स्मृति-भँवरः देवी नागरानी

फ़िल्मः मुंबई वाराणसी एक्सप्रेस

‘क़ैद में है बुलबुल सैयाद मुस्कुराए
कहा भी न जाए और सहा भी न जाए’

कल ही की तो बात है, और याद बनकर आज अभी तक सीने में धौंकनी की मानिंद अपने होने और न होने के बीच की खलिश का अहसास कराती है. याद आते ही यह मन जैसे गुमनामियों की गुफाओं में गुम होता रहा. यह दिल भी क्या चीज है? कभी अपनी ही इच्छाओं की डालियों पर गौरैया सी फुदकती रहती है, कभी अपनी चाहत का इज़हार करती है, तो कभी अपने भीतर की गुप्त गुफाओं में खुद को दफन कर देती है. कारण अनेक हो सकते हैं।

कौन शहनशाह कौन गुलाम कह नहीं सकते. कौन मालिक है, कौन गुमाशता जाना नहीं जा सकता? पर एक बात सच की तरह सामने रौशन है, सभी दुनिया के रंग मंच पर अपना अपना किरदार कठपुतलियों की तरह अदा करते हैं और बखूबी अपनी नजरों में सुरखुरू हो जाते हैं।

आज मन में तहलके ने ऊधम मचाया है। दिल की धड़कन उफान की तरह शोर मचाती अपनी हदें तोड़ने को आमादा है. बेचैनी का गुब्बार भीतर और बाहर छाया हुआ है। सुबह डॉक्टर के पास गई. कराई गई हर जांच का नतीजा सामने आया. दिल पर दबाव, दबाव के कारण दौरा पडने की संभावना बताई। नतीजा यह निकला कि चीरफाड़ करने-करवाने का समय आया है. डॉक्टर ने तारीख, आठ दिन के बाद की दे दी, यह कहते हुए कि दिल का मामला है दूसरी कोई राह नहीं. खतरा मोल लेने से खतरे का समाधान ही सही सुझाव बन जाता है. हामी भर दी. सभी कार्य हिदायत अनुसार हुए और सात दिन घर में सुख की सांस लेने की जैसे इजाजत मिली. घर आई, खाना खाया, पर हंसी तो क्या, मुस्कान भी फीकी सी पड़ गई. सोचा, औरों के साथ भी तो ऐसा बहुत कुछ होता है. ऑपरेशन के बाद लोग लौट आते हैं, कई साल जीते हैं. इस बार कतार में मैं आ खड़ी हूँ. कोई नई बात तो है नहीं, जो सिर्फ़ मेरे साथ हो रही है।

दिन बीता, रात को सोने के हर प्रयास को नाकामी मिली. कंप्यूटर पर मन लगाने की कोशिश में भी सफल न हुई तो यू ट्यूब पर मन बहलाव का कोई किस्सा खोजते हुए ‘मुंबई वाराणसी एक्सप्रेस’ नामक फिल्म उभर आई. कुदरत की ओर से भेजा हुआ कोई संदेश ले आई है, यही सोच कर उसे ही देखने लगी।

देखना क्या था जैसे अपने जीवन से जुड़ना था. क्या बताऊं, शुरू से अंत तक पूरे 80 मिनट एक पल के लिए भी मन वहाँ से नहीं हटा. फिल्म का मुख्य कलाकार कैंसर का मरीज है, और डॉक्टर के सामने बैठा अपने जीवन के बचे हुए पलों के हिसब किताब का विस्तार सुन रहा है. नतीजा, सीमित वक़्त का ऐलान-जो दो महीने से ज्यादा न था।

जिस डॉक्टर ने उम्र भर दवाइयों पर दवाइयां बदल-बदल कर पर्चियों के तौर उसे दी, आज अपनी ही कुर्सी से उठ कर उसे एक प्यार की झपकी देते हुए कह बैठा-“ दोस्त अब तक तुमने व्यापारी बन कर जीवन बिताया, पैसा कमाया, दवाओं पर धन लुटाया, अब मौका है जाकर जीवन जी लो. रूठों को मना लो, ज़रुरतमंदों के मददगार बनो.”

डॉक्टर की बात मानकर ‘मानव’ नाम का वह शाहूकार सेठ अपने मन से खुद के लिए निर्णय अनुसार अपने शाही घर को छोड़ते वक़्त एक खत छोड़ जाता है अपने बच्चों के नाम कि “अब वह गुमनामी में अपना वजूद ढूंढना चाहता है, अपने हिस्से की बाकी खुशियां पाना और बांटना चाहता है, उसे ढूँढने का प्रयास न किया जाय।”
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इन्सान के मन में जो भी होता है वह अपना प्रभाव शरीर पर दिखाता है. अगर गुस्सा भी होता है तो उसकी गिरफ़्त में वह खुद भी परेशान होता है और अपने दायरे के सभी लोगों पर भी प्रभाव डालता है. खुशियाँ शायद वह अपने हिस्से की मानकर, दौलत की तरह समेटकर रखता है।

उसे याद आया, जब वह जवान और क़ामयाब व्यापारी था तब बिना सोचे समझे अपनी पत्नी की शान में गुस्ताखी करता था. फिर बच्चे हुए, जो बढ़ते-बढ़ते बड़े हो गए और उनमें से दो की शादी भी हो चुकी. पर अपने स्वभाव के कारण गर्मजोशी में कभी कभी, कभी नहीं अक्सर पत्नी की हर अच्छाई को बुराई में तब्दील करता रहा, यह जताकर कि वह इस घर का मालिक है. उसकी दौलत के बलबूते पर सभी को यह घर, यह ठाठ, व् अन्य उपलब्ध सेवाएं हासिल हैं।

बच्चे तो जवानी के नशे में पैसों की सुविधा पाने की गरज के लिए अपना हित सोचकर पिता की बात सुनी अनसुनी कर जाते. मगर बढ़ती उम्र की ओर कदम रखती पत्नी हर पल खौफ की जकड़न से मुक्त होने को छटपटाती रही. आखिर अपने ही भीतर के कोहरे में घुटते हुए, उसी घुटन का कफ़न ओढ़कर आखिर एक दिन वह इस जहान से चल बसी।

मानव अकेला पड़ गया. साथी के साथ का अहसास अब उसे कचोटने लगा और अकेलेपन में अनेक चिंताओं की घुटन के एवज़ उसे कई बीमारियों ने घेर लिया. अब उसे सिर्फ़ दो महीने की मोहलत मिली थी. वह जानता था उसकी बीमारी उसे जीने नहीं देगी. उसने जीवन जीने की इच्छा से घर का परित्याग किया. वक्त गुज़रते ही वह एक दिन मौत के आगोश में होगा. जानता था, लोग आएंगे, दुश्मन भी दोस्त बनकर अच्छे बोल बोलेंगे, आश्वासन देते हुए बच्चों से विदा लेते जाएंगे. यह एक फॉर्मेलिटी है, जो पूर्ण होते ही सभी अपनी राह चल देंगे, अपने अपने स्वर्ण संसार की ओर।
मानव ने अब अपने सभी बाह्य दरवाजे भीतर की ओर बंद कर दिए. वह सांसे ले रहा था पर गुमनामी की राहों पर चलते चलते, ज़रूरतमंदों की मदद करते करते, बिन अहसान जताए बीमार बुज़र्गों को अपनी सेवाएं देता रहा. जानता था कि कुछ ही दिनों में उसका तन राख का ढेर बन कर रह जाएगा।
घर से जब निकला तो एक आश्रम में पनाह पाई. जहाँ उसे खुद अपने खाने का जुगाड़ करना पड़ता था, पकाना पड़ता था. बीते दिनों की याद के झरोखे से रसोईघर में चूल्हे की तपिश में पसीना पोंछती पत्नी याद आ गई. अपने बर्ताव को याद करके शर्मिंदा होता रहा कि कैसे बार बार उसे जताकर, वह अपनी धाक का रौब उस पर जमाने की कोशिश करता था. मगर वह तो वक़्त की रौ में फिसलती हुई रेत की तरह जाने किस प्रवाह में इस जहान से विदा हो गई।
एक दिन तो मानव ने हद कर दी. धौंस जमाते जमाते वह यह भी भूल गया कि वह उसकी पत्नी है. एक दिन उसने अपने पत्नी को ज़ोर से थप्पड़ मारी यह कहते हुए-‘ यह परोसा गया खाना इतना ठंडा क्यों है, तुम्हारी फितरत की तरह?’
क्या उत्तर देती वह? अमीर की ज़बान के आगे गरीब का मौन ही शोभा देता है. वह मालिक, उसकी मर्ज़ी, वह जो चाहे करे. ऐसे में पिंजरे की क़ैद में परिंदे की उड़ान का कोई मतलब नहीं रहता!
और अचानक खाना जलने की बू से वह ख्यालों की दुनिया से हकीकत की दुनिया में लौट आया. उसे न खाना नसीब हुआ, न ख़्वाब.
फिल्म देखते-देखते मेरे मन में भी ख्याल आया कि जीवन कुछ ऐसे ही जिया जाए, आजाद पंछी की तरह. मन जो बोले वही किया जाए, ऊंची उड़ान भरते हुए. उड़ान का अहसास, गुब्बारे की हवा निकल जाने के बाद कोई मतलब नहीं रखता।
सामने दवाओं की पर्चियां देखी…
और कुछ न हुआ तो मानव ने हिदायत अनुसार थोड़ा कुछ खाकर, दवाएं खाली, पानी पी लिया. पर आँखों की नमी जता रही थी कि पानी के साथ उसने न जाने और किस किस कडवाहट के घूँट भर लिए. आखिर अनचाहे ख़यालों से मन को हटाकर मुक्ति के कई अन्य साधनों से जुड़ने में प्रयासरत होने लगा. प्रयास हर एक के बस में है. हम सभी उसी कतार में हैं, अपने अपने स्थान पर अपनी ही खुदगर्जी की चादर ओढ़कर आगे बढ़ रहे है, समय की सीमाओं से घिरे हुए उसी मंजिल की ओर।…

देवी नागरानी
संपर्क सूत्र-dnagrani@gmail.com

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