बगीचे में खड़े ओक , मेपल, सिकामोर और बर्च के ये दृढ़, सशक्त पेड़ जो हरे-भरे और झूमते दिख रहे हैं, इनकी पत्तियों ने अब रंग बदलने शुरु कर दिए हैं। ऋतु परिवर्तन का आभास मिल चुका है इन्हें। देखते-देखते बस अगले दो तीन हफ्तों में इनकी पत्तियाँ झरझर झरनी शुरु हो जाएँगी। और फिर रह जाएँगे बस आखों के आगे उजड़े खड़े ठूँठ। पर ये अपने नुकसान, अपनी नग्नता पर रोते नहीं, इसलिए नहीं कि इन पत्तों के अलग-अलग चेहरे, कोई अलग पहचान नहीं , भावनात्मक लगाव नहीं है इनका आपस में, बल्कि इसलिए कि जानते हैं ये कि यही प्रकृति का नियम है और इससे इन्हें गुजरना ही होगा।
स्थायी तो कुछ भी नहीं यहाँ पर। जानेवाला फिरसे उग आता है सृष्टि में! फिर यह आदमी ही क्यों इतना विचलित हो जाता है बदलाव और विछोह से! माना अकाल मृत्यु और अपनों का विछोह , अपनी ही आँखों से अपनी दुनिया उजड़ते देखपाना आसान नहीं संवेदन -शील मन और कुशाग्र बुद्धि के लिए, पर सिहरते और रोते, झूमते-गाते तो हमने प्रकृति और बनस्पति को भी देखा है।
उद्दंडता और हवशीपन की अति हो जाए और प्रकृति को दंड देने पर उतरना ही पड़े तो बहाने बन जाते हैं कई, गलतियाँ हो जाती हैं कई। ऐसा ही तो कुछ गीता आदि हमारे धर्म-ग्रंथों में भी कहा गया है, हम वही तो उगाते हैं जो बोते हैं। फिर यह वक्त उन्होंने भी तो देखा था, जब ब्यूबौनिक प्लेग की महामारी आई थी, क्षय रोग आया था, स्पैनिश फ्लू आया था! पर पृथ्वी और मानवता खत्म तो नहीं हुई थी इनसे! अभी भी नहीं होगी। बस हमारी यह लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई, अभी भी जारी है, कई-कई मोर्चों पर।
जब मूल्यवान की बिख्रेर हो चारो तरफ. तो आक्रमण भी अधिक होंगे ही और उतने ही मोर्चे भी खुलेंगे, साथ में उन पर घमासान भी। जान और माल दोनों पर ही हमला है इस वक्त। मानवता और हमारी सभ्यता दोनों के लिए ही गहरी फिसलन का वक्त है यह। दुनिया के जिस कोने में भी नजर जाए, हर व्यक्ति डरा हुआ है और बेहद संभल-संभलकर चलता दिख रहा है। जो उतावले हैं या सतर्कता में कमी करते हैं , उन्हें है से थे बनते देर नहीं लग रही। भय और अनुमान है कि करोना की इस दूसरी लहर में दुगने-तिगने लोग मरेंगे फिर भी स्कूल , बाजार सभी खोले जा रहे हैं, कबतक सब बन्द रहे! मौत तो दोनों ही तरफ से है। भूखे मरो बेरोजगार और घर में बन्द होकर या फिर बाहर आकर करोना से लड़ते-लड़ते शहीद होकर। भयभीत हैं सब, न जाने कहाँ अगली चोट हो और न जाने कौन, कब और क्या, काल के गाल में कवलित हो जाए। इसी भय ने सब ठप्प् कर दिया है बाजारों से ही नहीं, मन से भी… सारी रौनक, सारा आत्म-विश्वास। बड़ी-से बड़ी अर्थ-व्यवस्था चरमराती दिख रही है। हरेक को बस एक ही बात समझ में आती है बिखेरने नहीं, सहेजने का वक्त है यह और इस सबको धमकाता , आंखें दिखाता जिन्दगी का नियम परिवर्तन है, थमाव नहीं। फिर भी कुछ सामंतशाही विस्तार चाहते हैं। मरने-मारने का आसान मौका समझ और ढूंढ रहे हैं इसमें भी । उनकी छल-कपट की चौपड़ वैसे ही बिछी हुई है। अपना क्रोध और अवसाद, अनियंत्रित उर्जा दूसरों पर निकालने के लिए अनुचित रूप से उग्र दिख रहे हैं ये मौकापरस्त देश और व्यक्ति।
कहते हैं हर सौ साल में एक ऐसी आपदा आती है जो कई-कई लाखों को ले जाती है। क्या प्रकृति खुद को सुधारती है, नियंत्रित करती है इस तरह से? सुनाई दे रहा है कि प्रदूषण कम हो गया है, नदियों का जल साफ दिख रहा है फिरसे और शहरों में भी एक बार फिरसे स्वच्छ आकाश में तारे दिखने लगे हैं। यही तो है, बुरी से बुरी परिस्थिति में भी अच्छा ढूँढ लेना, कुछ अच्छा कर जाना और यही है साहित्य का भी उद्देश्य, या होना चाहिए। संस्कृति ही नहीं अंतस् का भी दर्पण है साहित्य। भविष्य के लिए संदेश या फिर गुण और संभावनाओं से परिपूर्ण बीज… आने वाली पीढ़ी को सबकुछ सहेजकर सौंपने वाला , दूसरे शब्दों में काल का डी.एन. ए. है साहित्य। लेखनी का भी यही प्रयास रहा है सदा-आशा की किरण को पूर्णतः संजोए रखना , अंधेरे-से-अंधेरे तक पहुँचना। बहुत कुछ संजोया है हमने एकबार फिर इस नए अंक में जो आपके उदास पलों को हंसाएगा, गुदगुदाएगा, आपके साथ बैठकर बतियाएगा।
किस रचना ने कब और कहाँ पर आपके मर्म को छुआ , बताएँगे तो लेखनी एक संतोष और कर्म की उर्जा से सदा भरी रहेगी। आपका साथ ही हमारा प्रोत्साहन है।
लेखनी का नवंबर दिसंबर अंक हमने कहानी विशेषांक रखने का मन बनाया है। आपकी पसंदीदा स्वरचित कहानियों का इंतजार रहेगा। भेजने की अंतिम तिथि-20 अक्तूबर है, shailagrawal@hotmail.com पर। उम्मीद है आखिरी मिनट पर रचनाएँ भेजकर असमंजस में नहीं डालेंगे। अक्तूबर का महीना हमारे लिए त्योहारों का महीना है, नवरात्रि, करवा चौथ , दशहरा, दिवाली, कई उजास और उल्लास भरे त्योहार आते हैं इस महीने के आसपास। अवश्य मनाएँ और जी खोलकर मनाएँ। रात भर का ही मेहमान है यह अंधेरा…कुछ दिन , कुछ महीने, कुछ वर्ष , कभी-न-कभी तो जिन्दगी सामान्य होगी ही… बस प्रार्थना में , स्वच्छता के प्रति जागरूकता में, आपसी सहयोग में हमें अपना विश्वास बनाए रखना होगा। कठिन वक्त में भी उमंग की रौशनी हर मन में झिलमिल रहे…इन्ही शुभकामनाओं के साथ, नवंबर की पहली तारीख को फिर मिलते हैं एक नए अंक और नए उत्साह के साथ। तबतक अपना और अपनों का ध्यान रखिएगा।
शैल अग्रवाल
e.mail: shailagrawal@hotmail.com