1.सेला पास 2. प्रकृति प्रेमी जनजाति-सावन


सेला पास
बर्फ की चादर को ओढ़कर मन्द – मन्द मुस्कुराता हुआ सेला पास। सेला दर्रा या से ला (ला का मतलब है- दर्रा ) भारत के खूबसूरत राज्य अरुणाचल प्रदेश के तवांग ज़िले और पश्चिम कमेंग ज़िले के मध्य अवस्थित एक उच्च तुंगता वाला पहाड़ी दर्रा है। इसकी ऊँचाई 4,170 मीटर (13,700 फुट) है और यह तिब्बती बौद्ध शहर तवांग को दिरांग और गुवाहाटी से जोड़ता है। इस दर्रे से होकर ही तवांग शेष भारत से एक मुख्य सड़क के माध्यम से जुड़ा हुआ है। हिमालय पर्वत पर अवस्थित सेला से तवांग की दूरी लगभग 75 किलोमीटर है। इस दर्रे के आस-पास वनस्पति अल्प मात्रा में उगते हैं। जो उगते हैं वह ठंड से ठिठुर कर अपनी ज़िंदगी को अपने में ही समेट लेते हैं। सेला पास में नाम मात्र की है हरियाली। जिधर देखो उधर है धवल बर्फ की खुशहाली।

यह क्षेत्र आमतौर पर वर्ष भर बर्फ से ढका रहता है। इस दर्रे के शिखर के नजदीक स्थित सेला झील इस क्षेत्र में स्थित लगभग 101 पवित्र तिब्बती बौद्ध धर्म के झीलों में से एक है। हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर स्थित इस मनमोहक स्थान सेला पास पर फरवरी और मार्च महीने में लगभग -7 डिग्री सेल्सियस तापमान रहता है जहां अनवरत बर्फबारी होती रहती है और ठंड से ठिठुरते हुए श्वेत – श्याम शिखर से शीतल हवाएं अठखेलियां करती रहती हैं। कभी-कभी इतनी बर्फबारी होती है कि रास्ते बर्फ से अवरुद्ध हो जाते हैं और गाड़ियां बीच सफर में ही फंसकर ठिठुरने या यूं कहें कंपकंपाने लगती हैं। भारत सरकार ने 2018-19 के बजट में सभी मौसम में परिवहन की सुविधा से युक्त सेला दर्रा सुरंग के निर्माण हेतु वित्तपोषण की घोषणा की।

एक अनुश्रुति के अनुसार 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान जसवंत सिंह रावत नामक भारतीय सेना के एक वीर जवान ने इस दर्रे के नजदीक चीनी सैनिकों के खिलाफ अकेले युद्ध किया था। जसवंत सिंह रावत को उनके साहस एवं कर्तव्य के प्रति समर्पण के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था।ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण एवं गरिमामय है।

केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली से सेला की दूरी लगभग 122 किमी. है। ज़िंदगी की भांति घुमावदार एवं ऊंचे नीचे रास्ते। दोल बहादुर थापा सर के मार्गदर्शन में हम सब सेला की ओर चल दिए। विवेक सर, अनुराग सर और हितेश सर के साथ संगीतय सफर। निधि मैडम, कविता मैडम, भरत सर, कौशिक सर यानी केंद्रीय विद्यालय टैंगा वैली परिवार के साथ बादलों की बस्ती में मस्ती। शिक्षक साथियों के साथ बर्फीली सेला झील पर उछलना, कूदना, दौड़ना, लेट कर आनन्दानुभूति करना, सर- सर, सर- सर, सरसराती हुई सुशीतल पवन एवं श्वेत श्याम वारिद संग बर्फ पर दौड़ना जीवन में सदा याद रहेगा।
सेला दर्रा तिब्बती बौद्ध धर्म का एक पवित्र स्थल है। बौद्धों का मानना है कि यहाँ आस-पास में 101 पवित्र झीलें हैं। देश-विदेश से पर्यटक वर्ष भर यहां आनंद लेने आते रहते हैं।
सिर्फ पर्यटकों को ही नहीं अपितु सेला को भी अपने प्यारे पर्यटकों से मोहमय प्रेम हो जाता है। तभी तो कोमल – कोमल बर्फ सबको गले लगाने लगती है।
शाम को जब विदाई की बेला आई
तब सेला झील की आंखें भी भर आईं…….

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अरुणाचल की शेरदुक्पेन जनजाति प्रकृति प्रेमी

भव्य जीवन, सभ्य मनन, शेरदुक्पेन शील।
महायान शाखा शिखी, समरसता की झील।।

सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध, सुंदर रंगरूप एवं चित्ताकर्षक शारीरिक गठनवाली शेरदुक्पेन जनजाति अरुणाचल प्रदेश की एक महत्वपूर्ण जनजाति है। इनका कद मध्यम होता है। अरुणाचल का पश्चिमी कामेंग जिला इनके निवास क्षेत्र हैं । प॰ कामेंग जिले का रूपा, जिगांव और शेरगांव नामक तीन गांवों में ही मुख्य रूप से इनकी अधिकांश आबादी निवास करती है। कमिंग बारी के आसपास भी इनका निवास स्थान है। इस क्षेत्र की प्रमुख नदी कामेंग हैं जिसके नाम पर जिले का नामकरण किया गया है। बौद्ध धर्म की महायान शाखा में निष्ठा रखने वाली यह जनजाति शांतिप्रिय, शिष्ट, भद्र एवं दूसरों का आदर करनेवाली है। इस समुदाय के लोग विश्वासी और ईमानदार होते हैं। इनकी जनसंख्या लगभग चार हजार है। ऐसी मान्यता है कि इनके पूर्वज तिब्बत से आए थे। कहा जाता है कि तिब्बती राजा के तृतीय पुत्र इनके शासक थे। राजा की पत्नी असम की एक राजकुमारी थी। तिब्बती सम्राट के प्रथम और द्वितीय पुत्र क्रमशः ल्हासा और भूटान के शासक थे। इनका भूटान के साथ घनिष्ठ संबंध था। पुरुष लोग शरीर के ऊपरी भाग को ढकने के लिए सिल्क का बना हुआ ‘सापे’ पहनते हैं। यह ढाई गज लंबा और डेढ़ गज चौड़ा होता है। यह बिना आस्तीन का होता है और घुटने के ऊपर तक रहता है। ‘सापे’ के ऊपर पूरी आस्तीनवाला जैकेट भी डाला जाता है। जैकेट का गला गोलाकार होता है और यह आगे से खुला रहता है। जाड़े के दिनों में शरीर को गरम रखने के लिए जैकेट के ऊपर कोट भी पहना जाता है। पुरुष लंबे बाल नहीं रखते। सिर पर याक के बाल और खोपड़ी से बना हुआ टोप पहनते हैं। इस टोप का स्थानीय नाम ‘गर्दम’ है। शेरदुक्पेन समाज बौद्ध मतावलंबी है। ये लोग बौद्ध धर्म की महायान शाखा में विश्वास रखते हैं। बौद्ध धर्म के साथ इसमें स्थानीय लोक विश्वास एवं परंपरा भी जुड़ गयी है। भगवान बुद्ध को स्थानीय भाषा में ‘कोंचोजम’ कहा जाता है। भगवान बुद्ध अत्यंत दयालु, चमत्कारी, अति तेजस्वी ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। शेरदुक्पेन लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते हैं। इन लोगों का विश्वास है कि कुछ दुष्ट आत्माए होती हैं जो मनुष्य को हानि पहुंचा सकती हैं। इसी प्रकार कुछ अच्छी आत्माएं और देवी-देवता भी होते हैं जो मनुष्य की रक्षा करते हैं तथा सुख-समृद्धि देते हैं। इन लोगों की मान्यता है कि देवी-देवताओं की निष्ठापूर्वक आराधना करने से वे हम पर प्रसन्न रहते हैं तथा धन-धान्य से परिपूर्ण करते हैं। ‘गोम्बु छा दकपा’ ऐसे देवता हैं जो दुष्टात्माओं से मानव की रक्षा करते हैं। ‘गेपु नाम्से’ मनुष्य की कामना पूर्ण करने वाले देवता हैं। इसी प्रकार ग्रामदेवता, वनदेवता और स्वर्गदेवता की भी पूजा-अर्चना की जाती है। इनका विश्वास है कि सूर्य की संख्या सात है और ये सभी एक साथ रहते हैं। इस समुदाय में पुजारियों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। पुजारी वर्ग के लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ये लोगों का दिशा निर्देशन करते हैं, बुरी आत्माओं से उनकी रक्षा करते हैं, रोगी को आरोग्य करने के लिए ईश्वर एवं देवी-देवताओं से प्रार्थना करते हैं। बिना पुजारी के शेरदुक्पेन समाज का कोई संस्कार संपन्न नहीं हो सकता है। उन्हें लामा कहा जाता है। बौद्ध मठ को गोम्पा कहा जाता है जो शेरदुक्पेन लोगों की धार्मिक आस्था का केंद्र बिन्दु होता है। रूपा और शेरगांव दोनों गाँव में गोम्पा है जिसमें तिब्बती शैली में भगवान बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ स्थापित हैं। रूपा ग्राम का गोम्पा क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे पुराना गोम्पा है। प्रत्येक गोम्पा में लामा होते हैं जो गोम्पा की देखरेख और भगवान बुद्ध की पूजा करते हैं। गोम्पा और गांव में जाने के लिए एक मुख्यद्वार होता है जिसे ‘काकालिंग’ कहते हैं। यह वर्गाकार होता है जिसमें पत्थर से बनी दो समानान्तर दीवार होती है और छत लकड़ी अथवा बांस की बनी होती है। इसमें भगवान बुद्ध और अन्य बौद्ध दिव्य आत्माओं के चित्र होते हैं। रूपा और शेरगांव के मठों में भी काकालिंग बना हुआ है।

गोम्पा से गोम्पा रमे, लामा मंत्र जाप ।
काकलींग को पार कर, कोंचोजम सुख आप।। – ‘सावन’

थोंग्डोक, थोंगो, थोंग्ची, ख्रीमें, मुसोबी, वांग्जा, मिगेजी, मोनोजी, सींचाजी, मिजीजी, डिंग्ला इत्यादि शेरदुक्पेन की उप जनजातियां हैं तथा जिडिंग खो, डिनिक खो, डोब्लो खो इत्यादि यहां की नदियां हैं।

रूपा के प्रतिष्ठित शिक्षक वांग्चू जी एवं आपकी माताजी ने बताया कि शेरदुक्पेन समुदाय के पर्व-त्योहार कृषि पर आधारित हैं। ये लोग कई त्योहार मनाते हैं जिनमें ‘लोसर’ और ‘छेकर’ सबसे महत्वपूर्ण है। इस जनजाति के लोगों का जीवन भव्य एवं सभ्य है।

खिकसबा,छेकर, लोसर, गुणी शेरदुक्पेन।
सप्त निशा की पूर्णिमा, बरसे रस दिन रैन।।

सुनील चौरसिया ‘सावन’
स्नातकोत्तर शिक्षक, हिन्दी
केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली अरुणाचल प्रदेश।
9044974084
sunilchaurasiya767@gmail.com

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