सिन्धु के प्रवाह में जन्मी हैं सिन्धी संस्कृति और अदम्य जीवन-शक्ति के वारिस हैं सिन्धी।
विभाजन के रेगिस्तान में रास्ता बनाता चला आ रहा है सिन्धी साहित्य।
सिन्धी, सिन्धु घाटी सभ्यता के मानव जाति के वंशज हैं। सिन्धु नदी के तट पर रचित वेदों-ग्रंथों की महान और आदर्श संस्कृति और सभ्यता हमारे ही पूर्वजों की देन हैं। वैदिक- संस्कृति की नींव रखने वाले सिन्धु सभ्यता के ही लोग है।
संसार के इतिहास में कठिन से कठिन परिस्थितियों में इतनी बड़ी संख्या में मानवीय पलायन नहीं हुआ जैसा भारत-विभाजन के वक़्त हुआ. यह अपने आप में एक अजीबो-ग़रीब इतिहास है जिसने जुड़वाँ ज़ख़्मी देशों को जन्म दिया और एक सम्पूर्ण जाति को दर-ब-दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया जो संसार की प्राचीनतम गौरवपूर्ण संस्कृति की जन्मदाता और वारिस हैं. इसे राजनीतिक कूटिनीति कहें, इतिहास की भूल कहें, जानबूझकर किया गया छल कहें ! कुछ भी कह लें पर यह सभी ने देखा कि अपने समृद्ध घर, व्यापार, खेती, ज़मींदारी, सुख-वैभव को छोड़कर एक काफ़िला साहित्य और संस्कृति तथा कष्टों और दुखों की गठरी लिए अनजान दिशाओं में चल पड़ा. हिन्दुस्तान में शरणार्थी कैंपों में मानो उनकी ज़िन्दगी ठहर गयी. फिर तो शुरू हुआ एक दौर, खुद को स्थापित करने का, जिसमें अपनी भाषा-संस्कृति सब छूटता हुआ सा लगा. सिंध की साहित्यक विरासत वहीँ रह गयी. ज़मीन के साथ साथ रीति-रिवाज़, मान्यताएं, सांस्कृतिक आनंद सब कुछ उनके सतीत्व के साथ सिन्धु की लहरों में डूबता-उतरता रहा. विभाजन की पीड़ा झेलनेवाली वाली पीढ़ी तन से, मन से जुड़ी रहकर भी उस रिश्ते को नयी ज़मीन पर रोप न पायी। नई ज़मीन पर बस जाने के बावजूद भी कहाँ भूल पाए सिंध से बिछड़े सिन्धी लोग अपनी उस विरासत को उनकी पहचान थी, उनका प्रतीक थी।
अपनी जड़ से उखाड़ने व बिखरने के ग़म में शरणार्थी एक अरसे तक अपनी भाषा को नज़र अंदाज़ करने के बावजूद, फिर से रचनात्मक ऊर्जा के संचार के तहद लिखी रचनात्मकता से सिन्धी अदब को एक नया क्षितिज बख़्शने में कामयाब रहे. किसी भी कौम के अदब के माध्यम से एक प्रान्त के रहवासिओं की पूरी रूमानी, इख्लाकी सामाजिक, और सभ्यता-संस्कार भरी ज़िन्दगी की तस्वीर सामने नज़र आती है. इसी इल्मी-खज़ाने और तहज़ीब के वारिस सिन्धी भाषी, जद्दो-जहद से अपनी संस्कृति और भाषा को आगे बढ़ाने के प्रयासों में जुटे रहे.
जिस तरह हिंदुस्तान कि प्राकृतिक भाषाओँ की माँ संस्कृत मानी जाती है, उसी तरह सिन्धी भाषा भी असल में संस्कृत की बेटी है. वक्त ने जो मंज़र सिंधवासियों को दिखाए वो उनकी राहों में लम्बे अरसे तक रोड़ा बने रहे. एक तरह से बनवास का दौर और फिर नए सिरे से ख़ुद को बसाने के प्रयास जारी रहे.
विभाजन के पश्चात आज तक सिंधी कौम को कोई प्रान्त नहीं है। जड़ से जुदा होकर अपने जीवन को संचारित रखना, तमाम मुश्किलों के बावजूद भी उनके लिए स्थापित होना कठिन ज़रूर है पर नामुमकिन कुछ भी नहीं. कोशिशें होती रही हैं और आज ६३ वर्षों के बाद जो तस्वीर दिखती है वह कहीं उदास करती है तो कहीं तसल्ली देती है. हर हाल में जिंदा रहने की क़सम खाकर, सिन्धी हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं. व्यापार उनके ख़ून में है, ज़िंदादिली उनके सीने में है. गिर-गिर कर उठ खड़े होना उनका दिमाग़ी फितूर है. सिन्धु नदी उनके दिल की धड़कन है, झूलेलाल की झलकी, शाह, स्वामी, सचल का काव्य उनका अध्यात्म है. ज़मीन नहीं है पर हिंद कि हवाओं में सिंध कि खुशबू सांसों में भरना उनका जीवन है.
और इन प्रयासों में एक सशक्त एवं सफ़ल कड़ी है साहित्य जो अपने आप को अपनी अरबी लिपि में अभिव्यत करता चला आ रहा है. नौजवान पीढ़ी इस साहित्य के सिलसिले को देवनागिरी लिपि में आगे बढ़ा रही है. अपने वंशजों की दौलत आज की पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए अनुवाद के माध्यम से सिन्धी साहित्य अब प्रवाहित हो रहा है, जिसमें योगदान दे रहे हैं सिंध के, हिंद के वरिष्ट लेखक, शायर और पत्रिकारिता के जाने माने स्तंभ जिनका सकारात्मक भाव सिन्धी साहित्य को एक नयी दिशा देने में पहल कर रहा है. प्रवाहित होने से कोई नहीं रोक सकेगा. मेरी भी इसी महायज्ञ में एक अनुवाद की हुई कहानियों की एक श्रखला जो २०१२ से २०१६ तक में संग्रहों में प्रकाशित हुई है, वही २०१७ में इस स्वरुप में सामने आएगी यह मैंने सोचा भी न था. पर जैसे जैसे क़दम आगे की ओर जा रहे हैं, यकीन सा होता जा रहा है उस शायर की बात पर:
मैं पल दो पल का शायर हूँ
पल दो पल मेरी जवानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है
पल दो पल मेरी कहानी है.
सच ही है, बस क़दम दर क़दम एक पदचिन्हूं का काफिला है, जो राही को भटकने नहीं देता. कलम के सिपाही को भी नहीं…वह जो अपने लेखन को इबादत से कम नहीं मानता. नाम तो काम के साथ जुड़ जाता है. दोनों एक दूसरे को समर्पित.
नाम तेरा नाम मेरा कर रहा कोई और है
ख़ालीपन जीवन का देवी भर रहा कोई और है
और उन्हीं नामों के शुमार में अदब के साथ श्री राजा शर्मा जी को सिन्ध और हिन्द के सिंधी साहित्यकारों की ओर से धन्यवाद अता करती हूँ जिन्होंने हमें और हमारे समाज को एक अनोखा तोहफा दिया है. अरबी सिन्धी से हिंदी में अनुदित 100 कहानियों को अपनी आवाज़ में text के साथ पेश करके।
इन कहानियों के बढ़ते हुए सिलसिले की हर कड़ी में जकड़ी हुई है विभाजन के दर्द की प्रताड़नाएं, औरत पर नागवार बर्ताव की तपिश, सियासी, व् जात-पात के भेद भाव की समस्याएं।
देवी नागरानी
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