बाल्यावस्था की बात करूँ तो सबसे बड़ी विडम्बना होती है मानव बुद्धी का तेज विकास और उसी अनुपात में अनुभवशून्यता ! बच्चे इन दो विरोधी तत्वों के अंतराल में किस प्रकार उलझते हुए विकसित होते हैं इसका सबसे अधिक सालने वाला अनुभव स्वयं मुझको है। आज समय की दूरियों से अपने बचपन को देखती हूँ तो उस दूरस्थ छोर पर खड़ी एक बालिका दीख पड़ती है जिसमें आतंरिक उत्साह और जिज्ञासा अधिक थी परन्तु बाह्य जगत की कोई अकल नहीं थी। आज भी कई किस्से याद आते हैं।
मैं तब छै बरस की थी। तीसरी कक्षा में गयी। वाराणसी का बेसेंट थियोसोफिकल स्कूल। माँ ने रामू से कहा इसे स्कूल छोड़ आ। वह बेचारा पुरानी कक्षा में छोड़कर घर चला गया। वहां मेरे साथ का कोई नहीं। चुपचाप जा बैठी। नई अध्यापिका ने जब मेरा नाम नहीं बुलाया तब खड़ी हो गयी। उसने पूछा तुम कौन हो। नाम बताया। कक्षा पूछी तो वह भी बता दी। वह बोलीं कि कक्षा तीन तो नई बिल्डिंग में है। मैं विमूढ़ खड़ी रही। उन्होंने पूछा शांति सदन पता है जहां श्रीमाली जी का घर है बस उसके बाद दाएं मुड़ जाओ। वहीँ बाल मंदिर के सामने। थोड़ा सा भान था। वहां मेरी छोटी बहन जाती थी। वहीँ अमरुद का बाग़ भी था शायद वहीँ जाना है। स्कूल का परिसर बहुत बड़ा था। पहली और दूसरी की क्लास थिएटर में लगती थी। वहां से पूरा स्कूल पार करके अंतिम छोर पर बाल मंदिर था। अटकल पच्चू रास्ता खोजती चल पडी। शांति सदन आ गया। आगे सभागृह की बड़ी बिल्डिंग दिखने लगी। दायीं तरफ अमरुद का बाग़ भी नज़र आ गया। सीधे बाल मंदिर में पहुँच गयी। खैर वहां के एक व्यक्ति ने मुझे तीसरी कक्षा में पहुंचा दिया जो पास ही एक अन्य बिल्डिंग में थी। इस कक्षा की दीवारें नहीं थीं। छत के ऊपर खुले बरामदों में बैठक लगती थी। चारों तरफ से खुले। केवल खम्भों पर छत। पंखों का चलन नहीं था।
सहाय जी ,गणित के अध्यापक ,किसे याद नहीं होंगे ? परन्तु उस दिन उनको देखकर मन को जो तसल्ली मिली वह अविस्मरणीय है। खैर जी ! दिन बीता। रामू ने जहां छोड़ा था वहीँ वह लेने पहुंचा होगा। अपन को सामने अमरुद का बगीचा नज़र आ रहा था। रामू को न देखकर सीधे उसमे घुस पडी। बस्ता नीचे रखा और पेड़ पर चढ़ गयी झोली में कच्चे पक्के अमरुद भर लिए। सहसा जोर की बिजली कड़की। डर के मारे तबियत सुन्न हो गयी। भान हुआ तो काली घटा घिर आई थी। जुलाई का महीना। पानी अब बरसा कि तब। चढ़ना तो आसान था। उतरना ? हे भगवान् ! धरती कितनी दूर। पर होश कहाँ ? कुछ दूर उतरी फिर कूद गयी। चारों तरफ सन्नाटा। झींगुर बोल रहे थे। तोते भी चुप। जल्दी से लूटा हुआ खजाना बस्ते में रखा। चौकीदार अक्सर बच्चो को पकड़ लेता था। बस्ते खुलवा कर तलाशी लेता था। अतः बक्सुए बंद किये और चल पडी। सभा गृह के पक्के रस्ते पर आते आते मोटी मोटी बूँदें टपकने लगीं। और पूरी लम्बाई पार करने से पहले ही मूसलाधार बारिश। आँखें न खोल पाऊं। दमकल एकदम शांत था अन्यथा उसकी गरजती आवाज़ पूरे परिसर में सुनाई देती थी। उसकी अनुपस्थिति में सब डरावना लग रहा था। कान में आवाज़ पड़ने लगी ,हें ******* हें *******.. मैं ही जोर जोर से रो रही थी। कपड़े इतने भीगे कि टांगों पर धारें बह रहीं।साथ में छिले हुए घुटनों से खून। रास्ता था कि लंबा होता जा रहा था।
स्कूल का बड़ा फाटक नज़र आ गया। सड़क दिखने लगी मगर बारिश से अंधी किधर चल रही थी पता नहीं। क्या हो अगर बाहर कोई मुर्दा उठाये जा रहा हो। अधिकाँश शव उधर से ही सीधे गंगा घाट की ओ र जाते थे। फिर गोदौलिया के चौराहे से अस्सी घाट की ओर मुड़ते थे। डर की सीमा नहीं थी। हें हें की जगह अब माँ माँ निकलने लगा। तभी ख्याल आया कि पैरों में जूते नहीं थे। फाटक के पास लम्बा चौड़ा तालाब बन गया था। अब मैं लड़कों के छात्रावास तक आ गयी थी। उधर नज़र डाली तो अंदर एक लड़का दिखा। वह मुझे ही देख रहा था। और भी डर लगा। जल्दी जल्दी कदम बढाए मगर तभी लगा वह मेरे पीछे है। बारिश रुकी तो नहीं ! पर ? उसने अपनी काली छतरी मेरे ऊपर तान रखी थी।
गढ़ा आ गया था। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और आराम से हौले हौले पूरा पार करवाया। सड़क पर आकर उसने पूछा मेरा घर कहाँ है। गुरुबाग के सामने। चलो हम वहीँ तक छोड़ कर आएंगे। .अब मैं उसको देख सकती थी। वह दस बारह वर्ष का रहा होगा। एकदम पतला और गोरा। उसने खादी का सफ़ेद पैजामा और कुरता पहना हुआ था। पैजामा उसके टखनों तक आता था। उसकी चप्पल भीग चुकी थी।
घर पर माँ नौकरों पर चिल्ला रही थीं। ” टम्पी जी ( प्रधानाचार्य ) के दफ्तर में पूछा था कि नहीं ? माया बहिन जी घर आ गईं ? जा जाकर उनसे पूछ। ” मुझे लेकर कोहराम मचा हुआ था। तभी मैं आ गयी। घर के बरामदे तक उसने मेरे सर पर से छतरी नहीं हटाई। अम्मा भौंचक्की रह गईं। मेरी शामत मेरा इंतज़ार कर रही थी अतः मेरा बोल नहीं फूटा।
उसने कहा,” जी यह अकेली घर जा रही थी। हमने देखा तो इसको पहुंचा दिया। ”
माँ बोलीं, ” क्या नाम है तुम्हारा ?”
” जवाहर ” .
माँ ने पूछा ,” किस क्लास में हो ”
” सातवीं कक्षा में। हम छात्रावास में रहते हैं। देर हो जाएगी तो डाँट पड़ेगी . अच्छा नमस्ते। ”
वह चला गया। मगर आज तक मैं उसको अपना आदर्श मानती हूँ। न उसकी छवि भूलती है ,न उसकी शालीनता। और जो ठंडक उसकी छोटी सी उपस्थिति ने उपजाई उसके प्रभाव में माँ ने न मुझे मारा ,ना डाँटा और ना हीं जूते कहीं छोड़कर आने का बखेड़ा किया। अगले दिन अमरुद के बाग़ से मेरे जूते बरामद कराये गए। कच्चे अमरुद कूड़े में फेंक दिए गए। उनसे खांसी हो जाती है।
किसी ने पूछा है कि पुरुष विमर्श पर कहानी लिखूं। कितने पुरुष आज के युग में स्त्रियों की , बच्चों की ,असहाय बूढ़ों की छतरी हैं ? कितने पुरुषों में स्वयंसेवा का भाव जीवित है ?
कादम्बरी मेहरा
e.mail:kadamehra@googlemail.com