माह की कवियत्रीः पंखुरी सिन्हा

विद्या पीठ
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न बताना भी एक अदा है
न कहने की तरह
यानी मना करना
पर एकदम साफ़ मना करना नहीं
कर पाना नहीं
सवाल भी साफ़ नहीं
जवाब की भरसक गुंजाइश नहीं
कुछ भी दो टूक सच नहीं
पांच टूक पोशाक नहीं
जूता, छाता, टोपी, गमछा
जनेऊ, लोटा
संस्कारों की मर्दानी ठसक गयी
विद्यापीठों में स्त्री मुक्ति
अब भी एक लड़ाई है
पर न बताना
वहां भी उम्र
फॉर्म से बाहर
स्त्रियों के साथ भी
बिल्कुल स्त्री अस्मिता का पहला कदम
मन की बातें
कुछ मन में रख लेना भी एक अदा है
और जैसे उम्र भी हो
मन ही की बात
फॉर्म की लिखाई से बाहर
इसलिए वह इतालवी लड़की
पूछती रह गयी
पर मैंने केवल अपनी
वह उम्र बताई
जब ब्याही गयी थी
वह भी दो साल घटा कर
उनसे ताल मिलाने को
जिनकी मैं जानती थी
दो से ज़्यादा साल
घटाई होती थी उम्र…

सुखासन एक अलग कविता है
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क्या शहर था जिसमें यों ज़ाया हुए हम
यों ज़ाया हुए कि न हो राह कोई बचने की
लौटेंगे कभी तो, उसकी गलियों में हम फिर
जहां पे सुना है, तुम्हीं थे राजा
मेरे आका, मेरे देश, ये बोलो ज़रा तुम
ये ६ साल का सिंगल एंट्री स्टडी परमिट तो होता नहीं है
वही सरहद थी, अब भाले सी चमकती
छूटा था घर दूसरी ओर जिसके
वही सरहद थी जिसे लांघते थे खेल खेल में
उसे बना कर बड़ा तुम्हीं ने किया था कैद
शीशे के मर्तबान में
शीशे के मर्तबान में ही
चमकती रही दूर सरहद
वहीँ होता रहा सूर्योदय
वहीँ ढलती रही शाम
हम दौड़ा किये
सूरज के उस गोले की ओर
अपनी पूरी शक्ति से
और वह हमें देता रहा चकमा
होकर हर दिन हमसे दूर
सूरज के साथ की होड़
हमेशा पड़ती है महँगी
पर हमारी थी ही कहाँ?
हम तो केवल धरती का अपना टुकड़ा
चाहते थे
जिससे चिपक कर बैठे रहे हम
कभी वज्रासन, कभी सुखासन में
सूर्य नमस्कार भी किया हमने उस ज़मीन पर
कि उसकी क्षितिज हमारी हो जाए
भुजंगासन भी किये, दोनों हाथ धरे
धड़ उठाये, वही तो प्रायद्वीप था
जिसके पर्वतों, पठारों पर हम
खरगोश से फुदका करते थे
लेकिन अजब की
सरहद की सियासत तुमने
तुमने मेरे देश, मेरे आका
बिना तुम्हारे
कैसे थी मुमकिन शहादत मेरी?
सूरज ढ़लने के बाद हुई थी
मेरी आख़िरी अग्नि परीक्षा
आख़िरी ईमेल स्पेन से, नाइजिरिआ जाता
लौटरी स्कैम का
मेरे जमा कर देने के बाद
असाइनमेंट का आखिरी परचा
और ठीक तभी, डेटिंग साइट से
एक मित्र का लौटना
अचानक
स्कैम पूरा होने पर पता चला
कि एक तरफ यह सवाल था
क्या खेलोगी लॉटरी की यह बाज़ी?
और दूसरी तरफ
एक बचाने वाला
बताओ मेरे देश
ये बचाने और बचाव की राजनीति क्या है?
ये बिसात बिछाने वाला
कौन था मेरे देश? …

बाढ़ की राजनीति
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अपने आप खुल गयी
कसी हुई मुट्ठी मेरी
फ़ैल गयी हथेली
और टपकता रहा
आसमान से पानी
दिल्ली में हुई
फिर से बारिश
आखिरकार, इस साल
दिल्ली में बारिश
और याद आया
इंग्लैंड का राजा
उसी ने तो आकर कहा था
पर्दे पर, टेलीविज़न के
हू द हेल डिड दिस वेदर?
क्या विज्ञापन था वह?
लंदन की झिर झिर बारिश की शिकायत नहीं थी
जबकि अभी, इन दिनों
जैसे आयी है
फलां फलां जगहों पर बाढ़
भयानक जासूसी लगती है मौसम की
या फिर राजनीति
कि फ्रांस के इतिहास में
जब चुना गया हो
सबसे युवा राष्ट्र पति
माँ की उम्र की प्रेमिका वाला
तो कनाडा के मोंट्रियल क्षेत्र में
आयी हो भयानक बाढ़
और कि जब आपके
रूम मेट रहे हों युगोस्लाव
तो सच, युगोस्लाविआ में बाढ़
क्या उसने कर लिया है
पूरा पुनर्निर्माण ?
क्या अब एक हो गए हैं
बंटे हुए युगोस्लाव टुकड़े
निष्काषित कर
धर्म के नाम पर बरसों से
वहां बसे हुओं को
वो कहाँ गए
मालूम नहीं
पर ये सब तो पहले हो चुका था
लेकिन, युगोस्लाव रूम मेट्स का किस्सा
खत्म नहीं होता
कनाडा का वीज़ा छोड़ देने के बाद भी
उन्होंने वहीँ शुरू की थी
बाथरूम की सफाई की राजनीति
और साथ में
बार बार फ्लश की
टॉयलेट ब्रेक्स की
कौन नहीं जानता
इन भीतरी लड़ाइयों का हाल
लेकिन, एक रोज़ पुलिस बुलानी पड़ी
अपनी ही दिल्ली में
निरंतर बजते गाडी के हॉर्न के कारण
पूर्णतः शांत माहौल में
अचानक बज उठते
हॉर्न के कारण
होते ही दाखिल
बाथरूम में
मुझे याद है
उस दिन केरल में चुनाव थे
मैं घर में अकेली थी
और पड़ोस में हॉर्न का शोर
बहुत बढ़ा हुआ
लेकिन, राजनीति इससे कहीं ज़्यादा बड़ी है
कुछ हिंदुस्तानी दस्ते हैं
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में
अब अमेरिका की फर्स्ट लेडी
यूगोस्लाव हैं
क्या फर्क पड़ता है?
सिवाय इसके कि एक राइट विंग कट्टर पंथी
पता नहीं उसे हिंदी में दक्षिण पंथी कहेंगे
या नहीं
लेकिन नस्लवादी
सत्ता का निर्माण हो जाने से
हमारी लगी हुई नौकरियां भी छूट जाती हैं
अब पूछिए
क्या फ़र्क़ पड़ता है का सवाल?
और वो पूछ रहे हैं बदस्तूर
गांव की गरियाति हुई भाषा में
कि हम लात ही मार आएं
दुनिया भर को तो क्या?
भार में जाएँ विश्व बैंक
इंटर नेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस
और तमाम संस्थान, देश
ये पूछने वाले कलाकार हैं
कला और संवेदना का पेशा करने वाले
अगर भोथे शब्दों में बयान कर दिया जाए
कलाकारी को, तो
और ये जाने क्या कह रहे हैं
दुनिया भर के तकनीकी रिश्तों के बारे में
दुनिया भर के तकनीकी अवसरों के बारे में
बकवास की आग में
जल रहा है यह शहर
और देश के कई शहर जल रहे हैं
बिना बात की बात में
और जल रहे हैं लोग
और जलाई जा रही हैं लड़कियां
और बस्तियां
धूप से जल रहे हैं खेत
लेकिन, राजधानी की बारिश
यहाँ सबसे खर्चीले बाग हैं
और महानगरों में भी
जिनमें से कोई नहीं झेल सकता
तीन घंटे की भी तेज़ बारिश
तो क्या अब धुँआती
सुलगती, ईटों की रहेगी
सूखी बरसात?
दो चार बूंदों की
मेरी खुली हथेली पर
तपती दोपहर में
खुशबु के फव्वारे सी…………………….

नॉन ब्रांडेड शहद और नया जी एस टी कानून

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कोई क्या चखेगा शहद अब?
अब कहाँ लगाती है
मधुमक्खहि नीम में खोंता
करंज में छत्ता?
अब कहाँ आती है
मध छोरवा की पुकार
जो आयी इस बार
राजधानी में
तो मैंने सोचा
कोई क्रांति हुई
वह बाल्टी में बेच रहा था शहद
उस में दिख रही थी
कुछ गिर गयी मधु मक्खही
टूटे हुए छाते के टुकड़े
धूप में सुनहली खुशबू
की तरह चमक रहा था मध्
धूप में चमक रहा था
शहद का सुनहला रंग
या उसकी सुनहली परछाई
से चमक रही थी धूप
कितना सुंदर था यूँ
ले लेना प्रकृति से सीधा सीधी
मिठास नामक स्वाद
मानो तोड़कर फूलों का रस
फूलों के खिले चेहरे से जैसे
बेतक्कलुफ़
चिड़िया सा
तितली सा
मधु मक्खी सा
उड़ उड़ जाना
भर भर आना
इस सब कुछ से लबालब थी
मध् छोड़वा की बाल्टी
उससे कैसे नहीं
ख़रीदा जाता शहद?
जबकि माँ मचाती रहीं
ठगों और ठगी का कुहराम
पर कैसे कैसे तोला गया शहद
भरा गया किन दालों की
पुरानी खाली शीशियों में
बाज़ारू शहद के पुराने डब्बों में
ढक्कनों के भीतर शहद भरती
मैं वह आतुर लड़की थी
जिसने कभी नहीं खरीदा था
मध् छोड़वा का मध
किन बगीचों की टहल थी उसमे
जाने किन पत्तों की हवा
पतझर की धूप थी
सर्दियों की दस्तक लिए
जिनके आते ही
जम गया बोतलों
शीशियों में रखा शहद
जैसे उसमे चीनी का उच्छिष्ट हो
और जबकि याद आये थे
गन्ने के लह लह खेत
और हुई थी ख़ुशी
चीनी मिलों को पीछे
बहुत पीछे छोड़ आने की
पर वे छूटे कहाँ थे ?
क्या कभी नहीं छूटता है
चीनी मिलों में पिसा बुरादा
कभी नहीं छूटती है
चीनी मिलों की दुर्गंध?
क्या हम कभी नहीं छूटते
व्यापार और बाज़ार के
दुष्चक्र से ?
क्यों इतनी तीखी हो जाती है ?
हम तक आते आते, गन्ने की मिठास ?
जाने इनमें किन किन किस्मों की मिलावट हो ?
शीरा हो, बुरादा हो ?
ख़राब चीनी का
चिंता में डूबी माँ के कड़वे बोल सुनती
मैं सधा जाती हूँ
ग़लती से खरीदा
बिना जांचा परखा शहद
और तरस जाती हूँ
हुलस जाती हूँ
उस सहज खुलेपन को
जहाँ पेड़ों में मधु मक्खी
लगाती है खोंता
जिसमे भरता है शहद
आहिस्ता -आहिस्ता
अब सब कुछ होता है
व्यापार सा
पाला, पोसा हुआ
खरीदा बेचा हुआ
अब कुछ भी
प्राकृतिक नहीं
नीम का शहद नहीं
करंज के पेड़ नहीं..

बिहार राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत सद्यः प्रकाशित कविता संग्रह ‘प्रत्यंचा’ से कुछ कवितायें

– पंखुरी सिन्हा

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