मात्र एक तन समझा, और एकाध ने मन भी। तन समझने वाले आज तक या तो सुरा से डूबे रहे इसमें या अपनी एक इस्तेमाली मिल्कियत मान इस्तेमाल करते रहे। जिन्होंने मन में झाँका-नारी तुम केवल श्रद्धा हो -कहकर देवत्व दे डाला। देवी बनाकर मंदिर में बिठा दिया। और जिन्होंने मिल्कियत कठपुतली-सा नचाते रहे।
हाल ही में नवरात्रि का त्योहार निकल कर गया हैं, नवरूपा दुर्गा की तरह ही है नारी। अबोध बालिका से लेकर चंडी काली और सिद्धिदात्री कई-कई रूपों में दिखती है, जीवन के विभिन्न पड़ाव और जरूरतों पर । हर रूप को जानने और समझने की जरूरत है। न तो साथी की भावना और जरूरतों को कुचलकर नारी आगे बढ़ सकती है और ना ही इस धधकती चिंगारी को पुरुष अपनी मुठ्ठी या घूंघट में बन्द ही रख सकता है। कम ही हैं जिन्होने नारी को इस समग्र रूप में समझने की कोशिश की है। दूसरे ही क्यों, खुद नारी ने भी नहीं। आक्रामक और शक्की होती जा रही है, पुरुषों की तरह ही आज की नारी भी। समझौते और त्याग जैसी भावनायें अब उसे भी कमजोरी की निशानी लगने लगी हैं।
ताकत के गलियारे में धूमती नारियों की अस्मिता से टकराने लगी हैं ये करुणा और ममता की भावनायें। बदलते वक्त के साथ चलना जरूरी है, परन्तु नहाने के पानी के साथ बच्चे को फेंक आना भी तो बुद्धिमानी नहीं।
बेटियाँ आगे बढ़ें, पर छोटी-छोटी बातों पर तलाक की धमकी, अपनी ही बात मनवाने की हठ। संस्कार, मर्यादा, व्यवहार और भाषा की पूर्ण अवहलेना, खुद अपने लिए ही तो कुंठाओं को आमंत्रण देने जैसा ही है। जैसे एक मछली पूरे तलाब को गंदा कर देती है, एक असंतुष्ट व्यक्ति भी पूरे परिवार और समाज को बेचैन और तहस-नहस कर सकता है। यह बात जितनी पुरुषों के लिए सही है, उतनी ही महिलाओं को भी। साथ रहना है, तो साथ चलना , अपने मन के साथ-साथ दूसरों की जरूरतों को, मन को भी समझना उतना ही जरूरी है।
पर बढ़ते तलाक की दरें बता रही हैं, कि पीछे छूटती जा रही हैं हम नारियाँ इस साधारण-सी समझ के मामले में भी।
खुद को ही अपनी ही आँखों में साबित करने के लिए, घर से बाहर निकली नारी ने घूंघट और बुरके उतारे, जो पुरुषों ने ही अपने भय और संशय वश इन्हें उढ़ाए थे। फिर भी बात न बनी तो आज विद्रोह पर उतर आई दिखती हैं ये मानो। कल तक की अन्नपूर्णा और सरस्वत्ती, चंडी का रूप ले चुकी हैं। यूरोप में ब्रा जलाईं, तो ईरान में हिजाब। फिर चाहे इसके लिए जेल जाना पड़े, या जान से हाथ गंवाना पड़े। कइयों ने समझा इनकी इस बेचैनी और साहस को, लगन और श्रम को। पुरुषों के आज भी इनके प्रति लगातार के अवरोध पूर्ण और हेय रवैये को भी कुछ पुरुष-प्रधान देशों में। और नरगिस मोहम्मदी और मलायला यूसूफ जैसी महिलाओं को शांति के विश्व प्रसिद्ध नोबल सम्मान से भी नवाज दिया, अथक सार्थक प्रयास और इनके अदम्य साहस के लिए। और मिलना भी चाहिए। जहाँ बात-बात में गोलियों से खोपड़ी उड़ा दी जाती है, भरे चौराहों पर जिन्दा ही जला दिया जाता है औरतों को चुड़ैल कहकर, उन देशों में कम सामर्थ्य और हिम्मत की बात नहीं है यह।
परन्तु कई खाए अघाए घरों की, शांति प्रिय देशों में रहती बुद्धिजीवी औरतें अब एक नए ही नारी विमर्श की बातें करने लगी हैं। जिनमें पुरुषों से कंधा मिलाकर चलने की होड़ तो है ही, पुरुषों द्वारा अपने सुख के लिए संचालित डोरियाँ तक नहीं दिख रहीं उन्हें। कठपुतली बनी, अपनी शर्तों पर जी रही हैं वे, ऐसा सोचती, नारीत्व को भूल , यौन तृप्ति ही नहीं चरम पर पहुँचकर आनंद लेने की बातें भी करती हैं। भूल जाती हैं कि चरम तो उनके अपने पूर्ण तन और मन के योग से ही संभव है और यह किसी और के हाथ नहीं, खुद उनके और उनके अपने बस में है। बाहरी भटकन या प्रयोग में नहीं।
पुरुषों की तरह ही सारे संस्कार और मर्यादा को परे धकेलते हुए, बात-बात पर गाली आदि के उपयोग की भी बातें सुनीं। यह हमारे देश की आधुनिक जरूरत है समाज की और साहित्य तो समाज का ही दर्पण है । बारबार जोर दिया गया। परन्तु क्रोध की उर्जा को निकालने का गाली ही तो एकमात्र माध्यम नहीं। शब्दों की इस कै से एकबार तो भडास निकल जाएगी। परन्तु आग नहीं। बेहतर है उसे मेहनत के काम जैसे बागवानी, घर की सफाई और चौके में सब्जी काटकर, मसाले पीसकर, रोटी बेलकर, जिम जाकर पूरी तरह से बुझाया जाए। इस तरह से बेहतर छुटकारा पाया जा सकता है नकारात्मक सोचों से। सिर्फ नियंत्रण और अभ्यास की ही तो बात है सारी।
हाल ही में कुछ वैचारिक विमर्ष और मंथन में शामिल होने का मौका मिला, तो आहत थी। भ्रमित थी। हमारे समाज में यौन क्रिया कभी ताबू नहीं रही। खुजराहो के मन्दिर गवाह हैं इसके। परन्तु भूख प्यास की तरह व्यक्तिगत क्षुधा है यह भी तो, बिना किसी शोर शराबे के, मर्यादा से ढकी, वरना पौन और साहित्य में फर्क ही क्या रह जाएगा? माना इस तरह का साहित्य बिकता है और प्रकाशक भी तुरंत ही लपकते हैं। पर यह तो साहित्य में दलदल फैलाने जैसी ही बात है। कीचड़ में कुछ और कीचड़ जैसी।
आदर्श समाज में आज भी नारी और पुरुष के रिश्तों का सही उपमान अर्धनारीश्वर ही मन में आता है, पूर्णतः एक और एक दूसरे के पूरक। आज हर क्षेत्र में पुरुषों के कन्धों से कन्धा मिलाती नारी की जीवन शैली बदल रही हैं, साथ-साथ कुछ हद तक उसका मन और मस्तिष्क भी। आगे बढ़ने की होड़ में अक्सर ही बहुत कुछ छूट रहा है…कोमलता, परिवार, मोह ममता और करुणा, आदि। वक्त ही नहीं। पल पल ही नारी को न सिर्फ एक नटी जैसे संतुलन के साथ जीवन की कसी रस्सी पर चलना पड़ता है अपितु बार-बार तरह तरह की परीक्षाओं और चुनौतियों से भी गुजरना पडता है। और इस दौड़, इस आपाधापी में कई बार अपने सबसे सशक्त हथियार अपने शरीर और अपने रूप को ही इस्तेमाल करती दिख रही है आज की नारी। और वह भी पुरुषों के फायदे के लिए ही। उसका यौन प्रदर्शन और गहरे मेकअप से पुता चेहरा उसे संतुष्टि दे या न दे पर बढ़ती व्यभिचार की धटनायें, दुःखद परिस्थिति है नारी के लिए।
चालक कोई भी हो परिवार और समाज की घुरी तो वही है और रहेगी।
आज भी अनुगामिनी तो सही, पर आगे बढ़ती और नेतृत्व करती, पुरुष के वर्चस्व को ललकारती नारी चुभती है पुरुष प्रधान समाज को, चाहे वह पश्चिम का खुद को सभ्य कहलाने वाला समाज हो या फिर पूर्व का सामंत शाही पुरुष-प्रधान समाज। खुद को ही भूलकर, फेंककर आगे नहीं बढ़ सकती नारी न तो कल न आज और ना ही भविष्य में भी। नारी और पुरुष पेंच और ढिबरी हैं परिवार और समाज के, एक-दूसरे के बिना बेकार और अर्थ हीन।
नारी ने खुद भी तो झूठे बहलावों में आकर कई-कई गलत-फहमियाँ पाल ली हैं। बारबार जाने क्यों नारी के संदर्भ में अग्नि का प्रतिमान ही मन में आता है…सही रहे तो पुष्टि और पूर्ति करने वाली , गलत हाथ या विचारों में पड़कर दाह-दायिनी और सर्व विनाशनी। हमारे ऋषि-मुनियों की चेतना और धारणा में आदि शक्ति औऱ शक्ति पुंज है नारी। पर, प्रतीत होता है कि आज अपनी ताकत खुद ही भूल चुकी है वह । जीवन को हरा-भरा रखे या भस्मीभूत करके दारुण निर्जन और बीहड़ तक पहुंचा दे , बड़ी हद तक आज भी नारी के अपने ही हाथों में ही तो है।
लेखनी के इस अंक में हमने इसी नारी तन नहीं, नारी मन को समझने की कोशिश की है , विविध कहानी, कविता और आलेखों द्वारा। स्पष्ट करना चाहूंगी कि यह अंक आजकल चल रहे बहु प्रचलित नारी-विमर्ष पर नहीं, नारी-मन पर है। साथ में आगामी त्योहार, जैसे करवा चौथ, दीवाली और क्रिसमस आदि पर भी कुछ नई पुरानी सामग्रीः कविता, कहानी और आलेख आदि संजोए हैं हमने। उम्मीद है अंक आपको पसंद आएगा और चिंतन व मेंथन के लिए, आनंद के लिए बहुत कुछ छोड़ जाएगी आपकी ‘लेखनी/Lekhni’ आपके पास।
आपकी प्रतिक्रियाओं का हमें इंतजार रहेगा,
पुनश्चः विश्व और मानवता आज एक बड़े दुर्भाग्य पूर्ण और हिंसक, अमानवीय युद्ध के दौर से गुजर रही है। लेखनी का अगला अंक नव वर्ष विशेषांक इन्ही अपदस्थ परिस्थियाँ और भावनाओं पर है, कैसे निकल या रोक सकते हैं हम आप इन्हें, सत्य, शिव और सुंदर के सहारे अभिव्यक्त आपकी रचनाओं का हमें 25 दिसंबर तक इंतजार रहेगा। रचनायें हिन्दी या अंग्रेजी दोनों ही भाषा में भेजी जा सकती हैं।
भेजने का पता shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com
शुभकामनाओं सहित.
शैल अग्रवाल