नयना कनिटकर, गीता सिंह, कान्ता रॉय, शब्द मसीहा


“यात्रा”
“छोडो मेरा हाथ.अब कुछ नहीं बचा .मैं मर जाना चाहती हूँ.”
“मगर क्यों?”
“आजकल हम एक दूसरे की टाँग खिंचने के अलावा करते ही क्या हैं. प्यार के दो बोल भी ..”
“तुम्हें आराम की जरुरत हैं. शायद तुम थक गई हो.”उसने उसे थामते हुए
“अब छोडो भी मैं तुम्हारे साथ-साथ नहीं चल सकती तुम बहुत अशिष्ट हो गये हो”
“मतलब……”
“आओ बताती हूँ…उसके सामने कागज़ों का ढेर फैलाते उसने कहा….देखा तुमने इसमें हमारे वर्षो के संग चलने की कहानियाँ है.”
वो एक-एक कागज़ का टुकड़ा उठाते सीने से लगाने लगा. जिसमें उनके आरंभ से साथ खेले हुए खेल की कहानियाँ थी, प्यार था.
“और ये देखो ये “वर्ग पहेली” इसीसे तो मैं समृद्ध हुई थी और तुम्हारे नजदिक आती चली गई. ये देखो ये संतरे के गोली का रैपर, इसे भी हमने दो टूकडे करके खाया था. लेकिन अब …”
“अब मैंने ऐसा क्या….. ?”
“अब हमारे बीच के खेल मेरा धर्म-तेरा धर्म, मेरी जात-तेरी जात.. संग-संग खाने की जगह हम एक दूसरे का छिनकर खाना चाहते हैं”
“——-”
“पुस्तके तो आजकल हम खूद की लिखते है अपने-अपने रसूखदारों की. अन्याय का बदला अन्याय से बस!.”
“आखिर तुम कहना क्या चाहती हो. सारी गल्ती मेरी हैं”
“नहीं हम दोनों की.”
“तो चलो ऐसा करते हैं..”
“क्या”
“कुछ दिनों के लिए अज्ञातवास, मनन-चिंतन.” शब्द ने लेखनी के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा.
दूर कही आवाज गूँज रही थी.
ये तेरा घर ये मेरा घर …….मेरी नज़र तेरी नज़र—————–ये घर बहुत हसीन हैं

स्नूज
उसने मोबाइल को जैसे-तैसे स्नूझ किया, उसे अपने तकिए के नीचे रख दिया और करवट बदलकर चादर को पैरो से सिर तक खींच लिया। आज उसका बिल्कुल भी मन नही था जागिंग/व्यायाम पर जाने का . जब वह फिर से निंद के आगोश में वापस जाने वाला था, उसे लगा जैसे कोई उसके सिर पर चादर खींच रहा है। गालों पर कोमल-कोमल हाथोंके स्पर्श महसूस हुआ .आँखे किलकिली करके देखते क्षण “ताsss” कहते हुए वह सीधे उसके शरीर पर चढ गई. वह स्नेह से अभिभूतहो गया उसके पीछे से उसकी बग़ल में खींचते हुए, वह उसे अपने हाथों से प्यार से सहलाने लगा।
उस पल में, तकिया के नीचे का मोबाइल फिर से हिल गया, उसने तुरंत इसे बाहर निकाल दिया, इसे बंद कर दिया और बिस्तर के दूसरे छोर पर फेंक दिया।
व्यायाम / जॉगिंग वह है जो आगे किया जा सकता है.
कुछ महीनों में ही सोनुली की साइकिल केपिछे भागना ही होगा, सोचा कि यह दिन कभी वापस नहीं आएगा, उसने उसे करीब खींच लिया, धीरे-धीरे उसके बालों के मध्य हाथ से सहलाते धीमी आवाज में लोरी गाने लगा. कुछ ही पलों में सोनुली बिटिया गहरी नींद में सो गई।
उसने भी फिर से आँखें मूँद लीं। दोनों गहरी नींद में सो गए।
अब वातावरण में सुकुन के खर्राटे गूँज रहे थे
©नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
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नसीहत
पूनम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी I वह अपने ही कारणों से बहुत परेशान थी और खुद पर ही झुंझलाई हुई थी I तभी एक बच्चे ने उसके सामने आकर गिङगिङा कर बोला “मेमसाहब I सुबह से भूखा हूँ I कुछ पैसे दे दो I पूनम कभी भी भिखारियों को पैसे नहीं देती थी I पर खाने को जरूर दे देती थी I कई बार तो टिफिन का पूरा खाना उन्हें देकर स्वयं भूखी ही रह जाती थी I पूनम झल्लाकर उस बच्चे से बोली “कुछ काम क्यों नहीं करते ? बिना काम के ही खाना मिल जाता है तो काम क्यूँ करोगे ? बच्चे की प्रतिक्रिया आयी “आप दोगी काम ? कोई नहीं देता I खाने-कपड़े पर भी नहीं रखता कोई I लगन, मेहनत, और ईमानदारी तो काम मिलने के बाद ही दिखा पाऊँगा I” पूनम ने मन में सोचा कि उसके घर में बहुत काम हो जाता है, उसे हेल्पर की बहुत जरूरत थी I पूनम ने कहा “माता-पिता कहाँ हैं तुम्हारे ? उनसे बात कराओ और अभी चलो मेरे साथ I” बच्चा बोला माँ तो देखी ही नहीं कभी और बाप दो साल पहले गुजर गया I अब कोई नहीं है I यहीं फूटपाथ पर रहता हूँ I” पूनम सोच में पड़ गयी I बहुत सारी खबरें रोज पढ़ने को मिलती थीं I अनजाना सा डर लगा I चोरी या किसी और घटना की शंका मन में आने लगी I उसने दस रुपये का नोट निकाला और बच्चे को दे दिया I बच्चे ने वह दस का नोट वापस पूनम के हाथ पर रख दिया और कहा “मेमसाहब आज पता चला कि खाते-पीते की मजबूरी भूखे की मजबूरी से बड़ी होती है I पैसे दो या न दो I किसी गरीब को नसीहत मत देना I” पूनम अवाक बच्चे को देखती रह गयी I

माँ-बाप
राजेश आर्यन पे झुंझला रहा था – “सब कुछ है तुम्हारे पास पर बोलती ही नहीं फूटती तुम्हारी। तुम्हारा दोस्त अजीत देखो तो कितना फ़्लूएंट है। तुमसे दस परसेंट नंबर ज्यादा आये हैं उसके। बचपन में तुमसे बहुत पीछे रहता था।“ आर्यन बोल नहीं पाया कुछ। उसकी माँ ने उसकी साइड ली “अजीत के दादा-दादी साथ रहते हैं। पूरे दिन कुछ न कुछ सीखने को मिलता है उसे। ये बेचारा क्या करे ? मैं अपनी नौकरी में और तुम अपनी में। आया के भरोसे बच्चा क्या सीखेगा ? दुनियादारी तक न सीख पाया। ये क्या कम है कि सीधा है और झूठ नहीं बोलता ?“ राजेश बोला “जब घर पे रहती हो तब ध्यान क्यूँ नहीं देतीं इसपर ?” “क्यूँ? बिट्टू को तुम देखोगे क्या ?” सीमा बोली। पता नहीं आया में कहाँ से साहस आया – “मैडम। अपने माँ-बाप को आप लोगों ने ही तो अलग कर दिया था जब आर्यन एक साल का ही था।” राजेश को याद आया कि उसने अपने पापा को कहा था “ये घर छोटा पड़ता है अब। आप लोगों के तौर-तरीके अलग हैं; हमारा रहन-सहन अलग।“ यह भी कहा था कि वह अपने बेटे होने का कर्त्तव्य जरूर निभाएगा और उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होने देगा। उनके लिए जो मकान लिया है वो दूर है तो क्या हुआ? है तो शहर में ही। आर्यन भी कुछ बोलना चाहता था पर हमेशा ही की तरह उसका मुँह तो खुला पर लड़खड़ाती जबान ने उसकी बोलती बंद कर दी। उसके माँ-बाप असहाय देखते रहे।


दुविधा
मानवी ने खिड़की से बाहर देखा क्रमशः धीमे होती ट्रेन प्लेटफार्म पर रुक गयी। आँखों के सामने एक खिलौनों की दुकान थी। छः साल की मानवी का मन मचल उठा। बहुत समय से उसे एक गुड़िया, एक कार और एक रोबोट की साध थी। क्योंकि ऐसे ही खिलौने पड़ोस की रिंकी के पास थे। उसके मनचाहे खिलौने उसे सामने की दुकान पर दिखाई दे रहे थे। उसने माँ से कहा माँ! आपने कहा था मुझे खिलौने दिलाओगी।“ कई दिनों से व्यस्तता के कारण माँ मानवी के आग्रह टालती जा रही थी। क्या करती? पिता तो थे नहीं सारा काम उसी के जिम्मे था। माँ ने पर्स में देखा सफ़र के कारण उसके पास पैसे भी कम थे। मानवी को हिदायत मिली “एक ही खिलौना लेना है। ट्रेन जल्दी चल देगी। फटाफट ले लेना।“ मानवी ने एक कार पसंद कर ली। माँ ने उसे कार दिला दी। अब उसे गुड़िया ज्यादा अच्छी लगने लगी। माँ ने कार के बदले उसे गुड़िया दिला दी। अब उसे रोबोट भी चाहिए। ट्रेन का हॉर्न बज गया। माँ झुँझलाई। “पैसे नहीं हैं इतने।“ तभी ट्रेन रेंगने लगी। माँ ने पूँछा “जल्दी बताओ कौन सा?” मानवी अड़ गयी – “तीनों चाहिए।“ माँ क्या करती? मानवी को घसीटते हुए ट्रेन में चढ़ गई। ट्रेन चल पड़ी। मानवी दूर तक दुकान को देखती रही।

गीता सिंह
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
ग्रेटर नोएडा (उ०प्र०) – २०१ ३१२
Singh786geeta at gmail. com
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अस्तित्व की यात्रा
उसका अपना साथी जो उसके मुकाबले अब अधिक बलिष्ठ था, उसको शिकार करने के उद्देश्य से घूर रहा था। देखकर उसका हृदय काँप गया।
वह सहमती हुई उन दिनों को याद करने लगी जब दोनों एक साथ शिकार करते, साथ मिलकर लकड़ियाँ चुनकर लाते, आग सुलगाते, माँस पकाते, साथ मिल-बांटकर खाते। सहवास के दौरान एक दूसरे का बराबरी से सम्मान भी करते थे।
दरअसल तब वे दोनों असभ्य, अविकसित जीव थे, शिकारी होकर भी सम्बंधों को परिपूर्णता से जिया करते थे।
वह याद करती है उस दिन को जब उसके गर्भवती होते ही दूसरे ने उसके लिए घर बनाने का सोचा था। प्रसवित जीव को केन्द्र में रखकर दोनों ने उस वक्त अपने लिए कार्यक्षेत्र का विभाजन किया था। उसके बाद से वह प्रसवित जीव की देखभाल करने के लिए घर में रहने लगी और शनैः शनैः कोमल शरीर धारण करने लगी थी। उसे कहाँ मालूम था कि समय बीतने पर इन्हीं बातों के कारण वह स्त्री कहलाएगी।
उसके शिकार को उद्दत अपने साथी की बलिष्ठ भुजाओं की ओर उसने पनियाई आँखों से देखा, फिर अपनी कोमल और कमजोर शरीर पर नजर फेरी। वह ठिठकी, दूसरे ही क्षण उसकी आँखों में कठोरता उतर आयी थी।
वह प्रसवित जीव को अपने साथ ले, घर से बाहर शेरनी बनकर फिर से स्वयं के पोषण के लिए शिकार करने निकल पड़ी।
वह अब स्त्री नहीं कहलाना चाहती थी।

सावन की झड़ी
“भाभी, निबंध लिखवा दो!” चीनू ने उसका ध्यान खींचा।
“किस विषय पर?” चीनू की स्कूल डायरी उठा, फिर से नजर बरामदे की ओर लग गयी।
जब से सुषमा बरामदे में खड़ी हुई है और उधर वो गुजराती लड़का, उसका ध्यान वहीं है।
कितनी बार मना कर चुकी थी इसे लेकिन…..!
बाऊजी नजीराबाद वाले से रिश्ता जोड़ना चाहतें हैं और ये है कि इस गुजराती में अटकी है!
ननद के चेहरे पर छाई मायूसी उसे बार-बार हिमाकत करने को उकसा जाती थी इसलिये कल रात आखिरी बार फिर से हिम्मत करी थी।
“बाऊजी, वो पड़ोस में गुजराती है ना….!”
“हाँ, सो?”
“अपनी सुषमा को पसंद करता है, उसकी नौकरी भी वेयर हाऊस में है।”
“वो….? शक्ल देखी है उसकी, काला-कलुटा, जानवर है पूरा का पूरा! उपर से दूसरी जात!” बाऊजी की आवाज़ इतनी सर्द …., उसकी हड्डियों तक में सिहरन उठी थी।
पति ने उसकी ओर खा जाने वाली नजरों से देखा था।
चीनू ने हाथ से डायरी छीन ली,
वह लौटी, आँचल खींच फिर से पूछा, “बताओ ना, जानवरों की क्रिया कलापों पर क्या लिखूँ?”
सुषमा और चीनू के लिए वह भाभी कम माँ अधिक थी।
“भाभी, मोर क्यों नाचता है?” चीनू ने इस बार सबसे सरल प्रश्न पूछा था।
वैसे चीनू के प्रश्नों के जबाब उसे ढूँढ-ढूँढकर तलाशने होते हैं। आज कल के बच्चे कम्पयूटर से भी तेज, और चीनू, उन सबमें भी अव्वल!
“मोरनी को रिझाने के लिए ही मोर नाचता है।” उसने स्नेह से कहा।
“और जुगनू क्यों चमकता है?
“अपने साथी को आकर्षित करने के लिए।”
सुनते ही क्षण भर को वह चुप हो गया।
“आप हमारे भैया की साथी हो?”
“हाँ!” उसके ओर आँखें तरेरती हुई बोली।
“भैया ने आपको कल रात मारा क्यों?”
“चीनू!” वह एकदम से सकपका गयी।
“क्योंकि मैं उन पर ध्यान नहीं देती हूँ?” भर्राये स्वर में धीरे से कहा।
“तो उनको भी आपको रिझाने के लिए जुगनू की तरह चमकना चाहिये, मोर की तरह नाचना चाहिये था ना?”
“धत्! वे क्यों रिझायेंगे, जानवर थोड़ी ना हैं!”
“भैया जानवर नहीं हैं,लेकिन गुजराती तो जानवर है ना, इसलिये तो सुषमा जीजी को रिझाता रहता है।” कह कर चीनू जोर-जोर से हँसता रहा लेकिन वह सुनकर सुन्न पड़ गयी।
“ये क्या ऊटपटाँग बातें कर रहा है तू?”
“भाभी, मैं खुद ही निबंध लिख लूँगा, बस सुषमा जीजी को उसका मोर दिला दो! फिर वो कभी आपकी तरह छुप-छुपकर नहीं रोयेगी।” कहते हुए चीनू की नजर भी बरामदे में जाकर टिक गयी।

इंजीनियर बबुआ
शरबतिया बार बार चिंता से दरवाजे पर झाँक, दूर तक रास्ते को निहार उतरे हुए चेहरे लेकर कमरे में वापस लौट आती। कई घंटे हो गये रामदीन अभी तक नहीं लौटा है।
गाँव के पोस्ट ऑफिस में फोन है जहाँ से वह कभी कभार शहर में बेटे को फोन किया करता है। इतना वक्त तो कभी नहीं लगाया।
खिन्नहृदय लिए रामदीन जैसे ही अंदर आया कि शरबतिया के जान में जान आयी।
“आज इतना देर कहाँ लग गया, कैसे हैं बेटवा- बहू, सब ठीक तो है ना?”
“हाँ, ठीक ही है!”
“बुझे बुझे से क्यों कह रहें हैं?”
“अरे भागवान, ऊ को का होगा, सब ठीक ही है!”
“तुम रूपये भेजने को बोले ऊ से?”
“हाँ, बोले।”
“चलो अच्छा हुआ, बेटवा सब सम्भाल ही लेगा, अब कोई चिंता नहीं!”
“अरे भागवान, उसने मना कर दिया है ,बोला एक भी रूपया हाथ में नहीं है, हाथ खाली है उसका भी।”
“क्याss….! हाथ खाली…वो भला क्यों होगा, पिछली बार जब आय रहा तो बताय रहा कि डेढ़ लाख रूपया महीने की पगार है। विदेशी कम्पनी में बहुत बड़ा इंजीनियर है तो बड़ी पगार तो होना ही है ना!”
“बड़ी पगार है तो खर्चे भी बड़े हैं, कह रहा था कि मकान का लोन, गाड़ी का लोन और बाकि होटल,सिनेमा और कपड़ा-लत्ता की खरीददारी जो करता है ऊ क्रेडिट कॉर्ड से, उसका भी व्याज देना पड़ता है,इसलिए हाथ तंग ही रहता है।”
“बबुआ तो सच में तंगहाली में गुजारा करता है जी!”
“हाँ, भागवान, सुन कर तो मेरा दिल ही डूब गया। सोचे थे कि अपनी बेटी नहीं है तो भाँजी की शादी में मदद कर बेटी के कन्यादान का सुख ले लेंगे, बबुआ कन्यादान का खर्च उठा लेता जो जरा! लेकिन उसको तो खुद के खाने पर लाले हैं।”
“सुनिए, भाँजी के लिए हम कुछ और सोच लेंगे, पिछली साल गाय ने जो बछिया जना था उसको बेच कर व्याह में लगा देते हैं।”
“हाँ, सही कहा तुमने, क्या हुआ एक दो साल दूध-दही नहीं खाएँगे तो! बछिया बेच कर कन्यादान ले लेते हैं।”
“एक बात और है।”
“अब और क्या?”
“इस बार जो अरहर और चना की फसल आई है उसको बेच कर बेटवा को शहर दे आओ, उसका तंगी में रहना ठीक नहीं, हम दोनों का क्या है, इस साल चटनी- रोटी खाकर गुजारा कर लेंगे, फिर अगली फसल तो हाथ में रहेगी ही!”
“हाँ, सही कह रही हो, मैं अभी बनिया से बात करके आता हूँ, इंजीनियर बबुआ का तंगी में रहना ठीक नहीं है।”


खटर-पटर
ये दोनों पति-पत्नी जब भी बन-ठन कर घूमने निकलते तो कितने सुखी लगते हैं। एक-दूसरे से बेहद जुड़े हुए, बिना कहे एक दूसरे की मन को समझने वाले, फिर भी कभी-कभी इनके घर इतनी लड़ाई शुरू हो जाती है कि पूरे मोहल्ले में आवाज़ गूँजती है। जाने ये कैसे लोग है! अलगनी से सूखे कपड़े उतार, उसपर गीले कपड़े डालने लगी कि तभी सामने से आज वो अकेली आती दिखाई दी।कल रात भी खूब हंगामा मचा था उनके घर, मन में क्या सूझा एकदम से पूछ बैठी, “नमस्ते शीलू जी, कैसी हैं?”
“अच्छी हूँ, आप सब कैसे हैं?”
आँखों में काजल लगाये उनके चेहरे पर रौनक छाई थी। झगड़े के वक्त कल भी इनकी आवाज़ सबसे अधिक थी।
“आप परेशान हैं क्या?” मन को जबर करके पूछा मैंने।
“नहीं तो! मैं तो कभी परेशान नहीं होती हूँ।”
“लेकिन मुझे लगा कि…!”
“क्या लगा, जरा खुलकर कहिए!”
“आप कहती हैं कि आपके पति बहुत अच्छे हैं, तो फिर आप दोनों की लड़ाई क्यों होती है?”
“अरे वो!” कहते-कहते वह जोर-जोर से हँसने लगी। मैं अकबकाई उसको पागलों जैसी हँसते देखती रही। मुझे लगा यह दुख की हँसी है…बस अब जरूर रोयेगी..! लेकिन वह हँसती हुई कह पड़ी, “हम पति-पत्नी कभी नहीं लड़ते हैं, हमारी बॉन्डिंग मजबूत है।”
“लेकिन वो चीख-चिल्लाहट से भरी झगड़े की आवाज़ तो अक्सर सुनती हूँ।
“हाँ, होती है। लेकिन हमारे घर लड़ाई हम पति-पत्नी की नहीं बल्कि मर्द और औरत में होती है।” कहते हुए महकती-सी गुज़र गयी। मेरे सूखे कपड़ों पर गीले कपड़े बिछ जाने की वजह से पूरे कपड़े गीले हो गये। मैंनें अलगनी पर सूखने के लिए सबको छोड़ दिया।
अब मुझे एक नया मेनिया हो गया है, अब जब किसी जोड़े से मिलती हूँ तो उस खुशहाल पति-पत्नी में छुपे मर्द-औरत को तलाशने लगती हूँ।


टी-20 अनवरत
वह क्रिकेट की दिवानी थी।जैसे ही क्रिकेट लीग व टूर्नामेंट शुरु होता कि दिन भर की धमाचौकड़ी बंद। फिर तो कहीं और नजर ही नहीं आती, बस बैठ जाती टी वी के आगे। महेंद्र सिंह धोनी ,विराट कोहली और गौतम गम्भीर ,बस ,दूसरा कुछ सूझता ही नहीं था उसे। सोफे पर चिप्स , कुरकुरे के ढेंरो पैकेट और दोस्तों की टोली, कहती क्रिकेट में दोस्तों के साथ हो तभी मजा आता है।
पिछली बार तो कितने सारे पॉपकार्न के पैकेट मंगा कर माँ को थमा दिया था। उफ्फ! यह लड़की भी ना! माँ के पल्ले ना तो क्रिकेट,ना ही इसके तामझाम समझ में आते।
जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही बहुत अच्छे घर से रिश्ता आ जाना, वह भी बिना दहेज के, पिता तो मानों जी उठे थे।
“अजी, क्या इतनी सी उम्र में बिट्टो को व्याह दोगे? अभी तो बारहवीं भी पूरी नहीं हुई है। क्या वह पढ़ाई भी पूरी ना करें!” माँ लड़खड़ाती आवाज में कह उठी। अकुलाई-सी माँ बेटी के बचपने को शादी की बलि नहीं चढ़ाना चाहती थी।
“देखती नहीं भागवान, वक्त कितना बुरा चल रहा है, बेटी ब्याह कर, निश्चिंत हो, गंगा नहाऊँ।कल का क्या भरोसा फिर ऐसा रिश्ता मिले ना मिले।” एक क्षण रुक, कहते-कहते पिता के नयन भी भर आये थे। हर बात में लड़ने झगड़ने वाली ऐसी चुप हुई कि आज तक मुँह में सहमी उस जुबान का इस्तेमाल नहीं किया।
बाबुल के घर से विदा होकर आये पिछले एक महीनें में उसने एक बार भी मैच नहीं देखा है। उससे तीन साल बड़ी ननद देखती है क्रिकेट अपने भाईयों के साथ।
और वह क्या करती है? यहाँ तो उसकी जिंदगी क्रिकेट का मैच बनी हुई लग रही थी।
ससुराल का यह चार कमरों का घर बड़ा-सा क्रिकेट का मैदान दिखाई देता है उसे, जहाँ उसकी गलती पर कैच पकड़ने के लिये चारों ओर फिल्डिंग कर रहे परिवार के लोग।
विकेट कीपर जेठानी, सास अंपायर बनी उसके ईर्द गिर्द ही नजर गड़ाये रहती है। ननद, देवर,जेठ और ससुर जी सबके लिये वह बल्ला लेकर पोजिशन पर तैनात।
पति बॉलर की भूमिका में चौकस, और वह! बेबस, लाचार-सी बल्लेबाज की भूमिका में पिच पर, हर बॉल पर, रन बनाने को मजबूर। गलती होने पर कमजोर खिलाड़ी का तमगा और हूटिंग मिलती। आऊट होने पर भी बल्ला पकड़ कर पिच पर बैटिंग करने को मजबूर।
दूर-दूर तक कहीं कोई चीयर्स लीडर नहीं।
कई दफा आँखें रोते-रोते लाल हो जाती है। आज भी नजरें बार-बार पवेलियन (पिता के घर) की ओर उठ जाया करती है, काश इस मैच में भी पवेलियन में लौटना संभव होता!

विलुप्तता
“जोगनिया नदी वाले रास्ते से ही चलना। मुझे नदी देखते हुए जाना है।” रिक्शे पर बैठते ही कौतूहल जगा था।
“अरे,जोगनिया नदी ! कितनी साल बाद आई हो बीबी जी? ऊ तो, कब का मिट गई।”
“क्या? नदी कैसे मिट सकती है भला?” वो तड़प गई।
गाँव की कितनी यादें थी जोगनिया नदी से जुड़ी हुई। बचपन, स्कूल, कुसुमा और गणेशिया। नदी के हिलोर में खेलेने पहुँच जाते जब भी मौका मिलता और पानी के रेले में कागज की कश्ती चलाना। आखिरी बार खेलने तब गई थी जब गणेशिया को जोंक ने धर लिया था। मार भी बहुत पड़ी थी।
फिर तो माई ही स्कूल लेने और छोडने जाने लगी थी।
रिक्शा अचानक चरमरा कर रूक गया। तन्द्रा टूटी।
“हाँ,बहुत साल बाद अबकी लौटी हूँ। कैसी सूखी ये नदी,कुछ बताओगे?”
“अरे, का बताये, भराव होते-होते उथली तो पहले ही हो चुकी थी और फैक्ट्री वालों को भी वहीं बसना था। वो देखो, आपकी जोगनिया नदी पर से उठता धुँआ।”
चिमनी से उठता गहरा काला धुआँ उसकी छाती में आकर जैसे बैठ गया।
“गाँव तो बचा हैै ना?” घुट कर बस इतना ही पूछ पाई।

कांता रॉय

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श्मशान की जाति
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ताई हरप्यारी की मौत के बाद जटिया टोले के लोग, उसके शव को लेकर श्मशान में पहुंचे तो कुछ लोगों ने उनका रास्ता रोक लिया।
“कहीं और ले जाओ। तुम यहाँ मुर्दा नहीं जला सकते।” एक आदमी कड़ककर बोला।
“क्यों भाई?”
“ये श्मशान हम लोगों का है। तुम छोटी जाति के हो।”
“हम्म …. ठीक है, छोटी जाति के लोगों से वोट मांगते शर्म नहीं, उनका उगाया अनाज खाते शर्म नहीं, उनको हिन्दू बताते शर्म नहीं, छोटी जाति का चढ़ावा लेते शर्म नहीं, अपने धर्म को लजाते शर्म नहीं….पर मिट्टी को, मिट्टी में मिलाएँ तो शर्म आती है। ठीक है भैया …. फूँक देंगे कहीं और। नया चलन निकाला है श्मशान जाति का!”
” ताई को ले चलो कहीं और, झगड़ा हो जाएगा भैया!”
“झगड़े से नहीं, ताई की मिट्टी के अपमान से डरते हैं। ये जगह ताई के लायक नहीं है। सही कह रहे हैं ये, हम यहाँ मुर्दा कैसे जला सकते हैं, जहाँ इंसान नहीं जलाए जाते हों बल्कि ……।”
और वे ज़िंदा लोगों के श्मशान से दूर चले गए।

बदला हुआ बेटा
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बहुत समय से बेटा विदेश गया हुआ था। लेकिन विदेश जाकर भी माँ को वह भूला नहीं था। बेटे को जब भी माँ की याद आती तो वह उसे फोन करता, उसकी बातें सुनता। पहले शुरू-शुरू में तो बेटे को ख़ूब परेशानियों का सामना करता था विदेश में, तो बातें अक्सर हो जाती थीं। पर जैसे-जैसे बेटे को काम में सुगमता होती गई, बेटे की कमाई बढ़ती गई तो माँ-बेटे के बीच संवाद कम होने लगा।
काफी समय बाद बेटे का फोन आया था। वीडियो कॉल किया था। माँ घर में अपने काम में रमी हुई थी। बर्तन साफ करते में हाथ भी राख़ से सने हुए थे। फोन तो बेटे से कीमती नहीं होता है, सो माँ ने राख़ भरे हाथों से ही उसे उठा लिया था।
“नमस्ते माँ ! कैसी हो ?”
“ठीक हूँ बेटा, मुझ बूढ़ी का क्या। तू बता …तू तो ठीक है न।“ माँ ने कहा।
“ये किस के फोन से बात कर रही हो? मैंने तो बढ़िया फोन भेजा था तुम्हारे लिए। फिर इस फोन की फोटो इतनी बेकार क्यों आ रही है ?” बेटे ने पूछा।
“अरे! फोटो से क्या करना है । तू तो मुझे साफ दिखाई दे रहा है।“माँ ने मुस्कुराते हुए कहा।
“लेकिन मुझे क्यों लग रहा है कि ये मेरा भेजा हुआ फोन नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुमने फोन बेच दिया हो, और ये थर्डक्लास सस्ता फोन ले लिया हो।“ बेटे ने आशंका जताई।
“हम प्यार बांटने वाले देश के हैं, प्यार बेचने वाले देश के नहीं। बर्तन माझ रही थी, कहीं हाथ लग गया होगा बेटा। तेरी सौगात को कैसे बेच देती रे।“ माँ ने कहा और फोन को अपने पल्लू से पोंछ दिया। अब फोटो साफ आ रही थी।
“देखा न माँ, तुम्हें तो महंगी चीजें सम्हालना भी नहीं आता। कितना महँगा फोन है, तुम्हारे यहाँ तो एक लाख का होगा।“ बेटे ने कहा।
“बेटा ! फोन कितना भी महँगा या सस्ता हो , मैंने तो तेरी शक्ल देखने को रख रखा है । मेरे लिए तो तेरी शक्ल ही सबसे महंगी है , बेटा ! ममता तो रुपया, डॉलर नहीं जानती।“
और इसके बाद सिर्फ बेटे की आवाज़ आती रही …हैलो …हैलो । शक्ल बदलते ही बदले हुए बेटे का आभास हो गया था।

पंख
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“साहब जी ! चुनाव की हवा को इधर मोड़ना पड़ेगा। कितना पैसा बहा रहे हैं पर बात जम नहीं रही है, और ऊपर से इस कोरोना की वजह से नए नियम ज्यादा लोग चुनाव प्रचार में नहीं जा सकते।”
“अरे! ऐसा क्यों ?”
“साहब! कोई चुनाव घोषणा पत्र दिखाता है , कोई डिग्री दिखाता है तो कोई फटे-पुराने जूते दिखाता है और किसी-किसी ने तो अपना पेट दिखा दिया। ऐसा लगता है जैसे कंकाल हों।”
“हा हा हा …..ऐसे ही आदमी तो काम के होते हैं। जरा-सा भी दो तो बहुत समझते हैं। अपने लोगों से कहो कि कहें हम गांधीवादी हैं तो शराब बांटने की जरूरत नहीं, और उस पैसे से दस-बीस बुजुर्ग महिलाओं को धोती दो ….कुछ बूढ़ों को शाल दो…सम्मान दो।”
“पर साहब ! वहाँ तो गरीबी ने सब को समय से पहले बूढ़ा कर दिया है …किस-किस को दें ।”
“हम्म ….तो ये चुनाव आयोग किस काम आएगा ….. सभा करने की अनुमति दिला देते हैं ….ज्यादा होगा तो राज्य को विशेष पैकेज दे देंगे कोरोना के लिए …..वोट नहीं छूटना चाहिए ….दो चार हजार मरें तो क्या फर्क पड़ता है ….जन संख्या नियंत्रण भी हो जाएगा …बिना नसबंदी के ….हा हा हा ।”
“साहब! आप है तो सब मुमकिन है।”
उन्होने अपनी सफ़ेद दाढ़ी पर हाथ फिराया और मुस्कुराते हुए बोले, “देश के अलावा जर्मन भी घूमा हूँ ….और मुर्गे के पंख उखाड़ने की कहानी से सीखा भी है …… सपने, भरोसा, आशा सब दो इन्हें ….पर पंख नहीं छोडना शरीर पर….हा हा हा।”

कोरोना है ….काला नाग नहीं
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“अरे! सुनो जी, शर्मा जी कोरोना पॉज़िटिव हो गए। उनके घर पे पर्चा चिपका दिया है। तुम ख्याल रखना अपना, और उनकी मदद के चक्कर में घर मत जाना।” पत्नी ने बताया।
“अच्छा, जरा मेरा फोन तो देना।”
“क्या करोगे ? स्टेटस लगाओगे क्या व्हाट्स एप का ?”
“नहीं, उसे कुछ बताना है।”
“क्या बताना है ? तुम क्या डॉक्टर से ज्यादा जानते हो । हर चैनल बता रहा है, स्वास्थ्य मंत्रालय दिखा रहा है, तो क्या टी वी के लोग झूठ बोल रहे हैं ?” पत्नी गुर्राई।
“हाँ, उन्हें किसी दवाई की जरूरत नहीं है। तीन दिन में ठीक हो जाएगा। सारा खेल दिमाग का है । दिमाग मजबूत तो मतलब कमांडर मजबूत और शरीर तो सेना है। कोरोना पॉज़िटिव हैं तो सोच और खाना पॉज़िटिव करने की जरूरत है। उसे एक वीडियो भेज रहा हूँ । कल बनाया था मैंने। कोरोना है ….काला नाग नहीं है …और दवाई की बीन से भी नहीं भागेगा ….साँप के कान नहीं होते।”
“लो जी ! भाई साहब को सही से समझा दो । अच्छे आदमी हैं, बेकार ही परेशान हो रहे होंगे।”

हैप्पी पॉलिसी
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“अरे भैया ! एक सिल्क की चॉकलेट भी दे देना ….सबसे बड़ी वाली।” दुकानदार से माता जी ने कहा।
“आज आपको यहाँ देखकर बहुत अच्छा लगा माँ जी। ज़्यादातर तो बाबू जी ही आते हैं या आपका बेटा आता है। मैं बड़ी चॉकलेट डाल देता हूँ।” और दुकानदार ने सामान के साथ चॉकलेट भी रखकर हिसाब जोड़ दिया।
“अरे भैया ! इसमें से चॉकलेट के पैसे हटा दो। वो मैं नकद दूँगी अलग से , और ये सामान के पैसे काट लो।” उन्होने पर्स से एक रुपयों का बंडल उसके हवाले कर दिया। दुकानदार ने पैसे गिने और बकाया वापिस कर दिया।
“लो अब इन पैसों से चॉकलेट के पैसे काट लो ।”
दुकानदार हैरानी से मुस्कुराता हुआ बोला -“पैसों -पैसों में कैसा फ़र्क माँ जी ? मैं उसमें से भी तो पैसे काट सकता था ?”
“अरे नहीं, वो पैसे बेटे के पैसे थे, उससे घर खर्च चलता है। ये पैसे मेरे हैं, इनसे मेरा घर चलता है … तुम नहीं समझोगे।” माता जी ने कहा।
“सचमुच मैं नहीं समझा माँ जी । आप बताइये तो, कि इसमें क्या फ़र्क है ?” दुकानदार ने कहा।
“हा हा हा …..मेरी दो बहू हैं। घर का खर्च चलाने की ज़िम्मेदारी मेरी है , सो सब पैसा मुझे देते हैं, और कुछ पैसा मुझे अलग देते हैं मेरे खर्च के लिए । अपने खर्च के पैसे से ये चॉकलेट लिया है अपनी बहुओं के लिए । अब ये मत पूछना कि एक चॉकलेट ही क्यों लिया है। उन दोनों को आधा-आधा चॉकलेट तोड़कर दूँगी उनके सामने, ताकि उन्हें लगे कि मैं सिर्फ खडूस सास नहीं माँ भी हूँ। और मुझे भी तो कुछ न कुछ हिस्सा मिलेगा ही ….. चल एक टॉफी दे ….हैप्पी पॉलिसी बताने की फीस ….हा हा हा।”
माता जी के इतना कहते ही उसने टॉफी का डिब्बा उनके सामने कर दिया ज़ोर से हँसते हुए।

उच्चस्तरीय जांच
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“सर! अब कुछ नहीं हो सकता । आपका बेटा तो जेल जाएगा ही बलात्कार के केस में ?”
“क्यों रे ? हम क्या मर गए हैं ? कितने ही केस दबाने का एक्सपीरियंस है।”
“कहा न कुछ नहीं हो सकता अब । साला डॉक्टर ईमानदार था …रिपोर्ट लीक हो गई ।”
“डॉक्टर नियुक्ति की उच्चस्तरीय जांच करवाओ…..साला ईमानदार भर्ती कैसे हुआ?”

गुड नाइट सर
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“सर! हर तरफ से लोग हाहाकार कर रहे हैं । देश जल रहा है।”
“मैंने तो घर फूँक लिया है।”
“क्या मतलब?”
“तमाशा देखो । पढे लिखे होकर इन बातों पर ध्यान देते हो। ”
“गुड नाइट सर ।”

केदार नाथ शब्द मसीहा

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