सुभाष चन्द्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, महात्मा गांधी, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मदन मोहन मालवीय, विनोबा भावे, रफीक अहमद किदवई जिनकी ईमानदारी के बारे में कहा जाता है कि मरने के बाद उनकी बेबा के पास कफन तक के पैसे नहीं थे-कितने भिन्न थे ये आज के मंत्रियों से! लाल बहादुर शास्त्री दूसरा नाम दिमाग में आता है ईमानदारी और निष्ठा के संदर्भ में। ये वे सपूत थे जिनका योगदान आजाद भारत के निर्माण में अमर रहेगा। तिनका-तिनका संवारा है इन्होंने देश को अपने-अपने तरीके से। जननी भारत माता के शहीद और कर्मठ वीर सपूतों की फहरिश्त लम्बी है… वीर जो आज भी त्याग और हिम्मत के प्रतीक बने हमारे साथ हैं, प्रेरणा देते हैं। जिन्होंने अपने रक्त की आखिरी बूंद, आखिरी सांस तक देश के ही बारे में सोचा। ये देशप्रेमी इतिहास के पन्नों पर ही नहीं, देशवाशियों के हृदयपटल पर भी अँकित हैं आज भी।
सगर्व व ससम्मान प्रस्तुत हैं एक ऐसे एक वीर के मर्मस्पर्शी अंतिम उद्गार, जो हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया था। 23 वर्ष के इस युवा ने मानो देश को ही अपनी प्रेमिका मान लिया था और कभी लिखा था कि प्यार सोचना भी चाहूँ तो देश प्रेम ही लिख जाऊँ। भावभीनी पलकों के साथ याद कर रहे हैं हम देश के उस अमर सपूत को, जिसने हंसते-हंसते अपना सर्वस्व वार दिया ताकि देश की आने वाली पीढ़ियां खुली हवा में सांस ले सकें।
विपरीत और कठिन परिस्थितियों में भी देशप्रेम से ओत-प्रोत मन में चल रहे निरंतर के मन्थन और संघर्ष से उत्पन्न, सरल परन्तु नवनीत से सारगर्भित भगत सिंह के यही अंतिम शब्द थे , मात्र एक कथन नहीं, निश्चय ही प्रेरणा और आत्मविश्वास से भरे… संबल भी रहे होंगे उनके … और देश के लिए आंसू पोंछने को दृढ़ संदेश।
सेंट्रल जेल लाहौर से अपने भाई कुलवंत सिंह को भगत सिंह द्वारा जीवन के अंतिम पत्र में लिखी गई निम्नांकित कविता पत्र सहित बाद में—1अप्रैल 1931 को अभ्युदय में प्रकाशित हुई थी। अडिग उस सेनानी के सांत्वना भरे ये शब्द अपने निराश भाई के लिए लिखे गए थे, परन्तु हताश् नहीं, वरन् जीने और जीतने का वचन मांगते ;
भाई कुलवंत सिंह,
आज तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर बहुत रंज हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। तुम्हारे आंसू मुझसे बर्दाश्त नहीं हुए। प्यारे भाई हिम्मत से तालीम हासिल करते जाना और सेहत का ख्याल रखना। और क्या लिखूं? हौसला रखना, सुनो…
आओ मुकाबला करें
उसे यह फिक्र है कि हर दम नई तर्जे जफा क्या है
हमें यह शौक है कि देखें सितम की इंतेहां क्या है
दहर से क्यों खफा रहें चखे का क्यों गिला करें
सारा जहां अदू सही आओ मुकाबला करें
कोई दम का मेहमान हूं अहले महफिल
चिरागे सेहर हूं बुझा चाहता हूं
आवोहवा में रहेगी ख्याल की बिजली
ये मुश्ते खाक है फानी रहे न रहे
अच्छा खुश रहो अहले वतन
हम तो सफर करते हैं।
आनंद से रहना तुम्हारा भाई भगत सिंह
***
दो कविताएँ चन्द्रशेखर आजाद की जुबानी –
वही शाहे शहीदां है…
वही शाहे शहीदां है, वही है रौनके आलम
वतन पर दे के जां जो जंग के मैदां में सोता है
उसी का नाम रोशन है उसी का नाम बाकी है
कि जिसकी मौत पर दुनिया का हर इंसा रोता है
जरा बेदार हो अब ख्वाबे गफलत से जवानो तुम
कि जिसमें जोरे बाजू है, वही ‘आजाद’ होता है
यही दुनिया से अब इस सूरमा की रूह कहती है
गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है।
वतन के वास्ते
हम दिखाएंगे तुम्हें वह कुब्बते फरियाद की
बैसदा होगी नहीं जंजीर है ‘ आजाद ‘ की
कौन कहता है कि मेरा रावगां खूं जाएगा
मरनेवालों जब एक दुनिया नई आबाद की
किस तरह से जान देते हैं वतन के वास्ते
फकत दुनिया में तुम्हें थे यह बताने आये हम
खुश रहो अहले वतन चलते हैं—वंदेमातरम्।
( प्रतिबिंब आत्मकथाः चंद्रशेखर आजाद की जीवनी; बलदेव प्रसाद शर्मा, बनारस 1931)
देशप्रेम की कहानियां शौर्य और ओज से भरी होती हैं। हम अपने इतिहास के पन्नों से ऐसी वीर मां को भी याद करेंगे जिसके त्याग और बलिदान की करुण कहानी आजतक बेमिसाल है, अन्तस भिगो देती है।
चित्तौड़ के महाराज संग्राम सिंह बाबर के हमलों से देश को बचाते हुए वीरगति को प्राप्त कर चुके थे और उनके भाई युवराज उदय की हत्या करके राजसिंहासन को हड़पना चाहते थे परन्तु उनकी धाई पन्नादेवी तो ऐसी क्षत्राणी थी जो कर्तव्य और देशप्रेम की खातिर अपना सर्वस्व न्योछावर करने की हिम्मत रखती थीं। नंगी तलवार लिए जब दुष्ट बनवीर के सिपाहियों को आते देखा उन्होंने, तो बुद्धिमती और हिम्मती पन्ना को उसके काले इरादे भांपते देर न लगी। तुरंत ही उसने अपने हमउम्र सोते बेटे को राजकुमार के कपड़े और जेवर पहनाकर राजकुमार के बिस्तर में लिटा दिया और अपने बेटे के कपड़े पहनाकर माली के साथ राजकुमार उदय को वहां से दूर सुरक्षित स्थान पर पहुंचवा दिया, यह जानते हुए भी कि उसके पुत्र की उसकी आंखों के आगे अगले कुछ ही पलों में हत्या कर दी जाएगी और बचाना तो दूर, वह एक छोटी-सी सिसकी तक नहीं ले पाएगी।
पाषाणवत् उसने बहुत धैर्य और शौर्य के साथ कर्तव्य पर अपने पुत्र की बलि दे दी थी।
इस तरह से राजकुमार उदय को पन्ना धाई ने अपना सबकुछ कुर्बान करके बचा लिया था और मेवाड़ की साख को भी।
राजकुमार उदय बड़े होकर न सिर्फ एक वीर योद्धा हुए, उन्होंने चाचा से अपना खोया राजपाट वापिस लिया और मेवाड़ की शान को अपनी सूझबूझ और शौर्य से दुगना चौगुना किया। यही नहीं, खूबसूरत शहर उदयपुर को बसाकर पूरे देश को एक नायाब तोहफा दिया।
शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com
सर्वाधिकार सुरक्षित (Copyrights reserved)