उपन्यास मिट्टीः भाग-14- शैल अग्रवाल अक्तूबर नवंबर 2014

 

shesh3दिशा देख रही थी कि जिन्दगी से भरपूर नीतू अब एक लौह महिला में परिवर्तित होती जा रही थी, मानो वक्त ने नया चेहरा दे दिया था उसे। हंसती भी तो होंठ यूँ खुलते मानो कड़ी मेहनत कर रही हो और अभी तक गालों पर सुंदर दिखने वाले गढ्ढे अब चेहरे को बिगाड़ते और बदसूरती से खरोंची लकीरों में बदलते जा रहे थे। मिलने आने से भी कतराने लगी थी वह और फोन आने भी बंद हो गए थे। दिशा भी अक्सर फोन उठाती और रिसीवर वापस रख देती –शायद वक्त चाहती हो जिन्दगी- समझाने के लिए, सुलझने के लिए।

….

काव्या के लिए सब कुछ अच्छे से अच्छा जुटाने के प्रयास में दिन रात मेहनत कर रही थी नीतू। दिन-रात की ही नहीं, खुद की भी परवाह किए बगैर पैसे कमा रही थी । पीछे मुड़कर देखती, तो सत्रह साल कैसे निकल गए, समझ में ही नहीं आता। बड़ा आलीशान घर, शानो-शौकत का हर सामान, सब था उसके पास, परन्तु घर में रहने को कोई नहीं। फुरसत ही नहीं थी दोनों को। माँ का काम पर और बेटी का बोर्डिग स्कूल में, खाना-पीना, रहना सब हो जाता। और सजा संवरा वह आलीशान घर घर नहीं बस मंहगी चीजों का संग्रहालय ही बनता जा रहा था, जिसकी चकाचौध में हर आने वाले की आंखें चुंधियां जातीं। सुख तो मिलता था नीतू को इस वैभव से, पर आधा-अधूरा। माना राजेश रीते बादल-सा दूर जा चुका था उसकी जिन्दगी से, पर ऐसा भी तो नहीं कि कभी शिद्दत से याद आई हो उसे उसकी, फिर यह अभाव कैसा जो लगातार खटकता रहता है मन में ! जो चाहती थी सब कुछ ही तो हासिल कर लिया था उसने, सिवाय बेटी के जो दिन प्रतिदिन दूर होती जा रही थी। आखिरी बार कब गले लगाकर नीतू ने भी प्यार किया था उसे, याद करने की कोशिश करती तो आँखें डबडबा जातीं।

बोर्डिंग स्कूल से वीकएंड पर घर आती काव्या अधिकांश वक्त अपने कमरे में ही गुजारती। बुलाने पर भी बगल में आकर न बैठती। पहले माँ के पास अपनी व्यस्तताओं में वक्त नहीं था तो अब किशोरी काव्या के पास। अपनी-अपनी अलग-अलग इच्छाएँ और परेशानियाँ थीं…ग्रन्थियाँ थीं दोनों की और दोनों के ही निरंकुश दिनरात अपनी-अपनी मनमानी रफ्तार से अलग-अलग अपनी-अपनी दुनिया में ही बीत रहे थे।

नीतू की व्यस्तताओं ने वक्त ही नहीं दिया कभी कि जान पाती कि दूसरी सहेलियों की तरह काव्या को भी माँ की जरूरत रही होगी-विशेषतः उम्र के उस मोड़ पर- माँ जो कभी मिली ही नहीं उसे। मात्र एक संरक्षक ही तो रही है वह बेटी के लिए। आराम से बैठकर बात करने के लिए, बांटने और समझाने के लिए … फिसलन भरे रास्तें पर उँगली पकड़ने के लिए कभी उपस्थित ही नहीं। दोनों माँ बेटियाँ एक छत के नीचे भी अकेली, अपनी-अपनी उलझनों से अपने-अपने तरीके से जूझती, सहती और आगे बढ़ती, बिना किसी से कुछ कहे और बांटे, पर अब आगे और ऐसा नहीं होने देगी वह। बेटी को बगल में बिठाकर खूब बातें करेगी, खूब प्यार करेगी ।

अपनी इस नई और सुलझी सोच मात्र से नीतू बेहतर महसूस कर रही थी।

पर मन के दुरूह जंगल में भटकती काव्या तो उन कंटीली राहों पर जा पहुंची थी , जहाँ आगे बस दलदल और फिसलन ही फिसलन का डर था।

पहली रात ही मानो धरती खिसक गई नीतू के पैरों के नीचे से जब बेटी के कमरे से उबकाइयों की आवाज सुनाई पड़ीं उसे। तीर सी पहुँची  बेटी के पास। पूछने पर जी मिचलाने की शिकायत की काव्या ने। तुरंत ही पूछ-ताछ व जांच-पड़ताल के बाद पता चला कि यदि अभी रोकथाम न की तो उसकी नन्ही-सी गुड़िया जो खुद अभी अपनी देखभाल तक नहीं कर सकती मातृत्व की जंजीरों से बंधने के लिए तैयार खड़ी थी। किसने और कैसे…यह सब सोचने तक का वक्त नहीं था। बाढ़ आ ही गई तो मेढ़ नहीं बांधी जाती, जानती थी वह। घर बचाया जाता है।

उन्मुक्त यौन शिक्षा और और खुले क्रिया-कलाप के इस पाश्चात्य समाज में आम बात है यह किशोर-किशोरियों के बीच और वह खुद अवांछित गर्भपात की क्लीनिक करती है, परन्तु जान पहचान की नर्सों और साथियों के बीच बात फैल सकती थी, हिम्मत नहीं पड़ी उसकी। बिन ब्याही बेटी की बदनामी का डर था। अतः दूर कहीं इटली के एक छोटे से गांव में क्लीनिक सुनिश्चित की और समझा बुझाकर, डरा-धमकाकर, कैसे भी इस अवांछित और आसन्न परेशानी से छुटकारा पाया ।

लिवरपूल यूनी के जिस कैम्पस में काव्या रहती थी –कौन-कौन उसके मित्र हैं, किस-किसके साथ उसका उठना-बैठना है, क्या उसकी दिनचर्या है अब जानना अवश्य चाहा नीतू ने। जैसे-तैसे एक दिन की छुट्टी लेकर पहुंची तो पाया कि फहरिस्त ज्यादा लम्बी नहीं है, और पड़ताल कठिन भी नहीं, जितना कि वह समझ रही थी। चार लड़कियाँ और चार लड़कों का ही समूह था उनका। और विश्विद्यालय के आहते में नहीं, पास ही दो निजी फ्लैट किराए पर लेकर रहते थे वे आठो ठीक आमने-सामने। एक में चारो लड़के और एक में चारो लड़कियाँ। औ काव्या की नजदीकियाँ सिर्फ रजत के साथ ही हैं ऐसा भी सभी ने बताया।  इसमें तो कोई बुराई नहीं, फिर यह सब… संभल के रहना चाहिए था उसे ! ‘…एक ठंडी सांस  बरबस निकल ही गई नीतू के मुंह से।

पूरी इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को मन की गहरी मिट्टी में ढक दबा दिया उसने और बेटी को भी सबकुछ भूलकर आगे संभलकर रहने की हिदायत देकर वापस अपने काम में व्यस्त हो गई । इस हादसे और अनुभव के बाद बेटी संभल जाएगी, यही उम्मीद थी नीतू को। पर जल्दी ही उसे पता चल गया, दुखों के इस पहाण की तो अभी चढ़ाई ही शुरु की थी उसने। फिर चोटी तक पहुंच पाना, विजय-पताका  फहरा पाना अच्छे-से-अच्छे पर्वतारोही तक के लिए सहज  नहीं।…

लेक्चर हॉल में, लाइब्रेरी में, कैंटीन में, कहीं भी देखते ही हलो करता था रजत और काव्या की बगल में आकर बैठ जाता था। कभी बातें करता तो कभी सिर्फ, ‘ क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ’-पूछकर अपने काम में व्यस्त हो जाता । काव्या जान गई थी कि वह इंतजार करता रहता है उसका। देखते ही दोनों की आंखों में जो चमक आती वह खुद ही मन की खुशी को बयां कर देती। काव्या को भी कोई आपत्ति नहीं थी –बल्कि सच तो यह था कि वह खुद भी इंतजार करने लगी थी उसका। वे आपस में अधिक बात करें या न करें , परन्तु साथ बैठकर ही काव्या का मन अभूतपूर्व संतोष से भर उठता और सारी उदासी दूर हो जाती। ऐसे ही किसी एकाकी पल में उनके बीच वह रिश्ता बन गया, जिसके अवांछित परिणाम ने तूफान खड़ा किया था कुछ महीने पहले, मां को दुखी कर दिया था। काव्या ने निश्चय किया कि अब वह बचेगी इस सबसे। और तब वह दूर रहने लगी थी सबसे..विशेषतः रजत से ।

अब देखने में अधिक थिर और खुद के साथ लगने लगी थी काव्या सभी को । घर आती तो नीतू के पास भी बैठती और कभी-कभी तो हंसती मुस्कुराती भी। नीतू के लिए बेटी में यह परिवर्तन सुखद और संतोषजनक था । उसे विश्वास हो चला था कि दुख के बादल छंट गए हैं।

पर काव्या के सामने तो समस्याओं का अजगर मुंह बाए खड़ा था। उसकी निजी परेशानियों से बेखबर मित्र-मंडली ने मानो उसका बहिष्कार ही कर दिया था और उसका नाम ‘हैगिस’ रख दिया था।  ठीक ठीक तो पता नहीं कि अर्थ क्या है-शायद कालू या अरुचिकर जैसा ही कुछ होगा, पर  इतना तो जान ही गई थी वह कि तारीफ तो नहीं ही कर रहे थे वे उसकी, मज़ाक भले ही उड़ा रहे हों!

उनका व्यवहार अब बदला-बदला प्रतीत होता उसे-या तो वे उसे चिढ़ाते और उकसाते या फिर कतराते रहते। साथ रहकर भी अब वह उनके मित्र-समूह का हिस्सा नहीं थी और वजह साफ थी- उसने उनके साथ पब जाना और नशीली दावतों में जाने से  मना जो कर  दिया था और खुद भी तो एक बेहद नियमित और संयत दिनचर्या बना ली थी अपनी, जिनमें उनके शौक मौजों की गुंजाइश कम होती जा रही थी। …न तो उनकी तरह बाल हरे-बैंगनी रंग रही थी वह और ना ही फटी जीन और झल्लर वाली चमड़े की एक ही स्कर्ट महीनों पहने रहती थी। वजह जो भी हो, साथियों का दिया हैगिस नाम जरूर उसके मन में दुर्गंध देता रहता –हैगिस यानी संभवतः ठंडा अरुचिकर अस्वादिष्ट गोस्त- जो उनके किसी काम का नहीं ।

पर, मंजूर था काव्या को यह सब। उसे शान्ति और एकांत चाहिए था अब। मां का गर्व और सम्मान बनना चाहती थी वह, उनके दुख का कारण नहीं। पढ़ाई पूरी करनी थी।  अपनी कला और तकनीकी परीक्षा अच्छे से अच्छे नम्बरों में पास करनी थी।  रजत से भी नहीं मिली थी वह और साथ-साथ पिछले दो महीने से प्रिस्क्रिप्शन पर कन्डोम भी नहीं लाई थी। कितना भी अकेलापन हो, मां के आँखों की शर्मनाक पीड़ा से तो बेहतर ही था यह सब। रजत जो बहुत अच्छा लगता था उसे। हमेशा वक्त और परवाह देता था उसे, उसकी परेशानियों को सुनता और सुलझाता था, उसका अच्छा साथी था।  बहुत फर्क था इन सबसे, उसे भी दूर कर दिया था उसने खुद से। यह बात दूसरी है कि शोर गुल से दूर सिर्फ पढ़ाई पर ही केन्द्रित, दक्षिण भारत से आया वह गंभीर-सा चुप चुप रहने वाला सांवला सहपाठी काव्या की बहुत इज्जत करता था और काव्या भी चाहे या न चाहे उसका कोई आग्रह नहीं टाल पाती थी …

और तब ऐसे ही एकदिन लाख टालने के बाद भी बेहद उदास एकाकी मनःस्थिति में घिरी काव्या का रजत से आमना-सामना हो ही गया । पार्क में अकेली थी वह और तभी जाने कैसे रजत भी पहुंच गया था वहाँ, ठीक उसके सामने।

और फिर तो,   ’ आजकल मुझसे कतराती क्यों हो काव्या ? दूर जाना चाहती हो ? कोई गलती हुई है क्या ? नाराज क्यों हो ? क्या परेशानी है? बांटोगी नहीं, साथी हूँ तुम्हारा? इतनी कमजोर और आँखों के नीचे यह काले गढ्ढे, यह क्या शक्ल बना ली है तुमने? नहीं सहा जाता यह सब मुझसे। ’ प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी उसने और यही नहीं आगे बढ़कर काव्या को गले भी लगा लिया था , ऐसे और इतनी कसकर मानो बरसों का बिछुड़ा हो। और तब दोनों ही तरफ संयम के सारे बांध टूट गए थे। रजत से लिपटी काव्या फूट-फूटकर रोती रही और वह उसे चुप कराने के प्रयास में कभी बालों को सहलाता तो कभी पीठ को प्यार से थपथपता रहा, चुप कराने की कैसे भी कोशिश करता रहा। कुछ पूछना और बताना अब संभव ही नहीं था। अंततः चुप हुई काव्या तो उसके दीर्घ नेह भरे चुंबन से। और संधि के उस पल में एकबार फिर वही हुआ , जिससे बचे रहने का संकल्प लिया था काव्या ने अभी-अभी चंद महीने पहले ही ।

बांहों से छूटते ही रजत ने देखा कि काव्या बेहद उदास थी और थरथर कांप रही थी।

‘ क्या हुआ?’ रजत स्तब्ध था।

‘ क्या मैंने कोई अतिक्रमण किया? तुम किसी और को चाहती हो? मैं इस लायक नहीं? ’

‘ नहीं रजत। ‘ रोती काव्या ने कहा और बताया जो नहीं बताना चाहती थी।बताया कि माँ की आंखों में गिरना नहीं चाहती वह, बहुत सहा है उन्होंने। ‘

‘बस इतनी सी बात, मैं तो जाने क्या समझ बैठा था।‘ रजत हंस रहा था। ‘ इससे पहले कि देर हो जाए, मिलना चाहूंगा तुम्हारी मां से। खुद मांगूगा उनसे तुम्हें मैं।‘

‘खुशी की बात है यह, डर कैसा। चलो अभी रजिस्ट्रार के औफिस में अर्जी देकर आते हैं। बालिग हैं हम । अठ्ठारह के हो चुके। तीन महीने में शादी की इजाजत मिल जाएगी। अगर कुछ हो भी गया तो इसके पहले तो अपना बेटा या बेटी आने से रहा। ‘

‘नहीं। तुम्हारा बेटा या बेटी आने से पहले ही डस्टबिन में फेंक दिया गया, रजत।‘ काव्या के चेहरे पर अकथ शर्म और पीड़ा थी।

‘ शादी के पहले आए बच्चे का न तो कोई अस्तित्व है, ना ही इज्जत। इस तरह से नहीं। बड़ों के आशीर्वाद के साथ। किसी मजबूरी में शादी नहीं करना चाहती मैं तुमसे। जो भी आएगा , दादी-नानी की गोदी में खेल पाएगा तभी आ सकता है- जान लो अच्छी तरह से यह। मुझसे प्यार करते हो तो दूर ही रहो, पढ़ाई पूरी होने तक। ‘

हतप्रद रजत से शीघ्र ही हाथ छुड़ाकर काव्या अपने कमरे में वापस आ गई थी।

नया रूप था उसका, यह। रजत जान गया था बहुत कुछ सुलझाना था उसे। यह भी कि शादी तो रजत से ही करेगी वह, पर पढ़ाई पूरी करने के बाद और अपनी माँ और उसके परिवार की मंजूरी के बाद ही। खोए अजन्मे बच्चे के शोक के साथ-साथ एक और लहर थी जो सुनामी सी उमड़ रही थी उसके अन्दर। बेहद प्यार आ रहा था उसे काव्या पर, गर्व महसूस हो रहा था पगली प्रेयसी पर।…

1 Comment on उपन्यास मिट्टीः भाग-14- शैल अग्रवाल अक्तूबर नवंबर 2014

  1. खोए अजन्मे बच्चे के शोक के साथ-साथ एक और लहर थी जो सुनामी सी उमड़ रही थी उसके अन्दर। behad bhavpoorn,bheg 13 apne aap mein hi pooree kahani hai.

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