डा शांति सुमन केवल एक नाम नही,एक युग, एक समय की साक्षी हैं।
गीतों की अन्तर्यात्रा हृदय से हृदय के बीच एक सतत प्रवाहिता नदी है,जो भावनाओं, संवेदनाओं की कोमल लहरों से पाठक या श्रोता के मर्म को स्पर्श करती है।,इनकी कोमलता मन के तार तार झंकृत कर देती है, आंसुओं में वेदना की अकथ कहानी बन पिघलती हैl यही अतर्यात्रा गेयता को जन्म देती है और गेयता संवेदना कोl मानवीय अनुभूतियों सुख दुख हर्ष विषाद के भावुक पलों की अभिव्यक्ति ही गीत है और उनमें बिंबित भावनाएं ही गीतों का प्राण है,उनका “नव*हैं,यही नवता ही गीतों की आत्मा का उत्कर्ष होती है,।
यद्यपि नवगीत ने हिंदी साहित्य के इतिहास में अपनी जगह बना ली है परंतु गीत सृजन भावनाओं का एक प्रवाह है जो हमारी संवेदना से उद्भूत होकर कवि और समाज के मानस पटल पर अभिव्यक्ति का जादू जगाता है,,। काव्य की विविध विधाओं ने साहित्य को सजाया संवारा है, परंतु केवल गेयता या शब्दों का क्रम सुनिश्चित करना ही गीत या नवगीत की कसौटी नहीं है वह अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम भी है,।
और यही अभिव्यक्ति जब लेखनी के भाव सलिल में गंगा सी प्रवाहित होती हुई हमारे हृदयों को सिंचित करती है तो वह गीत अमर हो जाता है,.ऐसे ही अमर गीतों .नवगीतों की सृजनकर्त्री बिहार की बहुमूल्य प्रतिभा डा शांति सुमन जी सृजन की दुनिया में अद्भुत भावप्रवण गीतों की सशक्त हस्ताक्षर हैं।उनके गीतो को.सुनना.और पढना मानो भावों.संवेदनाओं की एक.विलक्षण दुनिया में खो जाना है।मै सौभाग्य शाली हूं कि मुझे यदा कदा उनका स्नेहिल सान्निध्य मिलता रहा है.उनके आशिर्वचनों की गंगधार से आप्लावित होने का सुखद अवसर भी।उनका जन्म बिहार के कासिमपुर सहरसा में हुआ.वहीं की पृष्ठभूमि में सृजन की शुरुआत हुई. भावनात्मक विकास हुआ. और कल्पना ने उडान भरी।उनके बचपन का नाम शांतिलता था.जिसे उनकी बुआ ने रखा था जिसके माध्यम से ही उन्होने शिक्षा.विद्यार्जन किया था।शांति सुमन नाम उनके सृजन संसार में लोकप्रिय रहा है।
लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर से हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करके उसी कॉलेज में आजीविका भी पाई और तैंतीस वर्षों तक प्राध्यापन के बाद वहीं से वे प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से 2004 में सेवामुक्त हुईं। मध्यवर्गीय चेतना और हिंदी का आधुनिक काव्य विषय पर पीएच. डी. उपाधि प्राप्त डॉ; शांति सुमन ‘सर्जना’ (1963-64) के तीन अंक प्रकाशित), ‘अन्यथा’ ()1971 और ‘बीज’ नामक पत्रिकाओं के संपादन से संबद्ध रहीं।
उन्होंने 1967 से 1990के दौरान कवि सम्मेलनों एवं मंचों पर अपनी गीत-प्रस्तुति से अपार यश अर्जित किया
यद्यपि उनकी कर्मभूमि बिहार मुजफ्फरपुर ही रही थी।
परंतु झारखंड के जमशेदपुर में लंबे प्रवास के दौरान वे बिल्कुल अपनी सी लगी. बिना किसी भेदभाव. छल छंदो से परे अपनी ममतामयी स्नेहिल मुस्कान से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया था.लेकिन आत्मानुशासन की सीख भी उनसे.ही मिली ।
.क्योंकि उनके गीतों की सहजता और मधुरता .आम जन जीवन. घर आंगन से जुडकर अंतर्मन को स्पर्श करती.है।और पाठकों. श्रोता ओं की पीडा और वेदना में घुल मिल जाती है।**पंखुडियों पर लिख लिख बांटे.
रंग नेह धुले मन के.
कथा बांचने में अंतर की.
धूपों ने गीत लिखे वन के।
कहते हैं कि रचना मे रचनाकार का व्यक्तित्व समाहित रहता है।डा शांति सुमन जी की रचनाओं को पढते..सुनते समय उनके व्यक्तित्व की गरिमा .सहजता.सरलता.और एक गहन आत्मीयता का भाव बोध होता है।.जैसे गीतों के मन-प्राण में स्वयं कवयित्री का.व्यक्तित्व एकाकार हो.बोल उठता है।*
तुम नदी होते .
तुम्ही से कहा करते
बात मन की..
लहर से.हम माग लाते धार पर बहना .
और उलटी हवाओं में पांव थिर रखना
तुम हवा होते …दिशा मे रंगा करते लय.सपन की।
उनका यह गीत व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत प्रिय है.जिसे उनकी पहली मुलाकात में एक काव्य मंच पर सुना था।.और आज भी यह गीत उतना ही कर्णप्रिय और मोहक है..मन को विमुग्ध करने वाला उनका कोकिल स्वर गीतों की सार्थकता और उनकी भावात्मक अभिव्यक्ति को स्वर देता है। विशेष रुप से नारी मन की पीडा को बखूबी बयान करता यह करुण गीत किसे मोहित नहीं करता!।
हाथों में आ गये
पंख तितलियों के
रंग पहचानने लगी लडकी।
उंगलियों पर गिन रही.
दिन मास के सपने .
और कितने दिन हैं
इस आग ही में तपने।
शान्ति सुमन के गीतों में एक आह्वान. एक मौन जो सदैव मुखर है., वे एक उमंगों से -तरंगित उत्कंठित मन का उत्साह भर नहीं, समय की विद्रूपताओं से उनकी सीधी मुठभेड़ और युग के यथार्थ का वह मजबूत संवेदनशील भाव बोध भी है, जिसे जन और उसके जीवन-संघर्षों तथा सरोकारों के बीच से उन्होंने अर्जित किया है।
लौटती है जिंदगी में
नयी लय हरापन की.
तोड देती हैं हवाएं.
हरी भरी नंगी टहनियां.
कौंध जाती दिशाओं में.
आग बनकर बिजलियां।
नहीं गूंजती धुन कोई
ओस जैसी इन की।
वरिष्ठ कवि. लेखक डा शिवकुमार मिश्र जी ने डा शांति सुमन जी के गीतों को मानवीय चिंता से उपजे .अंर्तमन के गीत कहा है।उनका मानना है कि *गीत, शांति सुमन की रचनाधर्मिता का स्व-भाव है, जिसे उन्होंने काव्याभिव्यक्ति की अनेक विविधताओं ..स्वरुपों और नदी की धार सी उठती गिरती तरंगित लहरो के समान जिया है।यही नहीं, समय के बदले और बदलते संदर्भों में अनुभव-संवेदनों की नई ऊष्मा और नया ताप भी उन्हें दिया है *07
शांति दी की रचना *धूप रंगे दिन *में जन सरोकारों और जन पक्षधरता की झलक भी दर्शनीय है।..
तब तो आसान से थे.
दुख ही बडे अपने।
अब आते पकड मे ही.
हीं सुख ये इतने।
दीखती है धूप.अटकी जालियों में*
शांति सुमन की रचनाओं में जहां.लोक की लोक धर्म की खुशबू है.वहीं नागार्जुन जैसी विरोध व प्रतिकार की.धमक भी है।सेर्गेइ येस्येनिनने लिखा है ** कवि होना ऐसा है .जैसे जीवन के प्रति निष्ठावान होना**शांति सुमन के गीत इसी जिजीविषा और जीवन निष्ठावान का साक्ष्य हैं।
प्रगतिशील आन्दोलन के साथ आरंभ हुई जनगीतों कीयह सृजन यात्रा , नई सदी की दहलीज तक लाने वाले जन गीतकारों में पहली और वरेण्य पंक्तियों में शामिल लोकप्रिय नाम है..डा शांति सुमन ।और यह केवल एक नाम नहीं है.एक युग .एक समय की साक्षी है जो उनके सृजन में सदैव प्रतिबिंबित शान्ति सुमन के गीत, जो कविता को उसके वास्तविक आशय में जन-चरित्री बनाते हैं, उसे जन की आशाओं-आकांक्षाओं से बेहतर जिन्दगी के उसके स्वप्नों तथा संघर्षों से जोड़ते हैं।
शान्ति सुमन के गीतों में उद्बोधन, आवेग और एक उमंग-तरंगित मन का उत्साह भर नहीं, समय की कुरुपताओं से उनका सीधा सामना और युगीन यथार्थ का वह खरा भाव बोध भी है, जिसे जन और उसके जीवन-संदभों के बीच से उन्होंने पाया और अर्जित किया है । गहरे और व्यापक जन-संघर्षों की धार से गुजरे ये गीत आज के विपर्यस्त समय की चपेट में आए साधारण जन के दुख-दाह, ताप-त्रास, उसकी बेबसी और लाचारी को ही शब्द और रूप नहीं देते, स्थितियों से संघर्ष करती उसकी जिजीविषा तथा जुझारू तेवरों को भी जनधर्मी पक्षधरता की पूरी ऊर्जा के साथ रूपायित करते हैं, जिन्हें जन और जन-सघर्षों की सहभागिता में शान्ति सुमन ने देखा और जिया है।
कोई उम्र न होती मन की
तन चाहे कितना भी थक ले.
लंबे चौडे खेत बांध में.
थाने जैसा कोई पक ले।
मुस्कनों में सहज तलाशें
बुरे न होते दिन मरुधर में।*
उनके गीतों में मानव जीवन ही नहीं, संपूर्ण्र प्रकृति भी जीवन की सहभागिता में अपनी जनधर्मी भावनाओं की सुषमा व सौदर्य के साथ चित्रित हुई है। उनके ये गीत हमारे समय का स्वच्छ दर्पण भी हैं, और उसमें एक सार्थक हस्तक्षेप भी। इन गीतों से होकर गुजरना जनधर्मी अनुभव-संवेदनों की एक बहुरंगी, बहुआयामी, बेहद समृद्ध दुनिया से होकर गुजरना है, साधारण मेँ असाधारणता के, हाशिए की जिन्दगी जीते हुए छोटे लोगों के जीवन-संदर्भो में महाकाव्यों के वृत्तान्त पढ़ना है | स्वानुभूति, सर्जनात्मक कल्पना तथा गहरी मानवीय चिन्ता के एकात्म से उपजे ये गीत अपने कथ्य में जितने पारदर्शी हैं उतने ही.मुखर भी।
उनके समकालीन विद्वानो वं मित्रों कहना है कि डॉ. सुमन किशोरावस्था से ही कविताऍं लिखने लगी थीं, जब वह आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं। डॉ. शांति सुमन को ‘भिक्षुक’ सम्मानपत्र, अवंतिका विशिष्ट साहित्य सम्मान, मैथिली साहित्य परिषद के विद्यावाचस्पति सम्मान, हिन्दी प्रगति समिति के भारतेन्दु सम्मान एवं सुरंगमा सम्मान, विंध्य प्रदेश से साहित्य मणि सम्मान से भी समादृत हो चुकी हैं।
समकालीन काव्य वांग्मय में डॉ. शांति सुमन हमारे समय का एक महत्वपूर्ण नाम है। एक समय था जब देश के कहीं भी आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में डॉ. सुमन के नवगीतों की अपनी अलग गूंज होती थी। उनके गीत हमारे समय का आईना हैं – तुम आये, जैसे पेड़ों में पत्ते आये धूप खिली मन-लता खिल गयी
एक पर्त दर पर्त छिल गयी
हाथ बढ़ाया जिधर टूटकर छत्ते आये।
रही-सही पहचान खो गयी
यहीं कहीं दोपहर हो गयी
यादों के खजूर रस्ते-चौरस्ते आये।
थोड़ी ठंडक ज्यादा
सी-सी मीठी-मीठी बात सुई-सी
मौन-मधुर विश्वासों के गुलदस्ते आये
तुम आये, जैसे पेड़ों में पत्ते आये।
15 सितंबर 1942 को कासिमपुर, सहरसा (बिहार) में जनमी एवं साहित्य सेवा सम्मान, कवि रत्न सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान आदि से पुरस्कृत डॉ. शांति सुमन की प्रकाशित कृतियाँ हैं – ओ प्रतीक्षित, परछाई टूटती, सुलगते पसीने, पसीने के रिश्ते, मौसम हुआ कबीर, मेघ इंद्रनील, मैथिली गीत-संग्रह, तप रहे कचनार, भीतर-भीतर आग, एक सूर्य रोटी पर, समय चेतावनी नहीं देता, सूखती नहीं वह नदी, जल झुका हिरन, मध्यमवर्गीय चेतना और हिन्दी का आधुनिक काव्य । हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से 2004 में सेवामुक्त हुईं। अपनी धारदार गीत सर्जना के लिए हिन्दी संसार में विशिष्ट पहचान रखनेवाली डॉ. शांति सुमन को ‘भिक्षुक’ सम्मानपत्र, अवंतिका विशिष्ट साहित्य सम्मान, मैथिली साहित्य परिषद के विद्यावाचस्पति सम्मान, हिन्दी प्रगति समिति के भारतेन्दु सम्मान एवं सुरंगमा सम्मान, विंध्य प्रदेश से साहित्य मणि सम्मान से भी समादृत हो चुकी हैं। उन्नीस सौ पचास से अस्सी तक के दशकों में कवि सम्मेलनों के मंचों पर अपनी रचनाओं से उन्होंने अपार यश अर्जित किया
– फटी हुई गंजी न पहने खाये बासी भात ना
। बेटा मेरा रोये, माँगे एक पूरा चन्द्रमा।
पाटी पर वह सीख रहा लिखना
ओ ना मा सीअ से अपना ,
आ से आमद धरती सारी
माँ- सीबाप को हल में जुते देखकर
सीखे होश सम्हालना।
घट्ठे पड़े हुए हाथों का प्यार बड़ा ही सच्चा
खोज रहा अपनी बस्ती में
यहाँ यह बात पूरी तरह हृदय को स्पर्श करती है कि
समाज में निरंतर बढते अनाचारोः. विषमताओं और विलुप्त होती मनुष्यता और उसकी कुरूपताओं को अत्यंत क्रूर और हिंसक होते जा रहे आज के समय को परिभाषित करते , गीत के रचना कर्म में जीवन और जिजीविषा को अक्षुण्ण बनाए और बचाए रखने की कोशिश हैं,
शान्ति सुमन की रचनाधर्मिता की सुंदर प्रस्तुति हैं वे गीत, जो उनके ‘धूप रंगे दिन’ शीर्षक संकलन में, उनकी रचनाधर्मिता की सारी ऊष्मा और ऊर्जा को लिए हुए
यही नहीं, समय के बदले और बदलते संदर्भों में अनुभव-संवेदनाओं की नई ऊर्जा और नया आकाश भी उन्हें दिया है। यही कारण है कि वे प्रगतिशील आन्दोलन के साथ आरंभ हुई जनगीतों की परंपरा को, नई सदी की दहलीज तक लाने वाले जन गीतकारों में पहली पंक्ति की लोकप्रिय और वरेण्य नवगीतकारों में शामिल है।
जनधर्मिता और कविता-धर्मिता का एकात्म हैं शान्ति सुमन के गीत, जो कविता को उसके वास्तविक आशय में जन-चरित्री बनाते हैं, उसे जन की आशाओं-आकांक्षाओं से बेहतर जिन्दगी के उसके स्वप्नों तथा संघर्षों से जोड़ते हैं।
कभी नदी के तट सरीखी
कभी उफनी धार.
रंगों से भर दिया तुमने.
एक कोमल प्यार **
गहरे और व्यापक जन-संघर्षों की धार से गुजरे ये गीत आज के विपर्यस्त समय की चपेट में आए साधारण जन के दुख-दाह, ताप-त्रास, उसकी बेबसी और लाचारी को ही शब्द और रूप नहीं देते, स्थितियों से संघर्ष करती उसकी जिजीविषा तथा जुझारू तेवरों को भी जनधर्मी पक्षधरता की पूरी ऊर्जा के साथ रूपायित करते हैं, जिन्हें जन और जन-सघर्षों की सहभागिता में शान्ति सुमन ने देखा और जिया है।अयने आत्मकथ्य में वे स्वयं कहती.हैं—
उनके गीतों में बाह्य प्रकृति भी जीवन की सहभागिता में अपनी जनधर्मी भंगिमाओं की समूची सुषमा के साथ चित्रित हुई है। उनके गीतों से होकर गुजरना जनधर्मी अनुभव-संवेदनों की एक बहुरंगी, बहुआयामी, बेहद समृद्ध दुनिया से होकर गुजरना
शांति सुमन के गीतों में मुक्तिबोध की तरह स्व अनुभूति. सर्जनात्मक कल्पना और मानवता के ह्रास के प्रति गहन चिंता की भावनाएं भी हैं।
इसी शहर में ललमनिया भी रहती है बाबू।
आग बचाने खातिर कोयला चुनती है बाबू।
पेट नहीं भर सका,
रोज के रोज दिहारी से
सोचता मन चढ़कर गिर जाए ऊँच पहाड़ी से
लोग कहेंगे क्या यह भी तो गुनती है बाबू।
जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण बेहद साफ और सुलझा हुआ है।जिसे वह अपनी अनुभूतियों के निष्कर्ष से यह कहती हैं– यह बहुत अर्थ नहीं रखता कि मेरा जन्म कब हुआ । अर्थ इसमें है कि अपने रचनात्मक जीवन में मैंने क्या किया । *
यही एक सुलझी .बेबाक.और संवेदनशील गीतकार की पहचान है..जीवन में जो कुछ देखा. जैसा मिला जिस रूप में भी उसे वैसा ही स्वीकार कर कलम ने प्रस्तुत कर दिया।
जीवन को कहने के लिए रचना से अधिक कोई और माध्यम रचनाकार की यही अस्मिता, उसका यही स्वाभिमान उसकी पहचान है जो उसको समाज में अलग और ऊपर उठाती है।डा शांति सुमन जैसे गीतकार कवयित्री हर युग में जन्म नहीं.लेती।उनकी यह सृजनयात्र. चलती रहे अविराम. अविचल. सृजन पथ पर। वे यशस्वी और दीर्घयु हों..जन्मदिन की अशेष बधाई और शुभ कामनाएं .मंगलकामनाए दीदी।सादर प्रणाम।
पद्मा मिश्रा-जमशेदपुर ।