छोटी कविताएँ/ अक्तूबर-नवंबर 2015

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दिल

रूई का फाया

दिल छोटा-सा

बुन दिया तो

सैकोड़ों की पहरन

वरना रेशा-रेशा

बिखर जाएगा।

 

 

डैफोडिल्स

हवा के तेज थपेड़ों को सहता

तुम्हारा निर्वसन शरीर

हर बार

मुझे

मेरे कद का

अहसास कराता है।

 

 

 

 

टाइम मशीन

पिता को कल ही अंधाश्रम से

घर ले आया हूँ

क्योंकि कल ही टाइम-मशीन में

अपना भूत औ भविष्य

देख आया हूँ।

-वन्दना मुकेश शर्मा, बरमिंघम यू.के.

 

 

 

 

 

naav

अच्छा है-

सूखा पत्ता

बोझिल रिश्ता

झड़ जाए तो अच्छा है .

 

मन की पीर

नयन का नीर

बह जाये तो अच्छा है .

 

काली रात

जी का घात

ढल जाए तो अच्छा है.

 

अमीर की तिजोरी

चोर की चोरी

खुल जाए तो अच्छा है.

 

बेकल राग

दामन का दाग

मिट जाए तो अच्छा है.

 

रात की रानी

दुश्मन की बानी

महक जाए तो अच्छा है.

 

मन की पाती

दिए की बाती

बढ़ जाये तो अच्छा है.

 

 

 

ज़रा देखना

ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना

औरत टूट कर बिखर न जाये देखना.

बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर

वो पत्थर ही बन न जाये देखना

रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत

एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.

नज़रों में छुपाये हैं हर आँख का पानी

बाढ़ बन कहीं बह न जाये देखना.

घर में रौशनी के लिए जो जलती है अकेली

वो “शिखा” भी कहीं बुझ न जाये देखना

शिखा वार्ष्णेय, लंदन।

 

 

 

 

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फोटो में लड़की

उस शाम यहीं खेल रही थी वह लड़की

हुआ था अपहरण इसी गली से… रौशनी गुल थी महीनों से…

यहीं खेल रही थी लड़की जहाँ रोज खेलती थी

बच्चों संग लड़ती थी,झगड़ती थी,रुठती थी,मनती मनाती थी।

इस गली के सब जानते थे उसे…

हुई शिनाख्त उसके खोने की

सवाल पूछे गए उसके कहीं, होने के; कोई कुछ न बोला

अखबार में लड़की की फोटो छपी है।

तो लोग शिनाख्त करने लगे हैं

हाँ, यही है ओ’ गुमशुदा लड़की !

वही जो रहती थी यहीं,

इस गली में खेलती थी

हम उम्र संग लौटती थी घर तो शाम थकती थी।

वहीं उस इस्तहार के पास खड़ी थी लिखा था जहाँ-

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।’

अपहरण हुआ वहीं से

लोग दबी जबान कहने लगे हैं-

हां, यही है वह लड़की फोटो में जो छपी है।

अब किसे बचायें, किसे पढ़ायें (?)

 

 

 

एक रात चांद

कोई एक दिन, कोई एक रात इंतजार चांद का

उतरती चांदनी का,

जमीन पर पूजा की थाली, अक्षत, नवैद्य

इंतजार उस वक्त का,

जब सुने चांद आरजू साथ रहने की,

मिलने को जिंदगी-संग

फिर-फिर जाने कितने दिन और बरस-दर बरस!

इंतजार चांद का कोई एक दिन मुकम्मल…

-अमरेन्द्र मिश्रा, नई दिल्ली।

 

 

 

 

 

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झील और कंवल

झील, कंवल

खुशबू, हवा और चाँदनी

अब बस किताबों में हैं

मुझमें थे कभी

शायद तब,

जब हम इन्हें नहीं

खुद को देखा करते थे।

 

 

 

जीवन

भीतर कहीं भीतर

गहरे बहुत गहरे

छुपी है कोई चाह-

छुपी है कोई दुनिया

नाम है उसका प्यार!

 

ऊपर यहाँ ऊपर

बाहर इधर उधर

दिख रहा है कोई खंडहर

गुमसुम है कोई सन्नाटा

नाम है इसका जीवन !

 

 

 

 

पतझर आया है

पतझर आया है

पीली पत्ती

खिड़की से

अन्दर आ गई

उड़कर।

मेरे भीतर

जाग गए

सपने हरियाली के-

आँखों में

खिल उठे गुलाब

आँचल में

भर गई खुशबू-

आत्मा की तितली

पंख फड़फड़ा कर

हवा के झोंके पे चढ़

गुनगुनी धूप का

सहारा लेने

भाग गई बाहर

-सरोज स्वाति, देहली ।

 

 

 

 

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प्रेम की विडम्बनाएं

कि कहीं देख न रहा हो,

आइसक्रीम की तरह,

यूँ जमते पिघलते,

वो दूर से मुझे,

मेरे कमरे की बेतक्कलुफी में,

मुझे,

हाँ, मुझे ही,

अलग किसी को नहीं,

गुनगुनाते उसकी बातें,

लपेटते आलिंगन उसका,

हवा मिठाई की मुसमुसी मिठास की तरह,

यूँ पिघली पिघली ठंढी मिठास की तरह,

स्ट्रॉबेरी फ्लेवर्ड, गुलाबी रंग की तरह,

कैसी कृत्रिमता मुझे घेरे है?

इश्तहारों की तरह,

प्यार में अत्याचार भी होते हैं,

बहुत ढेर सारे।

–पंखुरी सिन्हा

 

 

 

 

 

 

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जैसे…

बेचैन तूलिका ठहरे ना थमे

रंगों के मटमैले पानी में

जैसे आग और पानी एकसाथ

बादलों के घुमड़ आने पे

जैसे सूखे पत्ते तैरें न डूबें

झील के नम किनारों पे

जैसे आँसू और मुस्कान

बस एक तुम्हारी याद के

आने और जाने पे…
 

 

प्यास

प्यासा बादल बेचैन

पानी की तलाश में नदी नाले समंदर

जाने कहाँ-कहाँ, जगह जगह भटका

पर जब एक ऋषि को प्यास लगी

तो वह पूरा का पूरा समंदर पी गया

सच,प्यास का रिश्ता पानी से नहीं

पीने वाले से ही अधिक है ….

 

 

 

 

 

 

पतझर के बाद

 

पतझर के बाद फल फूल क्या

एक कली एक पत्ता तक नहीं

सूखी ठिठुरती डालों पर

फिर भी देखा है मैंने इंतजार एक उम्मीद,

जमी-थमी चिड़िया की आँखों में

क्योंकि

बसंत एक प्रकरण

सूखी जड़ों में सोते ढूँढ

प्यास बुझाने का,

बसंत एक अहसास

जड़ से पुनः

चेतन हो जाने का…

-शैल अग्रवाल, बरमिंघम।

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