साक्षात्कारः शैल अग्रवाल-आरती लोकेश गोयल

शैल व्यक्तित्वः शैल अग्रवाल
प्रश्न – भारत की धार्मिक राजधानी यानि वाराणसी में जन्म और वहीं से आपकी दीक्षा पूर्ण हुई है। 1968 से सपरिवार ब्रिटेन में रहते हुए 50 से अधिक देशों का भ्रमण आपने किया है। अंग्रेजी, संस्कृत व चित्रकला में स्नातक प्रथम श्रेणी आनर्स के साथ किया फिर अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। सितार और भारतनाट्यम में प्रशिक्षण भी लिया। रुचि कलात्मक व रुझान दार्शनिक था। बचपन के छिटपुट लेखन के बाद गंभीर लेखन जीवन के उत्तरार्ध में 1997 के बाद शुरु किया। निबंध, कहानी, संस्मरण, कविताएँ, लघुकथा, हाइकू और बाल साहित्य, सब पर आपने कलम चलाई है। रचनाएँ देश-विदेश की प्रमुख पत्रिका व संकलनों में छपीं। दो उपन्यास ‘शेष अशेष’ व ‘मिट्टी धारावाहिक की’ प्रकाशित हैं। पिछले दो दशक से अधिक हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में निरंतर लेखन रहा है। प्रकाशित पुस्तकें समिधा- काव्य संग्रह, ध्रुवतारा- कहानी संग्रह, बसेरा- कहानी संग्रह, सुर ताल- कहानी संग्रह,मेरी चयनित कहानियां- कहानी-संग्रह, चाँद, परियाँ और तितली- बाल कहानी-संग्रह, शेष-अशेष – उपन्यास, लंदन पाती -निबंध संग्रह हैं। रचनाएँ मराठी, नेपाली, मलयालम व अंग्रेजी में अनुवादित हुई हैं। पुष्किन और पाबलो नेरूदा की कुछ कविताओं का आपने अनुवाद किया है। लहर लहर किनारे- यात्रा वर्णन व नेति-नेति- काव्य संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। ‘अभिव्यक्ति’ पत्रिका में ब्रितानी प्रतिनिधित्व आपने ही किया है और ‘परिक्रमा’ के अंतर्गत लंदन पाती नाम से एक नियमित स्तंभ लिखती आ रही हैं। इतने विपुल लेखन की नींव कैसे पड़ी? साहित्यिक यात्रा की शुरुआत कहाँ से हुई?

शैल जी का उत्तर- लेखन की शुरुआत का पूरा श्रेय मैं अपने शिक्षकों को दूँगी। क्योंकि जब मुझे लिखना भी शायद ठीक से नहीं आता था तभी वे कहते थे कि जब तुम बड़ी होकर एक लेखिका बन जाओ तो मेरी कहानी लिखना। मुझे समझ में भी नहीं आता था कि वे क्या बोल रहे हैं। एक बार कक्षा में शिक्षक ने गंगा नदी के बारे में पूछा कि तुमने क्या दृश्य देखा। तब मैंने क्या बताया, मुझे यह तो याद नहीं किंतु जो भी कहा उसे सुनकर मेरी टीचर ने कहा कि मैंने ऐसा वर्णन नहीं सुना। इससे मुझे लगा कि मेरे अंदर कुछ है जो दूसरों को छूता है। उस समय शायद मैं 10-11 साल की रही होउँगी। पहली कविता शायद 8 साल की उम्र में लिखी जब अपने चचेरे भाइयों को लड़ते देखा, वह भी भोजपुरी में लिखी जो कि हमारी मातृभाषा भी नहीं थी। ड्राइवर दुर्गा ने मुझसे कहा, “बिटिया तू काहे इतना परेशान बाटी?”, शायद उसी के जवाब स्वरूप।
मैंने कहा, “दुर्गा काका! अच्छा नहीं लग रहा ये दोनों एक-दूसरे का मुँह नोंच रहे हैं, लात मार रहे हैं।” एक भाई ढ़ाई साल बड़ा था और एक ढाई साल छोटा। उन्ही दुर्गा काका ने वह कविता प्रेस में डाल दी थी। उन्होंने छाप दी थी फिर क्या तमाशा हो गया था। कुछ भी लिखती थी उसकी लोग तारीफ़ करते थे, बहुत पसंद करते थे। पर मुझे इतनी समझ नहीं थी कि ये कोई ऐसी विशेष चीज़ है। मुझे अच्छा लगता था- लिखना, पेंट करना, बातें करना। फ़िल्म देख के आती तो पूरी-पूरी क्लास की लड़कियाँ बैठी रहती थीं कि मुझसे कहानी सुनेंगी। उन्हें पूरा फ़िल्म देखने का मज़ा आ जाता था।
शायद साहित्यिक यात्रा कुछ जीवन यात्रा की तरह होती है जहाँ विशेषकर महिलाओं में… आप खुद कुछ नहीं पसंद करते, बहते जाते हो धारा के संग। मुझे एक बेचैनी तो रहती थी कि कुछ करना है। क्या करना है, यह नहीं पता था। हमारा व्यापारी परिवार था जहाँ बच्चों की शिक्षा पर कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती थी। मैं अपने माता-पिता की अकेली संतान थी तो शायद पिताजी ने बहुत ज्यादा ध्यान दिया मुझपर… बाबूजी की बहुत प्रतिष्ठा थी, मान था, इज़्ज़त थी समाज में। बाबूजी हमेशा मेरे से कहते, ‘मुझे खुशी तब मिलेगी जब लोग कहेंगे कि ये शैला के बाबूजी हैं। (मुझे बचपन में शैला ही कहा करते थे) ये कोई न कहे कि ये श्रीनाथ गुप्ता जी हैं। उस समय बस यही उद्देश्य था कि बाबूजी की आँख में गर्व की चमक आए मुझे देख कर। मुझे नहीं पता था कि यह मैं कैसे ला सकती हूँ। एक बार टैगोर के ऊपर कोई आर्टिकल लिखा था। जिसका ईनाम हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने हाथों से दिया था। उन्होंने कहा था- कि धन्य हैं वे जनक जिसने इस पुत्री को जन्म दिया। ईनाम लेते हुए मैंने पीछे घूमकर देखा तो बाबूजी की आँख में आँसू थे। तब मुझे लगा कि शायद ये चीज़ है जहाँ मैं बाबूजी को खुश कर सकती हूँ।
20 साल की उम्र में शादी हो गई थी। मैंने फैसला किया कि 50 साल की उम्र तक तो मैं परिवार को पूरा वक्त दूँगी। एक चीज़ बचपन से ही कूट-कूटकर भारी थी, जो थी- ईमानदारी और गांभीर्य। जो भी ज़िम्मेदारी है या करना है, पूरी ईमानदारी से। 50 की होने के बाद बाकी के चार साल मैं अपने लिए जीऊँगी, ऐसा मैंने सोचा था। मेरे जन्म के समय एक ज्योतिषी ने कहा था कि मेरी उम्र 54 साल है। मेरी माँ अक्सर रोने लग जाती थीं कि ऐसा न हो कि मैं बैठी रह जाऊँ और बेटी हमारे सामने चली जाए। उनकी शादी के 16 साल बाद मैं पैदा हुई थी। ढाई पौंड के वजन के साथ सतमासी भी थी। पता नहीं कैसे माँ ने बड़ा किया, जिंदा रखा। माँ तो माँ होती है। शायद मुझे जो एक्सप्रेशन की ताकत दी वह भी माँ ने ही दी। उन्हें एक बहुत बात खलती थी कि मैं पिताजी को ज़्यादा प्यार करती हूँ, उनको उतना नहीं करती। वे कहतीं- तू तो बस बाप के पीछे दीवानी रहती है कभी मेरी तरफ भी तो देख लिया कर। एक बार कभी किसी बात पर वे बोलीं- अगर मैं हनुमान होती तो सीना चीर के दिखा देती। और ये बात माँ के जाने के बाद मुझे अधिक कचोटती रहती है। कितने एक्सप्रेशन थे माँ के जो सीधे पानी की तरह अंदर सोख जाया कराते थे। आज मुझे नहीं लगता कि उनसे बड़ा कोई कवि या लेखक था मेरे जीवन में। मुझे लगता है कि आपकी सबसे बड़ी ताकत जो होती है, कहीं-न-कहीं वही सबसे बड़ी कमजोरी भी होती है। जिन्हें आप बहुत प्यार करते हैं, उनके लिए आप सब करते हैं। तो मेरी लेखन यात्रा शायद अपने पिता जी को खुश करने के लिए ही शुरू हुई थी।
प्रश्न – यू.पी. हिन्दी संस्थान का हिन्दी प्रचार प्रसार सम्मान, यू.के. हिन्दी समिति का हिन्दी सेवी सम्मान, कमलेश्वर कथा सम्मान, अक्षरम और दिल्ली साहित्य एकेडमी का संयुक्त लक्ष्मी मल सिंघवी और प्रवासी मीडिया सम्मान, मुंबई साहित्य सारथी सम्मान आदि कई सम्मानों से आप सम्मानित हैं। आप स्वयं को साहित्यकार मानती हैं या प्रवासी साहित्यकार?

शैल जी का उत्तर- न तो मैं अपने को साहित्यकार कहूँगी न प्रवासी साहित्यकार, मैं खुद को इंसान कहूँगी। साहित्यकार हूँ या नहीं, यह तो मेरे मरने के बाद शायद वक्त तय करेगा। अभी मैं बस लिख रही हूँ। आप की रचना समय के टेस्ट को पास कर जिंदा रह पाएगी या नहीं, यह पता नहीं। अभी तो मैं एक बच्चे की तरह जिसके सामने बहुत सारे शब्द बिखेर दिए गए हैं, उनके साथ खेल रही हूँ। भगवान ने जो मुझे 54 साल की जगह 75 की उम्र दी है, तो आज भी खेल ही रही हूँ। वे ज्योतिषी बहुत माने हुए थे। बीएचयू के एस्ट्रोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड ऑफ डिपार्टमेंट थे। राम विलास पांडेय, इंदिरा गाँधी, नेहरू सब उनके पास आते थे। पूरे भारत के बहुत प्रमुख ज्योतिषी थे। उन्होंने मेरे ख्याल से पता नहीं कितनी लंबी भविष्यवाणी लिखी थी जिसमें मेरे एक 1-1 साल का उन्होंने आकलन किया था। 54 के बाद मेरा नया जन्म हुआ समझो। एक दूसरे ज्योतिषी ने बताया कि मेरा मंगल मेरी इच्छाशक्ति को बलवती करता है। उसी के कारण मैं गंभीर बीमारियों की चपेट में आते-आते भी बिना चीरफाड़ के ही बचकर निकल गई। 50 की उम्र से लिखना जो शुरु किया, अब तक जारी है। शायद यही मेरा प्रारब्ध ह और जिम्मेदारी भी ।…
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