2020 का अर्थ और यादें हममें से अधिकांश के लिए मुख्यतः करोना और इससे जुड़ी घुटन व समस्याएँ ही रही हैं फिर भी बहुत कुछ मनन और गुनन को छोड़ गया है यह वर्ष हमारे लिए, अपनी और अपनों की कितनी कद्र करना हम सीख पाते हैं यह हमारे अपने ऊपर है । रात के बारह बजने वाले हैं 2021 दस्तक दे रहा है। पड़ोसी के बगीचे में आतिशबाजी शुरु हो चुकी है 2021 के स्वागत में । गूंज और चमक दोनों मेरे हिस्से के आकाश को भी चमका रही है पर खुश होने के बजाय मन अभी भी सोचे ही जा रहा है- क्या है बन्द लिफाफे में छिपी समय की पाती हमारे लिए …कौनसी अगली धुन गूंजेगी 2021 के साज पर …नई उर्जा मय, आशा का संदेश देती या फिर वही…दारुण और डरावनी, अंधेरी और अवसाद भरी।
जब जब सोचते हैं कि सबकुछ काबू में आ चुका, कुछ ऐसा अप्रत्याशित हो रहा है कि पुनः सब घुटने पर नजर आते हैं और हाथ प्रार्थना में जुड़े। वैसे तो 2020 की शुरुआत ही बेहद अटपटी हुई थी, पर बात यहाँ तक पहुंचेगी नहीं सोचा था…एक अशुभ सिहरन तो उसी वक्त हुई थी जब जनवरी 2020 के तीसरे हफ्ते में परिवार के साथ जन्मदिन मनाने के लिए तैयार होकर बाहर निकलने ही वाले थे कि घंटी बजी और पता चला कि एक नरेन्द्र के पुराने मित्र नहीं रहे। अप्रत्याशित तो नहीं था क्योंकि पतिदेव का किशोर अवस्था के सहपाठी मित्र लिवर कैंसर से जूझ रहे थे और तीन महीने पहले ही एक प्रीत मिलन में हंस-हंसकर बड़ी बहादुरी के साथ उन्होंने सबसे विदा भी ली थी क्योंकि घातक बीमारी फेफड़ों तक फैल चुकी थी परन्तु सूचना ने हमतक पहुंचने का जो वक्त चुना वह अशुभ लगा। आश्चर्य चकित करता दूसरा आघात तब हुआ जब अंतिम संस्कार भी ठीक एक हफ्ते बाद पति के जन्मदिन पर ही हुआ। परिवार के लिए दोनों वे खुशी और उत्सव के दिन काले साये के घेरे में ही गुजरे। दोनों दिन बच्चों ने जन्मदिन यथावत् ही मनाया पर हमारे मन में कोई उत्साह नहीं था। अगला आघात तब हुआ जब हमारी बहु प्रतिक्षित वार्षिक भारत यात्रा स्थगित कर दी गयी। क्योंकि अबतक एक नयी और खतरनाक बीमारी की तेजी से चारो तरफ फैलने की खबर चारो तरफ फैलनी शुरु हो चुकी थी। मैंने तो खुद को तटस्थ कर लिया परन्तु घर में मुश्किल से ही बैठने वाले बेहद उत्साही पतिदेव को ये बंधन स्वीकार नहीं थे। भारत न सही, कहीं और ही सही, आनन-फानन अपने मित्र के साथ पन्द्रह दिन स्पेन घूम आए वो। पता नहीं आगे कितने दिन घर में बन्द रहना पड़े! सही ही अनुमान था उसके बाद तो जो तालेबन्दी का दौर शुरु हुआ आजतक नहीं रुका है। हम सबकी स्मृति का सर्वाधिक कठिन और असह्य वर्ष सिद्ध हो चुका है 2020। 2020 के मैच की तरह ही एक ही शौट में छह नहीं कई-कई हजारों को उड़ाता। प्रतिदिन ऊपर-नीचे गिरते ये मौत के आंकड़े मात्र एक खबर ही तो हैं अधिकांश के लिए। धीरे-धीरे दुख, भय सबकुछ हटता जा रहा है इससे। मृत्यु के प्रति इतनी सहज स्वीकृति असंवेदनशीलता अकल्पनीय थी, हमारे सभ्य और विकसित मानव समाज में।
वर्ष की शाख से झरते पत्तों सा यह क्रूर वर्ष अतीत की गर्त में सिमट चुका है और उम्मीदों के नवांकुरों से पल्लवित व सज्जित नया वर्ष उम्मीद है हमारे जीवन में हरियाली बिखेरने को आ पहुंचा है। आइये इस नए का जी खोल कर नई उम्मीद और नई उर्जा के साथ स्वागत करें। पिछला जो अकल्पनीय रूप से कठिन और त्रासद था, उम्मीद है नया ढाढस, सांत्वना और उर्जा व उष्मा लेकर आएगा और एकबार पुनः हम सामान्य और पूर्ववत् जीवन जी पाएँगे। पूर्ववत् न सही, तो भी कुछ ढाढस तो अवश्य ही मिलेगी ऐसा विश्वास तो रखना ही होगा।
पर विश्वास भी तो इस तेजी से बदलती महामारी के वक्त में एक अकल्पनीय मनोभाव होता जा रहा है। मानो सब कुछ थम-सा गया है। जीत-हार से परे जा चुकी है यह लड़ाई। कितने नए रूप लेगा यह जीवाश्म और कितना मजबूर करेगा , सोचना तक असंभव प्रतीत होता है, ऐसा अटपटा वक्त है मानव जाति के लिए। पर हार नहीं माननी, उम्मीद नहीं छोड़नी, क्योंकि विध्वंस से ही तो नया जनमता है। हो सकता है हम भूल चुके थे कैसे प्रकृति से सामंजस्य करके , अन्य सभी छोटे-बड़े प्राणियों के साथ मिल-जुलकर ही रहा जा सकता इस पृथ्वी पर और अगर चेते नहीं तो विनाश अवश्यंभावी है-शायद यही याद दिलाने यह आपदा आई है विश्व पर।
महीने-दो महीने पहले ही ओक , मेपल, सिकामोर और बर्च के दृढ़ व सशक्त पेड़ जो हरे-भरे और झूमते दिख रहे थै, सारी पत्तियाँ गिरा चुके हैं। शोक नहीं, प्रकृति का क्रम है ये पतझण और वसंत का चक्र। आखों के आगे एकबार फिर बस उजड़े ठूँठ रह गए हैं और मन हरा कोना ढूंढ रहा है, बसंत आएगा ही -इस विश्वास के साथ। परन्तु क्या 2021 का वसंत भी अपनों के साथ नहीं, अकेले-अकेले खिड़कियों से ही देखेंगे हम? क्या रणनीति हो हमारी इस करोना के खिलाफ? छोटा सा देश है ब्रिटेन -समुद्र से घिरा। खतरे को टाला भी जा सकता था-अलग-थलग रहकर । अभी भी तो रह ही रहे हैं सब। परन्तु तब जनवरी 2020 में वैज्ञानिकों की सोच थी कि फैलने दो बीमारी को, जो मरेंगे मरने दो। जो बचेंगे वह जीना सीख जाएंगे इसके साथ। जैसे कि दुनिया जी रही हैं फ्लू के साथ। पर खबरें दिन-प्रतिदिन असह्य और डरावनी ही होती जा रही हैं। तब शायद पता नहीं था विशेषज्ञों को कि पचास पचपन हजार रोज नए केस और हजार की रोज की मौत एक बड़ी संख्या है इस मात्र साढ़े छह करोड़ जनसंख्या वाले देश के लिए। अनुमान ही नहीं था तब कि यह बीमारी एक तिलिस्मी राक्षस की तरह रूप बदलेगी और जाने कितनों को अनुमान से कहीं अधिक बड़ी संख्या में समय से पहले ही ले जाएगी। आनन-फानन ब्रिटेन पहला देश था जिसने तुरंत ही बिना पूरे और संतोषजनक परीक्षण के ही वैक्सीन को पब्लिक में लगाने की अनुमति दे दी। पहले दो डोज लगने की बात थी परन्तु अब भयावहता इतनी है कि एक ही डोज लगाकर अस्सी परसेंट तो सुरक्षा दो सभी देशवासियों को- इस रणनीति पर भी विचार किया जा रहा है।
उद्दंडता और हवशीपन की अति हो जाए और प्रकृति को दंड देने पर उतरना ही पड़े तो कई बहाने बन जाते हैं, कई गलतियाँ हो जाती है । ऐसा ही कुछ गीता आदि हमारे धर्म-ग्रंथों में भी तो कहा गया है। हम वही तो उगाते हैं जो बोते हैं। फिर यह वक्त उन्होंने भी तो देखा था, जब ब्यूबौनिक प्लेग की महामारी आई थी, क्षय रोग आया था, स्पैनिश फ्लू आया था! पर पृथ्वी और मानवता खत्म तो नहीं हुई थी! अभी भी नहीं होगी। बस हमारी यह लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई, अभी भी जारी है, कई-कई मोर्चों पर।
जब मूल्यवान की बिख्रेर हो चारो तरफ. तो आक्रमण भी अधिक होंगे ही और उतने ही मोर्चे भी खुलेंगे, साथ में उन पर घमासान भी। जान और माल दोनों पर ही हमला है इस वक्त। मानवता और हमारी सभ्यता दोनों के लिए ही गहरी फिसलन का वक्त है यह। दुनिया के जिस कोने में भी नजर जाए, हर व्यक्ति डरा हुआ है और बेहद संभल-संभलकर चलता दिख रहा है। जो उतावले हैं या सतर्कता में कमी करते हैं , उन्हें है से थे बनते भी देर नहीं लग रही। भय और अनुमान है कि करोना की इस दूसरी लहर में दुगने-तिगने लोग मरेंगे फिर भी स्कूल , बाजार सभी खोले जा रहे हैं, कबतक सब बन्द रहे! मौत तो दोनों ही तरफ से है। भूखे मरो बेरोजगार और घर में बन्द होकर या फिर बाहर आकर करोना से लड़ते-लड़ते और शहीद होकर। भयभीत हैं सब, न जाने कहाँ अगली चोट हो और न जाने कौन, कब और क्या, काल के गाल में कवलित हो जाए। इसी भय ने सब ठप्प् कर दिया है बाजारों से ही नहीं, मन से भी… सारी रौनक, सारा आत्म-विश्वास। बड़ी-से बड़ी अर्थ-व्यवस्था चरमराती दिख रही है। हरेक को बस एक ही बात समझ में आती है बिखेरने नहीं, सहेजने का वक्त है यह और इस सबको धमकाता , आंखें दिखाता जिन्दगी का नियम भी तो परिवर्तन ही है, थमाव नही। कुछ सामंतशाही विस्तार चाहते हैं। मरने-मारने का आसान मौका समझ और ढूंढ रहे हैं। उनकी छल-कपट की चौपड़ पूर्ववत् ही बिछी है। अपना क्रोध और अवसाद, अनियंत्रित उर्जा दूसरों पर निकालने के लिए अनुचित रूप से उग्र दिख रहे हैं ये मौकापरस्त देश और व्यक्ति।
कहते हैं हर सौ साल में एक ऐसी आपदा आती है जो कई-कई लाखों को ले जाती है। क्या प्रकृति खुद को सुधारती है, नियंत्रित करती है इस तरह से? सुनाई दे रहा है कि प्रदूषण कम हो गया है, नदियों का जल साफ दिख रहा है फिरसे और शहरों में भी एक बार फिरसे स्वच्छ आकाश और आकाश में तारे दिखने लगे हैं। यही तो है, बुरी से बुरी परिस्थिति में भी अच्छा ढूँढ लेना, कुछ अच्छा कर जाना। शायद पुनर्निर्माण की जरूरत थी हमें भी और हमारे समाज को भी। शायद कुछ सबक सीख ही पाएँ हम इस आपदा से और बदलें अपनी आदतों -फिजूल खर्ची को, धरती के खनिजों के अपव्यय को और स्वस्थ हो पाएँ हम भी और साथ-साथ यह हमारी मरणासन्न बूढ़ी धरती भी। बुरे में भी अच्छा ढूंढ पाना, कर लेना यही तो विवेक है। और ऐसा ही कुछ कर भी रहा है अब भ्रमित मानव। थोड़ा बहुत ही सही, पर बदलाव आया है हमारे समाज में। एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारी और जागरूकता बढ़ी है। हमने अपनी निजी जगह और विचार दूसरों के साथ बांटने शुरु कर दिए हैं। अपनी ही नहीं दूसरों की जरूरतों को भी समझना शुरु कर दिया है। और यह एक अच्छा कदम है। आभासी दुनिया और तकनीक का इसमें एक बड़ा योगदान रहा है। अब मिनटों में सूचना भी दी जा सकती है और सहायता भी। मनोरंजन भी किया जा सकता है और शोक सभा भी, वह भी बिना घर छोड़े…सोचें कितना बड़ा सुख है यह भी इस कठिन वक्त में।
सुख की बात आई तो ध्यान स्वतः ही लेखनी की तरफ मुड़ गया है। एक बड़ा सहारा रही है यह हर बोझिल पल की। एकबार फिर बहुत सी नई रचनाएँ, नए भावपुष्प लेकर आई है लेखनी मन और उदास पलों को सजाने व सुरभित करने के लिए..नई उर्जा के साथ सोचने व समझने के लिए। उम्मीद ही नहीं, विश्वास है कि आपके भी एकाकी पलों का एक सार्थक सहारा बनेगी य। इसबार इस नववर्षांक में हम भारत से सुनील श्रीवास्तव जी , पूनम गुजरानी और नरेश अग्रवाल व इन्दु झुनझुनवाला चार नए लेखक व कवियों को उनकी भावप्रवण रचनाओं के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। लेखनी परिवार में स्वागत है हमारे चारो विद्वान मित्रों का।
जैसा कि आप जानते हैं अपने मार्च-अप्रैल अंक के साथ लेखनी 13 वर्ष पूरे करके 14 वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। और इसे मनाने के लिए हम एक बम्पर लघुकथा विशेषांक लेकर आ रहे हैं। यूँ तो आप सभी की कई लघुकथाएं लेखनी लघुकथा मैरेथन में एकत्रित हो चुकी हैं फिर भी जो मित्र उससे नहीं जुड़ पाए या अपनी रचना भेजना चाहते हैं उनके लिए अंतिम तारीख 15 फरवरी 21 है और पता है-shailagrawal@hltmail.com या shailagrawala@gmail.com इंतजार रहेगा लघुकथा या लधुकथा विषयक आलेखों का।
पुनः पुनः नव वर्ष की, सुख शांति की अशेष शुभकामनवाएँ। अपना ध्यान रखिएगा।
शैल अग्रवाल