अपनी बात/ लेखनी-जुलाई-अगस्त 18

कोई शांति को काम में पाता है तो कोई आराम में। किसी की शांति पैसा है, तो किसी की शोहरत। किसी को अन्याय के खिलाफ लड़ाई में मिलती है तो किसी को प्रिय के सानिध्य से। कोई अपने परिवार और बच्चों में ही लिप्त रहकर मस्त है तो कोई मित्रमंडली के साथ फाकामस्ती और घुमक्कड़ी में। सबके अपने-अपने अनुभव और मानदंड हैं शांति को लेकर। आज के इस समाज में शांति का संबंध मानस की थिरता से अधिक न होकर. संतोष और आनंद से जुड़ा अधिक जान पड़ता है। वो आदम काल की बातें थीं, जब घर-गृहस्थी छोड़, ऋषि मुनि पहाणों की चोटी पर, तो कभी गहन कंदराओं में जा छुपते थे, वन-वन भटकते थे शांति की तलाश में। अब तो एक पांइंट बीयर के साथ पब में बैठकर भी लोग इस रुहानी सुकून को पा लेते हैं।

व्यस्त दिनचर्या से चन्द पल चुराकर, कभी पर्यटन के बहाने, तो कभी मनोरंजन के बहाने इसी शांति को ही तो ढूँढ रहे होते हैं हम। भूल जाते हैं कि शांति सब कुछ हो सकती है, परन्तु यंत्रवत् जीवन शैली से भागकर महज उत्तेजना तो हरगिज ही नहीं। उत्तेजना भुलाती है परन्तु संभालती नहीं। नशा उतरते ही सबकुछ वापस वैसा ही महसूस होगा, जिससे भागे थे। तो क्या शांति की तलाश जिन्दगी की एकरसता से छुटकारे की तलाश से भी जुड़ी है। शायद हाँ, अगर तनाव और ग्रंथियों से मुक्ति मिलती है। हर व्यक्ति को यदि उसकी रुचि अनुसार जीवन शैली , संवेदनशील, समझदार परिवार व आरामदेह वातावरण मिले तो अशांति का, मानसिक ग्रन्थियों का सवाल ही नहीं उठता। पर एक ही जनम में इतना सब जुटापाना इतना आसान नहीं, चांद और मंगल पर पहुँचकर भी नहीं।

आज बच्चे-बच्चे को स्वस्थ जीवन शैली और शांति का महत्व तो समझाया जाता है, परन्तु उनका साथ देने का, वक्त नहीं अभिभावकों के पास। बड़ों की महत्वाकांक्षा में फंसकर बचपन से ही उनका जीवन भी बेहद व्यस्त और यांत्रिक ही हो जाता है। छोटी उम्र से ही एक होड़ और दौड़ का हिस्सा बन जाते हैं वे। बचपन, बचपन न रहकर एक प्रतियोगिता बन जाता है । यहाँ इन पाश्चात्य देशों में जब बच्चों के पास सबकुछ है, तो यह वयस्कों का तनाव स्कूल के भारी-भरकम बस्ते के रूप में बहुत छोटी उम्र से ही ठोने लग जाते हैं। मां-बाप के पास समय नहीं बात तक करने को, समस्याएं सुनने व मन की ग्रन्थियाँ सुलझाने और समझने को। फलतः अधिकाँश का खाली संमय मोबाइल और कम्प्यूटर स्क्रीन को घूरते ही बीतता है। ‘ मुझे शांति से अकेला छोड़ दो। ’ या फिर‘ चुप हो जाओ, थका-हारा लौटा हूँ। मुझे शांति चाहिए। ‘ आदि वाक्य ही प्रायः सुनने को मिलते हैं बच्चों को माँ-बाप और अभिवावकों से ।

मनन-चिंतन के लिए एकांत की शांति ठीक है परन्तु यदि चौबीसों घंटे उसी में जीना पड़े , तो टेलिविजन का शोर अच्छा लगेगा ही। परिचित व मित्रों से आभासी दुनिया में बैठकर घंटों की गपशप की आदत पड़ेगी ही। उत्तेजित खवरें और मिर्च-मसाले रंग भरेंगे ही सीधे-सपाट जीवन में।
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। आधुनिक जीवन शैली ने बहुत कुछ दिया है , इक्कीसवीं सदी के मानव को । दूरियाँ मिटा दी हैं। चाहे तो हर समय प्रियजन व मित्रों की महफिल सजाए रख सकता है वह। पर आराम की, एकांत की जरूरत किसे नहीं होती और यही शांति छिन गई है उससे। वह थका रहने लगा है , मन से भी और तन से भी । क्योंकि दिन-रात के भेद मिट गए हैं। कब सोना है, कब जागना है भूलता जा रहा है वह। शरीर के सहारे आत्मा है और आत्मा के सहारे शरीर। एक स्वस्थ व सफल जीवन के मन और शरीर दोनों को स्वस्थ रखना पड़ता है तभी जीवन की गाड़ी सुचारु चल पाती है। जीवन और व्यवहार से शांति झलकती है।

आज के मानव के पास आराम और उत्तेजनाएं तो बहुत हैं पर शांति नहीं। इसी संतुलित, प्रसन्न और शांत जीवन शैली को तलाशने का लघु प्रयास किया है लेखनी ने अपने इस अंक में। कला, कला के लिए एक सुखद अहसास अवश्य है परन्तु वक्त की मांग पर इसे भी कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ निभानी ही पड़ती हैं। उम्मीद है कहीं किसी कोने में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य ही आएगा और हम अपने परिवार को, बच्चों को समझने की थोड़ी और कोशिश करेंगे। परिवार के लिए, आस-पड़ोस के लिए थोड़ा और वक्त दे पाएंगे, विश्व के ही नहीं, अपने घर और अगल-बगल के अमन-चैन के बारे में भी सोचेंगे।

अगले महीने 11 वें विश्व हिन्दी-सम्मेलन में मौरिशस जाने का प्रोग्राम बन गया है। वहाँ मातृभाषा और इसकी उपयोगिता पर बातें और बहसें होंगी। विश्व भर से कई मित्र और विद्वान एकत्रित होंगे। लेखनी का सितंबर-अक्तूबर अंक अपने पाठकों के साथ वे सारे अनुभव और निर्णय साझा करने की इच्छा रखता है। मातृभाषा के बारे में , हिन्दी के बारे में आपके क्या विचार हैं? क्या चमकते आलीशान स्कूलों में पढाई जाने वाली अंग्रेजी के वर्चस्व और आधिपत्य को अपने ही देश के झोपड़-पट्टी में रहने वाले और हिन्दी मीडियम में पढ़ने वाले बच्चे हटा पाएंगे? मिटाने का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि अंग्रेजी की चमक खे हम आदी हो चुके हैं। हर सपने की चाभी इसी तिजौरी में तो रखी दिखती है सभी को !

शीघ्र ही पंद्रह अगस्त आने वाला है। 71 वर्ष हो चुके भारत को आजाद हुए और हम अभी तक राष्ट्र-भाषा के मसले को ही नहीं सुलझा पाए हैं। जब हमारे अंदर ही एकता नहीं तो बाहर की दुनिया हमारी भाषा को क्या सम्मान देगी। कुछ तो कमी है हमारे अंदर, सोचकर ही सिर शर्म से छुक जाता है। राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने 1947 में ही, आजादी के तुरंत बाद ही कहा था कि राष्ट्र-भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। क्या हमें वाकई में गूंगा रहना ही पसंद है? या फिर हमारे देश के पास अपनी कोई भाषा ही नहीं, जो हम बाहर से आई भाषा को ही राष्ट्र-भाषा का या समकक्ष दर्जा दे बैठे हैं-शांति से सोचने की, गुनन-मनन की बात है यह भी देश वासी और देश वंशियों और देश प्रेमियों के लिए। सभी मित्रों को आगामी 72 वें स्वतंत्रता दिवस की बहुत बहुत बधाई।
मातृभाषा संबन्धित आपके विचार, चिन्ताएँ, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में टंकित आपकी रचनाओं का हमें इंतजार रहेगा। भेजने की अंतिम तिथि-है 25 अगस्त ।
तो मित्रों मिलते हैं सितंबर के महीने में फिर एक नए अंक और नए मुद्दे के साथ।
जय हिन्द, जय विश्व !
शैल अग्रवाल

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