हास्य-व्यंग्य-हिन्दी मैया-शैल अग्रवाल/ लेखनी-अगस्त-सितंबर 2015

 

हिन्दी मैयाः एक परी पुराण  (शुद्ध विलायती हिन्दी में)

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सुनते हैं सर-मुँडे पंडितजी और पर-कटी परी ने शादी कर ली – आप पूछेंगे कि आख़िर इसमें नई बात क्या है – ऐसी शादियाँ तो यहाँ विलायत में रोज़ ही होती हैं, सिवाय इसके कि परी पर-कटी कैसे और पंडितजी सर-मुँडे क्यों? सो बात असल में यह है कि जब पंडितजी के पिता दीनदयाल जी का परलोक गमन हुआ तो सर तो मुँडवाना ही था, भले ही वे बरसों से यहाँ विदेश में ही रह रहे थे।

पर पड़ौसन को चैन कहाँ – (आख़िर पड़ौसिनें तो सब एकसी ही होती हैं ना, चाहे वह अपने देश की हों या विदेश की) झटपट आटे से सने हाथ पोंछ, सर-मुँडे पंडितजी को घर बुलवा लिया और सर से पैर तक दुखी पंडित जी को देखकर बोलीं, ‘रघुबीर पुतर ये क्या सूरत बना ली है तूने – कौन इतना सोख मनाता है औ़र फिर प्यो को गए तो हफ़्तों बीत गए। लगता है  त्वाडा हेयर-ड्रेसर भी यूजलेस है , चारो तरफ़ बाल छुटे दिखते हैं। बिल्कुल ही गेटअप नहीं बनता। अच्छी बात नहीं है यह। ये मुए बाल नहीं, टेलिविजन का एरियल होते हैं। इन्हीं के थ्रु तो प्यो रोज़-रोज़ पुतर नाल आ जाता है।

असमंजस में सिर पे हाथ फेरते पंडित जी को यह बात तो बिल्कुल ही समझ में नहीं आई कि आख़िर उनका बापू स्वर्ग जा कर विडियो-फ़िल्म की रील कैसे बन गया? चुपचाप समझदार पड़ौसन की बात सुनते-समझते खड़े-खड़े मन ही मन बार-बार गुनते-बुनते ही रह गए। पड़ोसन भी तो बिना रुके धारा-प्रवाह बोले जा रही थी ‘बाप के मरने पर इसी वजह से तो बाल मुँडवाए जाते हैं। पर तुम वरी मत करना मैन, सब ठीक हो जावेगा। तुसी नलके से ज़रा कोल्ड वाटर ला दो, अ़सी फ्लावर बनाने जा रहे हैं औ़र हाँ आज शामको तुसी डिनर-शिनर यहीं करना साडे नाल।’ असल में पंडित जी इतनी ज़रा-सी बात पर इतने उदास हो जाएँगे यह तो उसने सोचा ही नहीं था। गुमसुम पंडित जी चुपचाप पानी का गिलास पकड़ाकर घर लौट आए। आप सोच रहे होंगे कि ठंडे पानी से इंसटैंट ‘फूल’ कैसे बनाए जा सकते हैं तो अब सोचना बंद कीजिए यह विलायत है, यहाँ सब संभव है।

पंडित जी को याद आया कि शायद बचपन में भी यह बाल और एरियल वाली बात उन्होंने किसी और से भी सुनी थी। सारी पोज़ीशन क्रिस्टल-क्लीयर थी। बस आगे और क्या करना है य़ही सोचना बाकी रह गया था। फिकर में बिचारे खाना-पीना सबकुछ भूल गए… भ़ूख प्यास औल लौस्ट एंड फौरगौटेन। कहीं मन उनसे ही जुड़ा रह गया तो बेचारे बापू भारत कैसे पहुँच पाएँगे? ऐसी सिचुएशन में तो मरकर भी यहीं ट्रैप रह जाएँगे? रघुवीर सहाय को मालूम था कि बापू पिछले आठ-दस साल से ही देश वापस जाना चाहते थे बस खर्चे की वजह से नहीं जा पा रहे थे। चलो, अब कम-से-कम यह टिकट वगैरह का चक्कर तो नहीं रहा, पंडित जी ने ठंडी आह भरकर पुनः सोचा।

हमारे कर्मकांडी, पितृभक्त पंडित जी घोर दुविधा में थे अब।

रघुवीर सहाय जी आख़िर पिता का दुख कैसे सह पाते – बात दरअसल यह थी कि बापू की आत्मा न भटके इसलिए सब काम उत्तम से उत्तम करना ज़रूरी था और जोश में बिचारे उस्तरे की जगह हेयर रिमूविंग क्रीम का पूरा-का-पूरा ट्यूब ही सरपर लगा बैठे थे। फिर तो देखते-देखते सर की उपजाऊ ज़मीन ऐसी बंजर हुई कि पिता की कौन कहे अपने कंघे तक से कौनटेक्ट नहीं कर पाए वे। एक बाल तक नहीं उपजा और पंडित जी तरह-तरह के पूजा-पाठ, जप-तप में लगे रहते, द़िन-रात दुआ माँगते बालों की सेहत की। बेचारों ने कई सम्मेलन तक आयोजित कर डाले इस विषय पर। बड़े-बड़े विद्वान आए – क्या नेता क्या मिनिस्टर, पर कोई पंडित जी को ढाढस नहीं दे पाया। एक दिन ऐसी ही मनोदशा में पंडितजी जब आँखों में आँसू भरकर आकाश तक रहे थे ‘काहे भगवन काहे, हमरे साथ ही अईसन अन्याय काहे-कम-से-कम हमरी ई बिलायती पोजीसन का ध्यान तो रखना ही चाहिए था आपको? ‘  असल में हमारे पंडितजी भारत में भोलेबाबा की नगरी से थे और जब भी प्रभु से डायरेक्ट लाइन पर बात करते थे तो मादरी जुबाँ ही बोलते थे, इस उम्मीद में कि शायद प्रभु को उनकी बात जल्दी समझ में आ जाए। या फिर लोकल कनेक्शन का तगड़ा और अच्छा असर पड़े दो-तीन बार एक्सप्लेन करने की ज़रूरत ना ही पड़े।

उनकी दुखभरी याचना का ठाकुर जी ने तो कोई जवाब नहीं दिया, हाँ ठीक उसी समय वह मनचली परी, जो सैर करने निकली थी एक चमकदार तारे में उलझकर गिर पड़ी,  धड़ाम से वहीं,  अपने पंडितजी के चमकते विलायती आकाश में। वैसे गिरी सो तो कोई बात नहीं थी, पर बिचारी अध-कटे हसुली जैसे चंद्रमा पर जा अटकी और पंडित जी ने आकाश में यह दृश्य देखा तो उन्हें बड़ा ही दुख हुआ। ऐसा अनर्थ तो फायरब्रिगेड वालों के साथ भी नहीं होता कितना-कितना ऊपर चढ़ जाते हैं लोग तो। पंडित जी आश्चर्य से अभिभूत भी थे और दुखी भी। बड़ी दया आ रही थी उन्हें इस सुंदर असहाय दिव्य-बाला पर। झटपट अंदर गए और किताब में छुपाई बापू की लंबी चुटिया उठा लाए। असल में उन्हें पड़ौसन की एरियल वाली बात भूली नहीं थीं – शायद बापू का यह एरियल ही दिमाग़ के दूरदर्शन में कोई नया सुझाव भेज सके, आकाश में पहुँचने का रास्ता बता सके और वह इस दुर्घटना-ग्रस्त सुंदरी की कुछ मदद कर पाएँ?

वैसे तो उन्हें स्पेस-मिशन के बारे में भी सबकुछ पता था – आख़िर वह रोज़ टेलिविजन पर पूरी ख़बर सुनते थे और ‘ टुमौरोज़ वर्ड’ प्रोग्राम भी ठीक से ही देखते थे – वह भी हर हफ़्ते। अब आप से क्या छुपाएँ असली बात  तो यह थी कि अपने रघुवर सहाय जी जानते थे कि न तो उनके पास इतनी हिम्मत ही थी कि रॉकेट में बैठकर ब्लास्ट हो पाएँ और ना इतनी धन-माया कि स्पेश-शटल की टिकट ख़रीदकर परी तक झटपट पहुँच जाएँ। कोई वॉएबल प्लान ही सोचना पड़ेगा ज़ान गँवाकर जान बचाना भला कहाँ की समझदारी है?

‘  जान है तो जहान है’ अपनी समझदारी पर पंडित जी ने शानसे गरदन झटक दी। घड़े के ऊपर चुटिया प्रतिष्ठित किए बैठे पंडित जी परिवारवालों और मित्रों के साथ, पूरे तीन दिन तक अखंड जाप करते रहे पर कोई भी नया सुझाव सर की बंजर ज़मीन पर नहीं उपजा। उन्होंने तो परी-उत्थान के लिए चंदा तक जमा करना शुरू किया पर चौथे दिन जब अमावस की काली रात आनेवाली थी और चंद्रमाँ अपने आप सिकुड़कर छुटिया गया, तो वह आकाश में अटकी परी खुद-ब-खुद, सीधी उनके घड़े पर आ गिरी, वह भी धड़ाम से। मानो भगवान के यहाँ से सीधा प्रसाद आया हो। दरअसल घड़ा भी तो ठीक चंदा के नीचे ही रखा था और आकाश में अब परीके लटके रहने का भी कोई जुगाड़ नहीं बचा। परी बिचारी के तो दोनों पर ही इस दुर्घटना में टूट गए। अब उनके सहारे उड़ना बिल्कुल ही असंभव था। यहाँ तक कि वह तो अब अपना रास्ता भी ठीक से मैन्यूवर नहीं कर सकती थीं। उड़ना तो दूर ऐसी हालत में अगर वह यहाँ का ड्राइविंग टेस्ट तक लेती तो भी निश्चित ही, पंडित जी से भी ज़्यादा बार फेल हो जाती।

इस गिरने-टूटने के चक्कर में बिचारा चंद्रमाँ तो पूरा-का-पूरा ही मिट चुका था। जहाँ परी लटकी थी वहाँ परमनेंट दाग पड़ गया सो अलग। गोरा सुंदर मुँह ख़ामखाँ बिगड़ गया। जी हाँ, वही आपका चरखा बुनती बुढ़िया की कहानी वाला दाग़। वैसे आपको शायद मालूम नहीं कि यह कहानी भी चंदा की माँ ने बेटे की इज़्ज़त बचाने के लिए उसी समय गढ़ी थी। अब आपको बचपन से बुद्धू बनने की आदत है तो इसमें बिचारी चंदा की माँ या परी का क्या दोष? चलें कहाँ यह अकल की बात ले बैठे हम भी – हमलोग तो अपने पंडित जी की विपदा की बात कर रहे थे। एक तो बेचारे दुखी, ऊपर से कीमती घड़ा टूटा सो अलग। वैसे भी यहाँ मिट्टी का घड़ा भी बीस पच्चीस पौंड से कम का नहीं आता। बिचारे पंडित जी अब समझ नहीं पा रहे थे कि पहले टूटे घड़े का भुगतान इंश्योरेंस से क्लेम करें या इस पैर टूटी पर-कटीं परी की सहायता? वैसे भी अब तो कोई इससे शादी नहीं करेगा कभी? कहाँ बिठाएँ – कहाँ रखें? और सहृदय पंडित जी ने तुरंत ही अपनी आहुति दे डाली। यही सबसे सस्ता और टिकाऊ उपाय था अब उनके पास। मृत पिता की इच्छा व आज्ञा मानकर उस परकटी परी से शादी कर ली उन्होंने तुरंत, वहीं उसी समय। आख़िर जजमान, मेहमान सभी तो हाज़िर हैं क़ौतुक में आई भीड़ को देखकर पंडित जी ने सोचा। वैसे भी उन्होंने ही तो बुलाया था इसे यहाँ इस धरती पर और इस बिचारी का है ही कौन उनके सिवा यहाँ पर? और फिर पिता जी ने ही तो भेजा है इसे। अब बापकी आज्ञा मानने का भी तो कोई फर्ज़ बनता है उनका!

पंडित जी को अब बालों की अलौकिक महिमा पर पूरा और अटल विश्वास हो चला था। वह उनकी महत्ता को अच्छी तरह से जान गए थे। शीशे के आगे उदास खड़े अपनी सपाट खोपड़ी पर हाथ घुमाते हमने भी कई बार देखा है उन्हें। आख़िर हरक्यूलिस भी ऐसे ही तो कोई यूँ बड़े-बड़े बाल नहीं रखता था और फिर हमारे यहाँ, वहाँ भारत में भी तो बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी, सर की कौन कहें दाढ़ी-मूँछ तक के बाल भी नहीं कटवाते। ऋषि-मुनियों की तस्वीरें पंडित जी ने ही क्या आपने भी देख ही रखी होंगी? और हमारे पंडित जी ने उसी पल निश्चय ले लिया कि अगर सर पर बाल नहीं तो क्या मुँह पर तो रख ही सकते हैं। कसम खाई कि अब एक भी बाल नहीं कटवाएँगे भले ही खीर वगैरह खाने में कितनी ही दिक्कत क्यों न हो? सृष्टि के सारे रहस्य धीरे-धीरे पंडित जी की समझ में आ रहे थे। अक्सर ही अकेले-अकेले वह पश्चाताप करते, आख़िर क्यों बापू की यह चुटिया सँभालकर रखी? वैसे भी तो परी से शादी करना कोई मज़ाक की बात नहीं, वह भी एक परकटी परी से तो, कतई ही नहीं! सुना हैं लोगों के ऊपर सर मुँडाते ही ओले पड़ते हैं, यहाँ पंडित जी के ऊपर तो पूरी-की-पूरी परी ही आ गिरी थी।

जब भी परी का मन घूमने को करता वह अपने लिए वर्ड-ट्रिप बुक करा आती। अब बिचारी के पास पंख तो थे नहीं जो कहीं भी आ-जा पाए, जैसे-तैसे हवाई-जहाज़ वगैरह से ही अपना काम चला रही थी वह। और आप खुद ही सोचिए स्वर्ग और आकाश चारों तरफ़ घूमने वाली, भला एक-दो देश से कैसे संतुष्ट हो पाती? वह भूल जाती कि उसे कोई इनस्टीटयूशन या गवर्नमेंट स्पौंसर नहीं कर रही थी किसी विश्व-सम्मेलन में जाने के लिए और बिचारे पंडित जी के पास तो बस बहुत ही लिमिटेड रिसोर्सेज थे। जल्दी ही पंडितजी के बारह बज गए। उनकी पूरी दान दक्षिणा, सीधा-भाजी सब परी की सेवा में ही अर्पण होने लगे। अपने खाने-पीने की कौन कहे अब तो ठाकुर जी के भोग तक के लाले पड़ गए और मंदिर में श्रद्धालु भक्तों की रोज़-रोज़ की खुसर-पुसर अलग से सुनाई देने लगी।

पंडितजी अपनी यह झटपट शादी अब रिग्रेट कर रहे थे। गनीमत थी कि उनके ठाकुर जी का मंदिर यहाँ फॉरेन में था कैसे भी काम चल ही जा रहा था। गुज़र-बसर हो ही जाती थी। वरना तो जान पर ही आ बनती। पंडित जी अब दिन-रात परी से जान छुड़ाने का कोई विनम्र और सभ्य तरीका ढूँढ़ने लगे। उन्हें याद आया कि उनकी परी का जी जब भी खुला आकाश देखने को करता है वह उनके बगीचे में सबसे ऊँचे पेड़ पर जा बैठती है और फिर घंटों आकाश को एक टक घूरती रहती है। अगली बार जैसे ही परी हवाई-जहाज़ पर लंबी घुमाई के लिए गई, पंडित जी दौड़कर वुलवर्थ से एक दर्जन क्विक-फिक्स ग्लू ख़रीद लाए और पूरी कि पूरी गोंद, परी के उस प्रिय पेड़ की सबसे ऊँची फुनगी पर चिपका दी।

पंडित जी के षडयंत्र से अनभिज्ञ परी जब अपने प्रिय पेड़ पर चढ़ी तो बस वहीं-की-वहीं ही बैठी रह गई। अब तो उसके उतरने की भी कोई गुँजाइश नहीं गिरकर भी नहीं इ़ंग्लैंड के इस विंडी, आँधी-पानी के मौसम में भी नहीं। क्योंकि पेड़ों के साथ तो पूर्णिमा या अमावस का कोई चक्कर ही नहीं होता। और परी को वही हवा में लटकी छोड़, पंडित जी चल पड़े देश से अपनी मैया को लिवाने। पहले जब बापू के बुलाने पर मैया आ रही थीं तो माई ने सोचा था कि चलो चलते-चलते आख़िरी बार गंगा ही नहा ली जाए, पर गंगा जी तो उन्हें देखते ही लगीं बुक्का फाड़कर रोने। बोलीं पूरे देशपर मलेच्छों की छाया पड़ चुकी है। तुम भी चली गई तो हमारी बात कौन सुने-समझेगा? हम किसके मन में अपनी परछाई तक देख पाएँगे अ़पने दुख-दर्द बाँट पाएँगे?

गंगा जी का विलाप सुनकर हिंदी-मैया का मन ऐसा दुखा कि आजतक बस वही गंगा किनारे ही छपिया तानकर रह रही हैं। सुनते हैं जब बहुत उदास हो जाती है तो वही गंगा किनारे-किनारे ही टहलती रहती हैं घाट-घाट भटकती रहती हैं। विदेश की कौन कहे अब तो उनके पाँव आस-पास के शहरों की तरफ़ भी नहीं उठ पाते। दिल्ली, कलकत्ता भी सपने जैसी बात है। हाँ, बस आसपास के कस्बे, गाँव और हाट-बाज़ारों में ही दिखाई-सुनाई दे जाती हैं चलते-फिरते।

ज्ञानी-विद्वान सब परेशान हैं इनकी लाचार हालत पर। ऐसे तो मिट जाएँगी यह। उत्थान-प्रयास में लगे रहते हैं सब लोग। दिन-रात कहते फिरते हैं कि वी मस्ट डू समथिंग अबाऊट थिस। रोज़ बड़े-बड़े रिजोल्यूशन पास करते हैं। यहीं नहीं विमान पकड़कर विदेश तक जा पहुँचे हैं अब तो, क्या इंग्लैंड और क्या त्रिनिदाद, फिजी और सूरिनाम। आख़िर हिंदी मैया की बात हैं हिंदी की बिंदी की बात है? चार दिन तक सबने मिल-बैठकर यहाँ इंग्लैंड में भी यही समझा और समझाया था। हमने भी देखा-सुना था। सब लोग बार-बार सदमें में यही बात दोहरा रहे थे कि हिंदी मैया घाट किनारे बहुत ही बुरे हाल में हैं। उसे भी नहीं तो, यहाँ अब अपने पास विदेश में ही बुला लो।”

सारी कहानी सुनकर आप आख़िर में यह मत पूछ बैठिएगा कि हिंदी मैया कैसी हैं और उनके सपूत ई पंडित जी आखिर कवन हैं,  कहाँ से आए हैं,  कहाँ पर रहते हैं  अउर उनका नाम पता क्या है वगैरह-वगैरह?  इतना तो अब आपको भी मानना ही पड़ेगा कि यह तो वही बात हो जाएगी कि सारी रामायण ख़त्म, और हम पूछें ‘ सीता केकर बापू रहिलें?’

हमारी राय में तो यही नहीं,  अब तो आपको यह भी मालूम हो जाना चाहिए कि क्रिसमस-ट्री पर परी पहुँची तो कैसे पहुँची और वास्तव में यह प्रथा किसने, कब, कहाँ और  कैसे  शुरू की थी !…

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