इस टॉपिक पर चर्चा से पूर्व हमें ‘भक्ति ‘शब्द का अर्थ एवं श्री राम और शबरी प्रसंग के सन्दर्भ में उसकी व्याख्या करनी होगी, क्योंकि इसी कथा के अंतर्गत प्रभु श्री राम के मुख से नवधा भक्ति का स्पष्टीकरण हुआ है। अतः हम सबसे पहले भक्ति और हिंदी साहित्य के इतिहास में पूर्व मध्यकाल की महत्ता पर बात करेंगे। ‘भक्ति ‘शब्द की व्युत्पत्ति ‘भज ‘धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘सेवा करना ‘या भजना है। अब अगर हम ‘ भक्ति ‘ की परम्परा का अध्ययन करें तो भक्ति के स्वरूप को उद्घाटित करने में देवर्षि नारद के भक्ति सूत्र का प्रमुख स्थान है। ‘नारद भक्ति सूत्र ‘में कहा गया है कि परमात्मा के प्रति परम् प्रेम को भक्ति कहतें हैं अर्थात श्रद्धा और इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। इस प्रकार भक्ति का अर्थ हुआ -ईश्वर और इंसान का आपसी सम्बन्ध स्थापित होना, जिसे मानव का अध्यात्म की ओर झुकाव भी कह सकते हैं। इसमें ह्रदय पक्ष की प्रधानता रहती है एवं प्रेम पर आश्रित होने से भक्ति को प्रेमाभक्ति की संज्ञा भी दी जाती है। इस प्रेम को प्राप्त कर लेने पर भक्त न तो कुछ चाहता है, न चिंता करता है, न द्वेष करता है, न किसी वस्तु में आसक्त होता है और न ही विषय भोगादि में उत्साही होता है। बल्कि इस प्रेमरूपा भक्ति को पाकर भक्त सिद्ध हो जाता है, तृप्त हो जाता है। मुनि शांडिल्य ने भी जब भक्ति सूत्रों का निर्माण किया, तब तक भक्ति का प्रतिपादन हो चूका था। किन्तु शांडिल्य सूत्रों में ‘परा ‘एवं ‘अपरा ‘नाम से भक्ति के दो भेद बताये गए और कहा गया कि भक्ति भाव आने पर ही भव -चक्र का बंधन कटता है। जब तक भक्ति का उदय नहीं होता, आत्मा जन्म – मरण के चक्र में घूमती रहती है। तत्पश्चात महाभारत, गीता, पुराण इत्यादि पौराणिक ग्रंथों के सार तत्व को सूत्रों में समाविष्ट करने के निमित भक्ति पर नित्य नवीन विचार गुम्फित हुए, जिनमे जातिं -पातीं का भेद नहीं माना गया। अर्थात भक्ति पथ सभी भक्तों के लिए समान रूप से उन्मुक्त है एवं द्विजेतर भक्त भी भक्ति मार्ग का अनुसरण करके भगवान की भक्ति कर सकता है। इस प्रकार श्री मदभागवत महापुराण इत्यादि ग्रंथो ने जनमानस पर व्यापक प्रभाव डाला, जिससे भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ।
दक्षिण भारत के आलवार भक्तों की भक्ति पद्धति से नारद की भक्ति में बहुत साम्य लक्षित होता है, सम्भवतः इसी कारण कुछ विद्वानों ने रागानुगा भक्ति का उत्स दक्षिण में स्वीकार किया है। इसीलिए यह उक्ति बहुत प्रसिद्ध है – ‘भक्ति द्राविड़ उपजी, लाये रामानंद।’ उत्तर भारत में राम भक्ति का प्रवर्तन आचार्य रामानुज की परम्परा में राघवानंद द्वारा प्रारम्भ हुआ और उनके शिष्य रामानंद ने उसे युगानुकूल भाव -भूमि प्रदान की। आचार्य रामानंद ने ही सर्वप्रथम संकुचित रूढ़ियों में आबद्ध और बाह्य आक्रमणों से संत्रस्त, समसामयिक हिन्दू समाज को रामभक्ति का अभेद्द कवच प्रदान किया। भक्ति भावना को ऊंच- नीच एवं बाह्य आडंबरों से मुक्त करने का श्रेय भी आचार्य रामानंद को ही प्राप्त है, जिनकी शिष्य परम्परा में निर्गुणोपासक एवं सगुणोपासक दोनों ही थे। वैसे तो राम कथा संस्कृत, पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य में निरंतर प्रवाहमान रही है, किन्तु ‘वाल्मीकि रामायण ‘को ही आदि काव्य मानकर इसका मूल स्रोत स्वीकार किया जाता है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी रामकाव्य का लेखन लगातार हुआ है, लेकिन साहित्य के मध्यकालीन भक्ति सहित्य में गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्री रामचरित मानस ‘अत्यंत लोकप्रिय ग्रन्थ है। उन्होंने ही सर्वप्रथम नाथपंथियों के हठयोग की ह्रदय शून्य दशा को लक्षित करते हुए कहा ,’ गोरख जगाओं जोग, भक्ति भगायो लोग।’ एवं ‘ मानस ‘ में ‘अरण्यकाण्ड ‘ के शबरी कथा प्रसंग में नवधा भक्ति का व्याख्यान किया, जो स्वयं प्रभु श्री राम के मुख से निसृत है। महाकवि तुलसीदास ने नवधा भक्ति के नौ भेदों के तात्विक दर्शन को जिस सरलता और सहजता से वर्णित किया है, उसी भाव -विचार के कारण ही यह विद्वानों के मध्य चर्चा का विषय है। इसीलिए नवधा भक्ति के नौ प्रकारों का उल्लेख करने से पूर्व हम शबरी गाथा का सार रूप में बखान करेंगे, जो लोक कथाओं और दन्त कथाओं के माध्यम से प्राचीन काल से ही भक्तों और श्रोताओं में लोक प्रिय रही है।यधपि बाबा तुलसीदास ने इस कथा के लोक प्रसंग को ज्यादा विस्तार नहीं दिया, तथापि ‘मानस ‘में यह प्रसंग अपने आधुनिक सन्दर्भ में दलित -विमर्श के साथ स्त्री सशक्तिकरण की चर्चा भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यधपि ‘मानस’ की राम कथा में श्री राम -लक्ष्मण के पंपा सरोवर पर शबरी के आश्रम में आने का वर्णन है, किन्तु यहाँ हम शबरी की भक्ति का प्रारूप जानने से पहले उस के जीवन की पूर्वपीठिका जानेंगे। शबरी एक भील राजा की कोल कन्या थी, जिसके विवाह के समय उनके पिता ने तीन सौ बकरे मंगवाएं। इस पर शबरी को आघात लगा कि मेरे लग्न में अनेक जीवों की हिंसा होगी। इसीलिए वह विवाह न करने का निश्चय करके मध्य रात्रि को घर छोड़ देती है एवं मातंग ऋषि के आश्रम के पास पहुँचती है। वहां के सात्विक, शांत वातावरण से प्रभावित होकर शबरी ऋषियों की गुप्त सेवा करने का विचार करती है। वह पूरे दिन जंगल में सूंदर फल -फूल इकट्ठे करती और एक -एक ऋषि के आश्रम में रख देती। सभी ऋषि बहुत सवेरे पंपा सरोवर में स्नान करने जाते, इसके लिए शबरी सवेरे उठकर अँधेरे में मार्ग में बुहारी लगाती और कुश -कंटक दूर करती। सब ऋषियों को आश्चर्य होता कि कौन गुप्त रूप से हमारी सेवा कर रहा है ? एक रात मातंग ऋषि जाग रहे थे, उन्होंने पूछा ,” बेटी तुम कौन हो ? और कहाँ रहती हो ?” शबरी ने अपनी भीलनी जाति बताई तथा वृक्ष के ऊपर रहने की बात कही, यह सुनकर मातंग ऋषि का ह्रदय पिघल गया। उसके अतिशय शुद्ध आचरण को देख, उन्होंने अपने आश्रम में ही शबरी के लिए झोपड़ी बनवा दी। वहां वह रोज मातंग ऋषि से रामकथा सुनती, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने उसे श्री राम मन्त्र की दीक्षा भी दी। प्राण त्यागने से पूर्व ऋषि ने शबरी को अपने पास बुलाया और कहा ,” मैंने राम नाम की कथा की है, किन्तु आजतक मुझे श्री राम के दर्शन नहीं हुए। लेकिन तुम मुझसे अधिक भाग्यशाली हो, क्योंकि श्री राम तुम्हारे घर आवेंगें।” शबरी के समयावधि पूछने पर ऋषि बोले,” वे कब आवेंगें, यह नहीं बता सकता? क्योंकि अभी श्री दशरथ महाराज को पुत्र कामेष्टि यज्ञ करना है, उसके बाद उन्हें पुत्र रत्न प्राप्ति होगी। “इस तरह सारी रामकथा सुनाते हुए श्री राम के चौदह वर्ष के बनवास के दौरान आने की बात कह ऋषि ने शबरी को कहा ,” उनकों काल का बंधन नहीं है, परन्तु एक न एक दिन तेरे घर रामजी अवश्य आवेंगे। ”
वास्तव में ‘श्री राम चरित मानस ‘ के सात काण्ड मनुष्य के उत्कर्ष की सात सीढ़ियां हैं, इसीलिए बाबा तुलसीदास ने प्रत्येक काण्ड को सोपान नाम दिया। श्री राम और शबरी प्रसंग ‘अरण्यकाण्ड ‘में आता है, जिसका तात्पर्य है -मनुष्य का वन में वास। प्राचीन वर्णाश्रम व्यवस्था में भी वानप्रस्थ आश्रम का जीवन के अंतिम पहर में बहुत महत्व था। हमारे यहाँ उपदेश भी है कि अगर ज्ञान -भक्ति बढ़ानी हो तो थोड़े दिन घर छोड़कर वन में एकांत वास करना चाहिए। क्योंकि मन के संयम और वासनाओं का विनाश के लिए वन में रहने की आवश्यकता होती है, वैसे भी प्रकृति का साहचर्य मनुष्य को बहुत कुछ सिखाता है। इस प्रकार मातंग ऋषि के देहावसान के उपरान्त बहुत वर्षों तक शबरी माँ ने दिव्य तपश्चर्या की और तप करते -करते वह खुद भी बहुत वृद्ध हो गयी। शबरी महायोगिनी थी, वृद्धावस्था के बावजूद श्रीराम दर्शन की आशा बनी हुई थी। गुरुदेव ने श्री राम के पधारने का कहा था, इसीलिए उनके दर्शन के बिना मैं नहीं मरूंगी। इसी आशा से वह रघुनाथ जी की प्रतीक्षा करती और रामजी के लिए मीठे कंद -मूल एकत्रित करती। घर की चारों दिशाओं के सभी मार्गों पर बुहारी करती कि न जाने कौन से रास्ते वे नंगे पाँव पधारेंगे ? अन्ततः चौदह वर्ष के बनवास में सीता हरण के उपरान्त रघुनाथ जी चलते -चलते शबरी की खोज करते हुए उसके आश्रम पधारे। बड़े -बड़े ऋषियों ने श्रीराम से अनुनय -निवेदन किया, उन्हें अपने आश्रम में पधारने के लिए मनाने लगे। किन्तु प्रभु को तो अपने ऐसे भक्त को दर्शन देने हैं, जो नवधा भक्ति की मिसाल है। जिसने अपने सात्विक आचरण के साथ ताउम्र प्रभु श्री राम के दर्शन का इन्तजार किया है। झोंपड़ी में शबरी ने दर्भ यानी कुश के दो आसन दिए, उन आसनों पर श्री राम -लक्ष्मण विराजे। लोक कथाओं में आता है कि शबरी ने बीन -बीन कर सुंदर बेर रख रखे थे, जिन्हे वह चख -चखकर प्रभु को अर्पण करती। अत्यंत प्रेम में शबरी को यह भी याद नहीं रहा कि वह श्री राम को जूठे फल खिला रही है। रामजी शबरी के ह्रदय के भाव को देखते हैं, जो बहुत शुद्ध और निर्मल है। शबरी ने बार -बार वंदन करते हुए कहा –
केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी।
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी।
अगर हम देखें तो ‘अरण्यकाण्ड ‘में दो कथाएं हैं शबरी की कथा और सुपर्णखा की। किन्तु श्री राम जी ने सुपर्णखा पर दृष्टि नहीं डाली, क्योंकि वह ‘ काम ‘की प्रतीक है जबकि शबरी ‘प्रेम’ की प्रतिमा । ‘ इसीलिए बड़े -बड़े ऋषियों के आश्रम में प्रभु नहीं पधारे, उन्होंने शबरी को कृतार्थ किया। शबरी का चरित्र अतिशय दिव्य है, क्योंकि परमात्मा में उसका अनन्य प्रेम है। वह कहती है कि मैं नीच, अधम, अपढ़ हूँ, मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ ? लेकिन प्रभु ने शबरी से कहा कि मेरी भक्ति करने के लिए बहुत ज्ञानवान होने की अथवा ब्राह्मण के घर जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। भक्ति में प्रेम मुख्य है, कुल, जाति, क्षेत्र या स्थान गौण हैं। प्रभु श्री राम ने शबरी को सम्बोधित कर कहा, ‘नवधा भक्ति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं। ‘ यहाँ बाबा तुलसीदास उपदेशक के रूप में भी आमने आते हैं, किन्तु ये उपदेश पात्र के स्वभाव और चरित्र चित्रण के साधन रूप हैं। विशेष बात यह है कि शबरी प्रसंग में प्रभु श्री राम के मुख से नवधा भक्ति का उपदेश इसे अत्यंत सरस और सर्वग्राही बना देता है। सम्भवतः इसी विशेषता को लक्षित करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने महाकवि तुलसीदास की वाणी के लिए लिखा,”एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवत भक्ति का उपदेश करती है, दूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है। व्यक्तिगत साधना के साथ लोकधर्म की अत्यंत उज्जवल छटा उसमें वर्तमान है। ” ( रामभक्ति शाखा – हिंदी साहित्य का इतिहास ) वास्तव में नवधा भक्ति दो युगों में दो लोगों द्वारा कही गयी, सतयुग में प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु एवं त्रेतायुग में श्री राम ने माँ शबरी से कहा। जिसमे परमात्मा की प्राप्ति के नौ साधन बताये, इन्हीं नौ साधनों को मुनियों तथा ज्ञानियों ने नवधा भक्ति का नाम दिया है। इससे पूर्व श्री मदभागवत के सातवें स्कंध के पांचवें अध्याय में नवधा भक्ति का सूत्र मिलता है, जिसके अंतर्गत हिरण्यकशिपु ने पुत्र प्रहलाद को अपनी गोद में बैठाकर पूछा ,” बेटा, तुमने गुरूजी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमे कोई अच्छी बात हमें सुनाओ। श्री प्रह्लाद उवाच –
श्रवण कीर्तन विष्णोः स्मरणं पादसेवनम।
वर्चनं वंदनं दास्य सख्यमात्मनिवेदनम। .
इसी सूत्र को ‘मानस ‘की राम कथा में बाबा तुलसीदास ने संस्कृत की तत्सम मिश्रित अवधि की लोक भाषा में व्याख्यायित करते हुए उसे सरल -सुगम रूप में अभिव्यक्त किया। भक्ति के इस मार्ग का अनुसरण करने से प्रभु में प्रेम जागता है, जिसे संत कबीर ने भी ‘ढाई आखर प्रेम ‘कहा था। नवधा भक्ति का पहला साधन है सत्संग, अर्थात परमात्मा के साथ प्रेम करने वाले महापुरुषों का संग करों। दूसरा उपाय है -कथा श्रवण, जिसको सुनने से मन शांत होता है। तीसरा साधन है – अभिमान रहित होकर गुरु के चरणों की सेवा करना। और चौथा है – परमात्मा की स्तुति, क्योंकि भक्तिमार्ग में भगवद गुणगान प्रधान है। पंचम के लिए प्रभु कहतें हैं – ‘मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा ‘ यानी ‘राम मन्त्र ‘ का निरंतर जाप। छठी में भक्ति को विस्तार देते हुए प्रभु उसमे इन्द्रियों का निग्रह, शील स्वभाव, बहुत कार्यों से वैराग्य और संत पुरुषों के धर्म में लगे रहना बताते है। सातवीं में प्रभु सम्पूर्ण जगत को राममय देखना एवं संतों को श्रीराम से भी अधिक करके मानना कहतें हैं, जिसका सीधा -सीधा तात्पर्य स्वयं या ‘गोविन्द ‘से भी अधिक ‘गुरु ‘को महत्ता देना है। भक्ति के आठवें साधन में ‘जो मिल जाए उसी में संतोष करना तथा स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना इत्यादि शामिल हैं। नौवीं और अंतिम साधन में प्रभु शबरी को बताते हैं कि सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना और किस भी अवस्था में हर्ष एवं विषाद का न होना आवश्यक है। इन के साथ भक्ति में सरलता और ह्रदय में मेरा भरोसा अति आवश्यक है -‘मम भरोस हियँ। ‘ चूँकि शबरी में सभी प्रकार की भक्ति दृढ है इसीलिए प्रभु श्री राम कहतें हैं – जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।’ इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्री रामचरित मानस ‘ काव्य ग्रन्थ में श्री राम के मुख से नवधा भक्ति का तात्विक उल्लेख करवाया एवं तदोपरांत श्री राम शबरी से श्री सीता जी के विषय में पूछते हैं। उत्तर देते हुए सबरी ने पंपा सरोवर जाने को कहा, जहाँ ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव् से मित्रता की बात कही। अंत में श्री राम के दर्शन करते -करते शबरी ने योगाग्नि से देह भस्म कर दी, जिसका उल्लेख बाल्मीकि रामायण में भी हुआ है – ‘रामसंदर्शनान्मुक्ति प्राप्ता वैकुण्ठमाययो। ‘ यधपि बाल्मीकि रामायण में श्री राम को पुरुषोतम या महापुरुष के रूप में चित्रित किया है, किन्तु वैदिक युग से लेकर पौराणिक युग तक जैसे -जैसे ज्ञान और कर्म की अपेक्षा भक्ति का विकास होता गया, वैसे -वैसे विष्णु के अवतार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा दृढ होती चली गयी। वैष्णव भक्ति के उद्धभव और विकास की इस परम्परा में रामानुज , रामानंद आदि आचार्यों ने रामकथा को दर्शन एवं भक्ति की सहजग्राह्य मनोवैज्ञानिक भावभूमि प्रदान की। बाबा तुलसीदास ने मध्य युग की नैराश्य पूर्ण स्थिति को देखकर ‘मानस ‘ में श्री राम का ऐसा चरित्र प्रत्यक्ष खड़ा कर दिया कि जो लोकसंग्रह एवं लोक मंगल से अभिप्रेरित है। वैसे भी ‘मानस ‘का प्रत्येक चरित्र प्रभु श्री राम काज के यज्ञ में अपनी -अपनी आहुति डालता है एवं सम्पूर्ण रामकथा का विकास इसी भक्ति भावना के केंद्र के इर्द -गिर्द होता है। नवधा भक्ति की साक्षात मूरत शबरी के अतिरिक्त राम कथा के अन्य सभी पात्र भी श्री राम की भक्ति पाने को लालायित हैं। इनमे ‘निषाद, केवट, सेवक, दासी इत्यादि निम्न जाति के मानव और मानवेत्तर पात्र हनुमान, सुग्रीव, जामवंत, जटायु एवं समस्त वानर जाति इसी भक्ति भाव के उपक्रम हेतु उद्धत है। राक्षस कुल के भी चरित्र अपनी सहमति -असहमति द्वारा श्री राम की महत्ती योजना में कर्मरत है। जैसे मानस के सुंदरकांड में भी रावण द्वारा विभीषण को लंका के दरबार से अपमानित करके निकाल देने पर, वह समुद्र पार श्री राम की शरण में आता है एवं उनसे विनय करता है ,’ अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।’ इस प्रकार युग की मांग के अनुसार बाबा तुलसी दास ने शैव एवं वैष्णव धर्म को एकीकृत करके, सभी पात्रों को अपने-अपने आचरण से प्रभु श्री राम के महान यज्ञ में आहुति देते हुए चित्रित किया है। इसी कारण इनकी भक्ति रस भरी वाणी जैसी मंगलकारिणी मानी गयी, वैसी किसी और की नहीं। डॉक्टर विजयेंद्र स्नातक के शब्दों में ,” तुलसी का समन्वयवाद उनकी भक्ति भावना में भी दिखाई देता है। रामचरित मानस ‘में उन्होंने राम और शिव दोनों को एक -दूसरे का भक्त अंकित करके वैष्णव एवं शैव सम्प्रदायों को एक ही सामान्य भावभूमि प्रदान की है। ” ( हिंदी साहित्य का इतिहास ,सम्पादक -डॉक्टर नगेंद्र )
अंततः बाबा तुलसीदास ने बाल्मीकि रामायण की सीता परित्याग या निर्वासन की कथा का अनुसरण न करके, ‘श्री रामचरित मानस ‘ग्रन्थ में अंतिम सोपान ‘उत्तरकाण्ड ‘ नाम से सम्मिलित किया। जिसमे सगुन -निर्गुण सिद्धांत सम्बंधित वार्तालाप में काकभुशिन्डी -गरुड़ संवाद के साथ लोकेश मुनि की कथा चलती है, जिसका मूल उद्देश्य भी भक्ति के महत्व को प्रतिपादित करना है। चूँकि माया और भक्ति दोनों नारी हैं, लेकिन महाकवि तुलसीदास ने साफ़ कहा ‘मोह न नारि नारि कें रूपा। ‘ अर्थात भक्ति के सम्मुख माया भी वार नहीं करती, क्योंकि श्री रघुनाथ को भक्ति प्यारी है, माया तो नटिनी मात्र है। वस्तुतः शबरी अपनी नवधा भक्ति के कारण भक्ति स्वरूप का दिव्य प्रतिमान है, जिस के लिए प्रभु श्री राम स्वयं कहते हैं -‘ सकल प्रकार भगति दृढ तोरे। ‘ इसीलिए जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वह शबरी को अपनी भक्ति के कारण सहज सुलभ हुई। वस्तुतः धर्म का प्रवाह कर्म,ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है एवं इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के अभाव से वह विकलांग रहता है। कर्म के बिना वह लूला -लंगड़ा, ज्ञान के बिना अंधा और भक्ति के बिना ह्रदय विहीन क्या निष्प्राण रहता है। ” गोस्वामी जी की भक्ति -पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है, सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है। न उसका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्य लक्षण है। तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं, योग का भी उसमे समन्वय है, पर उतने ही का जितना ध्यान के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए आवश्यक है। ” ( आचार्य रामचंद्र शुक्ल ) इस प्रकार बाबा तुलसी दास की श्री राम भक्ति की धारा का यह प्रवाह नागर, ग्राम्य और वन्य सभी क्षेत्रो में निर्बाध बहता है एवं ‘मानस ‘की लोकप्रियता का मुख्य कारण भी यही है। जिससे यह ग्रंथ राजा का महल हो या रंक की झोंपड़ी, सभी में समान पठनीय और पूजनीय है। महाकवि तुलसीदास अपने ही तक दृष्टि रखने वाले भक्त न थे, संसार को भी दृष्टि फैलाकर देखनेवाले भक्त थे। शबरी की भक्ति के औचित्य से उन्हें ‘शूद्र ‘अथवा ‘ नारी ‘ निंदक कहना अनुचित है।
श्रीमती संतोष बंसल
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