रपटः लेखनी सानिध्य

लेखनी सानिध्य

( पांचवीं वर्षगांठ पर काव्य गोष्ठी- वाराणसी, 15’th March 2012)

जमावड़ा अपनों का था और जगह थी मां गंगा की पावन गोद। मंथर-मंथर बहती वे लहरें मानो हमारे हर सपने को झूम-झूम कर अपनी सहमति दे रही थीं । हो भी क्यों नहीं, ऐसा रोज-रोज तो नहीं होता कि लेखनी पांच वर्ष की हो और हम इसका उत्स मनाने को बनारस में हों भी। बहुत मन से संजोया था हमने यह आयोजन। हवाओं के तेज झोके और खुले बजड़े की छत पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ जलाया गया वह दिया तक पूर्णतः आश्वस्त था और अपनी भर सामर्थ झिलमिल और समर्पित था, पीली चूनर ओढ़े सजी संवरी बैठी माँ सरस्वती के चरणों में।
कितनी देर जल पाएगा यह, कुछ आँखों में कौतुक भरा वह प्रश्न अभी बस उभरा ही था कि कल्पना स्वयं पतंग-सी आखों के आगे लहलहा उठी और डोर भी स्वतः ही आ गिरी अभी अभी दीप प्रज्वलित करके बैठे, लेखनी के संरक्षक डॉ.नरेन्द्र कुमार अग्रवाल जी के हाथों में। अगले पल ही गंगा की गोद में विसर्जित वह पतंग मानो मां का इंगित आशीष था उस काव्यमय संध्या के आगाज का सबके चेहरे नव उल्लास से गमक उठे और काव्य संध्य़ा स्वतः खिलखिला पड़ी।
सूरज की सिंदूरी आभा में नहाया बजड़ा तैयार था और हम शीतल मन्द बयार के झोकों का आनंद लेते, मां सरस्वती का आशीर्वाद लेकर अपनों की पूरी उमंग और सद्भावना समेटे गायघाट से राजघाट की ओर चल पड़े । बिना किसी औपचारिक परिचय के ही हम सब ऐसे घुल मिल चुके थे, जैसे बरसों से एक दूसरे को जानते हों। दशाश्वमेध घाट पर हमारे अन्य मित्र डॉ. मुक्ता व संगीता श्रीवास्तव व कुछ अन्य मित्रों को अभी आना था और तय हुआ कि दशाश्वमेध घाट पर हुई मां गंगा की भव्य आरती के बाद ही काव्य गोष्ठी का शुभारंभ होगा। कुछ स्थानीय पत्रकार जिन तक रस बौझारें पहुंच चुकी थीं अब साक्षात्कार लेने के लिए बेचैन थे और हर कवि से मनपसंद चन्द पंक्तियां सुनने का बारबार आग्रह कर रहे थे। तय हुआ कि जब मां सरस्वती का आवाहन अपनी ओजस्वी आवाज में प्रिय रचना शर्मा जी कर ही चुकी हैं तो क्यों न प्रस्तुत कवियों का स्वागत गुलाब के पुष्प गुच्छ और मालार्पण व टीका लगाकर कर ही दिया जाए। यह तो बहती गंगा है, जैसे-जैसे मित्र आएंगे स्वागत होता रहेगा और लोग जुड़ते रहेंगे और काफिला बढ़ता रहेगा। स्वागत का मोर्चा संभाला रचना शर्मा और श्यामा अग्रवाल ने। समर्पित दिए की जिम्मेदारी ली ड्राइवर मनोज ने , जो खुद भी अबतक काव्य उर्जा से भर चुका था और उसके गुनगुनाते शब्द वातावरण में एक नई उर्जा और कौतुक भर रहे थे-‘शहर कहां हमरे काशी जैसा, बाबा नहीं भोले बाबा जैसा , मइया कहाँ गंगा मइया जैसी , सांझ नहीं आज जैसी.’।
..बज़ड़े की खुली छत के बावजूद भी दिया जला ही नहीं खूब जला। पूरे पांच घंटे तक काव्य नेह और उष्मा से भरा जगमगाता रहा। सबके चेहरे खिले हए थे। गुलाब की पंखुड़ियों की मादक महक और ठंडी औरेंज पेय का स्वाद… आँखों में एक संभावनाओं से भरपूर काव्यात्मक शाम और अनौपचारिक व मनभावन संगोष्ठी के सपने थे। और तभी मानो सपनों को पूरा करताहमारे अपने ओम निश्चल जी का मधुर गीत हवा में गूंजने लगा। वैसे भी काव्य संध्या के संचालन की बागडोर इन्ही के हाथ थी।
“यह वेला प्‍यार की
आराधन की
अर्चन नीराजन की
स्‍वस्‍तिपूर्ण जीवनके
सुखमय आवाहनकी
यह वेला सपनों के
मोहक विश्राम की।
यह वेला शामकी।।

यह वेला जीत की
यह वेला हार की
यह वेला शब्‍दों के
नख-शिख श्रृंगारकी
दिन भर की मेहनत के
बेहतर परिणामकी।
यह वेला शामकी।।

यह वेला गीत की
यह वेला छंद की,
मौसम के नए नए
फूलों के गंध की
और थके-हारों के
किंचित आराम की।
यह वेला शाम की।।

यह वेला नृत्‍य की
संस्‍कृति साहित्‍य की। कोमल बतकहियों की
सर्जन-सामर्थ्‍य की
मित्रों के संग बैठे–
टकराते जाम की।

यह वेला शाम की।।
यह वेला मिलने की
संग-साथ जुड़ने की,
हाथो में हाथ लिए

आजीवन रमने की
चितवन के नए नए
खुलते आयाम की।
यह वेला शाम की।।

यह वेला प्‍यार की
अथक इंतजार की,
प्राणों से प्राणों के
उत्‍कट अभिसार की
यह घड़ी मोहब्‍बत के
हक़ के पैग़ाम की।

यह वेला शाम की।।”
शाम का रंग अमर श्रीवास्तव जी पर भी चढ़ चुका था और नाश्ते के बाद बंटने वाले ठंडई के कुल्लड़ों को उसी वक्त उन्होंने सबके हाथों में थमाना शुरु कर दिया। हम सभी यानी कि ओम जी, मंजुला चकुर्वेदी जी, दिनेश चंद्र मुगलसराय, अजात शश्रु , रचना शर्मा, नजीर बनारसी, मिर्जापुर से पधारी छोटी बहन श्यामा व बहनोई श्री सतीश चन्द्र अग्रवाल जी, हमारे संवाददाता और फोटो ग्राफर और मैं और नरेन्द्र, सभी के लिए काव्यसंध्या की अनौपचारिक शुरुआत हो चुकी थी।
फिर तो काशी विद्यापीठ के कला विभाग से पधारी डॉ. मंजुला चतुर्वेदी जी ने भी कई छोटी-छोटी मनोहारी पंक्तियों की रसगंगा से हमें आप्लावित करना शुरु कर दिया। अब कविताएं हर ओर से मस्त मौजों सी बहने लगीं । चन्द बानगी देखें-
शराफत आज गाली है,
व्यवस्था ने उछाली है ,
एक चिड़िया थी आजादी
किसी ने मार डाली है

-दिनेश चन्द्र मुगलसराय

उसकी याद में आँखों का कोना जब भींग जाता है |
मौन मन मेरा तब भी हौले से मुस्कुराता है ||
रचना शर्मा |

पूछा जब सूरज ने
घास के तिनके से
सूख-सूख कैसे तू हरियाता है
इतनी ज्वाला सह जाता है
बोला वह हंसकर बैठा हूँ
माँ की गोद में….
– शैल अग्रवाल

अचानक हवा ने रुख बदला और बजड़ा मणिकर्णिका घाट पर पहुँच गया। मां की गोद वही थी परन्तु अंतिम बार दुलराती सी। फैलते सुरमई अंधरे में एकसाथ धू-धू जलती वे पीँच छह चिताएँ मानो बिम्ब नहीं, खुद लहरों में भी आग लगा रही थीं। अजीब शान्त और वीतराग भरा दृश्य था ।
वातावरण हर हर महादेव से गूंज रहा था पर मन गहरे जीवन मृत्यु के दर्शन में डूब गया। वातावरण में सनी उदासी हवा में उड़ते राख के कणों सी कई-कई परत-दर परत मन के अंदर तक जाकर जम गई। जाने कौन-कौन थे …पीछे किन-किन को रोता बिलखता …कितने सपने, कितनी ख्वाइशों से जुदा हो रहे थे। मन लहरों सा ही उमड़ आया। जापानी और यूरोपी टूरिस्ट जरूर नावें रोक कर मधुमक्खी के छत्ते से वहीं जमे खड़े थे और इस वीभत्स अजूबे के चित्र पर चित्र लिए जा रहे थे। हमारा बजड़ा उन विदा लेती आत्माओं को अंतिम प्रणाम करता दशाश्वमेध की तरफ आगे बढ़ चला था, जहाँ डॉ.मुक्ता, विनीता श्रीवास्तव व तीन चार अन्य कवि व मेरा भइया आनंद व भाभी हमारा इन्तजार कर रहे थे।
दशाश्वमेध घाट अपनी गंगा आरती की दिव्य आभा के साथ आँखों के आगे था। और कानों में गूँज रही था मीरा का मनोहारी भजन- माई री मैंने गोविन्द लीन्हो मोल, कोई कहे सस्तो, कोई कहे मंहगों , लीन्हो तराजू तोल। आँखों और लहरों पर कई झिलमिल दिए थे और आंखों की पुतलियों में ही नहीं आत्मा तक में जगमग थे।
बची आधी टोली आ चुकी थी। यानी कि मुक्ता जी, संगीता श्रीवास्तव गौतम अरोड़ा सरस व वासुदेव उबेराय। रजनीश भाई का आखिरी पल तक इंतजार रहा और चकाचौंध ज्ञानपुरी आखिरी मिनट पर किसी मजबूरी के तहत आने में असमर्थ थे। पर वक्त किसी के लिए कब रुका है। हमारा काफिला भी आगे बढ़ता गया।
हाथों में गुलाब की अधखिली कली और गले में चम्पई माला व माथे पर अभिनंदन तिलक। स्वागत का भार एकबार फिर संभाला प्रिय रचना और श्यामा ने और खाने पीनेका मनोज, अमर व अन्य स्टाफ टीम ने।बनारस के मशहूर व्यंजनों और सामने चल रही आरती व दीपदान का आनंद लेने के बाद अब हमारी काव्य संध्या अपनी पूरी रवानी पर आ चुकी थी…घाट के शोर से दूर गंगा के मध्य खड़े हम एक के बाद एक रसमय कविताओं का आनंद ले रहे थे। मंजुला जी, मुक्ता जी, ओम जी, नजीर भाई , विनीता, दिनेश भाई व गौतम अरोड़ा सरस व वासुदेव उबेराय, सभी एक से बढ़कर एक थे।

बहुत कुछ लिखना चाह रही हूँ। कई कविताओं ने मन को छुआ ..विशेषतः मंजुला जी मुक्ता जी और नजीर बनारसी, सरस जी, व अन्य सभी मित्रों की रागरंग, देशप्रेम और अन्य उदात्त भावों से भरी ओजभरी कविताओं ने।ओम जी की कविता रसमय थीं और आवाज बेहद सुरीली। भीतर एक नदी बहती है तो आज तक संग-संग बह रही है। नजीर बनारसी की कविताओं ने अपना अलग ही प्रभाव छोडा। उनमें युवा बेचैनी और विद्रोह के स्वर थे । जबकि मुक्ता जी, मंजुला जी, रचना और विनीता जी की कविताओं में गहरी संवेदना के साथ-साथ नारी मुद्दे तो थे ही समाज की कुरीतियों की तरफ भी इशारा था। मेरा मन गंगा की लहरों से और उनमें बहते दिए और किनारे पर जलती चिताओं से आलोड़ित हो चुका था अतः मेरे काव्य पाठ की शुरुआत स्वतः ही ‘कल जब मैंने यादों का एक और दिया / गंगा की बहती लहरों पर बहाया था ‘ मेरी कविता ‘ बनारस में’ से शुरु हुई। समय के दबाव के तहत हर पंक्ति हूबहू याद रख पाना संभव नहीं। शीघ्र ही लेखनी के पाठकों के लिए कार्यक्रम का पूरा विडिओ भी अपलोड करूँगी वीथिका में, ताकी आप उस यादगार शाम का पूरा आनंद ले सकें।

..वक्त कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चल पाया और हर अच्छी चीज की तरह इस रंगभरी शाम की भी समापन वेला आ पहुँची । फोटो खींचते, गले लगते सभी मित्रों ने एक दूसरे से विदा ली। चलते-चलते दिनेश भाई की एक कविता जो उन्होंने कल ही ई मेल से भेजी है और बजड़े पर पढ़ी थी ।

“बहेलिये का दर्द”

बहेलिये से पूछ लेना ,
दर्द उसका जान लेना .
क्या होता है जब कभी ,
हाथ आई चिड़िया का उड़ जाना ………

मेहनत पर पानी का फिर जाना ,
आकर सपनों का धोखा दे जाना ,
परायी साँस के सहारे का ,
साथ बीच में ही छोड़ जाना .

खुद से छले जाने का सच ,
उस निरूपाय से तुम जान लेना……. .

करके गैरतमन्दों का भरोसा
दुनिंया में कब तक जियोगे .
फट चुकी चादर में पैबंद ,
कहाँ -कहाँ ,किस जगह सिलोगे. .

पैबंद भी नोच लेंगे इस दुनियां में ,
साथ के ही लोग ,तुम इतना जान लेना ………

टूटती साँस का क्या भरोसा ,
किससे कहोगे , दुःख किसने परोसा ,
धूप चली आती तेरे आँगन तक ,
अपनों ने दीवार खड़ी करके रोका .

आँख वाले अन्धो की दुनियां में ,
अपनों से रार मत तुम ठान लेना …..

आदमी हो तुम इतना जान लेना ,
हर किसी की बात मत मान लेना .
निष्प्राण हो चली किसी बूढ़ी काया से ,
उसके घावो से उठती टीस को जान लेना .

घरोंदे तिनको के बिखर जाते है आंधियो में ,
आसमान तले जीने की कला को जान लेना…….

दिनेश चन्द्र

१४७ -सी .डी .यूरोपियन कालोनी

मुगलसराय ,चंदौली (उ .प्र .)

 

चित्र वीथिकाः

 

 

 

मार्च 17, 2013 ,

लेखनी छह वर्ष पूरे करके सातवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। सपनों का यूँ सहज मंजिलें पार करते जाना किसी उत्सव से कम नहीं, फिर खुशियाँ मनाने का उत्साह तो सदा ही मादक व प्रेरक होता है, संक्रामक भी। लपेट लिया हमने मित्रों और परिजनों को। बर्फ में जमे घर और देश के बावजूद भी आनन-फानन गोष्ठी की रूपरेखा बन गई और साहित्य व कला में डूबे मित्रों ने आमंत्रण स्वीकार भी कर लिया। अब प्रतीक्षा थी मिलने जुलने की,काव्य धारा में जी भर डूबने की…विचारों के सहज और आनंदमय आदान प्रदान की.। होली पास थी और जिस शहर में पले बढ़े हैं वहाँ काव्य गोष्ठी और गीत-संगीत की परंपरा पुरानी है, विशेषतः होली के आसपास। मिलजुल कर रसास्वाद पुराना शगल है, पक्के बनारसी हम, भला कैसे पीछे रहते! फिर, गत वर्ष बनारस में बजडें पर मनाए पहले लेखनी सानिध्य की यादें अभी तक मन में ताजी थीं और अच्छे अनुभवों को दुहराना मन की कमजोरी है, बुनने लगीं आखें कुछ सपने।
कुछ बनारसी मित्र ( ओम निश्चल, मंजुला चतुर्वेदी, रचना शर्मा) को भी दस्तक दी फिर बड़े प्यार से उनकी कुछ कविताओं का चित्रमय कोलाज बनाकर मित्रों के साथ गोष्ठी में बांटा ताकि अतीत वर्तमान के साथ एक धार की तरह बहे…कहीं कुछ छूटे टूटे नहीं।
इंगलैंड में जनवरी से शुरु हुई बर्फवारी, पूरे मार्च लगातार रही , परन्तु 17 मार्च को आसमान साथ था और कम-से-कम यहाँ सटन कोल्ड फील्ड में बर्फ नहीं गिर रही थी । धूप तक पूरे सद्भाव के साथ निकली थी उस दिन और एक आल्हाद में डूबते-उबराते फटाफट सारी तैयारियाँ हो गईं। बैनर तक कुछ घंटों में बनकर आ गया।
परिवार का भरपूर सहयोग था और हमने झरझर झरती खुशियों को जी भरकर समेटा ।
मित्र उत्साहित थे। ‘सूचना पहले देते’ , ‘..वक्त कम है’ आदि छुटपुट शिकायतें तो मिलीं पर जिन्हे भी बुलाया दूर पास से, करीब-करीब सभी आए।
निखिल भाई जो अस्पताल में ड्यूटी पर थे और अपनी कविता -यदि मैं आ सकता तो आता-से उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे , ऐन वकत पर न सिर्फ आए बल्कि एक से बढ़कर एक अच्छी कविताओं का पिटारा लेकर आए ।
11 बजे के करीब जब फोन आया, ‘क्या मैं अभी भी आ सकता हूँ ?’ तो उनकी आवाज में उत्साह और अपनापन था। पूछने से पहले ही चहककर मैंने भी स्वागत किया उनका। आवाज की खनकती तरंगों ने ही मन को आभास दे दिया था कि वह आ पा रहे हैं…’हाँ-हाँ, निखिल भाई , स्वागत है आपका । गोष्ठी अपनों की है और अपनों के लिए है। आएँ, और अवश्य आएँ। निखिल भाई ने भी उतने ही जोश से कहा, ‘ठीक है तो करीब डेढ़ घंटे में पहुँच रहा हूँ।‘ और वाकई में वह रेक्सम से डेढ़ घंटे में आ गए ।
वादे के मुताबिक सभी मेहमानों ने वक्त पर आना शुरु कर दिया था। पहला मुस्कुराता चेहरा अख्तर बाजी ( अख्तर गोल्ड ) का था। उनकी सौम्य व स्नेहिल मुस्कुराहट ने दिन की और सानिध्य की एक मधुर व दृढ़ नींव रख दी थी। कितना भी वह गाएं , ‘मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे मेहबूब न मान’- पर उन्हें प्यार करना कौन छोड़ सकता है !

पांच मिनट बाद ही कविता वाचक्नवी जी और शिखा भी फोर ओक्स बस स्टौप पर थीं और सतेन्द्र भाई, युट्टा औस्टिन व दिव्या माथुर वहीं के रेलवे स्टेशन पर । घर से पांच-सात मिनट की दूरी पर ही तो हैं दोनों जगहें, ट्रेन स्टेशन से निकलते ही बस-स्टॉप, पतिदेव स्टेशन से और बेटा बस स्टौप से मेहमानों को तुरंत ही अपनी-अपनी कार में घर ले आए।
देखते-देखते संजय भाई और रश्मि भी माइक के साथ लेस्टर से आ पहुंचे और अगले कुछ मिनटों में राजीव वाधवा, अलका व वीरेन्द्र भाई भी। शशि व डॉ. अजय तिवारी, पड़ोस यानी यहीं सटन कोल्डफील्ड के हमारे अपने फोर ओक्स मोहल्ले से। किस्मत ही मानूंगी कि अजयभाई जैसे काव्य रसिक पड़ोस में आ गए हैं और उम्मीद है कि खूब जमेगी अब जब मिल बैठेंगे दीवाने दो ।
कोरम करीब-करीब पूरा हो चुका था। मन और मेहमान -खाने, दोनों में ही चहल-पहल शुरु हो चुकी थी। बड़ी ही सहजता व सुघड़ता से आवभगत और स्वागत सत्कार का मोर्चा संभाला सुधि ( बड़ी बहू) और डॉ.संजीत अग्रवाल ( बड़े बेटे) ने ।
अनौपचारिक मुलाकात व भोजन के बाद हम सब एकबार फिर एकत्रित थे वापस बैठकी में जहाँ एक बेहद खूबसूरत काव्यमय दिन हमारा इंतजार कर रहा था । गुलाबी स्नेहिल आभा में डूबा, लेखनी के छठे जन्मदिन पर आयोजित सानिध्य अब अपनी शुरुआत के लिए पूर्णतः ललायित व तैयार था।
माहौल अनौपचारिक और तनाव मुक्त था। सभी मित्रों ने पूरे रस के साथ सुना और सुनाया। और यही रसमय तनावमुक्त वातावरण ही इस गोष्ठी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। खाने के स्वाद की सभी बारबार तारीफ किए जा रहे थे पर सच सच पूछा जाए तो उन गीत और कविताओं को तो बिना किसी खाने-पीने के भी दिनभर सुना जा सकता था।
लेखनी का सौभाग्य है कि कमरे में उपस्थित हर व्यक्ति अपना और विशिष्ट था। अपने-अपने कार्यक्षेत्र के अलावा कई-कई कलाओं में सफल व माहिर था।

सर्व प्रथम मां सरस्वती की वंदना प्रिय रश्मि मानसिंह द्वारा सुरीले व भावमय कंठ से हुई,
दीप प्रज्जवलन का गरिमामयआमंत्रण था उपस्थित वरिष्ठतम और कनिष्ठतम को और पंचदीप को प्रज्जवलित करते हुए गोष्ठी का आगाज किया माननीय श्री सत्येन्द्र श्रीवास्तव जी ( अवकाश प्राप्त प्रौफेसर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय) , और शिखा वाष्णेय ( कवि, ब्लौगर ) ने। शेष तीन दीप शिखाओं को जगमग किया डां. नरेन्द्र कुमार अग्रवाल ( अवकाश प्रप्त शल्य चिकित्सक व संरक्षकः लेखनी ई पत्रिका) , डॉ. निखिल कौशिक(नेत्र चिकित्सक, कवि व फिल्मकार), युट्टा औस्टिन ( हिन्दी से बेहद प्यार करने वाली जर्मन मूल की रचनाकार जिन्होंने कई जर्मन रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया है।) ने।
लौ पांच थीं इसलिए पांच ही नाम, पर मन से तो हम सब ही जुड़े और साथ थे उस उजास में।
उपस्थित हर कलाकार, काव्यरसिक और काव्यप्रेमी की आखें और मन उस जोत को प्रज्वलित कर रही थीं, जोत से प्रज्वलित थीं… दिव्या माथुर, कविता वाचक्नवी , शशि, अजय त्रिपाठी, संजय, रश्मि मानसिंह, वीरेन्द्र व अलका अग्रवाल, अख्तर गोल्ड, राजीव वाधवा, मैं…आसपास फैली सकारात्मक उर्जा को देखकर माँ सरस्वती की प्रतिमा तक मानो मुस्कुरा उठी थी और उनका आशीष भरपूर साथ था ।
गोष्ठी के संचालन की बाग डोर संभाली काव्य-रसिक डॉ. राजीव वाधवा जी ने जो कि सोने पर सुहागा रहा। बीचबीच में चन्द शेर और पंक्तियों द्वारा अनुपस्थित कवि और शायर जैसे आलोक श्रीवास्तव, कुंवर बेचैन व अन्य कईयों को भी वे अपने निराले अंदाज में हमारे बीच ले आए।
बिना किसी लंबे भाषण या परिचय के बह चली गहरी अर्थमय, विविध सरोकारों के प्रति सजग, तो कुछ हल्की फुल्की चुटकियाँ लेती , रास रंग में डूबी भांति भांति की ललित और निश्छल भावों की कविताएँ।… इतना इस काव्यधारा में डूबे हम कि गोष्ठी के समापन पर सत्येन्द्र भाई, अजय भाई, कविता वाचक्नवी, कइयों ने कहा कि ऐसी गोष्ठियाँ नियमित रूप से होनी चाहिएँ और मन ने भी पुलक-पुलक कर बारबार ही कहा-आमीन।
शुरुवात में ही शिखा वाष्णेय ने अपनी छोटी-छोटी जलेबी-सी रसमय कविताओं से जो मधुर समां बांधा, वह शीरे-सा हर कवि के साथ और-और पगता ही चला गया।

1)

तेरी मेरी जिन्दगी
उस रसीली जलेबी की तरह है
जिसे देख ललचाता है हर कोई
कि काश ये मेरे पास होती
नहीं देख पाता वो उसके
गोल गोल चक्करों को
उस घी की तपन को
जिसमें तप कर वो निकली है।

2)

कभी कोई लिखने बैठे
कहानी तेरी मेरी
तो वो दुनिया की
सबसे छोटी कहानी होगी जिसमें सिर्फ एक ही शब्द होगा

“ परफेक्ट “

3)

तेरे लिए मैं
तेरी उस पसंदीदा टाई की तरह हूँ
जिसे तू हर खास मौके पर
गले से लगा लेता है
पर मेरे लिए तू
मेरे सीने से लगी वो चैन है
जिसे मैं कभी खुद से अलग नहीं करती।

4)

मैं एक रिमोट कंट्रोल हूँ तेरे लिए
जिससे तू जब तब
अपने मूड के हिसाब से
चैनल बदल लेता है
पर मेरे लिए तो तू
1980 का वह दूरदर्शन है
जिसपर हमेशा कृषि दर्शन ही आता है

-शिखा वाष्णेय

कविता वाचक्नवी जी ने अपनी गंभीर कविताओं से दूसरा ही रंग घोल दिया-
प्रेम

बात दरअसल इतनी -सी है
कि बच्चे हो गए हैं बड़े

आँगन में सूखे पत्ते बुहारती
माँ कि कमर
अब कभी सीधी नहीं होती
झल्लाती है पत्तों पर
कुछ कम गिरा करें वे
अपने न रहने पर
दरवाजे के आगे जमे ढेर में
एकाकी भविष्य वाले
पिता की लाचारी पर
गुपचुप आँख पोंछती है
कि पानी दूर से लाएगा कौन?
अपने रहते सहेजी चीजें
सही हाथों तक
बाँट दी हैं उसने
पोती के पदवीदान का चित्र
लोहे के संदूक से निकाल
देखते
नहीं जी भरता
भरती हैं आँखें|

घुटनों के विश्वासघात से बेहाल
बूढ़ा पिता
खाँसता है लगातार,
धर्मकाँटे पर
रातपाली और बुढ़िया की चिंता करता
कमा लाता है कुछ सौ रुपये,
माँ की हथेली
खुली रह जाए
उस से पहले तक सौंपने के लिए,
कहीं बच्चों के न पूछने की चोट में
उदास न हो जाए माँ |

घर

रचाया था
हथेली पर
किसी ने
उंगलियों से,
आँसुओं से धुल
मेहंदियाँ
धूप में
फीकी हुईं।”

जर्मन कवि की युटा औस्टिन द्वारा अनुवादित कविताएँ एक अलग दर्द, अलग रंगत पर थीं-आभारी हूँ सत्येन्द्र भाई की जिन्होंने परिचय करवाया। अहिन्दी भाषी द्वारा इतना सुन्दर अनुवाद! वाकई में हम हिंदी भाषियों के लिए जर्मन कवियों के अंतर्मन का एक अनूठा संसार खुल रहा था-

युद्ध का गीत

मटीअस क्लौडिअस

(1740-1815)

जर्मन से अनुवाद युट्टा ओस्टिन

युद्ध है ! युद्ध है! भगवान के देव-दूत तुम विरोध करो
और उसे बन्द कर दे
हतभाग्य यह, अब युद्ध है तो
निर्दोषी होना चाह रहा हूँ मैं

मैं क्या करू जो नींद में भारी हुए
और खूनी, पीले, जरद
शवों के भूत-प्रेत मेरे पास आ जाएँ
और रो उठें, मैं कैसे सहू इतना दर्द?
जब साहसी आदमी जो सम्मान के हित ही लड़े थे
लंगड़े-लूले और लगभग मरे हुए
अपनी मृत्यु की ड्योढी से सामने की धूल में
लुढककर मुझे अपना साथ दें

जब सहस्त्रों लोग, सब माँ या बाप या दुल्हन
जो सुखी थे जब तक युद्ध था नहीं
अब दुःखी सब, बेचारे जन
मुझ पर विलाप करते यहीं?

जब भूख, बीमारी तथा उनकी व्यथाएँ
एकत्रित करतीं कब्र में भाई दोस्त और शत्रु
और किसी जन की लाश पर बैठे हुए
मेरे सम्मान की घोषणा करते तो मैं क्या करु ?

तब ताज और राज किस काम का हो ?
सुख कैसे दे सकते ?
हतभाग्य यह, अब युद्ध है तो
निर्दोषी होना चाह रहा हूँ मैं।

वही बहार आ गई है

एरिख कैस्टनर ( जर्मन)

अनुवाद युट्टा औस्टिन

सच है।
आ गई है बहार
खिड़कियाँ विस्मित हैं।
पेड़ लेते हैं अंगड़ाई
अब किस और बात की है बड़ाई
जब पंख की तरह हलकी है हवा

मकान के आगे घर के मालिक खड़े हैं
दिखाते हैं अपना घमंड
अब चली जा रही है ठंड
लोग अपने छोटे बच्चों को घुमा रहे हैं

शरमीली होने लगती हैं कुमारियाँ
मीठी मलाई जैसे बहता है नसों में काम
आकाश में नाचते हुए झलमलाते हैं विमान
और लोग न जानते हुए भी जानते हैं अपनी खुशियाँ

अच्छी बात
लोग फिर से सैर करते हैं
उड़ गए थे लाल नीले हरे रंग,
पर अब बहार
फिर रंजित करती है सारा संसार
एक दूसरे को समझने तक लोग मुस्कराते हैं

पग-डंडियों पर मन घूमते हैं शहर में
सदरी पहने बिना आदमी छत पर दिखाई देते हैं
अपने गमलों में ताजे बीज डाल लेते हैं
धन्य हैं वे, जिनके पास हों कुछ गमले

बाग की नंगाई है दिखावट ही इस बार
गरम करके सूर्य बदला ले रहा है हेमंत से
हर साल होता है यह वसंत में
पर लगती है हमेशा जैसे पहली बार

अनुभवों के उच्छवासों से भरी सत्येन्द्र श्रीवास्तव जी की गंभीर कविताओं ने कहीं जीवन के यथार्थ का, तो कभी दर्शन का बोध दिया ,

जैसे कालातीत गीत
बदला है नहीं कुछ
वही सुख
वही दुख

असंगतियां पहले सी
आधे सच खुले हुए
तर्क घिसे-पिटे हुए
ऊपरी मुलम्मों की चकाचौंध
असली रंग मिटे हुए

नारे हैं वही
वही मांगे हैं
सिर्फ नए हैं मुख।

आश्रित जिह्वाओं पर
वही प्रश्न—कल क्या हो?
आखों में वही अभ्र भ्रम के हैं
ऋचा-गान अब भी स्वरबद्ध है
कंठ किंतु
अवसर मौसम के हैं

दंश समय का अब भी
पैरों में
चालों का लेकिन है वही रुख।

समिधा है वही
वही हवन-कुंड
मंगतों की वैसी ही
लम्बी कतारे हैं
कुर्सी के आसपास वही झुंड

हाथों में वही
चुन चुनाहट है
सीने वही तेज
धुक धुक धुक

बदला है नहीं कुछ…

-सत्येन्द्र श्रीवास्तव

दिव्या माथुर की कविताएं जीवन के आसपास और एक नयी ताजगी लिए हुए थीं-

पहला प्यार
‘ मिट्टी पड़े
तुम्हारे पहले प्यार पर ‘
कहा था अम्मा ने
इक बार दुखी होकर
और ब्याह दिया था
मुझे विदेश
पर न तो समय
न ही दूरी
कर पाए धूमिल
रँग रूप गँध
सभी तो ताजा है
सभी तो ताजा है
मिट्टी पड़े
मेरे पहले प्यार पर।

नृत्य

धूसर रेत के टीले पर
चांदनी आई उतर
साठ कली का घागरा
अंगिया एक कली भर
पीले लाल सुर्ख रंगों से
रंगी थी उसकी चूनर
वाणी सुरीली
कमर नचीली
पांव उठे जो इस गोरी के
कैसी नाची रेत नचीली

अजय त्रिपाठी की कविता मानवता का संदेश लिए हुए थी
अजय त्रिपाठी
मैं आया हूँ

कुछ मायूसों की
बस्ती में मैं ख्वाब बेचने आया हूँ,
उन मुर्दों का जो जिंदा है मैं दिल बहलाने आया हूँ।
बेनूर निगाहों की ख़ातिर लेकर प्रकाश मैं आया हूँ,
मैं वस्त्रहीन कंकालों की ख़ातिर
कुछ कपड़े लाया हूँ।

चेहरे की चंद
लकीरें जो जीवन गाथा बतलाती है,
उस गाथा का हो अंत सुखद उम्मीद जगाने आया हूँ।
मैं नाकामी के मरुथल में इक बूंद ओस की बन कर के,
खुद को मिटवाने की ख़ातिर ही
अपने घर से आया हूँ।

जहाँ धर्म ने
बोई है नफ़रत और लहू बहा है नदियों में,
मैं घुस कर ऐसे दलदल में इक पुष्प खिलाने आया हूँ।
मैं गोवर्धन के पर्वत को उँगली पे आज उठा लूँगा,
शोषण से मुक्ति का ले कर इक
मंत्र बाण, मैं आया हूँ।

शेषनाग तुम
मुझे बना जीवन सागर मंथन कर लो,
अमृत तो अपने पास रखो मैं विभा को चुराने आया हूँ।
जब तक तुम सहते जाओगे जुल्म करेगा ही जुल्मी,
मिल साथ उठो संघर्ष करो हिम्मत
जुटलाने आया हूँ।

हो पार्थ तुम्हीं,
तुम गुडाकेश तुम को ही बाण चलाने हैं,
है कुरुक्षेत्र ये रणभूमि मैं सारथी बनके आया हूँ।
खुद ही सोचो क्या अच्छा है खुद ही सोचो क्या करना है,
तुम चंद्रगुप्त मैं चाणक्य ये
बात बताने आया हूँ।

इस गाथा का हो
अंत सुखद उम्मीद जगाने आया हूँ
हर गाथा का हो अंत सुखद
उम्मीद जगाने आया हूँ।

मेरी सोच मातृत्व के सुख दुखों से जा जुड़ी थी उसदिन-
बीज और वृक्ष

इस बीज के
वृक्ष बनने से पहले

इसकी धूप, हवा और खाद-पानी
सब कुछ मैं ही तो हूँ
क्योंकि
यह बीज और वृक्ष दोनों
मेरे अपने ही रूप।

नदी हूँ मैं

तुम्हारी कोख से जन्मी
तुम्हारी गोद में खेली
बह चली
दुनिया की राहों से अब
आकांक्षाओं के समंदर की ओर
बिना जाने
कौन सी गोद मेरी
कौन सा घर, घर-आंगन

या यही बस एक समाधि
अब मेरी इति और नियति
निगल चुका है एक ज्वार
एक सिंधु मुझे..

और तुम कैसे यूँ शांत
अटल पर्वत-सी आज भी
इंतजार करतीं
मेरे लौट आने का

ओस बिन्दु-सी कांपती
अपनी ही नेह उष्मा में
ललक-ललक
हिमपातों से घिरी

पर

अपने ही विश्वास में
जमी-थमी।

गर्भपात

कोख का बच्चा यह मेरा है
इसे आने दूं या नहीं
हक है मेरा…

किसी और का इससे
क्या लेना देना
आज और ना ही कल।

कुलदीपक के स्वागत में बजते
ढोल –तांसों की आवाजों को
हजारों फूल-से नम भावों को

मन में ही दफन कर
पति समेत सुना है सभी ने बेबस
हक जताती आधुनिक माँ को
और सहा है परिवार ने फिर
एक और गर्भपात…।

मा फलेषु कदाचन्

अब बच्चे नहीं, मां उनकी तरफ देखती है
जाने किस बात पर हो जाए घर में कलह
नाराज हो जाएँ सब
इतना भी दखल ठीक नहीं।

एक छत के नीचे
सबको समेटना
किसी और की नहीं
उसी की तो जिम्मेदारी है।

याद करती है फिर नम आंखों से
कैसे मां दादी से कहा जाता था
‘छोड़ो यह मोहमाया, अपना आगा सम्हालो
पूजा-पाठ में ध्यान लगाओ।‘

और बैठ जाती थीं वे
सुमरनी लेकर बहुओं के भरोसे
भाग्य की रेहमत पर…
सौंपकर चूड़ी कंगन, चाभी का गुच्छा
कभी भूखी-प्यासी तो कभी गहन उदासी।

स्वर्ग-नरक की चाह या
भय न होने पर भी
लो छोड़ दी उसने भी
सारी मोहमाया
चूल्हा-चौका और बर्तन

अपने पराए भूले बिसरे
सबसे दूर जा बैठी है वह भी
करती जीवन के रहस्यों का
गुनन और मनन।

तकलीफ अब उसे नहीं,
औरों को ज्यादा है
घर में सबका
कभी माथा तो कभी
कूल्हा दुखता है।

उन आवाजों का क्या करे वह
कुरेदती हैं जो कानफोड़ू शोर के साथ
झनझनाती हैं दिन-रात
‘ऐसे तो नहीं चलता साझे का चूल्हा
मां को तो मानो मतलब ही नहीं।‘

खेत में जुते बूढ़े बैल सी
पुनः उठ खड़ी हुई है वह
आखिरी सांस तक काम करती
गीता के श्लोक उच्चारती

‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्…’

निखिल कौशिक की घर कविता ने एक बार पुनः हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया कैसे एक बड़े घर को तलाशते हम भारत में बसे अपने छोटे से घर को कांटते छांटते , भाइयों को सौंपते, बीच में दीवाल खड़ी करते अंततः उस पर ताला जड़ते उसकी चिंता में ही जाने क्यों बेचैन रहते हैं-शायद अतीत के उस नन्हे टुकड़े के बिना कभी कोई वर्तमान संतुष्ट ही नहीं ।
सहज और सोचने पर मजबूर करती इनकी कविताओं का एक अपना ही रंग है….

सारा समय

सारा समय
मैं मौन रहा
देखता रहा एक स्वप्न

एक स्वप्न कि आंदोलन होगा
पेरिस में
दिल्ली में
लंदन में
सिडनी में
त्रिपोली में
बगदाद में
और न्यूयौर्क में भी

होगी तब एक ऐसी श्रटि
जिसमें सब बंजारे होंगे
तब मैं बनाऊंगा
एक मंदिर
जिसमें स्थापित होगी हिन्दी

वहां होगी एक झील
जिसमें तैरेंगे केवल सच
सच जो परछाईं बन
साथ रहेंगे हर पल
चलेंगे उस गांव तक
जहां सब सपने साकार होंगे

कोई भी मुसाफिर
रौशनी एकत्रित कर सकेगा
और गुमनाम हो जाएंगी
आहटें
ऐसे होगी शुभ प्रभात

हुई भी प्रभात
परन्तु तब तक
सारा समय
जो मेरा था बीत गया
और मैं केवल
एक स्वप्न देखकर ही बस रह गया।

कुंवर बेचैन जी का गीत- बदरी बाबुल के अंगना जइयो जब इन्होंने अपनी सोजभरी आवाज में गाया तो मानो खुद कुंवर भाई ही हमारी महफिल में शरीक हो गए थे।
(निखिल भाई की ई.मेल से भेजी सहज और सरोकार से भरी उस उल्लेखित कविता को भी गोष्ठी से परे रखना न्याय नहीं, इसलिए सभी अनुपस्थित मित्रों को याद करते हुए आपके साथ बांट रही हूँ।)

मैं यदि आ सकता तो आता
और एक कविता अवश्य सुनाता
क्योंकि मैं मानता हूँ
कि यदि इश्वर होता मैं,
तो निर्मित करता एक संसार
जिसमे पुरुषार्थ से भरपूर होता हर पुरुष
जिसमें निर्मल होता प्रत्येक नारी मन
जिसमे बोलता हिंदी हरेक जन जन…

परन्तु मैं मानव हूँ
और देखता हूँ, सहता हूँ
इश्वर की कमजोरी
जो अभी तक
स्थापित नहीं कर पाया है
स्ताहित्व
और बदलता रहता है
हिंदी को इंग्लिश में और इंग्लिश को हिंदी में
बोलना तो चाहता है हिंदी
लेकिन बोल पाता है
इंग्लिश व्न्ग्लिश जैसी इंग्लिश
सुनता रहता है
कविता वविता जैसी कविता

मैं आता तो सुनता और सुनाता
कविता केवल कविता
क्योंकि मैं इश्वर नहीं
मानव हूँ
और मानव के लिए आवश्यक है
के वो पढ़े, लिखे, बोले और समझे
हिंदी__.और हिंदी कविता
शैल जी की गोष्ठी में होगी जिसकी भरमार
सब कवियत्रिओं को प्यार और कवियों को नमस्कार!

………….निखिल कौशिक

अब बारी थी अनुपस्थित मित्रों से मिली कविताओं की, जिनके अपने अलग ही तेवर थे-
।। एक कोना राग का ।। मंजुला चतुर्वेदी ( नीली साड़ी में)
एक कोना छोड़ दो तुम
राग का मेरे लिए।
राग का, अनुराग का
मम भाग का मेरे लिए।

प्रकृति के उल्‍लास-सा
वासंतिकी मधुमास-सा
बस एक राग विहाग का
तुम छोड़ दो मेरे लिए।
एक कोना छोड़ दो तुम
राग का मेरे लिए।

छंद मधुमय भाव अक्षय
गीत तुम लिखती रहो
एक अंतरा छोड़ दो
सहभाग का मेरे लिए।
एक कोना छोड़ दो तुम
राग का मेरे लिए।

गीतिमय हों सुर तुम्‍हारे
बजें मन के तार सारे
गुनगुना दो गीत ऐसा
फाग का मेरे लिए लिए।
एक कोना छोड़ दो तुम
राग का मेरे लिए।

छुआ मुझे तुमने रूमाल की तरह/ ओम निश्चल

थके हुए काँधे पर
भाल की तरह,
छुआ मुझे तुमने रूमाल की तरह.

फिर चंचल चैत की
हवाएँ बहकीं,
कुम्हलाए मन की
फुलबगिया महकी
उमड़ उठा अंतर शैवाल की तरह.

बीत गए दिन उन्मन
बतकहियों के
लौटे फिर पल
कोमल गलबहियों के
हो आया मन नदिया-ताल की तरह.

बहुत दिन हुए
तुमसे कुछ कहे हुए
सुख-दुख की संगत में
यों रहे हुए
बोले-बतियाए चौपाल की तरह.

और अंत में मेरी अपनी छोटी बहन-सी मित्र रचना शर्मा ,

पथ है फैला विस्तृत असमतल
पाँव में छाले अगणित

फिर भी जीवन साथ है

जीत मेरी ही रहेगी
नीड़ के निर्माण की |
अबतक नौटिंघम से जया और डॉ. महिपाल वर्मा भी आ चुके थे। जया जी ने भी अपनी कुछ उत्कृष्ट रचनाएं सुनाईं। कविताएं सुनते, गुनते-बुनते दो घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला-

एकबार फिर रंगारंग चाट, मिठाई और नमकीन आदि चाय पर हमारा इंतजार कर रहे थे। लंदन वालों की ट्रेन का वक्त भी हो चला था । एक अर्ध विराम लेते हुए हमने जलपान किया और सतेन्द्र श्रीवास्तव , युट्टा औस्टिन व दिव्या माथुर जी से विदा ली। साथ में अलका और वीरेन्द्र अग्रवाल जी व जया और महिपाल वर्मा जी से भी । व्यक्तिगत् व्यस्तताओं की वजह से लौटना था इन्हें भी।

तितिक्षा शाह और के.के. श्रीवास्तव आए तो, परन्तु देर से,सत्येन्द्र भाई , दिव्या और युट्टा औस्टिन के जाने के तुरंत बाद ही …सत्येन्द्र भाई, जो हमारी तरह ही तितिक्षा का इंतजार करते रह गए। प्यार भरी शिकायत की तो वही जबाव-‘ क्या करते पहले से कमिटमेंट थे…।’ पर आते ही दोनों ने सारी कसर पूरी कर दी गीत, चुटकुले और रसभरी बातों से…तितिक्षा के शब्दों में कहूँ तो, ‘वी औल रियली चिल्ड आउट आफ्टर ए लौंग टाइम।’
अब महफिल का यह दूसरा दौर था और महफिल होली के रंग में डूबे रसमय गीत और गजलों की थी, रसभरी बातों की थी। शुरुवात हुई कविता जी के खुदके लिखे कुछ दर्दभरे सूफियाना गीतों से। फिर तो के.के भाई, अख्तर बाजी, शशि त्रिपाठी और रश्मि मानसिंह, सभी ने एक-से-बढ़कर एक गीत सुनाए। गीत जो मन की गहराइयों में देर तक गूंजते रहे। तुम अपने गम अपनी परेशानियां मुझे दे दो। कश्ती का खामोश सफर है…तुझको संभालू कि अपना जियरवा मैं बालमा….आज जाने की जिद ना करो… एक-के बाद एक सुरीले, नए पुराने, फिल्मी, नौन फिल्मी, लोक गीतों की लगातार बौझार थी और हम रात के आठ बजे तक सोखते और भीगते रहे उस रस और रंग की फुहार में।

बबल, सुजान भाई की तबियत ढीली होने की वजह से विडिओ कालिंग के माध्यम से अपनी कविता पढ़ना चाह रही थी परन्तु वक्त की मारामारी की वजह से अरेन्ज कर पाना संभव नहीं हुआ, इसका दुख रहेगा….घर के सदस्य जैसे डॉ. सुजान सिंह व बबल सिंह अनुपस्थित हों ऐसा यह पहला आयोजन था घर पर । प्राण भाई और रामकिशोर जी बर्फ और बूंदाबांदी से डर गए और वंदना अपने कोल्ड और खांसी बुखार से हर भरसक कोशिश के बावजूद भी नहीं उबरी, वंदना जिसके ठीक हो जाने के लिए बहुत प्रार्थनाएं की थीं मन ने । वन्दना की कविताएँ तो लाजबाब हैं ही, वन्दना और रश्मि की जुगलबन्दी गीतों की महफिल को एक दूसरे ही धरातल पर ले जाती है। भाई तेजेन्द्र शर्मा की भी उसी दिन सुबह छह से शाम के छह बजे तक की ड्यूटी थी और ऊषा वर्मा व महेन्द्र वर्मा जी की अपनी कुछ मजबूरियाँ थीं। कुछ मित्र भारत में थे।
बहुत बहुत मिस किया हमने अपने सभी अनुपस्थित मित्रों को…खैर फिर कभी सही, ये मिलने-मिलाने के मौके तो आते ही रहेंगे । हाँ, उसदिन की महफिल कुछ और खूबसूरत गीतों और कविताओं से, कुछ प्रिय और रोचक व्यक्तिओं से वंचित रह गई, इसका मलाल रहेगा।
जो आ पाए, जिनका स्नेह व सहयोग भरपूर मिला, उन सभी मित्रों और अपनों का पुनः तहेदिल से आभार एक बेहद खूबसूरत और रसमय लेखनी सानिध्य के लिए। …
-शैल अग्रवाल

लेखनी सानिध्य 2014

लेखनी सानिध्य व होली मिलन का तीसरा वार्षिकोत्सव पावन गीता मंदिर में सभी देवी देवताओं के आशीर्वाद के साथ गत 30 मार्च को संपन्न हुआ। आयोजन आत्मीय, उल्लासमय और रसपूर्ण था। भावपूर्ण एक से बढ़कर एक सुंदर रचनाएँ अंततक श्रोताओं को काव्य रस से आप्लावित करती रहीं।
डॉ. अजय त्रिपाठी का संचालन सोने में सुहागा था। सरस्वती मानो खुद कवि और वक्ताओं की जीभ पर आ बैठी थी। तीस मार्च महीने का अंतिम इतवार था और यह दिन यहाँ पर मातृ-दिवस की तरह मनाया जाता है फलतः माँ की यादें, माँ की ममता कविताओं का एक मुख्य विषय रहा।
लेखनी सानिध्य की यह परंपरा दो वर्ष पूर्व मार्च सन 2012 में शुरु की गई थी जब लेखनी पत्रिका पांच वर्ष की हुई थी। पहला सानिध्य 2012 में वाराणसी में माँ गंगा के आंचल में बजड़े पर हुआ था, जिसमें कई स्थानीय कवि, आलोचक और पत्रकारों ने भाग लिया था। यह विशेष गर्व की बात थी कि पहला आयोजन पावन काशी नगरी में हुआ। संयोग विशेषतः सुखद था क्योंकि पहला आयोजन अपनों के बीच, अपनों के साथ, अपने शहर वाराणसी, मेरी जन्म स्थली और माँ गंगा की लहकती-हुलसती आशीष देती माँ गंगा की गोद में था।
दूसरा पिछले वर्ष यहाँ सटन कोल्डफील्ड में घर पर था जिसमें एकबार फिर जमावड़ा अपनों का था। आदरणीय सत्येन्द्र श्रीवास्तव (सत्येन्द्र भाई अस्पताल में हैं और उनके शीघ्र स्वास्थ लाभ की प्रार्थना करती हूँ) के साथ दिव्या माथुर, शिखा वाष्णेय, कविता वाचक्नवी, जुटा औस्टिन व डॉ. निखिल कौशिक जी, डॉ. अजय त्रिपाठी और राजीव भाई व अन्य कई कवि-कवियत्रियों के साथ हमने काव्य माधुरी का रसपान किया। साथ ही डॉ. के के. श्रीवास्तव , शशि त्रिपाठी, रश्मि मानसिंह व अख्तर गोल्ड व तितिक्षा शाह व कविता वाचक्कनवी जैसे मित्रों ने गीत-संगीत की महफिल की शमा को देर रात तक जलाए रखा।
कम सौभाग्य की बात नहीं कि एकबार फिर हम 30 मार्च को अपनों के साथ अपनों के बीच और अपने ही शहर बरमिंघम में थे और गीता मंदिर के माननीय धर्मदत्त जी के मंत्रोचार ने कार्यक्रम का आगाज किया। सानिध्य था हम सबके परिचित और हमारे अपने काउंसलेट जनरल माननीय श्री रामालिंगम जी और उनकी पत्नी सौभाग्याकांक्षिणी बिनोदा जी का जिन्होने पधार कर कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई और जो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि रहे।

गीता मंदिर, बरमिंघम। पावन परिसर। पावन परिसर अपनों का साथ और लेखनी सानिध्य 2014 का आगाज़।

नातिनी साची द्वारा सौ. बिनोदा जी का पुष्प गुच्छ से अभिनंदन और बेटी डॉ. सपना द्वारा मुख्य अतिथि श्री रामालिंगम जी (जिन्होने हमारा नेह निमंत्रण स्वीकारा और अंततक उपस्थित रहकर कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई) का आतिथ्य तिलक।

पतिदेव व लेखनी के संरक्षक डॉ. नरेन्द्र अग्रवाल द्वारा माननीय रामालिंगम जी को शौल अर्पण।

रामालिंगम जी, बिनोदा जी, लेफ्यिनेंट जनरल व ओ.बी.ई भाई जगजीत टौंग व भाभी सतिंदर टौंग व गीता मंदिर के विद्वान व स्नेही धर्मदत्त जी ने पंचमुखी दिया जलाकर कार्यक्रम की शुरुवात की ।

मां सरस्वती की वंदना व आवाहन बरमिंघम से ही कोकिल कंठी कवियत्री व मित्र स्वर्ण तलवाड़ द्वारा।

कुशल व सरस संचालन का भार संभाला डॉ. एवं खुद एक सशक्त कवि मित्र डॉ. अजय त्रिपाठी जी ने।

अब श्रोताओं को इंतजार था एक भावपूर्ण और मनोरम कवि सम्मेलन का।

ओपनिंग बैटेसमैन। कैसे 30 मार्च मातृ दिवस जिसने याद दिला दी स्वर्ण को माँ की-कैसे उन्हें खोने के बाद अब भारत जाना एक औपचारिकता मात्र रह गई है। और कुछ और खूबसूरत कविताएं।

युवा कवि आशीष त्रिपाठी।

भारत से पधारे एक अतिथि कवि।

काव्य प्रेमी रामालिंगम जी, उनकी सहधर्मिणी बिनोदा जी और हमारे सानिध्य 14-काव्य गोष्ठी के अध्यक्ष लेस्टर से पधारे मित्र व स्नेही अनुज डॉ. राजीव वाधवा।

लंदन से पधारी अपनी शिखा वाष्णेय। जिनकी गुंजिया कविता ने होली का माहौल जीवंत कर दिया और जिनकी छोटी-छोटी कविताओं ने श्रोताओं को मोह लिया।

अजय जी के आमंत्रण पर वालसाल से पधारे हमारे अपने डॉ. सुरेन्द्र शर्मा, जिन्होंने कवि सम्मेलन में हास्य का रंग बिखेरा। डॉ. सुरेन्द्र शर्मा ने कुछ काका हाथरसी की और कुछ अपनी हास्य कविताएँ सुनाईं।

लेफ्टिनेंट जनरल सतिंदर टांग ने मां पर एक भावभीनी कविता व जगजीत भाई ने कुछ अपने अशयार सुनाए। पढ़ने के लिए तैयार होतीं पति की तरह ही ओ.बी. ई. व वेस्ट मिडलैंड में महारानी की प्रतिनिधि भाभी सतिंदर टौंग। भाई जगजीत टौंग को भी चन्द बेहद खूबसूरत खुदके लिखे शेर याद आ ही गए और वह भी सुनाने आए।

अब मुझे बुलाया गया । शुरुवात मैंने भी माँ के लिए कुछ पंक्तियों से ही की।

और बेटी सपना भावुक हो चली। मम्मी का साथ देती कविसम्मेलन की सबसे छोटी कवियत्री साची।

माहौल हलका करने के लिए फिर एक बेहद हल्की फुल्की शादी के पहले लिखी एक सहपाठी की चुहुलबाजी करती कविता याद आगई और सब हंस पड़े। फिर कुछ और स्वभाव से मजबूर गंभीर कविताएँ

कविताओं से और नानी की उपेक्षा से परेशान समर्थ माँ की गोद में।

रस में डूबे हम।

राजीव वाधवा को भावभीना आमंत्रंण देते अजय त्रिफाठी। जिन्होंने मित्र आलोक श्रीवास्तव की भावभीनी कविताएं सुनाई और साथ में आधुनिक भिखारियों पर चुटकुले भी।

अजय त्रिपाठी जी को बुलाया अध्यक्ष राजीव बाधवा जी ने जो परिसर को अपने साथ बहा ले गए।

विडिओ में तल्लीन दामाद डॉ. अशोक दसा और कार्यक्रम का आनंद लेते हम। किस किस का नाम लूँ जिधर भी देख रही थी, सभी अपने और पहचाने चेहरे थे और हमारे कुछ नन्हे कवि शांतनु कुंडु, साची द’सा, साहिल अग्रवाल भी मंच पर आए अपनी स्व रचित रचनाएँ लेकर। कुछ कवि सभागार से भी आए और अपनी खूबसूरत कविताएं सुनाईं।

अंत में लेखनी पत्रिका क्यों…वजह व ध्येय बताती मैं, जिसकी सातवीं वर्षगाठ हम मना रहे थे ।

और इस तरह से होली के रंग और चाय नाश्ते के साथ एक खुशनुमा और गमकता हुआ दिन अन्तिम सोपान पर जा पहुँचा.. रंग-बिरंगे गुलाल के नेह चिन्ह और चाय की प्याली के साथ आभार सभी का जिन्होंने साथ निभाया।
(चित्र नरेन्द्र व शिखा के सौजन्य से। जल्दी ही कुछ चित्र व विडिओ भी)…

लेखनी- सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर

March 2007

(अंक-1-वर्ष-1)

LEKHNI-MARCH-2007 (FIRST ISSUE)

Celebrating Womenhood

संरचना व संपादनः शैल अग्रवाल

लेखनी की शुरुवात 17 मार्च 2007 को सटन कोल्डफील्ड में हुई थी और लेखनी सानिध्य परंपरा की शुरुवात 15 मार्च सन 2012 को मां गंगा की गोद में, गंगा की लहरों पर वाराणसी में। जी हाँ वही तीन लोक से न्यारी काशी, जहाँ कभी मैं जन्मी, पली और बढ़ी थी। जिसने मुझे शिक्षित किया। संस्कार दिए। वही कबीर, तुलसी प्रसाद और प्रेमचन्द का शहर। प्राचीन होते हुए भी अर्वाचीन। एक शहर जिसके ऋण से उऋण होना आसान नहीं है मेरे लिए। कहते हैं विश्व के पुरातम शहरों में से एक है बनारस। धारणा तो यह भी है कि आदि पुरुष शिव के त्रिशूल पर बसी है काशी, इसी लिए तीन लोक से न्यारी है और अक्षय व अक्षुण्ण है। ज्यों-कि-त्यों है सारी संस्कृति, कला और फक्कड़ मस्ती के साथ, लहलहाती गंगा मां के आंचल में सुरक्षित और सदा नीरा।

राग वैराग का अनूठा समिश्रण है यह- तभी तो यहाँ के पान भी उतने ही मशहूर हैं जितने कि शमशान …गंगा किनारे एकतरफ आरती के घंटों की गूंज सुनाई देती है तो दूसरी तरफ गीत और ठुमरी की। कला और कलाकारों की ही मिट्टी है इस धरती की।

दूसरा लेखनी सानिध्य सटन कोल्डफील्ड में घर पर आयोजित था और तीसरा इसी गीता मंदिर में कृष्ण की बांसुरी और गीता की छाँव में।

ठीक भी है, यदि बनारस में जिन्दगी के पहले बीस वर्ष जिए, तो बरमिंघम में उससे दुगने समय से रह रही हूँ । उतनी ही आदत पड़ चुकी है अब तो इसकी भी। उतना ही अपना है यह भी। हम भारतीय और साउथ एशियन लोगों ने भलीभांति स्थापित कर लिया है खुद को इंगलैंड के लंदन, बरमिंघम, लेस्टर मैनचेस्टर आदि मुख्य शहरों में। अपनों से दूर, अनजाने वतन में घर बनकर गोदी में बिठाया है इन्होंने हमें। आप सभी, अपने दिए हैं। जीवन की कई लड़ाइयाँ जीती और हारी हैं हमने यहाँ। लेखनी पत्रिका की शुरुवात भी तो इसी शहर से की थी मार्च 2007 में। अपनी बात सीधे आपतक पहुंचे, इसी उद्देश्य से आठ वर्ष पूर्व 17 मार्च 2007 को पहला अंक एक सपना बनकर किलका था इंद्रजाल पर । और तबसे आजतक आपकी लेखनी पत्रिका विभिन्न विषयों पर 90 से अधिक विशेषांक निकाल चुकी है। हर विषय अनूठा और संग्रहणीय। प्रिंट माध्यम से निकालने का पाठकों का बढ़ता अनुरोध जो पहले इक्का दुक्का था, बढ़ता ही जा रहा है। मांग सुख तो देती है और उत्साह वर्धक भी है, पर संभव है भी या नहीं, भविष्य ही बता पाएगा। अभी तो बस दो संस्कृतियों के समिश्रण से उठी इसकी यह अनूठी सुगंध विश्व एकता की संस्कृति फैलाए, जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों का नाम रौशन करे यही कामना और प्रयास रहा है। आगामी पीढ़ी के भ्रम और भय, व एकाकी प्रवासी के क्लेश और द्वेश को दूर करने का एक बेहद लघु प्रयास है लेखनी। आवाहन है कि आप भी अपनी सृजनधर्मिता के साथ जुड़ें। बूँद-बूंद जुड़ती हैं तभी तो लहर उठती है। और ये उठती लघु लहरें ही तो हैं जो पत्थर का सीना चीरकर फूटती हैं। नदी- नहर बनकर सींचती-संवारती हैं हमें, जीवन देती हैं। इनकी ताकत को कैसे हम नकार सकते हैं। अपनी ही लिखी दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

 

“ बूंद बूंद जो उठी लहर संयम टूटे किनारों के

लहर लहर जब उठी लहर, राहें नई ढूंढ लाई। “

 

 

11 अक्तूबर 2015

गीता मंदिर का पावन परिसर था और आयोजन था लेखनी के चौथे सानिध्य व कवि-सम्मेलन का। वर्षों पहले -सदा भवानी दाहिनी, सम्मुख रहें गणेश। पांच देव रक्षा करें बृह्मा विष्णु महेश।। श्वसुर जी द्वारा आशीर्वाद स्वरूप दिए इस श्लोक के मंत्रोच्चार के साथ जो जाने किस दैवीय शक्ति के वशीभूत स्वतः ही जिह्वा पर था, सभी देवताओं और पितरों को प्रणाम करते हुए, अपने शहर में, अपनों के बीच मैंने लेखनी सानिध्य के इस बहु-प्रतीक्षित कवि-सम्मेलन का आगाज किया । बहु प्रतिक्षित इसलिए कि कार्यक्रम मार्च में होना था पर स्वास्थ संबंधी कुछ परेशानियों और अस्पताल के कई अपौंइंटमेंट्स के रहते अक्तूबर तक खिसक गया। फिर निर्धारित किया तो बस यूँ ही भारत से आई मित्र के साथ फोन पर बात करते हुए जिन्हें अगले दिन यानी 12 अक्तूबर को भारत लौटना था और हमें 14 अक्तूबर को बल्गेरिया । आनन-फानन ही सब तैयारियाँ हो गईं और एक खूबसूरत कवितामय दिन की अपेक्षा के साथ गीता मंदिर के पावन परिसर में एकत्रित थे हम काव्यप्रेमी। हमारा सौभाग्य था कि स्वनाम धन्य कई कवि मौजूद थे उसदिन इस सानिध्य में, ( सिवाय उनके जिनके आग्रह पर बेहद जल्दी में मैंने आयोजित किया था इसे) जो ब्रिटेन के विभिन्न शहरों से आए और ब्रिटेन में हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। इतने चांद सितारों को एकसाथ वह भी दिन में, दोपहर के वक्त एकसाथ देखकर मन और वाणी दोनों ही विह्वल थे।

शीघ्र ही नव रात्रि शुरु हो रही थी, जब जीवन में नव शक्ति के संचार के लिए हम नव दुर्गा के नौ रूपों का आवाहन करते हैं और वहाँ तो भिन्न-भिन्न शक्ति और गुणों से संपन्न कई नारी शक्तियों उपस्थित थीं। हमने सभी की शुभकामना के साथ ज्ञान दीप इन्ही से प्रज्वलित कराया। कंउसलेट जनरल के साथ चार विभूतियों-लेफ्टिनेंट जनरल श्रीमती सतिंदर टांग, लेबर पार्टी की कांउसलर जाकिया जुबेरी, बरमिंघम की बहुभाषी संस्था के संपादक कृष्णकुमार की पत्नी चित्रा कुमार और लंदन से पधारी डाइनैमिक कवियत्री और ब्लौगर शिखा वाष्णेय ने जब पंचमुखी ज्ञान दीप को प्रज्वलित किया तो पूरा परिसर ही गरिमा से आलोकित था। अब बारी थी मंदिर के औजस्वी पंडित धर्मदत्त जी की जिन्होंने मंत्रोचार के साथ मां सरस्वती का आवाहन किया और हमें अपना आशीर्वाद दिया।

भारत से बाहर , भारतीय दूतावास हमारी उपेक्षाओं और आकाक्षाओं का पहला संपर्क सूत्र रहता है। परिवार के मुखिया का रिश्ता बन जाता है हर भारतवंशी का इसके साथ। इनका वरद् हस्त हमें सुरक्षा और आत्मबल देता है । अपनेपन का अहसास और आश्वासन देता है। हमारे आग्रह पर काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता की माननीय कांउसलेट जनरल जितेन्द्र कुमार शर्मा जी ने। सरस और नदी से कलकल बहते संचालन का भार संभाला एकबार फिर प्रिय मित्र और अनुज अजय त्रिपाठी जी ने।

ओपनिंग बैट्समैन की पाली संभाली हमारी अपनी बरमिंघम की वंदना मुकेश शर्मा ने जिनकी छोटी-छोटी कविताएं कार्यक्रम को शुरु में ही श्रोताओं को संवेदना की मनोरम ऊँचाइयों पर ले गईं । कार्यक्रम में कविताएँ विविध रस की गंभीर और मनोरंजक, सभी तरह की थीं जिन्होंने अंततक श्रोताओं को बांधे रखा। चाय पर लिखी मिसेज सिन्हा की कविता ने और कृष्ण कन्हैया जी की जन्मदिन पर लिखी कविता ने व आनंद सिन्हा की पत्नी पर लिखी कविता ने पाठकों को खूब हंसाया। वंदना मुकेश, शिखा वाष्णेय, अजय त्रिपाठी , मेरी, शील निगम, कृष्णकुमार आदि सभी कवियों की कई कविताएं रोमांटिक थीं तो कई सोचने पर मजबूर करती हुई। गीत और गजलों का अलग ही समां बांधा नरेन्द्र ग्रोवर, तेजेन्द्र शर्मा और उषा राजे सक्सेना जी ने अपनी भावपूर्ण गजलों द्वारा। गेय रूप में या सपाट बयानगी के रूप में, मन को बाँधने और साधने का हुनर सभी कवियों ने अंत तक बखूबी निभाया। मानो एक अदृश्य सोजभरी उर्जा बह रही थी हमारे बीच।

वैसे तो किसी भी बहती धारा को रोकना टोकना अच्छा नहीं, ना ही संभव फिर भी आमंत्रित कवियों ने खुद ही ध्यान रखा और तीन घंटे की निर्धारित समय सीमा के अंदर ही न सिर्फ श्रोता विभिन्न रसधार में भरपूर डूबे, भीगे व उतराए, अपितु पल भर को भी भटकने या ऊबने का मौका नहीं मिल पाया उन्हें। मंच और परिसर के बीच लगातार एक मनोरम तारतम्य बना रहा। सुमधुर काव्य धारा कहीं भी बाढ़ या सुनामी नहीं थी। सभी को मौका मिला और सभी ने इस अजस्त्र काव्य रसधारा का जी भरकर आस्वादन किया। परिसर से आकर कार्यक्रम के अंत में रेडिओ एक्सेल के आनंद जी और वालसाल की रीना गुर्टू ने भी पाठकों तक अपनी रचनाएँ पहुँचाईं।

सभी की कविताएँ सरल व सुपाच्य थीं। या फिर कहूँ कि कवियों ने हृदय के करीब रचनाओं का पाठ किया और कार्यक्रम समाप्त होने के बाद भी कविताओं की गूंज श्रोताओं के साथ रही।

नीरज जी ने कहा था- मानव होना भाग्य है , कवि होना सौभाग्य।हमारा सौभाग्य ही था कि कई स्वनाम धन्य कवि मौजूद थे, जो ब्रिटेन के विभिन्न शहरों से आए। ब्रिटेन में हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। इतने चांद सितारों को एकसाथ वह भी दिन में, दोपहर के वक्त देखकर मन और वाणी दोनों ही विह्वल थे।

लंदन से- शिखा वाष्णेय, तेजेन्द्र शर्मा, जाकिया जुबेरी और उषा राजे सक्सेना।

मैनचेस्टर से शील निगम । हल से डॉ. राम आसरे सिंह। नौटिंघम से जया वर्मा और मिसेज सिन्हा। वूवरहैम्पटन से नरेन्द्र ग्रोवर और दलजीत कौर।

बरमिंघम से वंदना मुकेश शर्मा, कृष्ण कन्हैया, डा. कृष्ण कुमार, अशोक शर्मा, सतिंदर टौंग, दलजीत कौर, अशोक सिन्हा, अजय त्रिपाठी और खुद मैं । सभी द्वारा पढ़ी गई कविताओं का संकलन तो संभव नहीं पर फिर भी भारत से प्राप्त अन्य कविताओं के साथ कई इस अंक में टंकित हैं। उम्मीद है आपको प्रस्तुति पसंद आएगी।

अंत में धन्यवाद देना चाहूँगी एकत्रित सभी मित्र और श्रोताओं का जिन्होंने रस लेते हुए बेहद धैर्य और तन्मयता से हमें सुना। कुछ नाम जिनके बिना धन्यवाद अधूरा है-रश्मि मानसिंह, सतिंदर टांग, अजय त्रिपाठी, धर्मदत्त जी और गीता मंदिर के सभी स्वयंसेवी भाई बहन, जिन्होंने सदा बड़े उत्साह के साथ हमारी मदद की है। अन्नपूर्णा बन हमें दोपहर का भोजन परोसा है। और आप सभी मेरे अपने जो ब्रिटेन के कोने-कोने से आए। आभारी हूँ उन सभी की जिन्होंने बेहद अपनापन और स्नेह दिया। मेरा जन्मदिन नहीं था फिर भी तोहफे लाए, अस्वस्थता के रहते हुए भी आए। तहेदिल से आभारी हूँ आपके इस स्नेहमय सौहाद्र की, अपनेपन की। गलतियाँ भविष्य में दोहराएँ न इसलिए बहुत कुछ सीखा भी इस दिन। विलंब के कई कारण तो अपरिहार्य थे पर कुछ को भविष्य में बेहतर और सुचारु किया जाएगा। कार्यक्रम की अनचाही विलंबित शुरुवात थी, तो अंत में दूर से आए कवियों को जल्दी तो होनी ही थी। रेल और बस आदि के छूटने का अंदेशा जो था। लोगों ने उठना शुरु कर दिया। जैसे तैसे साधा। काउंसलर जनरल जो अध्यक्षीय वक्तवय के लिए पूरे प्रोग्राम में साथ साथ टिप्पणी लिख रहे थे, उन्हें लगा कि अब उनके लिए भी वक्त नहीं हमारे पास। उनके आशीर्वचन और विचार नहीं सुन पाए इसका दुख रहेगा।

सभी अपने थे और जब स्नेह एक हवा, एक खुशबू की तरह तैर रहा था चारो तरफ तो इन छोटी-मोटी परेशानियों से परेशान होना व्यर्थ था। जाने से पहले एक प्यार भरा सरप्राइज था मेरी तरफ से। भाई जगजीत टौंग 11 अक्तूबर को ही अपना जन्मदिन मना रहे थे। पूछने पर कि कौनसा है, हंसकर कहते- इक्कीसवाँ, with wear & tear. भाई तेजेन्द्र का जन्मदिन भी आगामी 21 अक्तूबर को था। जब परिवार में दोहरे जन्मदिन हों तो सेलिब्रेशन केक तो कटना ही था । केक आया, पर कैंडल घर पर छूट गईं। फिर भी केक कटा और प्यार से कटा। उसके बाद ही हमने समोसे, गाजर का हलवा और बनारसी चूड़ा मटर आदि व्यंजनों का गरमा-गरम चाय के साथ आनंद लिया।

सात बज चुके थे और एकबार फिर वही विदा की कठिन वेला थी जब वह खूबसूरत दिन समापन की ओर बढ़ रहा था। सात बजे ही मंदिर में शाम की आरती भी होती है। कितनी भी जल्दी हो, हममें से कइयों ने श्रद्धापूर्वक आरती ली और फिर उसके बाद ही, भाव भीनी यादों की गठरी व कार्यक्रम की चन्द तस्बीरों के साथ अगले वर्ष की प्रतीक्षा और शुभकामना में डूबे हँसते-मुस्कुराते अपने-अपने घरों की तरफ पलट पाए ।

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