अपनी बातः नए साल की नई रोशनी में

प्रेरणा एक छोटा-सा शब्द, अंधेरे में रौशनी की लकीर-सा, जाने किस कोने और दरार से झांकने लग जाए, बस हमें आस नहीं छोड़नी, आज के इस दिग्भ्रमित समय में भी नहीं।

विगत की विदाई में कोई अफ़सोस या मलाल नहीं, ना ही आगत के स्वागत में कोई कमी ही रहनी चाहिए। नया वर्ष आप सभी के लिए अपरिमित संभावना और ख़ुशियाँ लेकर आए, यही प्रार्थना है मित्रों। हमने इस नए वर्ष के प्रवेशांक में सकारात्मक और उत्साहित रहने की कोशिश की है। उन व्यक्तित्व पर आपसे आलेख माँगे थे जिन्होंने आपको प्रेरित किया या जो भारतीय संस्कृति के प्रेरणा स्तंभ हैं। राम कृस्ण और बुद्ध के दर्शन पर टिके हमारे देश में भी बदलाव आए हैं। सोच में बदली है। सोच ही नहीं, खान-पान और जीवन शैली, सब कुछ ही तो तेज़ी से बदल रहा है। यह बदलाव ही तो जीवन है, जीवन की गति है। दूर रहने पर पीछे रह जाने का, विलुप्त होने का ख़तरा है। सोचना बस यह है कि कहाँ तक और कितना बदलना है कि ङम ख़ुद को जानते और पहानते रहें। जो हम हैं, हमारे मूल तत्व हैं, उन्हें न खो दें!

वासांसि जीर्णाणि यथा विहाय
नवानि गृहणाति नरोSपराणि…

वैसे तो कृष्ण ने जीवन-मृ्यु के संदर्भ में कही थी यह पुराने को तजने की और नए को अपनाने की बात, परन्तु आज नए साल की नई सुबह में ज़रूरी हो गया है कि यदि ज़िन्दा रहना है, ज़िन्दा रखना है, तो कैसे जिएँ, ताकि हम भी ज़िन्दा रह सकें और साथ-साथ दूसरों को भी ज़िन्दा रहने दें । बहुत हो चुका यह कृतिम नफ़े-नुकसान का और मेरे-तेरे का खेल। सदियों के जंगल राज और ताक़त से सबकुछ हथियाने की बात को भूलकर हमें शांति और सद्भाव के बारे में सोचना होगा…कैसे इस धरती को , इसपर हंसते-खेलते जीवन को सुरक्षित रखा जा सकता है, इस बारे में सोचना होगा। स्वार्थी और विस्तारवादी नीति नहीं, सर्वे भवन्ति सुखिनः के बारे में सोचना होगा। एक दूसरे को मटियामेट नहीं, शिक्षित और विकसितत करने के बारे में सोचना होगा। और इसका तरीका युद्ध नहीं , आज भी बुद्ध ही हैं। राम और कृष्ण की , ईशू की सबको साथ लेकर चलने की भेदभाव रहित नीति और सहृदय समाज ही है। आज के इस विनाश के कगार पर खड़े विश्व को भी बचाया जा सकता है, अगर हम सभी मिलकर चाहें तो ।… इमारतों को नींव की ज़रूरत होती है और मनुष्य व इसके समाज को भी।

वक़्त की नदी बहती जा रही है और साथ-साथ हमारी दिन, महीने और सालों की गिनती भी। पर हमारा जीने का तरीक़ा, हमारा लालच और अपने ही बारे में सोचने का स्वार्थी स्वभाव, कुछ भी तो नहीं बदला…सभ्यता के विकास के इतने वर्ष बाद भी…धरती ही नहीं, अंतरिक्ष तक को जीतने और जीने की सोच के बाद भी। जैसे आदि मानव शिकार करता था, कमजोरों से छीनता था, अपने फ़ायदे के लिए दूसरों का इस्तेमाल करता था, आज भी तो पूरा ढर्रा वही है, जिसके हाथ में लाठी है उसी की भैंस है। पर अब वक़्त आ गया है कि हम थमें और सोचें कि क्या चाहिए हमें, युद्ध या शांति इस नव वर्ष २०२५ में, वरना शीघ्र ही न तो लाठी ही रह जाएगी और ना भैंस ही।

सोचती हूँ तो सिर घूमने लग जाता है-क्या यह संभव भी है? कृतिम बुद्धि को जन्म देने वाला यह मानव ज़रूरत से ज़्यादा चालाक हो चुका है, सबकुछ क़ब्ज़े में कर चुका है। इसके बड़े षड्यंत्र के नीचे दब चुके हैं हम सभी। अब निजी कुछ नहीं। हमारे हाथ में कुछ नहीं। कठपुली हैं हम उन नेताओं के हाथ में जिन्हें हम ख़ुद ही चुनते हैं।

जो भी थोड़ा-बहुत जनतंत्र और जनमत शेष है, उसकी सुरक्षा , ताकत के इस षड्यंत्र को समझना , इस दैत्य के बड़े मुख से हनुमान जी की तरह ज़रूरत पड़ने पर अति लघु रूप लेने में भी बाहर निकल आना ही माँग है आज संपूर्ण विश्व की। हम सभी जानते और समझते हैं इन विस्तारवादी ताक़तों को , वैश्रिक रूप में भी , राष्ट्रीय रूप में भी और अपने आस-पास सामाजिक व पारिवारिक रूप में भी। यदि इस विनाश को रोकना है, अत्याचार की इस घुटन को रोकना है तो छोटे-से-छोटे से लेकर , बड़े-से-बड़े तक को गंभीरता और ईमानदारी से सोचना होगा कि कैसे हम पूर्वजों द्वारा उठाई विश्व-बन्धु्त्व की मशाल को न सिर्फ़ प्रज्वलित रख सकते हैं, अपितु दम तोड़ती मानवता को ज़िन्दा रखने की ज़िम्मेदारी भी किसी एक व्यक्ति-विशेष या राष्ट्र की नहीं, हम सभी की है। हम सभी यानी हम सभी की…दुनिया के फैले इस जंगल में चींटी से लेकर हाथी तक , चार पैरों से लेकर दो पैरों वालों तक सभी की।

काम मुश्किल अवश्य है परन्तु असंभव नहीं। जनमत और जन सैलाब की ताक़त कम नहीं होती, क्या ध्वस्त नहीं कर सकती यह, क्या सींच और सवार नहीं सकती यह…बिल्कुल बहती नदियाँ-सी । सबकुछ संभव है इसके लिए और वक़्त की नदी तो अभी भी बह रही है, सूखी नहीं है। सोच के सूरज , चाँद तारे भी अभी तो अपने साथ हैं, अस्त नहीं हुए, तो फिर देर किस बात की…बदलें हम आज से ही ख़ुद को, संकल्प लें इस नए वर्ष में कि पचास काम जो रोज़ हम अपने लिए करते हैं , उनमें से बस एक काम रोज़ किसी अन्य के लिए भी करेंगे। फिर देखें दुनिया बदलती है या नहीं?
हाँ , एक बात और आँख-कान खुले रखेंगे, कहीं कुछ ग़लत दिख रहा है , साज़िश चल रही है तो उसका पर्दाफ़ाश करेंगे। और अगर इतनी हिम्मत नहीं है, तो उससे दूर-दूर रहेंगे, उसका हिस्सा तो हरगिज़ ही नहीं बनेंगे।

सोच और सद्भाव के नए सूरज की आस और प्रार्थना के साथ पुनः पुनः नए वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ मित्रों!

पुनश्चः लेखनी का मार्च-अप्रैल अंक हमने संस्मरण विशेषांक रखने का मन बनाया है। आपके रोचक , प्रेरक , पीड़क व मज़ाक़िया हर तरह के संस्मरण आमंत्रित हैं। भेजने की अंतिम तिथि निम्नांकित मेल पर २० फ़रवरी है। इस अंक के साथ आपकी लेखनी १९ वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। अपनी यादों के साथ इसे एक यादगार अंक बनाने में कोई कसर न छोड़ें। आपके भरपूर स्नेह व सहयोग की अपेक्षा के साथ आपकी अपनी लेखनी और मित्र,

शैल अग्रवाल
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