अपनी बातः इस धरती की जिम्मेदारी कौन लेगा

पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए लंदन के स्कूलों में एक अभियान चलाया गया, जिसमें बच्चों को सड़कों पर जाकर वहाँ गिरा कूड़ा उठाना था । दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद बच्चों ने तिनका-तिनका उठा लिया । सड़क फिरसे साफ-सुथरी और चमक रही थी परन्तु अगली सुबह जब बच्चे दूसरी सड़क साफ करने पहुंचे तो पहली साफ की सड़क पर भी उतना ही कूड़ा वापस आ चुका था। इस अभियान में ब्रिटेन के भावी सम्राट आठ वर्षीय प्रिंस जौर्ज भी थे। सभी बच्चे दुखी थे परन्तु जौर्ज विशेष परेशान और अपने पिता से बारबार पूछ रहे थे कि पता लगाना ही होगा कि कौन है जो हमारा समेटा कूड़ा वापस फैला गया?
दृश्य विश्व के किसी भी महानगर का हो सकता है। आदतें कब बदलती हैं, सार्वजनिक जगहों की साफ-सफाई के बारे में भला कौन सोचता है! जब समुद्र तक इस कचरे का बोझ नहीं संभाल पा रहे, तो सड़कों की भला क्या औकात!

ओशो ने अपनी किताब ‘ डेथ टु डेथलेसनेस’ में लिखा है- ‘ सचेत होना तो पशु जीवन का अंग नहीं हो सकता। वह तो मनुष्य की आत्मा की संभावना है। वह तो एक ऐसा बीज है जिसकी देखभाल की जानी चाहिए। जब यह बीज पनपता है तो इससे स्वाधीनता मिलती है, मुक्ति मिलती है, आनंद मिलता है।’
इसी आलेख में आगे वह लिखते हैं- ‘सिर्फ अपने उत्तरदायित्व को पहचानो. अपने उत्तरदायित्व को पहचानने की मनुष्य को जितनी जरूरत आज है उतनी पहले कभी नहीं हुई. सभी कुछ उसी पर निर्भर है। उसी पर निर्भर है कि यह धरती जीवित, स्पंदित और पुष्पित रहेगी, या फिर एक मृत गृह में बदल जाएगी।’

परन्तु सवाल उठता है कि क्या हम सचेत हैं? सचेत होना तो दूर, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पहचानते तक हैं,उनके बारे में कभी सोचते तक हैं! या फिर अभी भी एक दुःस्वप्न को ही जी रहे हैं, हाथ पर हाथ धरे, प्रार्थनाओं के सहारे, अंतिम सांस लेती पृथ्वी की तरह ही मौत की तरफ शनैः शनैः घिसटती मानवता के सहारे। सम्मेलन पर सम्मेलन हो रहे हैं, अधिवेशन पर अधिेशन पर हो रहे हैं। ताकतें दस्तावेज पर हस्ताक्षर भी करती हैं। खनिज और पदार्थों के अपव्यय पर रोक लगाने की बातें भी हो रही हैं, परन्तु यथार्थ में सब कुछ वही चींटी की चाल ही रेंग रहा है। पृथ्वी गरम पर गरम होती जा रही है, ग्लेशियर पर ग्लेशियर पिघलते जा रहे हैं और पानी के गहरे संकट की काली परछांई हर आँख में है। फिर भी हम सुधर नहीं रहे, सोच नहीं रहे -क्या हो सकता है उपाय इस आसन्न संकट से बचने का-इन्ही कुछ समस्याओं के प्रति जागरूक करने आई है आपकी लेखनी इस बार। निराश नहीं, मात्र सचेत करने, वह भी सकारात्मक सोच के साथ। हम जगें या न जगें, समय तो आगे बढ़ेगा ही..बस काश हम अपनी-अपनी जिम्मेदारी भी समझ पाते और निभाते!
माना कि देर होती जा रही है और राजनेता सिर खुजा रहे हैं। परन्तु हल कठिन होकर भी उतने कठिन नहीं। खनिज और प्राकृतिक संपदा का अपव्यय और फिजूलखर्जी रोकने की जरूरत है। अपनी जरूरतों को कम करने की जरूरत है। बूंद-बूंद से ही तो सागर भरता है। अगर हम प्लास्टिक का कचरा कम करेंगे, पेड़ जितने कटेंगे उससे अधिक लगाए जायेंगे तो शायद हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए औक्सीजन और पानी का संतुलन बना रहे। एक आदमी एक कार में नहीं, अपितु जहाँ भी संभव हो यातायात के वाहन साझे किए जायें , हमारी फैक्टरी और कारखानों में भी उर्जा का उपयोग सोच-समझ कर हो आदि-आदि छोटी-छोटी बातें हैं, जो पिछले दो तीन दशक से हवा में गूंज रही हैं परन्तु गंभीरता से लेना, अनुसरण करना तो दूर, हमारे कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। सवाल यह है कि जब सब अपने में ही मगन हैं तो इस बीमार पृथ्वी की जिम्मेदारी कौन लेगा?

दिवाली की उर्जा और आलोक से भरे एक विशेष अंक के साथ लेखनी का यह पर्यावरण अंक ठीक दिवाली के दिन आपके हाथ में पहुँच रहा है। बहुत कुछ संजोया है लेखनी ने आपके हृदय और विचारों में एक आनंदमय विद्युत प्रवाह के लिए। आपकी प्रतिक्रिया का हमें इन्तजार रहेगा। प्रतिक्रिया न सिर्फ हमें सही दिशा देती है कर्तव्य बोध की तरफ प्रोत्साहित करती हैं।
जैसा कि आपको पता है कि यह भारत का अमृत महोत्सव चल रहा है और हम तीन विशेष अंक निकाल रहे हैं इस उपलक्ष में। अगला अंक भारत के वीर और महापुरुषों पर है। उनपर है जिनकी सोच और कर्म ने भारत को भारत बनाय…अंधेरे से अंधेरे समय में भी आत्म-गौरव और विश्वास का दीप जलाए रखा। विषय संबंधित आपकी रचनाओं का हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में आपकी रचनाओं का हमें इंतजार रहेगा। भेजने की अंतिम तिथि बीस दिसंबर है और ई.मेलः
shailagrawal@hotmail.com
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जनवरी में फिर मिलते हैं लेखनी के नये अंक के साथ । तबतक इस अंक का आनंद लें,स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें।और हमें बतायें हम कहाँ गलत हैं और क्या ठीक कर रहे हैं?
पुनः पुनः सभी ज्योतिपर्व, दिवाली और क्रिसमस की ढेरों शुभकामनायें।

शैल अग्रवाल
4/11/21

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