लघुकथाएँ- शील निगम, शैल अग्रवाल


संदेश
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घूमते घूमते नासिर कबालियों के कस्बे में जा पहुँचा।

आज का ही दिन बचा था उसके पास अपनी ज़िन्दगी को भरपूर जी लेने का। कल उसे अपने मिशन पर जाना था।

अपनी मर्ज़ी से वह आतंकवादी नहीं बना था।गलती से दुश्मन देश की सीमा पार कर गया और पकड़ा गया।अब उसे अपने ही देश में आत्मघाती दस्ते के साथ जा कर बम धमाके करने का हुक्म मिला था।

न तो वह इस हुक्म को मान सकता था और न ही वहाँ से भाग सकता था।रिमोट से उसकी हर हरकत पर नज़र रखी जा रही थी।फ़िर भी उसने मरने से पहले कुछ कर गुज़रने की सोची।

कस्बे में गोदना गोदने वाले को कागज़ में अपने देश की भाषा में दुश्मन की योजना का स्थान,वक्त और तारीख़ लिख कर एक चित्र बना दिया और उसे अपने हाथ पर गुदवा लिया।

अगले दिन आत्मघाती दस्ते के साथ गुपचुप सीमा पार करते समय, एक गाँव में पानी पीने के बहाने नासिर नल के पास गया। जहाँ कुछ लोग पानी भर रहे थे। उसने इशारे कर के अपना गोदना दिखा कर उन्हें संदेश दिया।

बस फ़िर तो आनन फ़ानन में पूरे आत्मघाती दस्ते को गिरफ़्तार कर लिया गया।

नासिर के लिये इनाम की घोषणा की गई।
उसने पुरस्कार की धनराशि न लेते हुए केवल इतना कहा, ” मैंने सिर्फ़ अपनी मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है।”

दोनों देश की टुकड़ियों में झड़प भी हुई पर वे टस-से-मस न हुए।ल निगम

शील निगम
कवित्री, लेखिका, मुंबई भारत

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1.

बटवारा
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मां की दर्दभरी चीख और सब शांत। धांय-धांय दो गोली की आवाज सुनी दोनों ने और एक दर्दभरी चीख, सबकुछ शांत होने से पहले।
दोनों के ही पैर जमे हुए थे अब ।
उन्हें नहीं याद रहा कि वे किस देश में हैं या कौनसा उनका अपना देश है या फिर क्या करना चाहिए अब उन्हें इस असह्य स्थिति में।
बगल-बगल के घरों में रहते थे दोनों भाई। हर काम मिलजुलकर होता था कुछ दिन पहले तक। एक के यहाँ सब्जी कम पड़ी तो दूसरे के यहाँ से आ गई । कभी माँ बड़े के यहाँ रह लेती, तो कभी छोटे के पास।
फिर एक दिन अचानक जाने क्या सौदा किया छोटे ने पैसों के लालच में कि अपने हिस्से का हाता बेच दिया। कुछ सैनिक आए और दोनों घर के आहतों के बीच से कंटीले काटों वाले तार की बाड़ खींच गए और एक सैनिक चौकी भी बन गई देखते-देखते। अब दोनों भाइयों के घर दो देशों में थे। एक भाई का घर और जमीं अब पड़ोसी मुल्क ने अपने कब्जे में कर ली थी । और उनके हिसाब से वह अब उनके मुल्क का वासी था। मिलना तो दूर अगर मिलने की कोशिश भी की तो बन्दूकें तनी दिखतीं। मां ने दोनों देश की टुकड़ियों से मिन्नतें कीं, झड़प भी हुई पर वे टस-से-मस न हुए। एक दिन जब उससे यह ज्यादती और बर्दाश्त न हुई और दूसरे बेटे की याद बहुत सताने लगी तो निकल पड़ी वह उसके पास जाने को -जान ही तो ले लेंगे , इससे ज्यादा तो नहीं। यूँ दो हिस्सों में चिरकर, वैसे ही मैं जिन्दा कब हूँ !
वह चली जा रही थी अपनी ही धुन में। चेतावनी की ललकारों से बहरी और उन्हें पूरी तरह से अनसुना करती।
पता नहीं पहली गोली कब और किधर से चली और कब बूढ़ी माँ का सीना चीर गई।
तारों पर लटकी, वह वही झूल रही थी, आधी इधर और आधी उधर। पर चेहरे पर ही नहीं, आँखों के आंसू तक में खुशी की चमक थी। बराबर-बराबर बांट लिया था उसने खुदको अपने दोनों बेटों में। जमीन उसकी अपनी, उसके और पति की खून-पसीने की कमाई थी। ये कैसे बांट सकते थे इसे। दोनों तरफ उसके अपने ही बेटे इंतजार कर रहे थे उसका। ये लुटेरे मानें या न मानें, हक ही नहीं उसका तो प्यार भी बराबर था जमीन के इन दोनों टुकड़ों पर।

***

2.


नई रौशनी
——

बन्दूकें दोनों तरफ से तनी हुई थीं। अचानक आँख मिलते ही, भुजाएँ ढीली पड़ गईं दोनों की ।

‘अरे जंग बहादुर तू यहाँ, दुश्मन की तरफ से? ‘
‘हाँ, मनसुख । जो पैसे दे उसी की तरफ से लड़ता हूँ मैं तो। ‘
फीकी हंसी के साथ जवाब दिया जंगबहादुर ने।
‘यह कैसी लड़ाई …नहीं जंगबहादुर यूँ मिट्टी का कर्ज खारिज न कर। बचपन के साथी हैं हम। रोटी-बेटी का रिश्ता है हमारा।’
‘ पर अब मेरे खेत खलिहान सब इनके कब्जे में हैं। जिन्दा नहीं निकल सकता में इस चक्रव्यूह से।’
जंगबहादुर की आवाज उदासी और लाचारी में डूबी हुई थी।
‘ तो लड़ते-लड़ते मर। मित्रों से नहीं, दुश्मनों से। भटक मत। आ मिलकर लड़ते हैं राक्षसों से। अत्याचारियों से तू भी पीड़ित है और मैं भी।’
जाने किस दुखती रग को छू दिया था मनसुख ने कि अचानक जंगबहादुर और तेज बहादुर दोनों ही पलटे और इसके पहले कि कोई कुछ सोचे समझे या जाने, पूरी टुकड़ी को उड़ा दिया, जिसका अभीतक वे दोनों नेतृत्व कर रहे थे।
मनसुख ने भी खुशी-खुशी अपनी टोली में ले लिया दोनों को।
एक नई सुबह थी यह उन पड़ोसी देशों के रिश्तों की, समझ की नई रोशनी के साथ।

शैल अग्रवाल
सटन कोल्डफील्ड, यू.के.

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