अपनी बातः आइने के समक्ष


मित्रों,
एक लेखक की सारी उलझन और उमंग लिए, उसकी रचना प्रक्रिया की तह में जाकर समजने की कोशिश की है हमने इस एक सृजनकर्ता के आत्म-अवलोकन अंक में। क्यों करता है वह सृजन , किन-किन मुश्किलों या रोड-ब्लौक्स का सामना करना पड़ता है उसे, क्या है उसका अंतर्मन? वैसे भी एक कठिन और उथल-पुथल भरे वक्त से गुजर रही है हमारी दुनिया। ऐसे में क्या ज़रूरत ही रह जाती है कला की?

झरते पत्तों से मानव समाज और इसके मूल्य , यहाँ तक कि इसका पर्यावरण, धरती जिस पर आज का अति आधुनिक, अति विकसित और बुद्धिमान मानव खड़ा है, हर चीज का अस्तित्व पर, यहाँ तक कि हमारे आने वाले कल तक पर एक प्रश्न चिन्ह लग चुका है। कोई नहीं चाहता यह अनचाहा अन्त, फिर भी हम लड़े जा रहे हैं, किसी भी बहाने एक दूसरे को पूर्णतः नष्ट करने पर आमदा हैं। बजाय इस इस फिसलन को, काई को साफ करने के।

कोई हथियार बेच रहा है, तो कोई विश्व गुरु बनने का सपना पाले बैठा है। किसी को सत्ता की भूख है तो किसी को शक्ति की। कोई अपना बैंक-बैलेंस बढ़ाना चाहता है तो कोई अपनी जाति व धर्म। विस्व-बन्धुत्व की तरफ़ हमारा ध्यान ही नहीं है। मूल्य और संस्कार सब गडमड हो चुके हैं। लड़ाई अब संस्कारों की नहीं, अस्तित्व पर है। संपूर्ण मानवता पर ही खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, इतना दोहन कर चुके हैं हम अपना और अपनी आत्मा का। और मजा यह कि आँखों पर पट्टी बांधे बैठे हम, अंधे ही नहीं बहरे हो चुके हैं हर अन्याय , हर आपदा के प्रति। जाने किस के भरोसे किस आस और जादू के भरोसे जीए जा रहे हैं अपने भूले बिसरे गौरव में।

उत्सव धर्मी मानव हर खतरे के बीच भी उत्सव मनाता जबतक जिन्दा है भूला हुआ है सब…आग अभी तो बहुत दूर है, उसका घर सुरक्षित है के भरोसे, पर सवाल यह है कि कब तक, अभी नहीं जगे तो कितनी देर और?

कहीं कम तो कहीं ज्यादा पूरे विश्व की ही यही तस्बीर है आज… आत्म-अवलोकन की जरूरत है, फिर भी नींद न टूटे, तो निश्चय ही आइना दिखाने की। आइना जो अजीब शह है। कहते हैं जैसा है , वैसा ही दिखाता है। झूठ नहीं बोलता। पर इसकी प्रखरता भी तो ज्यादा और कम हो सकती है, जैसे कि देखने वाले की दृष्टि भी। हाँ, एक बात विशेष है इसमें, यह हमें संवारता है, सुधरने और संवरने के लिए भी प्रेरित करता है। यदि आत्म-मुग्धता से बचे रहें तो इसी एक गुण की वजह से निजी जीवन और समाज दोनों में ही इसकी जरूरत है और सदा रहेगी भी।

लिखना मात्र एक शगल नहीं, जैसे कि भोजन , एक उद्देश्य, एक जिम्मेदारी है मानव के जीवन और मन में, आराम तक की। इसबार हमारे इस अंक में कई रचनाकारों ने आत्म-निरीक्षण और आत्म-परीक्षण किया है, क्यों लिखते हैं वह, कौनसा वह ढांचा था जिसमें वह ढले, क्या मन में छुपी प्रेरणा ही नहीं और रोष व आक्रोष थे जो कलम से बाहर आए। उम्मीद है आपको हमारे सृजन-धर्मियों से मिलना, उनके मन में झांकना अच्छा लगेगा।

संकलन कवि और कविता भी इसी विषय की काव्यात्मक अनुभूति है जो निश्चय ही आपको हंसाएगी, रुलाएगी, अपने संग बहाएगी, और सोचने पर मजबूर भी करेगी।

कहानियों में भी तीन कथाकार अपनी-अपनी कहानियाँ लेकर ळेखनी परिवार में सम्मिलित हुए हैं। लेखनी नासिरा शर्मा, अर्पणा सन्त सिंह और राजश्री अग्रवाल तीनों का ही तहेदिल से स्वागत करती है और उम्मीद ही नहीं विश्वास करती है कि यह संग-साथ यूँ ही चलता रहेगा।

सितंबर का महीना आते ही साहित्य की, हिन्दी की बातें जोर पकड़ने लग जाती है। और ध्यान चला जाता है अपने जैसे भूले-भटके वतन से दूर लोगों पर भी देशवासियों का। जिन्हें भारतीय नहीं, कभी भारतवंशी तो कभी प्रवासी कहने का प्रचलन चल पड़ा है आज कल। पर एक सेतु, एक लहर दोनों किनारों के बीच बहती…यही तो है प्रवास और उससे जन्मा प्रवासी व उसका साहित्य।

आज भी दोधारी स्वप्न ही तो जीता है प्रवासी। जड़ों से जुड़ा रहना चाहता है, क्योंकि पीछे छूटी मिट्टी की महक नहीं भूल पाता, और नई मिट्टी और नए माहौल में भी फलना-फूलना है इसे। इसी टूटफूट और पुनः स्थापन का संघर्ष, पुराने का दर्द , नए का आनंद, साथ-साथ सामंजस्य और समझभरा हर कदम, एक जीत या एक हार… परायों को अपना बनाने की एक जद्दो-जहद, अपनों से दूर हो जाने की एक अनवरत् कसक, यही तो असली कहानी है प्रवासी की।

यदि प्रवासी साहित्य एक सेतु , एक लहर है भारतीय और विदेशी, दोनों किनारों के बीच जो बहती, निरंतर नई परिस्थितियों से सामंजस्य करती , तो ढूंढ-ढूंढकर नए किनारे छूती भी है। वह भी पीछे छूटे किनारों की मिट्टी के अंशों को पूर्णतः खुद में समाहित करते हुए, उन्हें संग लेकर ही आगे बढ़ती है यह। याद रखना होगा कि प्रवास यदि परिस्थिति जन्य है, तो साहित्य की उत्पत्ति मन और मस्तिष्क से होती है। परिस्थितियों पर बस चलता है परन्तु मन पर नहीं। यही वजह है कि प्रवासी साहित्यकारों से न तो भारत ही छूटा है और ना ही अपनाए देश से नाता ही कभी टूटा है इनका। इनकी रचनाओं में यादों की अमराई है तो पीसपोर्ट के रंग भी। एक तरफ कोयल कूक पपीहा बानी, ना पीपल की छाँव, ऐसो हमरो गांव लिखा था ब्रिटेन के शायर सोहन राही जी ने तो दूसरी तरफ , पद्मेश जी का काव्य संग्रह आया जिसका शीर्षक रखा गया प्रवासी-पुत्र। ब्रिटेन के ही जाने-माने कवि सत्येन्द्र श्रीवास्तव जी ने अपनी कविता की किताब का नाम रखा, टेम्स में बहती गंगा की धार। और मैंने अपने लेख-संग्रह का नाम रखा लंदन पाती. जो देशवासियों के लिए ही मुख्यतः लिखी गई थी। बिल्कुल चिठ्ठी वाले अंदाज में । कुशल क्षेम व तत्कालीन खबरों का तीस इकतीस महीने तक आत्मीय अंदाज में आदान-प्रदान रहा इन आलेखों में। जिसे पाठकों ने भरपूर पढ़ा भी और सराहा भी।
आप प्रवासी कहें या भारतवंशी,
परिचय दें या न दें हम…
पहचानता है यारो हमको जहाँ सारा
हिन्दोस्ताँ के हैं हम हिन्दोस्ताँ है हमारा।

ये आज भी बात-बात में भारत जाने के बहाने ढूंढने वाले लोग है और यही बुजुर्ग और पौढ़ होती पीढ़ी है जो साहित्य रच रही है विदेशों में बैठकर । ये सभी अपने पीछे जो भारत छोड़कर आए हैं और देश जिसमें वह आज रह रहे हैं, दोनों ही उनके शब्दों में रचनाओं में बहते दिखते हैं। इनका अस्तित्व, इनके जीवन की तरह ही, दो देश और दो सभ्यता ओं में रचा बसा और बंट गया है। मैंने अपनी एक कविता में पच्चीस साल पहले लिखा था-‘अपनी इस नई पहचान के संग दूर खड़ी मैं सोच रही हूं, कैसे तुम मुझे इससे दूर-दूर रख पाओगे/ मैं तो इसी की मिट्टी से गढ़ी गई हूँ, और मेरे पूर्वज इसी मिट्टी में सोए पड़े हैं ! यह मेरा अभिमान है और मैं इसकी पहचान, क्या हुआ जो मुझसे दूर बहुत दूर मेरा देश महान’ दूसरी तरफ यह भी लिखा था कि विदेशी इस औपचारिक सभ्यता ने मुझे बन्द मकानों में गुमसुम रहना सिखा दिया है। जहाँ मैं खुशी और गम दोनों को ही अकेले-अकेले या वीतराग हो मनाना सीखती जा रही हूँ।
यही दर्द बखूबी छलका है तेजेन्द्र शर्मा जी की कहानी पासपोर्ट का रंग में –

‘बेटा तूं नहीं समझ सकता। मेरे लिए ब्रिटेन की नागरिकता लेने से मर जाना कहीं बेहतर है। मैनें अपनी सारी जवानी इन गोरे साहबों से लड़ने में बिता दी।…जेलों में रहा। मुझे तो.. फांसी की सज़ा तक हो गई थी।…लेकिन… ‘

‘लेकिन बेटा जी मुझे हिन्दुस्तान के लिए, अपनी जन्मभूमि के लिए तो वीज़ा लेना पड़ेगा न। क्या इससे बड़ी कोई लानत हो सकती है मेरे लिए?… बेटा एक बात बताओ, क्या कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता कि मैं हिन्दुस्तान का नागरिक भी बना रहूं और मुझे तुम अपनी ख़ुशी के लिए ब्रिटेन की नागरिकता भी ले दो…?’
कहीं स्वाद , कहीं एक याद तो कहीं एक फरियाद, तो कहीं भारत के प्रति एक गद्दारी का भाव, मातृभूमि को छोड़कर आने का अपराध बोध… भारत से दूर रह पाना, उसे भूल पाना, संभव ही नहीं इन प्रवासी साहित्यकारों के लिए। इनके डी.एन ए में है भारत। फिर साहित्य ही भला कैसे अपवाद हो सकता है! मेरी कहानी ‘घर का ठूंठ’ का नायक मलकीता सिंह, यूरोप में जमा किए सारे वैभव और ऐशो आराम के बावजूद भी, समाज में विशेष नाम और प्रतिष्ठा के बाद भी, अपने पीछे छूटे छोटे से गांव की चौपाल पर सरपंच की तरह बैठने को तरसता हुआ मर जाता है । दूसरी कहानी कनुप्रिया में एक भरापूरा परिवार छोड़कर आई किशोरी गृहिणी चुपचुप अकेली रहती है और दूसरों की तो छोड़ो खुद अपनी आवाज भी उसे फोन पर ही सुनाई देती है। इतना एकाकी है सारे शोर-शराबे के बाद भी पाश्चात्य में बन्द दरवाजों के पीछे बसा उसका जीवन।

परदेश को देश बनाना…बनाना न सही मानना, यह जद्दो-जहद, इसके आंसू मुस्कान, सुख दुख ही प्रवासी साहित्य के विषय हैं, चाहे वह गिरमिटिया देशों में लिखा गया साहित्य हो, गल्फ देशों में लिखा गया हो, या फिर अमेरिका ब्रिटेन या यूरोप के अन्य देशों में। भारत जो हमारे डी.एन ए में है, हमारे खान-पान और रुचियों में धंसा हुआ है उससे पूरी तरह से कटने में तीन चार पीढ़ियाँ गुजर सकती हैं। फिर भी कुछ न कुछ तो रहेगा ही, कहीं यादें बनकर तो कहीं आदत बनकर तो कहीं स्वाद या संस्कार बनकर।

गंभीरता से देखें तो आज समाज बदल रहा है , और भारतीयता भी, तो इसके साथ-साथ साहित्य और इसके विषय भी। आज टूटते परिवार, टूटती शादी प्रथा, सेक्स , अपराध , कहीं-कहीं चौंकाती अश्लीलता सभी विषय हैं नई कहानी के, जब कपड़ों में शर्म नहीं रही तो शब्दों में कैसी शर्म, भारत में भी और विदेश में भी। हम सभी विश्व ग्राम में हैं और विश्व संस्कृति में जी रहे हैं। यही वक्त की मांग है, भले ही भारतीयों को अपनी मानसिकता को, चमड़ी के इस रंग को नकार पाना संभव हो या नहीं।

वैसे भी अगर परिस्थितियाँ आदमी को दो राहे पर खड़ा कर दे तो तर्क-वितर्क का कोई अंत नहीं रहता। अपनी मिटटी से जुड़े, पनपे, फले-फूले और फिर अचानक वक्त ने करवट बदली और स्थान की, परिवेश की, संस्कारों की अदला-बदली हो गई. ऐसे ही हैं मुख्यतः हमारी पीढ़ी के रचनाकार, जिनकी रचनाओं में भारत कहीं अपनी पूरी भव्यता और वैभव के साथ, बेहद प्यार से उकेरा गया है…एक टीस और लालसा दिखती है बिछुड़े के प्रति तो कहीं एक नये में ढलता, कभी-कभी खुद को छलता भारतीय भी मिलेगा हमें इन रचनाओ में।

एक नई भारपोई सभ्यता और साहित्य का जन्म हो चुका है आज । जिसमें नए द्वंद और नए सामंजस्य हैं, नई मजबूरी भी है और नई भौतिकता और विलासिता भी। लचीले पन और सामंजस्य की जरूरत तो सदा ही रही है।
पर पुराने से ही तो नया जनमता है। नए-पुराने दोनों को लेकर चलता है साहित्य और उसकी एक आँख भविष्य के लिए भी तैयारी करती रहती है। विदेशी परिवेश में रहकर, वहीं के रहन-सहन,पहनावे को अपनाना, काम पर जाने के लिए, जैसी उनकी रिवायत -चाल-चलन, उठने-बैठने, बातचीत, उनकी भाषा, उनकी शैली को अपनाना अनिवार्य हो जाता है. और जब काम से लौटकर घर आते हैं तो वापस अपनी निजी घरेलू व्यवस्था के साथ तालमेल रखना पड़ता है. अतः दोनों परिवेशों में संतुलन बनाये रखने का सिर्फ प्रयास ही नहीं गूढ़ परिश्रम भी करना पड़ता है इन्हे, तभी गृहस्थी और जीवन दोनों एक सुविधा के अनुसार चल पाते हैं। धीरे-धीरे सुविधा और जरूरत अनुसार रहन-सहन खान-पान सोच तक एक नए सांचे में ढलने लग जाती है। रोटी की जगह सैंडविज और पकवानों की जगह पीजा और मोमो लेने लग जाते हैं।

एक कशमकश से गुज़रना पड़ता है हर प्रवासी को। सभी व्यस्त हैं। क्योंकि वक्त और श्रम दोनों की किफायत और कुशल संचालन एक कुशल गृहिणी की तरह करना पड़ता है। एक माँ की तरह जो अपने बच्चों में भारतीयता के विचार कूट कूट कर भरने के प्रयास में कहीं सफल होती दिखाई देती है तो कहीं लगता है बढ़ती उम्र के बच्चों के साथ तालमेल बनाये रखने के संघर्ष में उसके हाथ से भारतीय संस्कारों व् संस्कृति का छोर ही छूटता चला जा रहा है।

यह द्वंद, यह नये से सामंजस्य, नए में ढलने की ललक और खीज प्रवासी साहित्य के मुख्य विषय के रूप में उभर कर बारबार सामने आते हैं । बदलती और एक नई संस्कृति उभर रही है, जहाँ पुराने को छोडंने की बेचैनी है और जड़ों से जुड़े रहने की ललक भी। बिल्कुल तुसी वाटर ले आओ, असी फ्लावर बनाएंगे वाले अंदाज में एक नया भारत उभर चुका है विदेशों में। नयी भाषा और नये संस्कारों के साथ। नए मंदिर और नए गुरुद्वारों के साथ, एक नया भारोपीय समाज और साहित्य है यह, जिसमें कई बार वही छूटता नजर आता है, जिसको पकड़े रहने की तीव्र इच्छा रहती है भारतीयता और संस्कारों के नाम पर। कई कहानियाँ याद आ रही हैं- उषा प्रियंवदा की वापसी, उषा राजे की क्लिक, सुषम बेदी की अवसान, मेरी अपनी कनुप्रिया और सूरज. दिव्या माथुर की कढ़ी कविता, सभी इस दर्द से ओत प्रोत है। और जबतक यह दर्द जिन्दा है , भारत और भारतीयता जिन्दा रहेगी। साहित्य में भी और विदेश में बसे भारतीयों के मन में भी। आखिर साहित्य समाज का ही तो दर्पण और दस्तावेज है।
मेरी कहानी विच में रूबी परमानंद नायिका से कहती है-‘हम पंछियों से भिन्न नहीं राबिया। पर पिंजरे तो पिंजरे ही होते हैं , चाहे सोने के हों या लोहे के। इन्हें पहचानना, इनसे बचना बहुत जरूरी है हमारे लिए’- यह बात जीवन में भी उतनी ही सच और धारदार है. चाहे हम देश में रहते हों या परदेश में और अपरिचित परिस्थितियों जैसे प्रवास आदि में तो सावधानी और भी ज्यादा,
विस्थापन के बारे में ब्रिटेन के गौतम सचदेव लिखते हैं-

विस्थापन
विस्थापन का गुण यह है
कि आदमी कभी अपनी जगह से पूरा जा नहीं पाता

पानी भरे ज़ंग खाये ड्रम की तरह
दाग़ों या गीले निशानों में
रिसता रहता है
व्यापकतर होता है
और सिद्ध करता है
कि कोई भी स्थापित नहीं है
सिवाय उस पेड़ के
जिसे आँधी की प्रतीक्षा है ।

यह तो है साहित्य साधना में रत चन्द रचनाकारों की बात। पर आम जीवन में देखों तो नई जिन्दगी से सामंजस्य और हिन्दी की रोटी रोजी के विदेशी माहौल में अनुपयोगिता आदि बाह्य दबाव तो हैं ही, हिन्दी की अपनी समस्या यह भी है कि वह भारतीयता की पहचान बन कर नहीं उभर पाई है। शायद यही कारण रहा होगा कि पंजाबी, गुजराती, बंगाली अपने क्षेत्रीय स्वाद को बचाए रख पाई हैं जबकि हिन्दी सब की होने के कारण किसी की भी नहीं रही, न विदेश में न अपने देश में ही। लेखकीय छिटपुट प्रयास पर्याप्त नहीं हैं इसके गौरवमय स्वरूप के लिए। हर भारतीय को अपने देश , भाषा , और संस्कृति में गौरव लेने की जरूरत है। हिन्दी को रोटी रोजी से जोड़ने की जरूरत है ।

आज इंग्लैण्ड में टेलिविजन पर भारत से स्टार जी सोनी बी ४ यू आदि चैनल आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन वो भी भारत के ही चैनल अधिक दिखते हैं। स्थानीय स्वाद की कमी है हिन्दी के प्रोग्राम और खबरों में। और जो दो एक प्रयास हुए भी हैं वो विशेष प्रचलित नहीं हो पाए। हिन्दी की स्थानीय मीडिया में नामौजूदगी भी दूसरी पीढ़ी तक हिन्दी के न पहुँच पाने का एक मुख्य कारण है। कविता कहानी और साहित्य की सेवा करती भारत से आई पीढ़ी के 15 बीस सदस्य और तीन चार संस्थाएँ जैसे यूके हिन्दी समिति, वातायन, कथा यूके, गीतांजलि, काव्यरंग कविसम्मेलन और भांति-भांति के आयोजनों में निरंतर संलग्न हैं यहाँ ब्रिटेन में । कुछ मंदिर आदि में भी हिन्दी सिखाने के प्रयास किए जाते हैं। कैम्ब्रिज विश्विद्यालय और लंदन में साउथ एशियन स्टडीज के अंतर्गत भी हिन्दी में काम हो रहा है। हिन्दी समिति पिछले पंद्रह-बीस साल से हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता चला रही है, जिसमें कुछ बच्चे भाग लेते हैं और कुछ को भारत जाने और घूमने का भी मौका मिलता है। कम सराहनीय प्रयास नहीं यह। भारतीय विद्या मंदिर और एकाध जगह संस्कृत में भी रुचि जागृत करने की कोशिश की जा रही है। देश और संस्कृति के प्रति समर्पित सार्थक और प्रशंशनीय प्रयास हैं ये,
समाज और साहित्य के प्रति पूर्णतः समर्पित, कल्पनाशील और आदर्शवादी विचारधाराओं को आज के इस तेजी से बदलते युग में भी अपने में संजो कर रख पाना, उसमें विश्वास करते जाना साहस और धैर्य का काम है, कुछ-कुछ विपरीत धारा में भी टिके रहने जैसा। पूर्ण निष्ठा और सजग व कोमल संवेदनशील हृदय चाहिए इसके लिए। जबतक राष्ट्रीय चेतना और आत्म गौरव नहीं आएगा हमारे मन में, क्षेत्रीय मतभेद को हम नहीं भूलेगें, गुटबाजी और भाई-भतीजाबाद से बाहर नहीं निकलेंगे, हिन्दी और हिन्दी साहित्य की जरूरत यूँ ही न्यूनतम और सरस्वती नदी सी ही रहेगी विश्व में भी और हमारी भावी पीढ़ी की आँखों में भी।

आइने से नहीं, चश्मों से धूल छाड़ने की जरूरत है हमें।

इस अंक में कई मित्रों ने आत्म-अवलोकन किया है । आइने के समक्ष बैठे हैं। कहीं आईना अतीत की परछांइयाँ समेटे हुए है तो कहीं समकालीन है तो कहीं पूर्णतः अतर्मुखी है । रोचक हैं सभी आलेख। लेखनी पुनः-पुनः आभार देती है उन सभी कवि , लेखक व पाठकों का जो निरंतर हमारे साथ रहे हैं, गरमी, जाड़ा, बरसात साथ दे रहे हैं। तो मित्रों, प्रस्तुत है आपके लिए लेखनी का आत्म-अवलोकन विशेषांक- आइने के समक्ष। उम्मीद है पसंद आएगा।
प्रतिक्रियाओं का इंतजार है और रहेगा,
सितंबर और अक्तूबर में पड़ने वाले सभी त्योहारों की बधाई और शुभकामनाओं के साथ,

शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

पुनश्च लेखनी का आगामी अंक हमने अवसाद यानी मानसिक निराशा या डिप्रेशन पर रखा है, एक बीमारी जो मानव समाज को कई निजी और सामाजिक वजहों से घुन की तरह खाए जा रही है। क्या तरीक़े हो सकते हैं इससे छुटकारा पाने के, कैसे मदद कर सकते हैं हम पीड़ितों की और कैसे बचाए रख सकते हैं खुद को भी इस अंधेरे की गहन गर्त में डूबने से?

आपकी रचना और सुझावों का लेखनी को इंतज़ार रहेगा। कविता कहानी या आलेख भेजने की अंतिम तिथि बीस अक्तूबर है उपरोक्त ई. मेल पर। पुनः सृजन धर्मिता की बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ ,
आपकी अपनी ‘लेखनी’।

सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net

error: Content is protected !!