घुटन
उसकी अगली उड़ान अकेली थी और पार जाने का रास्ता भी पूरी तरह से अनजान, डरावना और अंधेरा। अकेले ही तय करना था पर उसे अब आगे का सफर । सभी साथ छोड़ चुके थे और उसके जिन्दा रहने की उम्मीद भी।
डॉक्टरों का कहना था कि लाइलाज हो चुकी है बीमारी। कुछ और नहीं किया जा सकता अब और उसके लिए। पूरे मनोबल से मान लिया था उसने भी उनका यह फैसला। दवा-दारू, खाना-पीना सब बन्द था अब उसका। सिर्फ पानी दे रहे थे भूख-प्यास दोनों पर ही। अब बस इन्तजार करना था उसे उस काले अँधेरे का जिसमें सारे दुःख-दर्द, भूख-प्यास सब मिट जाते हैं।
डॉक्टर आते और बेबस मुस्कान के साथ आगे निकल जाते। पत्नी कभी हाथ सहलाती, तो कभी भीगी आँखें पोंछती। डॉक्टर और परिचारिकाओं के लिए दवा-दारू या किसी अन्य तालिका की जगह सिर्फ तीन शब्द लिखे हुए थे बड़े-बड़े और मोटे अक्षरों में-‘ डी. एन. आर.’ अर्थात ‘ डू नौट रिसैसिटेट। ‘ यानी धड़कनें बन्द हों तो, जिन्दा करने की कोशिश नहीं।
सभी की पूरी सहमति थी उसकी इस अश्यंभावी और प्रतिक्षित मौत में…उनकी भी जो उसेके अपने थे और उसे बहुत प्यार करते थे।…. जाने कितने दिन लगें पर इस शरीर को घुलने में, नहीं जानता था वह।
भरी आँखों से एक घुटन के साथ इंतजार कर रहे थे सभी और वह खुद भी।….
अकेली
पुल से कूदी तो वह आत्महत्या के इरादे से ही थी, पर पास ही गश्त लगाते एम्बुलेंस हैलीकौप्टर द्वारा तुरंत ही देश के सबसे अच्छे अस्पताल में पहुँचा दी गई। चेहरा पूरी तरह से कुचला हुआ और शरीर की 14 हड्डियाँ टूटीं हुई। मौत से भी बदतर जिन्दगी मिल चुकी थी उसे, बस सांसें चलती हुई। मानसिक वेदना के साथ-साथ असह्य शारीरिक दर्द भी।बेहद दर्दभरी जिन्दगी थी अब उसकी। दर्द की दवा दिन में चार बार खिला दी जाती, जिसके सहारे बर्दाश्त कर पा रही थी वह चोट को। पूरा साल लगा ठीक होने में। तैंतीस औपरेशन के बाद नया सुंदर चेहरा मिल गया था उसे।
डॉक्टर खुश थे अपनी इस उपलब्धि पर, पर वह नहीं।
अस्पताल से छुट्टी मिलते ही, फिर वही अकेली और उपेक्षित जिन्दगी थी। साल भर जिन्दा रह पाई, क्योंकि वार्ड में लोगों के बीच में थी, अकेली नहीं। सच में देखा जाए तो किसी ने कोई मदद नहीं की थी उसकी। बस अपना फर्ज निभाया था। डॉक्टर और नर्स होने का फर्ज। एक मरीज थी बस उनके लिए वह।
उसके लिए तो वापस सब कुछ वैसा ही था जिससे घबराकर वह मरने के लिए कूदी थी । घर अकेला और उदास, और पैसों की तंगी भी वैसी ही। साथी नहीं, परिवार नहीं, नौकरी नहीं, अपना कहने को कुछ भी तो नहीं था उसके पास।
एक बार फिर इस त्रासदी भरे जीवन से छुटकारा पाने के लिए मौत के पक्ष में ही फैसला लिया उसने। और सफल भी हुई, दर्द के लिए दी गई महीने भर की गोलियाँ चार दिन बाद ही सारी-कि सारी एक साथ ही निगल कर।…
पान-फूल
दो दिन की लगातार और लम्बी यात्रा के बाद जैसे ही पति के साथ घर में घुसी, तो श्वसुर जी का हृदयविदारक आर्त स्वर हिला गया कावेरी को।
‘ मेरा राज-दुलारा आएगा और मुझे साथ ले जाएगा । देखना यहाँ सड़ने को नहीं छोड़ेगा तुम लोगों के पास। मेरा राम आता ही होगा लौटकर। ‘
भाव विह्वल कावेरी ने पैर छुए और फिर बहते आँसू पोंछती हुई बोली- ‘ हाँ, पापा आप अब हमारे साथ ही चलेंगे। वहीं रहेंगे। आपको लेने ही तो हम आए हैं।‘
तभी तीर सी जिठानी आईं और हाथ खींचकर साथ वाले कमरे में ले गईं उसे। कमरे का दरवाजा अंदर से बन्द करती हुई तैश में बोलीं- ‘ वाह जी वाह! हाड़-मांस पूरी जिन्दगी हमने खटाए और अब मेवा खाने का वक्त आया तो पान-फूल खिलाकर तुम सब हड़पना चाहती हो ? कान खोलकर सुन लो, मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूँगी !’
विलाप
गुसलखाने में साबुन की टिकिया पर पैर फिसला तो दीवार से सिर जा टकराया।
सत्तर वर्षीय अम्मा सहायता मांगती, इसके पहले हीं बेहोश थीं। पांच-दस मिनट बाद जब होश आया तो अपने ही खून में सनी उठने तक से मजबूर। न दाहिना हाथ हिल रहा था और ना ही दाहिना पैर। भय में घिग्घी बंध गई और दहाड़ मारकर रो पड़ीं।
बेटा दौड़ा-दौड़ा आया और कैसे भी दरवाजे की कुंडी तोड़ता, तुरंत ही गोदी में माँ को उठाकर अस्पताल ले गया।
चोट पर मरहम-पट्टी के बाद डॉक्टरों ने बताया कि शरीर के दाहिने हिस्से पर लकवे का असर है। सेवा-सुश्रुषा करनी पड़ेगी, तन की भी और मन की भी। दो बार मालिश, पौष्टिक और संतुलित आहार और ढेर सारा प्यार व परवाह। महीनों लग सकते हैं ठीक होने में। फिर भी पूरी ठीक होंगी भी या नहीं, कुछ भी नहीं कहा जा सकता!
घर ले आया माँ को । कभी सोई माँ के आँसू पोंछता तो कभी बाल सहलाता और खुद को ही अधिक तसल्ली देता-सा माँ से कहता- ‘ परेशान मत हो माँ। आप जल्दी ही ठीक हो जाओगी। हर बीमारी की नई-नई और अच्छी-अच्छी दवाइयाँ निकल रही हैं। मैं कुछ नहीं होने दूंगा आपको। ‘
हफ्ते भर माँ की जी-तोड़ सेवा की फिर काम पर जाने से पहले, पत्नी को माँ को सौंपते हुए हाथ जोड़कर बिनती की कि पूरा ध्यान रखे माँ का। कोई तकलीफ न होने दे। साथ में एक दाई भी रख दी ताकि पत्नी पर काम का अतिरिक्त बोझ ना पड़े।
पंद्रह दिन तक की बिस्तर पर पड़े-पड़े ही सास की सारी सेवा के बावजूद भी जब कोई सुधार न दिखा तो बहू चिड़चिड़ी होने लगी। माथे में बल पड़ने लगे। अब वह उनकी पुकारों को अनसुना करने लगी थी- ‘ जाने कब तक चले यह बुढ़िया, मेरी जिन्दगी यूँ टहल बाजी में गुजारने को ही तो नहीं बनी! जाने कब तक की और कितनी लम्बी तीमारदारी है यह तो? ’
कमरे की किवाड़ लुढ़काकर अड़ोस-पड़ोस में जाकर बैठना शुरु कर दिया था अब उसने। खाने-पीने और दवा-दारू में भी देर होने लगी थी। बेबस बीमार सास चुपचाप सब बर्दाश्त करती। न बेटे से कुछ कहा और ना ही बहू पर ही अधिक बोझ बनना चाहती थी, इसलिए भूखी-प्यासी ही पड़ी रहती। शरीर घुलने लगा और धीरे-धीरे भूख तो खुद ही मर गई। पर उसकी मौत ही नही आ रही थी।
उस रात जब धुला तकिया माँगा, तो तकिया तो आया पर सिराहने लगाने की बजाय, सास के मुँह पर रखकर खुद तकिए पर बैठ गई बहू। दस पंद्रह मिनट तक बैठी ही रही, जबतक तड़प और सांसें सब बन्द न हो गईं। चन्द मिनट तो कमजोर शरीर बेचैनी में फड़फड़ाया था फिर सब शान्त हो गया था।
मौत के उस सन्नाटे को चीरती बहू उठी और दरवाजा लुढ़का कर चुपचाप अपने कमरे में आ कर लेट गई ।
पौ फटते ही पूरे घर में बहू का तेज विलाप था –‘ अजी देखो, अम्मा जी तो सोती ही रह गईं आज। देवता थीं, जो ऐसी शान्त मौत मिली इन्हे। हाय-हाय अम्मा जी, पर ऐसी भी क्या जल्दी थी हमें यूँ छोड़कर जाने की, कम-से-कम पोते की शादी तो देख ही जाती!’….
जिन्दों में पड़ गई….
खड़ी नहीं हो पाती थी राखी। पैर पैदा होते वक्त ही टेढ़े हो गए थे। कहते हैं दिमाग पर भी चोट आई थी। 16 वर्ष की आयु में भी चार साल की बच्ची जैसी ही समझ थी उसकी। फिर भी माँ जो कहती, हर बात समझती और मानती। घर के सारे काम करती। चौका बरतन से लेकर खाना बनाना , कपड़े धोना, सब काम बैठी-बैठी ही निपटा लेती।
उस दिन गैस का सिलेंडर खुला रह गया तो पूरे चौके में जहरीली गैस भर गई। दूर आँगन में बैठकर बड़ी बहन के साथ बतियाती माँ को पता तक नहीं चला। पर जब घंटों प्रतीक्षा के बाद भी खाना खाने के लिए चौके से आवाज नहीं आई तो दिल धड़का और चौके की तरफ दौड़ी माँ ।
सामने बेटी का मृत शरीर था। सदमा जरूर हुआ पर बेटी की मौत पर एक आँसू नहीं था माँ की आँखों में। बस यही निकला मुँह से- मरी नहीं, जिन्दों में पड़ गई यह तो!…
शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
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