विनीता राहुरीकर, मनोज चारण कुमार, नीरज सुधांशु , चंद्रेश कुमार छतलानी


कांपते पत्ते-
“सुनो शैली ये शर्ट काम वाली बाई को दे देना।” ऋषित ने अलमारी में से तह किया हुआ शर्ट निकालकर शैली को पकड़ा दिया।
“लेकिन क्यों? यह तो बिलकुल नया का नया है” शैली ने आश्चर्य से पूछा।
“अरे पहन लिया बहुत बस अब नहीं पहनूंगा। इसे आज ही बाई को दे देना।” ऋषित अलमारी में से दूसरा शर्ट निकालकर पहनते हुए बोला।
“अभी छः महीने भी नहीं हुए हैं तुमने कितने चाव से ख़रीदा था इसे। कितना पसन्द आया था ये शर्ट तुम्हे। तुम्हारे नाप का नहीं था तो तुमने पूरा स्टोर और गोदाम ढुंढ़वा लिया था लेकिन इसे खरीदकर ही माने थे और अब चार- छह बार पहनकर ही इसे दे देने की बात कर रहे हो।” शैली ऋषित की बात जैसे समझ ही नहीं पा रही थी। कोई कैसे इतने जतन और चाव से खरीदी अपनी पसन्द की चीज़ किसी को दे सकता है वो भी बिलकुल नयी की नयी।
“अरे तो इसमें इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है तुम्हे। तब पसन्द आयी थी तो ले ली। मैं तो ऐसा ही हूँ डियर” ऋषित शैली के कन्धों पर अपने हाथ रखकर बोला”जब कोई चीज़ मुझे पसन्द आ जाती है तो उसे हासिल करने का एक जूनून सवार हो जाता है मुझ पर और मैं उसे किसी भी कीमत पर हासिल करके ही दम लेता हूँ। लेकिन बहुत जल्दी मैं अपनी ही पसन्द से चिढ़ कर ऊब भी जाता हूँ और फिर उस चीज़ को अपने से दूर कर देता हूँ।”
और ऋषित शैली के गाल थपथपाता हुआ अपना लंच बॉक्स उठाकर ऑफिस चला गया।
शर्ट हाथ में पकड़े शैली कांपते पत्ते सी थरथराती खड़ी रह गयी। कहीं ऐसा तो नहीं वह भी ऋषित का बस जूनून ही है, प्यार नहीं। वह ऋषित के अंधे मोह में बंधी अपना घर-परिवार, पति, सब कुछ छोड़ने की गलती तो कर बैठी और उसके साथ लिव इन रिलेशन में रह रही है। कल को क्या ऋषित उसे भी इस शर्ट की तरह…..

स्वावलम्बन….
“मॉम मेरे नए लेपटॉप का क्या हुआ?” आदित्य ने विभा से पूछा।
“पैसे आते ही खरीद देंगे बेटा।” विभा ने धीरे से जवाब दिया।
“क्या मतलब है पैसे आते ही? आपको पता भी है मेरी पढ़ाई, मेरे प्रोजेक्ट्स का कितना नुकसान हो रहा है। रिजल्ट खराब आया तो मुझे कुछ मत कहना” आदित्य गुस्से से भुनभुनाया।
“पर बेटा तुझे जो मॉडल चाहिए वो बहुत महंगा है। पापा अभी इतने पैसे कहाँ से लाएँगे। अभी तो तेरे ट्यूशन वाले सर को भी पूरे साल भर की फीस….” विभा कहते हुए चुप हो गई।
“तो ये सब मुझे इंजीनियरिंग में दाखिल करवाने से पहले ही सोचना चाहिए था। पैसा नहीं था तो…”
बेटे की बात विभा को अंदर तक चुभ गयी। हर साल कॉलेज की फीस, हर विषय की ट्यूशन फीस अलग से, आने-जाने के लिए मोटरसाइकिल भी ले दी कि बस में समय खराब न हो। फिर भी जैसे -तैसे ही पास होता है। और अब ये इतने महंगे लेपटॉप का खर्च, एक मध्यमवर्गीय पिता कितना करे। उस पर अभी भी दो साल बचे हैं, फिर बेटे का एहसान भी सर पर की आपके सपने पूरे करने के लिए ही तो पढ़ रहा हूँ।
विभा बाहर आँगन में आकर खड़ी हो गई। मन बुझा सा हो रहा था बेटे के व्यवहार से। एक लड़का पडौसी की गाड़ी धो रहा था। आदित्य का ही हमउम्र था। विभा के मन में सहज करुणा हो आयी। पढ़ाई करने की जगह बेचारा मेहनत करके परिवार के लिए पैसे जोड़ता है।
“कहाँ तक पढ़े हो बेटा।” अचानक ही विभा के मुँह से सवाल निकल गया।
लड़के ने ऊपर देखा और मुस्कुरा कर कहा “इंजीनियरिंग के तीसरे साल में हूँ आँटी।”
“क्या?” विभा चौंक गयी। “तुम तो काम करते हो। फिर पढ़ते कब हो?”
“सुबह काम करता हूँ, दस बजे कॉलेज जाता हूँ, पढ़ाई बस में आते जाते और रात में कर लेता हूँ। शाम को सेकंड, और फर्स्ट ईयर के स्टूडेंट्स को ट्यूशन पढ़ाता हूँ। पिताजी कपड़ों पर प्रेस करने का काम करते हैं न, मेरी फीस नहीं दे सकते तो मैं खुद अपनी फीस कमाता हूँ।” सहज से उसने बताया।
“मॉम पापा को बोलो मुझे आज ही लेपटॉप चाहिए नहीं तो कल से मैं कॉलेज नहीं जाऊँगा।” विभा के कानों में थोड़ी देर पहले बोले गए आदित्य के शब्द गूँज गए और अचानक उसने एक सवाल कर दिया-
“तुम्हे गुस्सा नही आता कि तुम्हे खुद ही कमाकर पढ़ना पड़ रहा है। तुम्हारे पिताजी…कभी मन नहीं करता कि पढ़ना छोड़ दूँ?”
“कभी नहीं मैडम। मैं पढ़ रहा हूँ तो मेरा ही भविष्य सुधरेगा न। मैं कोई अपने माता-पिता पर थोड़े ही अहसान कर रहा हूँ। अपना ही जीवन बना रहा हूँ।” लड़के ने सहज भाव से उत्तर दिया।
लेपटॉप के लिए माँ के पास तकाजा करने के लिए आते हुए आदित्य के पाँव लड़के की बात सुनकर दरवाजे पर ही ठिठक गए क्योकि वह लड़का उसी के कॉलेज में पढ़ता था और हर साल टॉप करता है।

रंगविहीन….
पति की मृत्यु के महिने भर बाद शकुन ने सासु माँ और अपने दोनों बच्चों के भविष्य को देखते हुए जैसे -तैसे खुद को संभाला और पुनः ऑफिस जाने के लिए खुद को तैयार किया।
बाल गूँथने के लिए ज्यों ही आईने के सामने खड़ी हुई, बिंदी विहीन माथा, सूना गला और सफेद साड़ी में खुद को देख आँसू फिर बह निकले। कितना शौक था शशांक को उसे सजा सँवरा देखने का। चुन-चुन कर कपड़ों के खिले-खिले रँग और प्रिंट लाता था और उन्ही की मैचिंग के कड़े, चूड़ियाँ, बिंदियाँ। पिछले अठारह वर्षों के रँग एकाएक धुल गए। रंगहीन हो गया था जीवन अनायास।
तभी किसी काम से सासु माँ अंदर आयीं तो शकुन को देखकर उनकी भी आँखे भर आयी। उन्होंने तुरंत शकुन की अलमारी खोली और एक सुंदर सी, शशांक की पसन्द की साड़ी निकाली और शकुन को देते हुए बोली—
“मेरा बेटा तो चला गया। पर जब जब मैं तुम्हारा रंगहीन रूप देखती हूँ तो मुझे अपने बेटे के न रहने का अहसास ज्यादा होता है। इसलिये तू जैसे सजकर इस घर मे आयी थी, हमेशा वैसे ही सजी रह। तुझे पहले की तरह सजा सँवरा हँसता खेलता देखूंगी तो मुझे लगेगा मेरा बेटा अब भी तेरे साथ ही है। और तुझे भी उसकी नजदीकी का अहसास बना रहेगा।”
ड्रेसिंग टेबल से एक बिंदी लेकर उन्होंने उसके माथे पर लगा दी।
साड़ी को अपने सीने में भींचे आँखों मे आँसू होने के बाद भी दिल मे एक तसल्ली का भाव तैर गया, शशांक के साथ होने का अहसास भर गया। रँगविहीन नहीं है उसका जीवन , शशांक की यादों का रंग हमेशा उसके अस्तित्व में खिला रहेगा।
वह सासु माँ के गले लग गयी। बहुत कम उम्र से ही सफेद रंग में कैद सासु माँ ने लेकिन शकुन के जीवन को रँगहीन नहीं होने दिया।

गधे बनाम घोड़े- घोड़े बनाम गधे…
“इन गधों ने तो बहुत ही परेशान कर दिया है। इतनी घास खिलाते हैं फिर भी इनका पेट ही नहीं भरता। अब और घास कहाँ से लाएं?” मंत्री ने माथा पीटते हुए कहा।
“घास की क्या चिंता। घोड़े है तो घास कमाने को। घोड़ों से और घास वसूलो। गधों के पेट भरने का इंतजाम हो जाएगा।” जंगल के राजा ने कहा।
“लेकिन घोड़े भी कितनी घास देंगे। आखिर उनका भी तो पेट है।” मंत्री बोला।
“वो घोड़ों की चिंता है कि वो घास कहाँ से लाएँगे। हमें तो गधों के पेट भरने से मतलब है।” राजा लापरवाही से बोला।
“मुझे समझ नही आता कि घोड़े दिन-रात मेहनत करते हैं, उन्ही के परिश्रम से जंगल हरा-भरा है और घास भी वे ही इकठ्ठा करें और उन गधों को खिलाएं जो कुछ नहीं करते।” मंत्री हैरान था।
“घोड़े मेहनत नहीं करेंगे तो गधों का पेट कैसे भरेगा? उनकी तादाद कैसे बढ़ेगी। अरे हाँ इस बात पर कठोर नियंत्रण रखना की घोड़ों की तादाद एक सीमा से आगे न बढ़े। और गधों की तादाद खूब बढ़ने देना। और नजर रखना कि कोई गधा पढ़ लिखकर घोड़ा न बन जाए।” राजा ने कहा।
“लेकिन गधों को मुफ्त खिलाने की जरूरत क्या है। न खुद के लिए काम करते हैं न जंगल के विकास में उनका कोई योगदान है। समंझ नहीं आता आप उन्हें भी घोड़ा क्यों नहीं बनने देते।” मंत्री भुनभुनाया।
“जंगल के विकास के लिए काम करने को घोड़े है और गधे हमें राजा बनाने के लिए है। यदि गधे भी घोड़े बन गए तो हमें कुर्सी पर कौन बिताएगा। कुछ समझे कि नहीं।” राजा ने कुटिलता से कहा।
“समंझ गया महाराज। जंगल की राजनीति में घोड़े घास उगाकर गधों का पेट भरते हैं और गधे मुफ्त की खाकर आपको राजा बनाते हैं।” मंत्री ने कहा।

दोषी…..
जैसे ही विशिष्ट अदालत के जज ने दोषी, ढोंगी बाबा के खिलाफ फैसला देकर उसे उम्र कैद की सजा सुनाई पीड़ित लड़की ने हाथ जोड़कर जज साहब को धन्यवाद देते हुए कहा–
“इस ढोंगी बलात्कारी के साथ ही यही सजा मेरे माँ-बाप को भी दी जाए।”
“क्या… ”
उपस्थित सब लोगों पर जैसे बिजली गिर पड़ी।
“यह क्या कह रही हो?” जज साहब ने आश्चर्य से पूछा।
” हाँ जज साहब। मैं ठीक कह रही हूँ। इस ढोंगी के साथ ही इस अपराध में मेरी जैसी हर पीड़ित लड़की के माँ-बाप भी बराबर के दोषी होते हैं।” लड़की ने शांत स्वर में उत्तर दिया।
जज दिलचस्पी से लड़की को देखने लगे। और लड़की के माँ-बाप सिर पीटने लगे-
“पागल हुई गयी है क्या छोरी। होस में तो है। कइं बोल रही सै?”
“मैं बिल्कुल ठीक बोल रही हूँ। पूरे होश में। वो बाबा ने नहीं बुलाया था मन्ने अपने आश्रम में। उसने तो जो किया गलत किया। लेकिन मैं तो तुम्हारी बेटी हूँ। मेरे अच्छे बुरे की जिम्मेदारी तो तुम्हारी थी। तुम कैसे अपनी बेटी को उसके आश्रम में छोड़ आये?”
लड़की के माँ-बाप आवाक हो गए। जज साहब सोच में पड़ गए।
“लड़की शाम सहेलियों के साथ घर से बाहर जाने को या पिक्चर जाने को बोले तो घरवालो के सीनों पर सांप लौट जाता है, रूढ़ियाँ बीच मे आ जाती है। परिवार की इज्जत पर बन आती है। लेकिन उसी लड़की को साध्वी बनाकर ऐसे ढोंगियों के हवाले करते तुम्हारी इज्जत में बट्टा नहीं लगता?
जज साहब। ढोंगी बाबाओं से भी पहले ऐसे भक्तों को जेल में डालना चाहिए। ये सब बाबा इन्ही भक्तों के खड़े किए हुए राक्षस हैं।”
स्तब्ध अदालत को सांप सूंघ गया।

डॉ विनीता राहुरिकर
भोपाल

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चैक बाउंस
धनपत एक रिटायर्ड अध्यापक था जिसने अपनी पूरी नौकरी बड़ी ईमानदारी से और मेहनत से की थी। उसको जहां भी ट्रांसफर किया गया वो बिना किसी ना-नुकुर के उस स्थान पर अपनी नौकरी करने चला गया था। कभी भी राजनेताओं के आगे-पीछे नहीं फिरा वो अपने किसी भी काम के लिए। उसे अपनी ईमानदारी पर पूरा भरोसा था। धनपत के एक ही बेटा था पढ़ाई में ठीक-ठाक ही था, कोई ज्यादा होशियार नहीं था उसका बेटा। अपने बेटे की पढ़ाई पर धनपत ने पूरा ध्यान दिया और बेटे की नौकरी लगाने के लिए उसने खूब पापड़ बेले थे।
धनपत के बेटे को पता नहीं क्यों लेकिन ये लाग्ने लगा था कि उसके बाप ने उसकी नौकरी के लिए पूरे प्रयास नहीं किए। वो सोचता था कि आजकल तो पैसे से सब खरीदा जा सकता है और मेरे पिता हैं कि अपनी ईमानदारी में डूबे हुए किसी से कोई बात ही नहीं करते, सिर्फ पढ़ाई के दम पर भला किसी प्रतियोगी परीक्षा में पास हुआ जाता है क्या, आजकल तो बाजार में पेपर खुल्ले बिकते हैं।
धनपत ने एक प्लॉट खरीदा था जिसके भुगतान के लिए उसने अपने बेटे के साथ तीन लाख का चैक प्रॉपर्टी-डीलर को भिजवाया था। इसी बीच धनपत के बेटे ने अपने किसी इंटरव्यू के बारे ने अपने पिता को बताया और कहा कि उसने बात कर ली है दो लाख में सौदा तय हो जाएगा और नौकरी पक्की। धनपत ने उसे मना कर दिया तो बेटे ने अपने मरने तक की धमकी दे डाली और फिर एक मजबूर बाप को झुकना पड़ा। उसने अपने बैंक खाते से पैसे निकलवा कर बेटे को दे दिये थे।
बेटे का रिजल्ट आने पर पता चला कि जिससे उसने सौदा किया था उसको पुलिस ने पकड़ लिया था परीक्षाओं में धांधली करवाने के मामले में। सौदा हो जाने के कारण अपना सलेक्सन पक्का समझने वाला बेटा फेल हो गया, उधर प्रॉपर्टी-डीलर को जो चैक दिया गया था वो खाते में पैसे कम होने के कारण बाउंस हो गया था।
प्रॉपर्टी-डीलर ने धनपत पर मुकदमा तो नहीं किया लेकिन उसे खूब खरी-खोटी सुनाई थी। मौहल्ले के लोगों के सामने हुई अपनी बेइज्जती के बारे में, घर में बैठा धनपत सोच रहा था कि, उसके पूरे जीवन की कमाई थी उसकी ईमानदारी, जिसे उसके बेटे रूपी चैक ने बाउंस होकर मिट्टी में मिला दिया।

बेईमान मौसम
सुबह से ही भारी बारिस हो रही थी। रामलाल अपने रिक्शे पर लगाए पलास्टिक के तिरपाल के नीचे भीगने से बचने की नाकाम सी कोशिश कर रहा था। मानसून की बारिस अपने पूर्ण यौवन पर थी और रामलाल उस बारिस से बुरी तरह परेशान हो रहा था। दो महीने पहले जब वो अपने गाँव से राजधानी में आया था तब उसकी पत्नी ने कहा भी था कि, बारिस के मौसम में कहाँ रहोगे, क्या खाओगे। लेकिन रामलाल को चिंता थी तो अपने बच्चों के पेट पालने की।
रामलाल पिछले तीन साल से राजधानी की सड़कों पर रिक्शा चलाता है। रिक्शा उसे किराये पर लेना पड़ता है, लेकिन रिक्शा मालिक उसकी ईमानदारी से काफी प्रभावित होने के बाद उस पर इतना भरोसा करने लगा कि, उसे रिक्शा रोज ही जमा नहीं करवाने की छूट दे रक्खी है। रामलाल भी अपनी ईमानदारी को निभाते हुए रोजाना अपने रिक्शामालिक को उसके किराये के पैसे बिला-नागा जमा करवा देता था। भुने हुए चने और सिका हुआ सत्तू अपने रिक्शे के नीचे बनी टोकरी में रखता है वो, जिसे खा कर अपना गुजारा चलाता है। उसी रिक्शे पर किसी भी फ्लाईओवर के नीचे वो अपनी रात काट लेता है और बचे हुए पैसे घर पर भिजवा देता है हर सातवें दिन।
आज की भारी बारिस ने उसको सुबह से ही रिक्शा नहीं चलाने दिया था। सड़कें विकराल दरिया बनी हुई थी। सड़कों पर तीन-तीन फिट पानी जमा हो रहा था। जिस फ्लाईओवर के नीचे रामलाल अक्सर खड़ा होता था उसके नीचे तो आज जाना भी दूभर हो रहा था। बारिस ने उसके सत्तू और चनों को भी भिगो दिया था और अब वो खाने लायक तो बचे ही नहीं थे।
शाम तक बारिस नहीं थमी तो दिन भर का भूखा और बारिस से बुरी तरह से भीगा हुआ वो अपने रिक्शे को पकड़े हुए पैदल ही चलाता हुआ मालिक के पास गया। मालिक ने उसकी भीगी हुई पतली सी काया को देखा तो सारा माजरा समझ गया था। रामलाल उससे किराया बाद में देने की बात कर ही रहा था कि, पास से एक बड़ी सी कार ढेर सारा पानी उछालते हुए बड़ी तेजी से निकली जिसमें से किसी ने अधखाया भुट्टा सड़क पर फेंका था, रामलाल उस जाती हुई गाड़ी की तरफ देख रहा था जिसमे बड़ी ज़ोर से गाना बज रहा था –
– आज……. मौसम….. बड़ा बेईमान है ……. बड़ा……. बेईमान है…… आज मौसम।


चरित्रवान
राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन अपने पूर्ण उठान पर था। मंच पर देश के बड़े-बड़े दिग्गज कवि अपनी कविताएं पेश कर चुके थे। राकेश भी मन ही मन आज बहुत खुश था इस कवि सम्मेलन में अपनी प्रस्तुति देने के बाद। वह सोच रहा था कि उसने देश के नामी-गिरामी कवियों के साथ मंच साझा किया है, वह कितना भाग्यशाली है। राकेश को कवि सम्मेलन में भाग लेने पर बड़ा ही गर्व हो रहा था। वीर रस के कवियों ने पड़ौसी मुल्क पर खूब शब्द-बम फोड़े थे तो शृंगार के कवियों ने अपनी कल्पना से ना जाने कितने हसीन पलों को पेश किया था, कुछ गंभीर कवि भी थे जिन्होने देश की वर्तमान व्यवस्थाओं पर चोट की थी।
मंच पर कवियों के बीच दो कवयित्रियाँ भी बैठी थी। हास्य रस का कवि उनमें से एक के सौंदर्य को लेकर अपने घिसे-पिटे चुट्कुले सुना रहा था और अभद्र टिप्पणियाँ करने लगा था। राकेश जब से इन चुटकुलों और द्विअर्थी संवादों को सुनने लगा तब से बड़ा क्षुब्द होने लगा था। कवयित्री भी अपनी सौन्दर्य उपलब्धि और भड़कीले अंदाज के साथ उन संवादों पर लुभ रही थी मानो उसके लिए नए उपमान गढ़े जा रहे हों। कवि सम्मेलन के अंत में वीर रस के एक देशभक्त कवि ने देश के शहीदों को श्रद्धांजली से अपना काव्य-पाठ शुरू किया और फिर भ्रूण-हत्या, किसानों की आत्महत्या से लेकर राष्ट्रभक्ति के ऊंचे आदर्शों वाली कविता के साथ समापन किया तो एक उत्साहित श्रोता ने अपनी उंगली पर ब्लेड से चीरा लगा लिया उस कवि को खून का टीका करने के लिए। यह देख कर राकेश भी भावनाओं से भर गया था और उसने मंच से ही उस कवि के जिंदाबाद के नारे लगवा दिये।
देर रात कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद राकेश उस होटल में चला गया था जहां सभी कवियों को ठहराया गया था। उसने सोचा काव्य जगत के इतने बड़े दिग्गजों की वो खातिरदारी करेगा। वो जब होटल में पहुंचा तो और उसने एक कमरे का नजारा देखा तो उसके होश उड़ गए। हास्य रस का कवि उन वीर रस के अंतिम कवि महोदय के लिए पैग बना रहा था और वो कवयित्री उन बड़े दिग्गज आदर्शवादी कवि महोदय के साथ एक फूहड़ से गाने पर डांस कर रही थी जो कहीं से भी डांस नहीं लग रहा था। उनकी उस अभद्र हरकतों और अश्लीलताओं को देख मन ही मन दुखी होते हुए और माँ सरस्वती को याद करता हुआ राकेश वहाँ से निकल गया।

नन्हें कदम
छन-छन करती पायल की मधुर आवाज सागर को भूतकाल में ले जा रही थी। ये छणकार उसकी बेटी के पैरों में पड़ी पायलों की थी जो अब अपने नन्हें-नन्हें कदमों से चल रही थी। सागर की बीवी अपनी बेटी के दोनों हाथों को पकड़ कर आँगन में धीरे-धीरे चलना सीखा रही थी।
सागर को याद आने लगे वो पल जब उसके घर में कोहराम मचा था आने वाले बच्चे को लेकर। पिताजी गुस्से में लाल-पीले हो रहे थे तो माँ भी अपने कर्मों पर झुँझला रही थी कि, उसका कहा नहीं मानने वाले बेटे से पाला पड़ा था। सागर अपने पिता का इकलौता बेटा था और उसके पाँच बहने थी। बेटे की आस में घर भरता ही चला गया और अकेले कमाने वाले पिताजी को अस्थमा ने आ घेरा था। माँ और पिताजी दोनों ही सागर पर दबाव डाल रहे थे भ्रूण जांच करवाने की ताकि यदि बेटा न हो कोख में तो फिर गर्भपात करवा दिया जाये।
सागर इस बात के बिल्कुल खिलाफ था कि, भ्रूण की जांच कारवाई जाये। निश्चित समय पर सागर की बीवी ने एक स्वस्थ और सुंदर बच्ची को जन्म दिया तो दादा-दादी दोनों की ही जाने कमर ही टूट गई थी। रो-रो कर पूरे घर को उठा लिया था दादी ने, लेकिन सागर ने अपनी माँ को ये कहते हुए चुप करवा दिया कि वो भी तो एक औरत ही है।
आज जब बेटी पूरे ग्यारह महीने की होने पर अपने नन्हें कदमों पर चलने लगी थी और उसकी पाँव में पड़ी पायलिया छनक उठी तो सागर का मन भर आया था। रेडियो पर एक पुराना गाना बज रहा था –
– तुझे सूरज कहूँ या चंदा……. तुझे दीपक कहूँ या तारा।
मेरा नाम करेगा रौशन….. जग में मेरा राज दुलारा…..।
गाना सुनते-सुनते वो साथ में गुनगुनाने लगा था पर कुछ अपने ही अंदाज में –
– मेरा नाम करेगी रौशन………. जग में मेरी राजदुलारी।


काला धन
पिछले दस दिनों से रामलाल बैंक की लाइन में रोज लग रहा था लेकिन उसके पाँचसौ के तीन नोट अभी तक बदले नहीं जा सके थे। रोज इस उम्मीद के साथ वो बैंक की लाइन में खड़ा होता था कि आज उसके नोट बदल जायेंगे और रोज ही वो भीड़ में धक्के खाता, गिरता पड़ता जब तक बैंक के दरवाजे तक पहुंचता अंदर से आवाज आ जाती कि अब रूपिये खत्म हो गए हैं। जब से प्रधानमंत्री ने देश में पुराने पाँचसौ और हजार के नोट को बंद किया है उसी दिन से रामलाल काफी परेशान हो गया था। उसने तीन साल पहले जब उसकी शादी भी नहीं हुई थी तब से अपना पेट काट-काट कर पांचसौ के पाँच नोट इकक्ठे कर रखे थे जो किसी विपत्ति काल के लिए अपने रिक्शे की शीट के नीचे दबा के रखे हुए था। बेटा बीमार हुआ तो उसे उन बचाए हुए नोटों में से दो नोट उसकी बीमारी में खर्च करने पड़ गए थे, और उसके पास ये तीन ही नोट ही बाकी बचे थे।
रामलाल रोज सुबह सड़क किनारे की चाय की दुकान पर लोगों को अखबारों में पढ़ते हुए और चर्चा करते हुए सुनता था कि आज फलां जगह पंद्रह करोड़ रूपिये जब्त किए गए जिसमें साढ़े चार करोड़ के नए नोट पाये गए। इन खबरों से रामलाल के समझ में नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है। आज सुबह फिर बैंक कि लाइन में लगा हुआ रामलाल सोच रहा था कि लोगों के पास करोड़ों के नए नोट प्राप्त हो रहे हैं और मेरे तीन नोट ही नहीं बदले जा सके अभी तक। रामलाल मन ही मन सोच रहा था कि सच में उसके नोट ही तो कालधन नहीं है।

– मनोज चारण “कुमार”
लिंक रोड़, वार्ड न.-3, रतनगढ़
मो. 9414582964

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पीर पराई नहीं
टीवी में चल रहे अत्यंत मार्मिक दृश्य में खोई हुई थी रानी। और नाटक के पात्रों की पीर उसकी आंखों से बह रही थी।
“आप कबसे इमोशनल हो गईं?” अचानक बेटे की आवाज़ ने उसे नाटक की दुनिया से वास्तविक दुनिया में ला पटका। बेटे के प्रश्न से जिससे साफ तौर पर उस पर भावहीन होने का इल्ज़ाम लग रहा था, वह इतनी आहत हुई कि आंसू और ज़ोर से बहने लगे।
“क्या हो गया मां? आप इतना क्यों रो रही हैं।” बेटे को आश्चर्य हुआ।
“कुछ नहीं, बस यूं ही।” मां ने झट से आंसू पोंछने का उपक्रम करते हुए उसे बहलाने की असफल कोशिश की पर आज आंसू उसकी बनाई नियंत्रण रेखा को पार करने पर उतारू थे। जिन आंसुओं को, जिस कमज़ोरी को वह बच्चों से छिपाती आई थी वह चोरी पकड़ी गई थी आज ।
“नहीं मां, कुछ तो है, जो आप मेरी बात से आहत हुई हैं।” उसने मां का हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा।
“ऐसा कुछ नहीं है, वो तो सीरियल ने भावुक कर दिया।”
” केवल सीरियल देखकर! नहीं मां, बात कुछ और ही है, बताओ न! मैंने तो आपको कभी ऐसे रोते नहीं देखा ।” बेटा ज़िद पर अड़ा था।
“देखते भी कैसे, मैंने ऐसा मौका दिया ही नहीं कभी, तुम्हें ही क्या, किसी को भी नहीं दिया।”
“क्यों मां? क्यों छिपाती रहीं आंसू, ऐसी क्या मजबूरी थी आपकी?”
“वक्त के थपेड़ों ने ही मजबूर कर दिया था बेटा, बहुत कुछ सिखा देती है ज़िंदगी और इंसान को वही करना भी पड़ता है।” उसने गहरी सांस ली।
“आपको तो बोल्ड लेडी कहते हैं सभी, मतलब आपको बोल्ड वक्त ने बना दिया। पर आज इस बोल्ड लेडी की आंख में ये आंसू…, बिना बात के तो नहीं आ सकते, आज तो आपको बताना ही पड़ेगा।।”
“क्यों ज़िद कर रहा है।” उसने टालना चाहा।
“नहीं मां , मुझे शुरू से बताइए, मुझे सब जानना है, आज और अभी।”
बेटे की ज़िद के सामने रानी को झुकना ही पड़ा। उसने गहरी सांस ली और बताना शुरू किया, “मैं जब छोटी थी न, अपने मां-बाप की इकलौती संतान, बहुत नाज़ों से पली थी। बहुत नाजुक से दिल की थी। किसी का ज़रा सा दुख देखकर पिघल जाती थी और रोने लगती थी। सबने मुझे मोम की गुड़िया नाम दे दिया था। शादी के बाद के चार साल बहुत अच्छे बीते। फिर अचानक एक दिन तेरे पापा की एक्सीडेंट में मौत हो गई।”
“फिर…?”
“बहुत छोटे थे तुम दोनों तब। उस वक्त बिलकुल अकेली रह गई थी मैं, हर ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था। एक अकेली औरत को दुनिया चैन से जीने नहीं देती बेटा। आर्थिक रूप से भी कमज़ोर पड़ गई थी न, तो रिश्तेदारों ने भी धीरे-धीरे मुंह मोड़ लिया। मां-बाप को दुख न हो इसलिए उनके सामने अपनी परेशानियां छिपाकर रखती व मुस्कुराकर पेश आती। जब भी आंखें बरसने लगतीं बाथरूम में चली जाती और जी-भर कर रो लेती। पर …पर अपने आंसू कभी किसी को नहीं दिखाए मैंने।”
“ओह, तभी मेरे हॉस्टल जाते वक्त मुझे बाय करते ही मुंह फेर लिया था आपने, और मैं…मैं न जाने क्या-क्या सोचता रहा।”
“क्या करती, मेरी आंखों में आंसू देखकर तू भी कमज़ोर पड़ जाता न! तेरे उज्ज्वल भविष्य के लिए सीने पर पत्थर रख लिया था मैंने। ताकि तू वहां घर की, मेरी, चिंता किए बिना मन लगाकर पढ़ाई कर सके।”
“आप इतना सब सहती रहीं, आज तक हमें भी कभी कुछ महसूस नहीं होने दिया? अंदर से मोम और बाहर से सख्त बनी रहीं आप हमेशा!” बेटे की आंखें भी भर आईं।
मां ने अपनी हथेलियों में उसका चेहरा लेकर अश्रुमिश्रित मुस्कान के साथ कहा, “मुझे तो आज पता चला कि इमोशनल दिखने के लिए सबके सामने रोना ज़रूरी होता है।”
“मैंने आज बहुत हर्ट किया न आपको?” उसने मां की हथेलियों पर अपनी हथेलियां रख दीं।
“इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है बेटा, असल में ये मर्दों का गुण है न! औरतें तो रोती-कलपती ही अच्छी लगती हैं दुनिया को, धारा से विपरीत चलने वाली औरतों पर प्रश्नचिन्ह लगाता ही है समाज।”
“हैट्स ऑफ टू यू मां, आप तो हमारी आईडल हैं। पहले भी थीं और आगे भी रहेंगी।”

रस्म अदायगी
पति की मौत की खबर ने शची के घावों के खुरंड फिर छील दिए।
अभी कुछ महीनों की तो बात है, जब आंखों में अनगिन सुनहरे सपने लिये अक्षत सुहाग और सुख- समृद्धि की कामना के साथ अक्षत कलश को ठेलकर कुंकुंम की छाप छोड़ते हुये गृहप्रवेश किया था उसने।
पहली रात से ही ढंग नज़र आने लगे थे रंगीन मिजाज़ पति के।
अपने संस्कारों व पढ़ाई-लिखाई पर गर्व था उसे, सो निपट लेगी परिस्थितियों से, इस आत्मविश्वास के साथ नशे में धुत्त पति को सहारा देकर पलंग पर लिटाया उसने। सुहाग की सेज पर सजे फूलों की खुशबू शराब के भभके में दबकर रह गयी।
यही क्रम रोज़ाना दोहराया जाने लगा। उसने समझाने का प्रयत्न किया तो बात मार-पीट तक पहुंच गयी। राक्षसी प्रवृत्तियों से नित सामना होने लगा। कभी सिगरेट से दागता तो कभी सूई चुभोता, कभी च्यूंटी काटता तो कभी वहशी दरिंदे की मानिंद दांतो से काटता। और उसकी हर चीख पर ठठाकर हंसता। प्रतिदिन शरीर पर घावों की संख्या में इज़ाफा होता रहा।
सास-ससुर भी चुप्पी साध जाते। जिम्मेदारी सिर पर पड़ेगी तो सुधर जाएगा वाली सोच ने उसे मोहरा बनाकर, ला पटका था उस घर में।
इतने पर भी हिम्मत नहीं हारी उसने। मनोचिकित्सक के पास भी लेकर गयी। किंतु आखिरकार हार ही गयी वह।
शुरू का प्यार हमदर्दी में और फिर हमदर्दी नफरत में तब्दील हो गयी थी। कोई इंसान इतना दुष्ट कैसे हो सकता है! किसी को इतना कष्ट देकर खुशी का अनुभव कैसे कर सकता है!
आस-निरास के बीच हिचकोले खाते कई महीने बीत गये। माता-पिता की इज्ज़त व बदलाव की आस के साथ सहती रही हर कष्ट ।
पर बस, अब और नहीं, अंदर की स्त्री ने दृढ़निश्चय किया और एक दिन घर छोड़कर चल दी ।
“चल बेटी, भले ही तूने कभी लौटकर न जाने की कसम खाई है पर ऐसे में तो तुझे वहां चलना ही होगा। बहुत सी रस्में निभानी होती हैं एक औरत को विधवा हो जाने पर।” पिता की आवाज़ से वर्तमान में लौट आई वह।
“सधवा होने की कौन सी खुशी मनाई है मैंने जो विधवा होने का रंज करूं! और रस्में!… कैसी रस्में पिताजी! जिसने ज़िंदगी की कीमत न जानी उसकी मौत पर …! मेरी चूड़ियां और बिछुए ही रखने होंगे न उसकी अर्थी पर, तो ये लीजिये, भिजवा दीजिये, और इस अंतिम भार से भी मुक्त कीजिये मुझे।”

सफर
आंख खुली तो उसने अंधेरे में मोबाइल ऑन कर देखा, रात के बारह बज रहे थे। ट्रेन भी रुकी हुई थी, शायद कोई स्टेशन आ गया था। दो लोग चढ़े वहां से। एक हट्टा-कट्टा नौजवान व दूसरा अधेड़।
नौजवान ने अपना सामान सीट के नीचे डाला व अपनी २५ नंबर की लोअर बर्थ पर चादर बिछाने लगा।
अधेड़ व्यक्ति ने नौजवान से पूछा, ” क्या आप अपनी लोअर बर्थ मुझसे एक्सचेंज कर लेंगे? आपकी बड़ी मेहरबानी होगी। मेरी २७ नंबर बर्थ है, पर मेरे पैर में रॉड पड़ी है, मैं इतनी ऊपर नहीं चढ़ सकता।”
युवक ने बिना उसकी ओर देखे ही ना में सिर हिला दिया व अपनी बर्थ पर लेट गया।
” मुझे बहुत बुरा लग रहा है, यदि इसकी जगह मैं होता तो तुरंत बर्थ एक्सचेंज कर लेता। ” साईड ऊपर की ३२ नंबर की बर्थ पर लेटे व्यक्ति ने आंखें मलते हुए कहा, ” वैसे आपको तो लोअर बर्थ मिल जानी चाहिए थी।”
” हां, पर ऑनलाईन रिज़र्वेशन कराने पर कभी-कभी लोअर बर्थ नहीं मिलती, वैसे मुझे कभी दिक्कत भी नहीं हुई, कोई-न-कोई रिक्वेस्ट करने पर बर्थ एक्सचेंज कर ही लेता है, वैसे टिकट चेक करने आए थे तब टीटीई ने आश्वासन तो दिया था।” उसने आशा भरे लहजे में कहा।
“लो जी, ये जवान तो खर्राटे भरने लगा !” ३२ नंबर वाले ने हिकारत से उसे देखते हुए कहा।
नीचे की बाकी दोनों बर्थ पर बुजुर्ग महिलाएं सो रही थीं। अब वह टीटीई के आने का इंतज़ार करने लगा।
” कब तक खड़े रहेंगे आप? इस जवान की बर्थ पर ही कूल्हे टिका लीजिए जब तक टीटीई आए।” ३२ नंबर वाले की नींद भी उड़ चुकी थी, कुछ युवक की हरकत व कुछ उस व्यक्ति की परेशानी देखकर।
दोनों की नज़रें बार-बार एसी की ठंडी हवा में घोड़े बेचकर सो रहे युवक पर टिक जातीं।
कुछ देर बाद युवक ने खह्ह्ह्ह… करते हुए करवट ली, पिंडली चटकाते हुए पैर फैलाए जो उस अधेड़ से जा टकराए। उसने अपने पैर सिकोड़ लिए, एक नज़र फेंकी व बेपरवाह होकर फिर सोने का उपक्रम करने लगा।
मिनट भर बाद ही उसने फिर सीधे होकर बाहों से वी बनाया व आंखों पर चिपका लिया । पैर यूं ही सिकुड़े रहे।
किनारे बैठे अधेड़ व्यक्ति ने भी अपने आप को थोड़ा सिकोड़ लिया।
” देखा! ये हैं आज के बच्चे! बेशर्म किस्म के, भावनाओं से रहित, इंसानियत से तो इनका नाता ही नहीं शायद। ऐसा तो नहीं कि ये आपकी बात को बर्थ हथियाने का बहाना समझ रहा हो।” ३२ नंबर वाले ने कयास लगाया।
युवक फिर कसमसाया। अबकी बार करवट बदलते हुए उसने पूछ ही लिया, ” आप अब तक मेरे पैरों में बैठे हैं?”
“जी, क्या करूं फिर, टीटीई का इंतज़ार कर रहा हूं।”
“इसका बाप होता तब भी ये ऐसा ही करता?” ३२ नंबर वाले से रहा नहीं गया।
तभी एकाएक वो उठा, बिना कुछ बोले, हाथ पैर लगभग पटकते हुए अपने चादर कंबल, तकिया समेट कर ऊपर वाली बर्थ पर जा चढ़ा व ऊपर की बर्थ पर रखे चादर, कंबल व तकिया नीचे की सीट पर ज़ोर से पटक दिए।
सफर जारी था।

अप्रत्याशित
दीदी जी! ओ दीदी जी! ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा रहे थे वे घर के गेट पर।
उनकी तीखी आवाज़ें कानों में सीसा सा घोल रही थीं उसके, “इन्हें क्या फर्क पड़ता है, कोई जिए या मरे, इन्हें तो बस अपनी ही चिंता है” बड़बड़ाती हुई अपना ही जी जला रही थी महिमा।
वैसे तो वह कभी ऐसा नहीं सोचती थी, पर जब से उसकी मां का देहांत हुआ था, वह चिड़चिड़ी सी रहने लगी थी।
यूं तो मां की हर सीख विदाई के साथ ही चुनरी की गांठ में बांधकर लाई थी वह। बचपन से ही मां के दिए संस्कार समस्याओं पर अक्षुण्ण तीर से साबित होते।
मां की कही बात रह-रह कर गूंजने लगी थी कानों में, ‘बिटिया ! घर के दरवाज़े से कोई खाली हाथ न जाए , अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिए|’
दीदी जी! ओ दीदी जी! आवाज़ें लगातार धावा बोल रही थीं।
“अरे भाई , दे दो इनका दीपावली का ईनाम, वही लेने आए होंगे, हम तो दीपावली नहीं मनाएंगे, पर ये तो हर होली, दिवाली की बाट जोहते हैं न! इन्हें क्यों निराश करना” पति ने आवाज़ पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा।
“दी…दी… जी !! अबकी बार स्वर और तेज़ था ।
उनका स्वर व उसका गुस्सा आपस में मानो प्रतिस्पर्धा पर उतर आए थे।
“आ रही हूं” अलमारी में से पैसे निकाल कर भुनभुनाती हुई चल दी वो गेट खोलने ।
” दीदी जी, हम तो आपका दुख बांटने आए हैं। दिल तो हमारे पास भी है, मां से जुदा होने का दुख हमसे बेहतर कौन जानता है । बस आपको देख लिया , जी को तसल्ली हो गई, भगवान आपका भला करे।” आशीर्वादों की बौछार करते व ताली बजाते हुए, चल दिए वो, अगले घर की ओर।
महिमा की मुट्ठी में नोट व जले कटे शब्द ज़बान में ही उलझ कर रह गए ।

रिश्ते
दौड़ते-भागते, हांफते हुए वो तीनों मॉल में स्थित पिक्चर हॉल में पहुंचे, फिल्म शुरू हो चुकी थी। उधर वो फिल्म देखने में मशगूल थे इधर ये हमेशा की तरह बाहर आने को कुलबुलाने लगे। एक दूसरे को कोहनी मारकर पीछे ठेलते हुए लाईन में सबसे आगे खड़े रहने की जुगत में लगे थे। जब–जब वो कहीं बाहर घूमने जाते इनका यही हाल होता। फिर आज तो पत्नी व बेटी भी साथ में थीं। पहले मैं, पहले मैं करते उचक-उचक कर बाहर आने को आतुर थे सब।
“तू क्यों कूद रहा है, पड़ा रह चुपचाप।” पर्स की शोभा बढ़ा रहे ढेरों प्लास्टिक कार्ड्स के बीच दबा दो सौ का नोट यह सुनकर उदास हो गया। कार्ड्स अकसर उसका मज़ाक उड़ा दिया करते थे, “तू पड़ा रह ऐसे ही, अब कोई नहीं पूछेगा तुझे।” वो मन मसोस कर रह जाता।
“अब कैशलैस का ज़माना है, नकदी का कोई काम नहीं रहा और यहां बड़े शहर में तो बिलकुल भी नहीं।” डेबिट कार्ड ने मुस्कुराकर क्रेडिट कार्ड से हाथ मिलाया।
“तुम सब कुछ भी कहो, नकद का मुकाबला कोई नहीं कर सकता।” दो सौ के नोट ने गरदन उठाने की कोशिश की।
“हमने तो नहीं देखा, तू कितने महीने से पड़ा है यहां बेकार सा। एक भी पेमेंट किया इस पर्स के मालिक ने नकद? नहीं न! देख ले, हाथ कंगन को आरसी क्या!” डेबिट कार्ड ने उसके सिर पर हथेली रख नीचे दबा दिया।
“न किया हो, पर इससे मेरी अहमियत कम तो नहीं हो जाती न! तुम तो वैसे भी मशीनों के गुलाम हो और मैं एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले में माहिर हूं।” नोट ने फिर सिर उठाने की कोशिश की।
“कीमत होती है उपयोग करने से, समझा न! अब चुप होकर बैठ जा, इसी में भलाई है।” क्रेडिट कार्ड ने घुड़की दी। नोट की आंखें भर आईं।
बहस बढ़ने के लिए ही होती है सो बढ़ती रही। कोई हार मानने को तैयार नहीं था।
तभी फिल्म में इंटर्वल हुआ। इधर इनकी बांछें खिल गईं।
वो बच्ची को लेकर फूड कोर्ट पहुंचा। इनमें आपस में धक्कामुक्की शुरू हो गई।
उसने बच्ची से पूछा, “क्या लेगी मेरी बिटिया?”
बच्ची ने हमेशा की तरह उंगली से पॉपकॉर्न की ओर इशारा किया। उसने एक पॉपकॉर्न बकेट और अपने लिए एक थम्स अप का ऑर्डर दिया। और फिर पेमेंट करने के लिए उसने क्रेडिट कार्ड आगे बढ़ाया।
“सर, आज तो मशीन खराब है, कार्ड नहीं चलेगा।” दुकानदार ने असमर्थता जताई।
मायूस हो उसने मॉल में सामने ही बने एटीएम का रुख किया। वहां भी मशीन खराब है का बोर्ड देखकर वह परेशान सा हो गया। बेसमेंट के एटीएम तक का चक्कर लगा आया पर काम नहीं बना। ‘ सारे एटीएम आज ही खराब होने थे! गलती भी मेरी ही है, चलते समय रमा ने तो कहा था एटीएम से पैसे निकाल लो पर जल्दी के कारण नहीं निकाल पाया। कार्ड के भरोसे था मैं, ज़रूरत पड़ी तो मॉल के एटीएम से निकाल लेंगे सोचकर निश्चिंत भी था।’ वो बड़बड़ाने लगा।
अब करे तो क्या करे। उसने सब तरफ से हारकर बिटिया से कहा, “बेटा, आज रहने देते हैं, अगली बार दिला देंगे।”
पर बेटी नहीं मानी व जिद करती हुई पांव पटककर ठुनकने लगी।
मजबूरन उसने कोल्ड्रिन्क वापस कर केवल पॉपकॉर्न बकेट खरीद लिया। जेब में कुम्हला रहा दो सौ का नोट सबको अंगूठा दिखाता और मुंह चिढ़ाता हुआ उन्हें कोहनी मारकर बाहर निकल आया।
अब उसका पर्स कार्ड के साथ नकदी से भी भरा रहने लगा।

नीरज शर्मा
बिजनौर

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धर्म-प्रदूषण
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उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, “काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।”
“लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?” एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।
“लिखा है… बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।”
“लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं…”
“यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?”
वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।
“चल छोड़ सब बातें…” अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, “तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना…”
“लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?”
शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”

पश्चाताप
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उसका दर्द बहुत कम हो गया, इतनी शांति उसने पूरे जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी। रक्त का प्रवाह थम गया था। मस्तिष्क से निकलती जीवन की सारी स्मृति एक-एक कर उसके सामने दृश्यमान हो रही थी और क्षण भर में अदृश्य हो रही थी। वह समझ गया कि मृत्यु निकट ही है।
वह जीना चाह कर भी आँखें नहीं खोल पा रहा था। असहनीय दर्द से उसे छुटकारा जो मिल रहा था।
अचानक एक स्मृति उसकी आँखों के समक्ष आ गयी, और वह हटने का नाम नहीं ले रही थी। मृत्यु एकदम से दूर हो गयी, वह विचलित हो उठा। उसकी आँखों में स्पंदन होने लगा, एक क्षण को लगा कि आँसूं आयेंगे, लेकिन आँसू बचे कहाँ थे? मुंह से गहरी साँसें भरते हुए उसने उस विचार से दूर जाने के लिये धीरे-धीरे आँखें खोल दीं।
उसके सामने अब उसका बेटा और बहू खड़े थे। डॉक्टर ने बेटे को उसकी स्थिति के बारे में बता दिया था। उसकी आँखें खुलते ही बेटे के चेहरे पर संतोष के भाव आये, और उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा, “पापा, आपकी बहू माँ बनने वाली है।”
“मेरा… समय.. आ… गया है…!” उसने लड़खड़ाती धीमी आवाज़ में कहा।
“पापा आप वादा करो कि आप फिर हमारे पास आओगे…हमारे बेटे बनकर…” बेटे की आँखों से आँसू झरने लगे।
वह बहू की कोख देख कर मुस्कुराया, फिर बेटे को इशारे से बुला कर कहा, “तू भी… वादा कर … मैं बेटे की जगह… बेटी बनकर आया… तो मुझे मार मत देना…!”
कहते ही उसके सीने से बोझ उतर गया। उसने फिर आँखें बंद कर लीं, अब उसे पत्नी की रक्तरंजित कोख दिखाई नहीं दे रही थी।

प्रयास तो करो
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वह बदहवास सा भाग रहा था। उसके चेहरे पर घबराहट स्पष्ट झलक रही थी। वह बार-बार पीछे भी देख रहा था, जिस कारण वह दूसरे आदमी से टकरा गया। उस आदमी ने पूछा, “क्यों भई? क्या हो गया?”
उसने घबराये हुए स्वर में उत्तर दिया, “मेरे पीछे वो राक्षस पड़ा है।” दूसरे आदमी ने उसके पीछे देखा तो वह भी घबरा गया और चिल्ला कर बोला, “अरे! वो तो मेरे पीछे पड़ा है।”
और वह दूसरा आदमी भी उसके साथ भागने लगा। रास्ते में जो भी मिलता, उस राक्षस को देखता और घबराकर उनके साथ भागने लगता। भागने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। कोई भी नहीं छूट रहा था। सभी को यही प्रतीत हो रहा था कि वह राक्षस उसी के पीछे है। हफ्ते-महीने-साल बीत गए। उस भीड़ में कितने ही लोग थक कर गिर भी गए, कुछ रेंगने भी लगे थे। उनमें से कुछ लोग साहस करके रुके भी, लेकिन राक्षस का भयानक चेहरा देख और उसे अपनी तरफ बढ़ता पा कर फिर भागने लगे।
आखिरकार एक आदमी, जो थका नहीं था लेकिन भागने से ऊब गया था और उसका डर खीज में बदलने लगा था, मुड़ कर खड़ा हो गया। राक्षस उसकी तरफ लपका, जिसे देख कर वह आदमी भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर राक्षस की तरफ दौड़ा और उस राक्षस से लड़ने लगा।
और कुछ ही क्षणों में उसे पता चल गया कि संकट नाम का वह राक्षस उसकी भागने की ऊर्जा से तो बहुत कम शक्ति रखता था।

स्वप्न को समर्पित
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लेखक उसके हर रूप पर मोहित था, इसलिये प्रतिदिन उसका पीछा कर उस पर एक पुस्तक लिख रहा था। आज वह पुस्तक पूरी करने जा रहा था, उसने पहला पन्ना खोला, जिस पर लिखा था, “आज मैनें उसे कछुए के रूप में देखा, वह अपने खोल में घुस कर सो रहा था”
फिर उसने अगला पन्ना खोला, उस पर लिखा था, “आज वह सियार के रूप में था, एक के पीछे एक सभी आँखें बंद कर चिल्ला रहे थे”
और तीसरे पन्ने पर लिखा था, “आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया”
अगले पन्ने पर लिखा था, “आज वह एक भेड़ था, उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, उसने आँखें बंद कर रखीं थीं और उसे हांका जा रहा था”
उसके बाद के पन्ने पर लिखा था, “आज वह मीठे पेय की बोतल था, और उसके रक्त को पीने वाला वही था, जिसे वह स्वयं का सृजित अवतार समझता था, उसे भविष्य के स्वप्न में डुबो रखा था”
लेखक से आगे के पन्ने नहीं पढ़े गये, उसके प्रेम ने उसे और पन्ने पलटने से रोक लिया। उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा – ‘अकर्मण्य’, दूसरे पर लिखा – ‘राजनीतिक नारेबाजी’, तीसरे पर – ‘चुनावी जीत’, चौथे पर – ‘शतरंज की मोहरें’ और पांचवे पन्ने पर लिखा – ‘महंगाई’।
फिर उसने किताब बंद की और उसका शीर्षक लिखा – ‘मनुष्य’

ईलाज
स्टीव को चर्च के घण्टे की आवाज़ से नफरत थी। प्रार्थना शुरू होने से कुछ वक्त पहले बजते घण्टे की आवाज़ सुनकर वह कितनी ही बार अशांत हो कह उठता कि, “पवित्र ढोंगियों को प्रार्थना का टाइम भी याद दिलाना पड़ता है।” लेकिन उसकी मजबूरी थी कि वह चर्च में ही प्रार्थना कक्ष की सफाई का काम करता था। वह स्वभाव से दिलफेंक तो नहीं था, लेकिन शाम को छिपता-छिपाता चर्च से कुछ दूर स्थित एक वेश्यालय के बाहर जाकर खड़ा हो जाता। वहां जाने के लिए उसने एक विशेष वक्त चुना था जब लगभग सारी लड़कियां बाहर बॉलकनी में खड़ी मिलती थीं। दूसरी मंजिल पर खड़ी रहती एक सुंदर लड़की उसे बहुत पसंद थी।
एक दिन नीचे खड़े दरबान ने पूछने पर बताया था कि उस लड़की के लिए उसे 55 डॉलर देने होंगे। स्टीव की जेब में कुल जमा दस-पन्द्रह डॉलर से ज़्यादा रहते ही नहीं थे। उसके बाद उसने कभी किसी से कुछ नहीं पूछा, सिर्फ वहां जाता और बाहर खड़ा होकर जब तक वह लड़की बॉलकनी में रहती, उसे देखता रहता।
एक दिन चर्च में सफाई करते हुए उसे एक बटुआ मिला, उसने खोल कर देखा, उसमें लगभग 400 डॉलर रखे हुए थे। वह खुशी से नाच उठा, यीशू की मूर्ति को नमन कर वह भागता हुआ वेश्यालय पहुंच गया।
वहां कीमत चुकाकर वह उस लड़की के कमरे में गया। जैसे ही उस लड़की ने कमरे का दरवाज़ा बन्द किया, वह उस लड़की से लिपट गया। लड़की दिलकश अंदाज़ में मुस्कुराते हुए शहद जैसी आवाज़ में बोली, “बहुत बेसब्र हो। सालों से लिखी जा रही किताब को एक ही बार में पढ़ना चाहते हो।”
स्टीव उसके चेहरे पर नजर टिकाते हुए बोला, “हाँ! महीनों से किताब को सिर्फ देख रहा हूँ।”
“अच्छा!”, वह हैरत से बोली, “हाँ! बहुत बार तुम्हें बाहर खड़े देखा है। क्या नाम है तुम्हारा?”
“स्टीव और तुम्हारा?”
“मैरी”
जाना-पहचाना नाम सुनते ही स्टीव के जेहन में चर्च के घण्टे बजने लगे। इतने तेज़ कि उसका सिर फटने लगा। वह कसमसाकर उस लड़की से अलग हुआ और सिर पकड़ कर पलँग पर बैठ गया।
लड़की ने सहज मुस्कुराहट के साथ पूछा, “क्या हुआ?”
वहीँ बैठे-बैठे स्टीव ने अपनी जेब में हाथ डाला और बचे हुए सारे डॉलर निकाल कर उस लड़की के हाथ में थमा दिए। वह लड़की चौंकी और लगभग डरे हुए स्वर में बोली, “इतने डॉलर! इनके बदले में मुझे क्या करना होगा?”
स्टीव ने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, “बदले में अपना नाम बदल देना।”
कहकर स्टीव उठा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया। अब उसे घण्टों की आवाज़ से नफरत नहीं रही थी।


– डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी / उदयपुर

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