विमर्षः ये लघुकथाएँ-अनिता रश्मि

लघुकथा’ जीवन की तल्ख सच्चाईयों की सघन, तीक्ष्ण, जरूरी अभिव्यक्ति है । एक बेचैन करनेवाली विधा । पाठकों की सोच को प्रभावित और उद्वेलित करनेवाली, लघुता में बड़ी बात कहनेवाली ।
विस्तृत जीवनानुभवों का सार समाहित कर ‘लघुकथा’ रचना की तरह नहीं, एक हथियार की तरह इसका उपयोग कर रही है ।
कहा भी जाता है, यह वह सुई है, जो तलवार का भी काम कर सकती है और इसीलिए लेखकों-पाठकों का जुड़ाव, लगाव इससे बढ़ता गया है ।
लेकिन इसे आसान विधा माननेवालों को समझना होगा, ‘लघुकथा’ लेखन सबसे कठिन है।
नहीं है यह कहानी का संक्षिप्त रूप । बुनावट और बनावट में स्वतंत्रता इसकी खासियत है । अत्यधिक ब्योरों में जाने से इसके लघु कहानी में ढल जाने का खतरा है । विशद वर्णन इसके कलेवर को क्षति पहुँचा सकती है ।
अतः संक्षिप्त-कलेवर में सघन-बुनावट से विसंगतियों-विडंबनाओं को प्रस्तुत करने में ही यह अपनी सार्थकता पाती है । अनावश्यक विस्तार, छोटी-छोटी घटनाओं पर विपुल शब्द खर्च करने से बचते रहे हैं पूर्व के प्रसिद्ध लघुकथाकार ।
आज भी एक श्रेष्ठ लघुकथाकार इसके विशद वर्णन से बचने की कोशिश करता है ।
यह विधा आण्विक-कलेवर में मन को उद्वेलित कर सुधार की गुंजाइश भी थमाती है ।
एक सफल ‘लघुकथा’ जहाँ खत्म होती है, वहीं से पाठक का चिंतन प्रारंभ होता है । यही इसकी कामना भी है… पाठकों को चिंतन के सूत्र थमाना ।
अतः #टू_दी_प्वाइंट बात करने की तरह संक्षिप्त, सारगर्भित लेखन जरूरी । कतिपय सावधानियाँ अपेक्षित ।
यह क्षणांश में सब कुछ कह देने की कोशिश है । एक ईमानदार कोशिश ।
यह नई विधा नहीं है । सतर-अस्सी के #लघुकथा_आंदोलन ने बहुतों को उद्वेलित किया था । लगातार शोध कार्य चलने लगे थे । ‘लघुकथा’ केंद्रित लघु पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गई थी ।
#सारिका, #नवतारा, #तारिका (अब शुभ तारिका) #लघु_आघात सहित अनेक पत्रिकाएँ प्रमुखता से लघुकथाएँ प्रकाशित कर रही थीं ।
अनेक समाचार-पत्र भी लघुकथाओं को स्थान देने लगे थे । खूब धूम रही उन दिनों इसकी ।
बड़े आलोचक, लेखक अपने ‘लघुकथा विषयक आलेखों’ से पत्र-पत्रिकाओं को समृद्ध करने लगे थे।
पुरस्कार, सम्मान से लघुकथाकारों को नवाजा जा रहा था । आज के लगभग सारे बड़े लघुकथाकार उस दशक में लिखना प्रारंभ कर चुके थे । रचना और रचनाकार की पहचान बनने लगी थी । सबका उत्साह चरम पर था । काफी प्रतिष्ठा बटोरी थी इसने ।
मूल्यों के क्षरण पर लघुकथाकारों की एक पूरी जमात 70-80 के दशक में निरंतर तीखा, सार्थक लेखन कर रही थी । ‘लघुकथा’ में सक्रिय कई रचनाकारों ने अपनी सहज अभिव्यक्ति, सतत क्रियाशीलता, प्रतिबद्धता से ‘लघुकथा’ की विलक्षणता को आत्मसात भी किया था, पाठकों के दिलों में इस विधा के प्रति अस्सीम प्यार भी जगाया था ।
वैसे तो नीति या बोधकथा और दृष्टांत के रूप में लघुकथाओं का सृजन शताब्दियों से जारी है । खलील जिब्रान की लघुकथाओं को खूब सम्मान प्राप्त ।
परन्तु इसे ‘विशिष्ट-विधा’ की ‘प्रतिष्ठित-उपाधि’ हाल में पुनः मिली, नए आकाश को छूती हुए इस विधा ने लंबी यात्रा की है ।
पुरोधाओं जैसे – #माधवराव_सप्रे, #माखनलाल_चतुर्वेदी, #पदुमलाल_पुन्नालाल_बख्शी, #प्रेमचंद, #जयशंकर_प्रसाद, #जैनेन्द्र, #अज्ञेय, #कमलेश्वर जैसे कई सम्मानित नाम इससे जुड़े हैं ।
विवाद भी चरम पर । शायद सबसे अधिक विवाद इसी के हिस्से में आया । उस वक्त कोई नामकरण करता था – लघु कहानी, कोई लघु व्यंग्य, कोई लघु व्यंग्य कथा, छोटी कहानी…
अनगिन नामों के पक्षधर जोरदार बहस-मुबाहिसों से इस विधा को परिभाषित करने की कोशिश करते रहे ।
इसमें सबसे अधिक हानि किसी की हुई, तो वह हुई ‘लघुकथा’ विधा की ही । हालाँकि इसकी सफलता पर संदेह नहीं था, लेकिन बेमजा बहसों ने माहौल को इसके विरोध में ला खड़ा किया था ।
अनेक बड़े रचनाकार तीर-कमान लेकर इस विधा के पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे ।
बीच में लेखकों ने इस विधा से दूरी बनानी शुरू कर दी थी । बहुत वाद-विवाद, प्रतिवाद ने मोहभंग-सा कर डाला था और जो संपादक अपनी लघु पत्रिकाओं में लघुकथा की जड़ों को गहरे तक समोए बैठे थे, वे भी विमुख होने लगे थे ।
#सारिका जैसी ‘लघुकथा की सबसे बड़ी पैरोकार पत्रिका ने इसके नामकरण के विवाद को गंभीरता से झेला था ।
‘लघुकथा’ बीच के सालों में फिलर की तरह उपयोग की जाने लगी थी । पत्र-पत्रिकाओं में स्थान तो मिलता था, लेकिन जैसे ‘लघुकथा’ पर एहसान किया जा रहा हो । बस, कहानी, कविता, व्यंग्य, आलेख के बीच की बची हुई खाली जगह भरने के लिए ।
बड़ी चोट खाई इसने । बड़े लेखकों की कलम तो इस दिशा में चुप हुई ही, शिक्षार्थी भी दूरी बनाने लगे थे । हाँ, पाठक विमुख नहीं हुए थे कभी ।
ऐसे में एक प्रसंग याद आता है ।
1978 से प्रकाशित #नवतारा हजारीबाग, बिहार (अब झारखण्ड) से छपनेवाली बेहद सम्मानित पत्रिका थी ।और ‘लघुकथा’ को सत्तर-अस्सी के दशक में पहचान दिलाने के लिए प्रतिबद्ध, निरंतर आंदोलनरत #श्री_भारत_यायावर इसके संपादक थे ।
आज के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों को प्रथम प्रकाशन का सुख ‘नवतारा’ से ही मिला था ।
बाद में वे बहु प्रशंसित पत्रिका #विपक्ष निकालने लगे थे । मुझसे ही एक बार उन्होंने तब कहा था —
” लघुकथा ?…. नहीं ! नहीं ! ! ‘विपक्ष’ के लिए ‘लघुकथा’ नहीं भेजना ! ”
वे अपनी पहली पत्रिका #नवतारा में प्रमुखता से लघुकथाएँ, उस पर लंबे आलेख, विचार, प्रतिक्रियाएँ, लघुकथा-पत्रिकाओं की लंबी लिस्ट छापते रहे थे ।
‘नवतारा’ का ‘लघुकथांक’ भी 1979 में प्रकाशित होकर बेहद चर्चित हो चुका था । (अब पुस्तक रूप में भी आनेवाला है)
आज के तमाम बड़े साहित्यकार, लघुकथाकार की रचनाएँ, लेख और उक्त ‘लघुकथांक’ पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया भी आ चुकी थी । फिर उन्होंने मना क्यों किया ? मेरी लघुकथा ‘आज की दुनिया’ को भी ‘नवतारा’ के ‘लघुकथांक’ में प्रकाशित कर चुके थे, फिर ?
असमंजस से घिर गई । आख़िर कौन-सा तल्ख़ अनुभव उनसे कहलवा रहा है कि — ” लघुकथा ? ?… लघुकथा नहीं भेजना ‘विपक्ष’ के लिए ! ”
मैंने तो लघुकथा भेजने की ही तैयारी कर ली थी । इसके चमकते समय को कैसे अचानक ग्रहण लग गया ?
पर लघुकथा की मौत नहीं हुई । फिनिक्स की तरह वह फिर उठ खड़ी हुई … पूरे दम-खम के साथ । प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने बाइज्जत स्थान देना शुरू कर दिया ।
#दैनिक_हिंदुस्तान, #जनसत्ता_सबरंग, #राष्ट्रीय_सहारा, #आज, #प्रभात_खबर, #राँची_एक्सप्रेस आदि अनेक संस्थाओं ने उन दिनों जैसे बीड़ा ही उठा लिया था इसे पुनः स्थापित करने का ।
क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ।
और आज यह विधा खिलखिलाती हुई सीना तान कर उठ खड़ी है अपने उसी नाम को धारण किए हुए । समर्थ लघुकथाकारों की एक फौज-सी सामने है । उन्होंने अनहोनी को होनी में परिवर्तित कर रास्ता दिखाया है ।
उससे आगे जाकर वे निरंतर नए अनुभवों के साथ नई सौंदर्यदृष्टि और नई पाठकीयता को गढ़ रहे हैं । पहचान को तरसती, लड़ती-झगड़ती ‘लघुकथा’ को आख़िर अलग पहचान, उचित सम्मान-स्थान आज मिल ही गया । अनगिन लघुकथा केंद्रित सुप्रसिद्घ पत्र-पत्रिकाओं, वेबसाइट, ई-पत्रिका की प्रचुरता इस विधा को आगे ले जाने के लिए कटिबद्ध !
इसमें निरंतर लगे रहनेवाले लघुकथाकारों, लघुकथा-प्रेमियों का बहुत बड़ा सहयोग है । तपस्वी की तरह वे लगे रहे । लगे ही रहे । अंततः ‘लघुकथा’ को उसका सम्मान दिला कर ही मानें ।
‘लघुकथा’ पुनः एक चमकती-दमकती विधा के रूप में अपनी चमक से साहित्य-जगत को चकाचौंध कर रही है ।
अब आजकल इसमें सकारात्मकता का तड़का इसको और भी गुणवत्तायुक्त बना रहा है । तल्ख सच्चाईयों के साथ उपाय भी परोसकर अपनी सार्थकता सिद्ध कर रही है यह ।
अब केवल समस्या की ओर इंगित उँगली नहीं, समाधान को उठे कदम भी इसके साथ हैं ।
निःसंदेह अगला दौर ‘लघुकथा’ का है । यह विधा झंडा गाड़कर रहेगी, ऐसा विश्वास निराधार नहीं ।

अनिता रश्मि

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