“दंडकारण्य का मिथकीय पुनर्पाठ”: श्री गोवर्धन यादव की लेखनी में रामकथा का नव्य आख्यान
रामकथा भारतीय जनमानस में आदिकाल से ही गहराई से रची-बसी हुई है। वाल्मीकि, तुलसीदास, कंबन और अन्य अनेक कवियों ने इसे अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ साहित्यकार श्री गोवर्धन यादव ने रामकथा को उपन्यास विधा में प्रस्तुत करने का अभिनव प्रयास किया है। उनके चार खंडों में लिखे गए उपन्यास — वनगमन, दंडकारण्य की ओर, लंका की ओर और युद्ध और राज्यभिषेक- मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को नए, मानवोचित और सामाजिक संदर्भों में गहराई से प्रस्तुत करते हैं।
यह आलेख उनके द्वितीय खंड “दंडकारण्य की ओर” पर केंद्रित है, जिसमें भगवान राम के दंडकारण्य में बिताए समय और उनके साथ घटित घटनाओं का सजीव और गहन चित्रण मिलता है। उपन्यास में श्री राम का ऋषियों, तपस्वियों से मिलना, दानवों का संहार, सीताजी का हरण, सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा हनुमान का लंका प्रस्थान जैसी घटनाएं साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
1. उपन्यासकार की दृष्टि और शैली-
उपन्यासकार श्री गोवर्धन यादव का दृष्टिकोण केवल पौराणिक आख्यान को दोहराना नहीं है, बल्कि उसे आधुनिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भों में सजीव बनाना है। वे राम के चरित्र को केवल ईश्वर रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे मानव रूप में गढ़ते हैं, जो अपने समय के समाज, धर्म, राजनीति और मानवीय मूल्यों से गहराई से जुड़ा हुआ है।
लेखक की शैली गद्य में भी काव्यात्मकता का आभास कराती है। वे प्रतीकों, बिंबों और संवादों के माध्यम से कथा को गहराई प्रदान करते हैं। भाषा में एक तरफ जहां ग्रामीण सहजता है, वहीं दूसरी ओर दार्शनिक गूढ़ता भी है। यह लेखन मनुष्य की अंतरात्मा तक पहुंचाने की चेष्टा करता है।
उदाहरण के लिए, राम का आत्ममंथन, लक्ष्मण की तीव्र प्रतिक्रियाएं, और सीता की अंतर्दृष्टियाँ – सभी पात्रों को जीवंत और विचारशील बनाती हैं। यह शैली उपन्यास को पाठकीय बौद्धिकता से जोड़ती है और उसमें विचार-चिंतन की भूमिका बढ़ा देती है।
लेखक की भाषा अत्यंत सहज और प्रभावशाली है। संवादों में पात्रों के मनोभाव, द्वंद और निर्णय स्पष्ट झलकते हैं। लेखक की संवाद योजना पात्रों की आत्मा को उद्घाटित करती है। विशेषत: राम-लक्ष्मण, सीता-राम, शूर्पनखा-लक्ष्मण और हनुमान-अंगद संवादों में भावनात्मक गहराई है। कथा शिल्प सधा हुआ, संतुलित और बहुपरतीय है। वे कथानक के साथ-साथ वातावरण, प्रतीक और सांस्कृतिक संदर्भों का भी उत्कृष्ट उपयोग करते हैं। वन का वर्णन केवल दृश्य ना होकर प्रतीकात्मक बन जाता है।
2. दंडकारण्य : प्रतीक और पृष्ठभूमि-
दंडकारण्य केवल एक स्थान नहीं बल्कि एक यथार्थवादी और प्रतीकात्मक भूमि है जहाँ धर्म और अधर्म, मर्यादा और अराजकता, भक्ति और भय, सभी का संघर्ष चलता है। यह भूभाग वनवास के प्रारंभिक सौम्य स्वरूप से भिन्न है – यहाँ राम को एक योद्धा, एक रक्षक और एक जननायक की भूमिका निभानी होती है।
लेखक ने इस भूगोल को सांस्कृतिक और मानसिक भूमि के रूप में प्रस्तुत किया है। तपस्वियों की उपस्थिति, राक्षसी सत्ता का भय, और सामाजिक संतुलन का संकट इस क्षेत्र को संघर्ष का केंद्र बनाते हैं। यही संघर्ष राम को ‘अवतारी पुरुष’ से ‘जननायक’ बनने की यात्रा का मार्ग देता है।
उपन्यास में बार-बार यह अनुभव होता है कि दंडकारण्य भारतीय संस्कृति की वेदी है जहाँ राम ने अपने जीवन का तप किया और लोकहित के लिए युद्ध रचा। यहाँ प्रत्येक पर्वत, सरिता और वनखंड एक प्रतीक बन जाता है – आत्मसंघर्ष, कर्तव्य, धर्म और न्याय का।
श्री राम जब दंडकारण्य में प्रवेश करते हैं तब उपन्यासकार लिखते हैं –
“मार्ग में चलते हुए उन्होंने उसे निर्जन वन को देखा जो नाना प्रकार के मृगों से व्याप्त था, वहां बहुत से रीछ और बाघ रहा करते थे। वहां के वृक्ष, लताएं और झाड़ियां आदि नष्ट हो चुकी थी। यहां तक कि उस प्रांत में एक भी जलाशय नहीं बचा था। जहां कभी मधु की गूंज गुंजारित हुआ करती थी, जहां कभी जंगलों की झंकार हुआ करती थी, सुना पड़ा हुआ था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इस वन प्रांत की दुर्दशा किसने की होगी?” (पृष्ठ-32)
3. ऋषियों और तपस्वियों से संवाद-
राम के अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्य जैसे ऋषियों से मिलना उपन्यास का वह भाग है जहाँ दर्शन और नीति की विविध धाराएं मिलती हैं। यह संवाद केवल यथार्थ के चित्रण नहीं, अपितु विचारों की पुष्ट और गहन अभिव्यक्ति हैं।
शरभंग के वचनों में वैराग्य है, अगस्त्य में नेतृत्व, सुतीक्ष्ण में श्रद्धा और अत्रि में संतुलन। इन संवादों में लेखक ने उपनिषदों और भारतीय ज्ञान परंपरा के सूत्र गूंथ दिए हैं। राम का प्रत्येक संवाद उनके आंतरिक विकास का सोपान है – वे एक योद्धा के स्थान पर एक विचारशील मार्गदर्शक बनते हैं।
यह भाग दिखाता है कि दंडकारण्य केवल युद्धभूमि नहीं, यह विचारभूमि भी है। राम के इन संवादों से लेखक समकालीन समाज के प्रश्नों पर भी बात करता है – धर्म की परिभाषा, शांति की आवश्यकता, और सामाजिक समरसता की भूमिका पर।
यहां राम जी की सामाजिक चेतना इन शब्दों में प्रकट होती है-
“क्या तापसियों को मुझ पर भरोसा नहीं है कि मैं खर को मार गिरा पाऊंगा? इस पृथ्वी से दानवों को मारने के लिए ही तो मैंने जन्म लिया है। इतना सब जानते-बुझते हुए भी मुनी समाज का अन्यत्र चले जाने के पीछे केवल और केवल भय ही असली कारण था। भयाक्रांत मनुष्य को लाख समझाया जाए, फिर भी वह भय के चेहरे से बाहर नहीं निकल पाता है।” (पृष्ठ-20)
4. दानवों का संहार : अन्याय और अधर्म के विरुद्ध संघर्ष-
ताड़का, मारीच, सुबाहु, खर-दूषण जैसे दानव केवल शारीरिक रूप से भयावह नहीं, बल्कि सामाजिक असंतुलन के प्रतीक हैं। राम का इनके विरुद्ध युद्ध केवल युद्ध नहीं, बल्कि अधर्म के विरुद्ध नीति का आचरण है।
इस प्रसंग को लेखक ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
“रामजी के अत्यन्त निकट से गुजरते हुए वह सोचने लगा था, रामजी चाहते तो वे कभी का मुझे मारकर यमलोक पहँचा चुके होते, लेकिन उन्होंने मुझे मारा नहीं, बल्कि जीवित रखा। वे भली-भांति जानते थे कि मेरी मृत्यु का समय अभी आया नहीं है। वे मुझे मारीच राक्षस के रूप में नहीं, बल्कि हिरण के रूप में मारना चाहते रहे होगें , तभी तो उन्होंने मुझे जीवन-दान दिया था। स्वयं विधाता के हाथों मारा जाना, सभी के भाग्य में नहीं होता। निश्चित ही मैं बड़भागी हूँ जो आज विधाता के तीखे बाणों को खाकर मृत्यु को प्राप्त करूंगा । उसने मन ही मन रामजी को प्रणाम किया और एक-एक पग बढ़ाये हुए वह उधर चला, जहां सीताजी फूलों की मालाएँ गूँथने में व्यस्त थीं।” (पृष्ठ-146)
उपन्यास में ताड़का के वध को स्त्री विमर्श के नए दृष्टिकोण से देखा गया है। ताड़का राक्षसी होते हुए भी एक माँ है, एक महिला है। राम का निर्णय और उनका पश्चाताप लेखक की मानवीयता की भावना को उजागर करता है। खर-दूषण के संहार में राम की युद्धकुशलता, लक्ष्मण की समर्पण भावना और दोनों भाइयों का साहस स्पष्ट होता है।
यहां युद्ध के दृश्यों को हिंसा के महिमामंडन से दूर रखकर उन्हें नीति, न्याय और धर्म के धरातल पर रखा है। यह भाग समाज में सत्य और असत्य, नैतिकता और भ्रष्टता के बीच संघर्ष को रूपक के रूप में सामने लाता है।
हालांकि उपन्यास एक पौराणिक कथा पर आधारित है, फिर भी इसके प्रसंग समकालीन समाज के प्रश्नों से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं- जैसे सत्ता का दुरुपयोग, स्त्री-अस्मिता, सामाजिक न्याय आदि। लेखक ने अतीत की घटनाओं के माध्यम से वर्तमान के संकटों को रेखांकित किया है।
5. सीता हरण : त्रासदी और उद्वेलन-
सीता हरण उपन्यास का भावनात्मक शिखर है। राम का सीता से वियोग केवल दाम्पत्य नहीं, आत्मा और सत्ता के अलगाव का प्रतीक बनता है। उपन्यास में इस प्रसंग को जिस प्रकार से चित्रित किया गया है, वह पाठक को भीतर से झकझोर देता है।
जटायु का बलिदान, राम का विलाप, लक्ष्मण की आत्मग्लानि – इन सब में एक विशेष करुण रस बहता है। उपन्यासकार ने सीता को एक विवश नारी नहीं, बल्कि एक जागरूक, आत्मबल से परिपूर्ण स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया है, जो रावण के सम्मुख भी दृढ़ता से खड़ी रहती है।
यह प्रसंग स्त्री-स्वतंत्रता, स्त्री-सम्मान और स्त्री-सुरक्षा के प्रश्नों को रेखांकित करता है। आज के संदर्भों में यह भाग अत्यंत प्रासंगिक बन जाता है।
6. सुग्रीव और हनुमान से भेंट : मित्रता और रणनीति-
हनुमान का राम से प्रथम संवाद मानवीयता, भक्ति और बुद्धिमत्ता की त्रिवेणी है। इस संवाद को अत्यंत आत्मीयता और विनम्रता से प्रस्तुत किया है। हनुमान की भाषा में विनय है, विवेक है और आत्मसमर्पण की भावना है।
सुग्रीव से राम की मित्रता केवल राजनीति नहीं, यह परस्पर सम्मान और उद्देश्य की साझेदारी है। राम ने सुग्रीव को सहयोग का आश्वासन ही नहीं, बल्कि अन्याय के विरुद्ध न्याय का वचन दिया। बालि वध का निर्णय और उसका औचित्य उपन्यास में प्रमुख विमर्श का बिंदु बनता है।
यह भाग यह सिद्ध करता है कि राम केवल धर्म के रक्षक नहीं, राजनीति के समीक्षक भी हैं। वे मित्रता के मूल्य को जानते हैं और अपने वचनों के प्रति समर्पित हैं।
7. हनुमान का लंका प्रस्थान : साहस और सेवा-
हनुमान का लंका गमन उपन्यास का वह अध्याय है जिसमें रोमांच, वीरता और भक्ति का अपूर्व संगम देखने को मिलता है। उनका समुद्र पार करना, सीता की खोज, अशोक वाटिका में प्रवेश, राक्षसों का संहार और अंत में लंका जलाना – यह सब अद्भुत गति और प्रभाव से लिखा गया है।
यहां हनुमान के व्यक्तित्व को केवल एक बलशाली वानर नहीं, एक चिंतनशील, समर्पित और विवेकशील नायक के रूप में प्रस्तुत किया है। सीता से उनका संवाद, राम की मुद्रिका देना, और सीता के उत्तर का स्मरण – यह सब उनके चरित्र की गरिमा को उजागर करता है।
8. स्त्री दृष्टिकोण : सीता की पीड़ा और आत्मबल-
उपन्यास में सीता का चरित्र केवल पीड़िता नहीं, बल्कि एक चेतनाशील और आत्मबल से युक्त नारी का है। उनका वनवास, रावण के द्वारा हरण, अशोक वाटिका में उनका संघर्ष – यह सब आज के स्त्री विमर्श के अनुरूप गढ़ा गया है।
यहां सीता के मानसिक संघर्ष, उनकी स्मृति, उनकी आशा और आत्मबल का सजीव चित्रण किया है। वे केवल राम की प्रतीक्षा नहीं करतीं, वे अपने विश्वास, धैर्य और आंतरिक शक्ति से समय को मात देती हैं। यह चित्रण नारी की आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनता है।
इस प्रसंग में उपन्यासकार लिखते हैं –
“बस, इसी अवसर की प्रतीक्षा में था रावण। भिक्षु का वेश बना दंड-कमंडल के सहित सीता जी के पास आया। यहां कहीं भी लक्ष्मण जी न तो रेखा खींचते हैं और न ही माता सीता को उसे लांघने की चेतावनी देते हैं। लक्ष्मण-रेखा का संबंध पंचवटी में कुटी के द्वार पर खींची गई किसी रेखा से न होकर नर-नारी के लिए शास्त्र द्वारा निर्धारित आदर्श लक्षणों से प्रतीत होता है। यह नारी- मात्र के लिए ही नहीं वरन् संपूर्ण मानव जाति के लिए आवश्यक है कि विपत्ति-काल में वह धैर्य बनाए रखें किंतु माता सीता श्री राम के प्रति अगाध प्रेम के कारण मारीच द्वारा बनाई गई श्री राम की आवाज से भ्रमित हो गई। माता सीता ने न केवल श्री राम द्वारा लक्ष्मण जी को दी गई आज्ञा के उल्लंघन हेतु लक्ष्मण को विवश किया बल्कि पुत्र भाव से माता सीता की रक्षा कर रहे लक्ष्मण जी को मर्म वचन भी बोले। माता सीता ने उस क्षण अपने स्वाभाविक व शास्त्र सम्मत लक्षणों- धैर्य, विनम्रता के विपरीत सच्चरित्र व श्री राम आज्ञा का पालन करने में तत्पर देवर श्री लक्ष्मण को जो क्रोध में मार्मिक वचन कहे। उसे ही माता सीता द्वारा लक्ष्मण की रेखा का उल्लंघन कहा जाए तो उचित होगा।
माता सीता स्वयं स्वीकार करती है “हां लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोसा, सो फलु पाया केहू रोसा! (पृ. 588, अरण्य कांड)
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि लक्ष्मण रेखा को सीता-हरण के संदर्भ में उल्लेखित कर स्त्री के मर्यादित आचरण से न जोड़कर देखा जाए। यह समस्त मानव जाति के लिए निर्धारित सुलक्षणों की एक सीमा है जिसको पार करने पर मानव मात्र को दंडित होना ही पड़ता है। तुलसीदास जी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है, “मोह मूल मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ” अर्थात मोह, मद और लोभ ये सब नरक के पंथ हैं।” (पृष्ठ-158)
9. राम का नया स्वरूप : लोकनायक और मानवतावादी-
उपन्यासकार ने राम को केवल धर्मराज नहीं, जनराज के रूप में प्रस्तुत किया है। वे लोगों से संवाद करते हैं, पीड़ा को समझते हैं और नीतियों के साथ निर्णय लेते हैं। वे शासक नहीं, सेवक हैं – नीति में निपुण, करुणा में समृद्ध और कर्तव्य में अडिग।
उनका व्यक्तित्व प्रेरक है – युद्ध में वीर, प्रेम में समर्पित, और धर्म में निष्पक्ष। यह राम आज के युग का आदर्श नेता है – जो विचारशील है, मानवीय है और सर्वहित की भावना से युक्त है।
राम जी भीलनी शबरी को कितना महत्व देते हैं, ये इन शब्दों में प्रकट होता है-
“देर तक आलिंगनबद्धता की स्थिति में रहने के बाद रामजी ने उन्हें इस चबूतरे पर बिठाया और पास ही बैठे हुए कहने लगे, “मां.. मैं आ गया। आपने मेरी राह निहारते हुए अपना पूरा जीवन ही खपा दिया। मैं स्वयं ही तुमसे मिलने के लिए लालायित था। बार-बार मन में प्रश्न उपस्थित होते थे कि कब मुझे आपकी दिव्य दर्शन होंगे।” राम जी ने मुस्कुराते हुए भी भीलनी शबरी से कहा।
“क्या कहा राम तुमने? मुझे मां कहकर पुकारा? इतना बड़ा सौभाग्य मुझे मत दो मेरे राम! आप मेरे आराध्य हैं। मेरे प्राणाधार है। मैं आपकी उपासक हूं। आप मेरे स्वामी हैं और मैं एक दासी?.. मैं तो केवल वन में रहने वाली, नीच जाति में जन्मी एक भीलनी हूं। मैं तुम्हारी मां कहलाने लायक नहीं हूं राम! ऐसा कहकर कहीं आप मेरा उपहास तो नहीं कर रहे हैं?”
” राम अपने भक्तों को कभी हास्य का पात्र नहीं बना सकता। तुम्हारा स्थान मां कौशल्या जितना ही है। उन्होंने मुझे अपने गर्भ में नौ मास पाला और आपने सैकड़ों साल मुझे अपने मन में, अपने मस्तिष्क में, अपने हृदय में पाला-पोसा। मुझे कभी भी, पल भर को भी अपने से विस्मृत नहीं होने दिया। यही कारण है कि मैंने तुम्हें मां कहकर संबोधित किया है।” (पृष्ठ-198)
10. निष्कर्ष : उपन्यास की प्रासंगिकता और साहित्यिक महत्व-
(i)”दंडकारण्य की ओर” केवल रामकथा का वर्णन नहीं है, यह एक विचारदर्शी साहित्यिक कृति है जो हमें अपने समाज, संस्कृति और मूल्यों की पुनर्समीक्षा करने को प्रेरित करती है।
(ii)उपन्यासकार श्री गोवर्धन यादव की लेखनी ने रामकथा को समकालीनता से जोड़ा है, उसे लोक से जोड़ा है, और पाठक के मन में एक नई चेतना जगाई है। उपन्यास की यह प्रस्तुति केवल साहित्य नहीं, यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण है।
(iii) उपन्यासकार श्री गोवर्धन यादव जी ने इस उपन्यास में एक नवीनतम प्रयोग किया है. और वह यह कि प्रभु श्रीरामजी की इस वन-यात्रा में जिन-जिन भी पात्रों से उनका सामना होता है, उन सभी के बारे में विस्तार से जानकारी अलग से दी गई है. इस अतिरिक्त जानकारी से पाठकों के समक्ष कोई अवरोध उत्पन्न नहीं होता, बल्कि वह उनके चाल-चरित्र से परिचित भी होता चलता है. निः संदेह पाठ यह नवीनतम प्रयोग सभी के लिए लाभान्वित भी होगा. ऐसा मेरा मानना है.
-डॉ. विजय कलमधार
(हिंदी विभाग)
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