संकलनः धूप किनारे

धूप किनारे

धूप किनारे पेड़ खड़े हैं साए के नीचे सड़कें
कितने जो यूं दुख सहकर औरों को सुख देते।
-शैल अग्रवाल

(गरमी- कुछ कविताएं)

जेठ की टीक दोपहरिया-
—————–
सूरज के माथे की त्यौरी
दूब का हरियल रूप ,
कूप का पानी भाप कर गयी
दूजे पहर की धूप |

चटख चंदोवा आसमान मे
वसुधा अगन की शैय्या ,
हांफ हांफ कंकाल हो गयी
भीनी सी पुरवैय्या |

घड़ियां कीकर के कांटे सी
तीक्ष्ण बबूली पल ,
शाख परिंदे श्वांस विहीना
बिन चंचु -भर जल |

चील गगन मे चढ़ी चौबारे
प्यासी हुई चिरैय्या ,
तप्त बगीचे की माटी मे
फुदके कहां गौरैय्या |

धूल का तम्बु वातायन मे
गली -आंगन मटमैले
नयन उनींदे, देह तवे सी
ज्वर सा रग – रग फैले |

भाड़ सा दहके पल-छिन-पल
भट्टी हुई गगरिया ,
तन के संग संग मन झुलसा गई
जेठ की टीक दोपहरिया |

-प्रवीण पंडित

बादल भेजो न !
——————–

धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो न ।
बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न ।

मोल्सरी की शाख़ों पर भी दिये जलें
शाख़ों का केसरया आँचल भेजो न ।

नन्ही मुन्नी सब चेहकारें कहाँ गईं
मोरों के पेरों की पायल भेजो न ।

बस्ती बस्ती देहशत किसने बो दी है
गलियों बाज़ारों की हलचल भेजो न ।

सारे मौसम एक उमस के आदी हैं
छाँव की ख़ुश्बूए धूप का संदल भेजो न ।

मैं बस्ती में आख़िर किस से बात करूँ
मेरे जैसा कोई पागल भेजो न ।

– राहत इंदौरी

आई पगली
———

चंदन केवड़ा खस डूबी
बाल बाल में गूंथ पलाश
फूल कनेर के और अमलतास
आंखों में ले जलता अंगार
पैरों में बांधे अग्नि-चक्र
धूल उड़ाती आई पगली

देख हंसा दरवाजे गुलमोहर
मिज़ाज ज़रा इसका गरम
पर बुरी तो नहीं गरमी।

लीची आम से रस डूबे
मस्ती भरे ये सैर-सपाटे
पहाड़-समुन्दर बाग-बगीचे

ठंडे-ठंडे नदी किनारे
बेल फालसे का शर्बत
और पिय का मनचाहा साथ
गमकेगी अब रात की रानी
बेला चम्पा और चमेली
मिज़ाज ज़रा इसका गरम
पर बुरी तो नहीं गरमी।

कैरम कम्प्यूटर और ताश
परीक्षा हो गई हैं खतम
किताबों का अब क्या काम

कुलफी बर्फ और आइसक्रीम
क्रिकेट पतंग औ धूम-धड़ाका
मन का ही होगा अब हर काम
बोले हंस-हंस चहकते बच्चे
मिजाज ज़रा इसका गरम
पर बुरी तो नहीं गरमी।
-शैल अग्रवाल


वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
“मैं तोड़ती पत्थर।”

-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला’

कटघरे में

सुनते हैं सूरज अब
नीचे उतर आया है
फट गए हैं सब कपड़े
और अपनी इस हालत पे बेचारा
बहुत ही परेशान है
ढूंढता है अब वह
घर घर गली गली
कौन है जिसने
लगाई है यह सेंध
किसके लालच ने
आसमानी खिड़की को
तोड़-फोड़ डाला है

और हम डरे-डरे
अंधेरे कमरों में बन्द
करते इंतजार
चुपचाप खींच परदे
महीने दो महीने
चार छह महीने
पूरे साल जब भी…
वह निराश होकर
लौट जाएगा
शाम को थक कर
सो जाएगा
या फिर रात के
घुप अंधेरे में
कुछ उसे
नज़र नहीं आएगा
और हम
कटघरे से
बाहर आ पाएंगे…
-शैल अग्रवाल

अहसान गर्मी का …

उतरने लगी है किरणें
सूरज से अब आग लेकर
जबरन थमा रहीं हैं तपिश
हवा की झोली में ,
सोख रहीं हैं
हर जगह से बचा-खुचा पानी
छोड़ कर अंगारे
जमीं के हाथों में ,

पर कलेजे में है मेरे एक ठंडक
हूँ मैं संयत, मुझे एक सुकून है …
क्यूंकि किरणें बटोरती हैं पानी
छिड़कने के लिए वहाँ,
जिंदा रहने को कल
बोएंगे हम कुछ बीज जहां…
सींचने जीवन, असंख्य नदियों में
किरणें बटोरती हैं पानी…

मैं बस बांध लेता हूँ
सिर पर एक कपड़ा,
घर में रखता एक सुराही ,
जेब में एक प्याज भी ,
और करने देता हूँ मजे से
किरणों को उनका काम …

– रजनीश तिवारी

धुआँ-धुआँ होने लगी

धुआँ-धुआँ होने लगी, शुद्ध हवा की आस
हमने-तुमने मित्रवर, इतना किया विकास

धरती से अम्बर तलक, आदम का उत्पात
क़ुदरत आख़िर कब तलक, झेलेगी आघात

आयी पॉलीथीन तो, थैले हुए ख़लास
बिन थैला बाज़ार में, पहुँचे रामविलास
दूध, दही, हल्दी, मिरच, शक्कर, पत्ती, चाय
सब कुछ धारे फिर रहे, थैले कोमल-काय

सुविधा का साधन इसे, मत समझो श्रीमान
पॉलीथिन तो मौत का, है असली सामान

उर्वरता को छीनकर, बंजर करे जमीन
वर्षों तक गलती नहीं, भू में पॉलीथीन
-जितेन्द्र जौहर

सर्वाधिकार सुरक्षित
copyright @ www.lekhni.net

error: Content is protected !!