हाल ही में ब्रिटेन में एक नया कानून स्वीकृत हुआ , जिसमें इच्छा मृत्यु को कानूनन स्वीकारा गया। सुनकर अच्छा नहीं लगा। आयोजित मृत्यु तो मृत्युदंड ही है, भले ही हम उसे इच्छा-मृत्यु ही कहें।
एक अमूल्य निधि है जीवन। और मौत इसका एक सहज और स्वाभाविक अंत। फिर यह निर्णय अपने हाथ में क्यों? भगवान-भगवान क्यों खेलना ! इसके दुरुपयोग भी तो हो सकते हैं? कानून की आड़ में अपाहिज, निर्बल और विक्षिप्तों के साथ , बुजुर्गों के साथ। जघन्य अपराध भी तो हो सकते हैं, लालची और पापी रिश्तेदारों द्वारा !
इच्छा-मृत्यु पर किसकी इच्छा पर, और फिर संबंधित व्यक्ति , जिसके संबंध में यह निर्णय लेना है क्या उसके अलावा किसी और को नैतिक रूप से अधिकार भी है इस निर्णय का? कहीं इच्छा-मृत्यु के नाम पर अकाल मृत्यु तो नहीं बंटने लग जाएँगी समाज और परिवार के अनचाहे हिस्सों में !
असाध्य बीमारी की बात और है जहाँ दर्द हद से गुजर जाए और लगातार रहे, वरना इच्छा मृत्यु और मृत्यु दंड में फर्क ही क्या, उसमें भी तो इंजेक्शन से मौत को गले लगाता है अपराधी !
यूरोप के कई देश जैसे स्विटजरलैंड आदि में यह कानून पहले से ही है और ब्रिटेन से कई पर्यटक स्विटजरलैंड आदि दर्द और असाध्य बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए वहाँ जाकर शांति पूर्ण वातावरण और चिकित्सकों की निगरानी में मृत्यु का वरण करते हैं। पर अब जीवन का अंत करने के लिए उन्हें किसी दूसरे देश जाने की जरूरत नहीं। यहीं पर यह सुविधा उपलब्ध होगी।
मृत्यु जीवन का अंतिम सच है। परन्तु मृत्यु इंसान की अपनी इच्छा पर नहीं, ईश्वर की इच्छानुसार पूर्व निर्धारित समय पर ही होती है, करीब-करीब हर धर्म में यही मान्यता रही है। म़त्यु या इच्छा-मृत्यु किसकी इच्छा पर ? क्या इंसान को हक है अपनी या किसी अन्य प्राणी के प्राण लेने का। सवाल जटिल है और आज की जटिल सभ्यता में और भी अधिक उलझा हुआ प्रतीत होता है।
नई-नई दवाओं के आविष्कार से आयु बढ़ रही है, तो जनसंख्या भी। पृथ्वी पर खनिज और अन्न-जल की कमी के साथ-साथ पर्यावरण-प्रदूषण की वजह से अतिरिक्त समस्याएँ हैं। ऐसे में किसे मरने दिया जाए और किसके लिए धरा सौ बसंत तक भोगने योग्य है, एक बेहद कठिन निर्णय है। निराशा में हारा व्यक्ति कई बार जिंदा नहीं रहना चाहता। पर यह एक क्षणिक भाव है। यदि उसे भी प्यार करने वाले, परवाह करने वाले मिल जायें, तो मन बदलते, जीने की आस जगते देर नहीं लगती।
जब न्याय के नाम पर अपराधियों को मृत्युदंड और देश भक्ति के नाम पर युद्ध में प्राण आहुति शुरु हुईं होगी, तो वह शायद शुरुआत थी इंसान के द्वारा प्रकृति का यह जीवन और मौत का मूल निर्णय अपने हाथ में में ले लेने की। आज तो पैदा होने से पहले ही भ्रूण हत्याएँ हो रही हैं और साथ-साथ बहस भी कि यह नैतिक है या नहीं। कानून सही है या नहीं।
बहुत आसान है मौत को गले लगाना , पर जिन्दगी जो दुबारा नहीं मिल सकती, उसे खतम करने से पहले सौ बार सोचना जरूरी हो जाता है। क्योंकि एक बार मृत तो मृत। अभी तक तो अपरिवर्तनीय स्थिति है यह। यही वजह है कि कई देशों में आत्म-हत्या अपराध मानी जाती है।
पर अब जब जीवन इतना सस्ता हो चुका है, हजारों की संख्या में लोग मर रहे हैं। युद्ध और बीमारियों से ,गरीबी और भुखमरी से, और जनसंख्या दिन-रात दुगनी-चौगुनी होती जा रही है तो यह मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं प्रतीत होते । फिर भी नैतिक और भावात्मक रूप से सोचा जाए तो इस फिसलन का तो कहीं कोई अंत ही नहीं है। कई रोचक कहानी , कविता और विमर्ष को समेटे यह अंक मृत्यु पर केन्द्रित है। मृत्यु जो अंतिम सच भी है और जिन्दगी संग छाया-सी चलती और मंजिल की ओर ले जाती सहयात्री भी।
पर यदि जीवन की गठरी राह में ही बिखर जाए, तब इस हस्तक्षेप का किसे अधिकार है? इच्छा मृत्यु का यह कानून क्या जीवन की इस टेढ़ी-मेढ़ी डगर को और फिसलन भरी नहीं कर देता…असमय मौत पर कुछ सवाल उठाते और मौत को कई-कई दृष्टिकोण से देखते इस अंक और विषय पर आपकी क्या सोच और विचार हैं, प्रतिक्रिया देना न भूलें।
हमें बेसब्री से इंतजार रहता है आपके सुझावों का।
जुलाई-अगस्त यहाँ यूरोप में पर्यटन के महीने हैं। हमने भी लेखनी का अंक पर्यटन पर रखा है, परन्तु आम पर्यटन पर नहीं। ऐसी जगह जो आपको बारबार खींचती हो, बारबार जाने का मन करता हो, या फिर आपकी विश लिस्ट में हो, पर क्यों? क्या है जो खींचता है, भुलाए नहीं भूलता। देर किस बात की। लिखकर भेजिए- अपने ड्रीम-डेस्टिनेशन पर। रचना भेजने की अंतिम तिथि 20 जून , उसी shailagrawal@hotmail.com shailagrawala@gmail.com ई. मेल पर। लेखनी को आपकी रचना और प्रतिक्रिया दोनों का ही इंतजार रहेगा।
शुभकामनाओं सहित,
शैल अग्रवाल
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