अयोध्या से चित्रकूट तक की यात्रा
(पृष्ठ भूमि)
श्रीराम ईश्वर हैं पर उससे भी पहले सफ़ल, गुणवान और दिव्य मनुष्य हैं. शासक के तौर पर बेहद कामयाब- ऐसा न होता तो रामराज्य की चर्चा अब तक क्यों की जाती?. संयत, संतुलित और निजी सुखों को त्याग कर न्याय और सत्य का साथ देने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम की सहनशीलता और धैर्य क्या अनुकरणीय नहीं है?. जरा-सी चोट लग जाने पर कराहने वाले हम संघर्ष को देखें तो समझ सकेंगे- राज्य छोड़कर सन्यासी जैसा जीवन बिताना कितना कठिन होता है.
इसे समय की क्रूरता कहें या फ़िर भाग्य की विडंबना कि जिसका राज्याभिषेक होने जा रहा हो और अचानक उसे वनवास पर जाना पड़ जाय. वह भी एक-दो दिन के लिए नहीं, पूरे चौदह वर्षों के लिए. न एक दिन ज्यादा और न एक दिन कम और वह भी इस कठिन शर्त के साथ कि उसे तापस वेश में वल्कल और मृगचर्म धारण करते हुए तथा विशेष उदासी का भाव ओढ़कर वन जाना होगा. इस विशेष उदासी के पीछे गहरा भाव यह था कि राम किसी भी गाँव या नगर में प्रवेश नहीं करेंगे. संकेत स्पष्ट है कि उस समय भी तो अनेक राजा-महाराजा रहे होंगे, लेकिन उन्होंने कभी रावण के बढ़ते अत्याचार के विरुद्ध न तो आवाज उठायी और न ही शस्त्र. कैकेयी कदापि नहीं चाहती थीं कि राम को ऐसे अकर्मण्य राजाओं का साथ लेना पड़े. वह चाहती थी कि राम को स्वयं को अपनी शक्ति अर्जित करनी होगी और रावण राज को समूल नष्ट करके, अयोध्या की गौरवगाथा का गान अमर करना होगा. यह वह कारण था कि माता कैकेयी ने अपने बेटे भरत के लिए सिंहासन और राम के लिए चौदह वर्षों का बनवास मांगकर पूरे अयोध्या में भूचाल ला दिया.
कैकेयी जानती थी कि राम के वन जाते ही महाराज दशरथ शायद ही जीवित बचेंगे. केवल उसे ही नहीं अपितु महारानी कौसल्या और सुमित्रा को भी वैधव्य का दारूण दुःख झेलना पड़ेगा . इस कठोर निर्णय के विरुद्ध कितनी ही बाते बनायी जायेंगी,. कोई उसे घरफ़ोड़ू, कोई खलनायिका जैसे संबोधनों से संबोधित करेगा. उसका अपना सगा बेटा भी उसे घृणा की दृष्टि से देखेगा और तो और निकट भविष्य में कोई परिवार अपनी बेटियो का नाम कैकेयी रखना पसंद नहीं करेगा. इतना सब कुछ जानने-बूझने के बाद भी वह अपने निर्णय पर अडिग रही और कालरात्रि की समस्त कालिख अपने मुँह पर मलकर सदा-सदा के लिए कलंकित हो गयीं.
दरअसल कैकेयी ने राम के दिव्य गुणों को पहिचान लिया था, जबकि पिता दशरथ उन्हें केवल पुत्र ही मानते रहे. कैकेयी राम के व्यक्तित्व से संसार को परिचित करवाना चाहती थी. वे जानती थीं कि व्यक्तित्व को गढ़ने में प्रकृति का अपना नियम है.- प्रकृति के बीच जाकर, वहाँ संघर्ष करके, जूझकर अपने व्यक्तित्व को गढ़ना. राम ने अपने गुरूकुल में जाकर अल्पकाल में सारी विद्याएँ प्राप्त कर ली थी. ज्ञान तो उन्हें मिल गया था, लेकिन व्यक्तित्व नहीं बन पाया था. राम भी स्वयं जानते थे कि ज्ञान के बल पर राज्य तो चलाया जा सकता है, लेकिन उसे बनाया या बचाया नहीं जा सकता.
राम का व्यक्तिव संधर्षशील है, श्रम प्रधान है, इसलिए उनका रंग साँवला है. उनकी देह महलों के सुरक्षित और सुगंधित वातावरण में नहीं पनपती. वह प्रकृति के खुले बरसात की बूंदों का आघात सहती है और सहनकर अपना निर्माण करती है. माथे पर आयी पसीने की बूँद जहाँ अभिनंदनीय है, पूज्यनीय है, वहीं वे सामंतीय चेतना के खिलाफ़ विद्रोह का शंखनाद भी है. उस सामंतीय चेतना के विरुद्ध, जो कर्म को दुत्कार कर विश्राम को महिमा-मंडित करती हैं.
जब विश्वामित्र जी आकर दशरथ जी से राम और लक्ष्मण को मांगते हैं तो पिता के कहने पर चल देते हैं. यह भविष्य के चौदह वर्ष के बनवास की पूर्व की तैयारी थी. उसका पूर्वाभ्यास था. उन्होंने पिताकी आज्ञा मानी और चुपचाप चल दिये. लेकिन बाद के वर्षों में वे बनवास क्यों गये.? यह घटना एक शासक के द्वारा एक राजकुमार को दिए गए आदेश से जुड़ी हुई है न कि, एक पिता के द्वारा एक पुत्र को दिये गए आदेश से. केवल माता कैकेयी के वचनों को उन्होंने पिता की आज्ञा मानी और वन जाने का निश्चय कर लिया.
इस घटना से स्पष्ट है कि महाराज दशरथ जी ने “वनगमन” के आदेश पर अपने हस्ताक्षर ही नहीं किए थे, तो फ़िर आदेश मानने का प्रश्न ही नहीं उठता था?, लेकिन राम भी अपने तरह के राम थे, उन्होंने इसे आदेश मान लिया, जबकि वह था ही नहीं. जब उन्होंने अपना उद्देश्य निर्धारित कर लिया, तो उस उद्देश्य को पाने के लिए उन्होंने निर्ममता तथा अवज्ञा की सीमा से परे जाने में संकोच नहीं किया.
माता कैकेयी स्वयं क्षत्राणी थीं. दूरंदेशी थी. उनकी दूरदृष्टि समूचे आर्यावर्त पर टिकी रहती थी. वे कई बार महाराज दशरथजी के साथ युद्ध के मैदान में जा चुकी थीं. जहाँ वे राजकाज के संचालन में अपने पति की सहयोगिनी थी.वहीं युद्ध के मैदान में उन्होंने अनेक दानवों को मार गिराया था,लेकिन समूल नष्ट नहीं कर पायी थीं. इसका दुःख उन्हें बराबर सालता रहता था. वे बराबर इस प्रयास में संलग्न रहती थीं कि भारत की संस्कृति को, भारत के सनातन धर्म को कैसे बचाया जा सकता है?. उनकी पारखी नजरों ने राम को पहिचान लिया था. यही वह कारण था कि उन्होंने अपने सुहाग को दाँव पर लगाकर राम को वन जाने की आज्ञा दी. वे जानती थी कि अगर कोई व्यक्ति, युवावस्था में पांच ज्ञानेन्दियों, पांच कर्मेन्दियों तथा मन, बुद्धि,चित्त, और अहंकार (कुल मिलाकर चौदह.) को वनवास-काल में साध लेगा, वही रावण को मार पाएगा. वे यह भी जानती थीं कि रावण की आयु में सिर्फ़ चौदह वर्ष ही बची हैं. फ़िर महाराज अनरण्य के उस शाप का समय पूर्ण होने चौदह वर्ष ही शेष थे, जो शाप उन्होंने रावण को दिया था कि मेरे वंश का राजकुमार तेरा वध करेगा.
कालांतर में बालि से मिली करारी पराजय को भी वे भूली नहीं थीं. यह बात उन दिनों की थी, जब उनके कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुए थे. वे महाराज के साथ रथ पर सवार होकर कहीं जा रही थीं कि अचानक उनका सामना बालि से हुआ. मदांध बालि ने महाराज दशरथ को युद्ध करने के लिए ललकारा. एक चक्रवर्ती सम्राट उसकी ललकार को कैसे सहन कर सकते थे?. दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ. लेकिन ब्रह्मा से प्राप्त वरदान के कारण बालि की जीत हुई. उसे वरदान प्राप्त था कि सामने वाले प्रतिद्वद्वी की आधी शक्ति उसे प्राप्त हो जायेगी. उस वरदान के फ़लस्वरूप बालि की जीत हुई. शर्त के अनुसार महाराज दशरथ को मुझे अथवा राजमुकुट बालि के हवाले करना था. एक चक्रवर्ती सम्राट अपनी प्रियतमा को शत्रु को कैसे सौंप सकते थे?. अखिरकार उन्होंने अपना मुकुट बालि को समर्पित कर दिया. वे उस घटना को भुलाए नहीं भूल पाती थीं. वे चाहती थी राम उस निर्मम बालि का वध करके या उसे युद्ध के हराकर अयोध्या के गौरवशाली मुकुट को लेकर आये. वे उस मुकुट से राम का राज्याभिषेक करवाना चाहती थीं. राम को वनवास देने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण था.
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अयोध्या से चित्रकूट तक की यात्रा
पिता की आज्ञा का बारंबार स्मरण करते हुए वे बहुत दूर निकल गए. ग्रामो और सुशोभित वनों को देखते हुए वे शीतल एवं सुखद जल बहाने वाली वेदश्रुति नामक नदी को पार करके अगस्त्यसेवित दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गए. दीर्घकाल तक चलते हुए उन्होंने समुद्रगामिनी गोमती नदी को पार किया जो शीतल जल का स्त्रोत बहाती थी. उसके कछार में बहुत-सी गौएँ विचरती थीं. गोमती नदी को लाँघकर उन्होंने मोरों और हंसों के कलरव से व्याप्त स्यन्दिका नामक नदी को पार किया, जो धन-धान्य से संपन्न और अनेक अवान्तर जनपदों से घिरी हुई भूमिका सीताजी को दर्शन कराया.
विशालान् कोसलान् रम्यान् यात्वा लक्ष्मणपूर्वजः ** अयोध्यामुन्मुखो श्रीमान् प्राजंलिर्वाक्यमब्र्अवीत
आपृच्छे त्वां पुरिश्रेष्ठे काकुत्स्थपरिपालिते ** देवतानि च यानि त्वां पालयन्त्यावसन्ति च
निवृत्त्वनवासस्त्वामनृणो जगतीपतेः ** पुनर्द्रक्ष्यामि मात्रा च पित्रा च सह संगत
विशाल और रमनीय कोसलदेश की सीमा को पार करके रामजी ने अयोध्या की ओर मुख किया और हाथ जोड़कर कहा-“ ककुत्स्थवंशी राजाओं से पालित पुरीशिरोमणि अयोध्ये ! मैं तुमसे तथा जो-जो देवता तुम्हारी रक्षा करते हैं और तुम्हारे भीतर निवास करते हैं, उनसे भी वन जाने की आज्ञा चाहता हूँ. बनवास की अवधि पूरी करके महाराज के ऋण से उऋण हो मैं पुनः लौटकर तुम्हारा दर्शन करूँगा और अपने माता-पिता से भी मिलूँगा.
कोसलदेश से आगे बढ़ते हुए उन्होंने मार्ग में सुख-सुविधा से युक्त, धन-धान्य से संपन्न रमणीय उद्यानों, त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गंगा के दर्शन किये जो शीतल जल से भरी हुई, सेवारो से रहित तथा रमणीय थी. बहुत से धर्मात्मा साधु-संतों ने आश्रम बना रखे थे. समय-समय पर हर्षभरी अप्सराएं भी उतरकर उसके जलकुंड का सेवन करती थीं. देवता ,दानव, गन्धर्व और किन्नर उस शिवस्वरूपा भागीरथी की शोभा बढ़ाते हैं.नागों और गन्धर्वों की पत्नियाँ उनके जल का सेवन करती हैं. जल के आपस में टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह नदी का निर्मल हास है. नदी के तट पर हंसों और सारसों के कलरव सदा दूँजते रहते हैं. मदमस्त विहंगम जल के ऊपर मंडराते हैं. कहीं कुकुद, कहीं कलिकाएं, कहीं कमलदल मुस्कुराते से दीखते हैं. उन्हें देवनदी के पावन तट पर पहुँचकर उन्होंने गंगाजी को प्रणाम किया और वहीं रात में श्रृंगवेरपुर में निवास करने का मानस बनाया.
वहाँ का राजा, रामजी का परम सखा गुह राज्य करता था. जब उसे ज्ञात हुआ कि महाबाहू श्रीराम श्रृंगवेरपुर आ चुके हैं वह अपने सकल समाज के साथ उनके दर्शनों के लिए गया. उसे अपने समीप आता देख राम, लक्ष्मण के साथ आगे बढ़कर मिले. अपने मित्र को वल्कल धारण करता देख गुह को बड़ा दुःख हुआ. प्रातःकाल रामजी ने गुह से कहा कि वे गंगा के उस पार जाना चाहते हैं, तुम नौका का प्रबंध करो. नाव तैयार की गई. नौका पर चढ़ने से पहले गुह ने रामजी के चरण पखारे, नाव पर तीनों को चढ़ाया और उस पर जा पहुँचे.
उन्होंने साथ आए सुमन्त्र जी को अयोध्या लौट जाने को कहा. गंगा जी की बीच धार में पहुँचकर भगवती देवी सीताजी ने गंगा जी की पूजा-अर्चना की और आशीर्वाद मांगा और कहा कि कुशलतापूर्वक लौट आने पर वे आपकी पूजा करेंगी.
गंगा के उस पार उतरकर वे अब एक ऐसे प्रदेश में प्रवेश कर रहे थे, जहाँ मनुष्यों के आने-जाने के कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते थे. एक विशाल वृक्ष के नीचे पहुँचकर उन्होंने सायंकाल सांध्योपासना की और लक्ष्मण से कहा- हे सुमित्रानन्दन ! आज हमें अपने जनपद से बाहर यह पहली रात प्राप्त हुई है. अतः हम दोनों को आलस्य छोड़कर रात में जागना होगा.
लक्ष्मण ने पेड़ों के नीचे सूखे पत्तों को बटोरकर ,शैय्या तैयार की. अपने राजमहल में रामजी बहूमूल्य सोने के पलंग पर, कोमल गद्दों में सोया करते थे, लेकिन भाग्य का खेल देखिए कि उन्हें घास-फ़ूस और तिनकों की शैय्या बनाकर सोना पड़ रहा है.
महर्षि भरद्वाज जी का आश्रम.
उस सघन वृक्ष के नीचे रात बीता कर वे निर्मल सूर्योदय काल में उस स्थान से आगे प्रस्थित हुए. कभी थोड़ी देर विश्राम करते हुए, तो कभी द्रुत गति से चलते हुए, वन की अनुपम शोभा को निहारते हुए वे आगे बढ़ते जा रहे थे. इस प्रकार जब दिन प्रायः समाप्त हो चला था और सांझ घिर आयी थी. तभी रामजी ने अग्निदेव की ध्वजा रूप धूम को आकाश में ऊँचा उठता हुआ देखा. उन्हें दो नदियों के परस्पर टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह भी सुनाई दे रही थी. तनिक रुकते हुए उन्होंने लक्ष्मण से पूछा:- ” भ्राता लक्ष्मण! तुम्हें कुछ दिखाई और सुनाई दे रहा है अथवा नहीं?. आकाश में उठते हुए उस धूम की ओर देखो और दो नदियों के टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, सुनाई देगी. मुझे जान पड़ता है यहीं कहीं आसपास गंगाजी और यमुना की संगम स्थलि होनी चाहिए और इसी के निकट महर्षि भरद्वाज मुनि का आश्रम भी है”.
हम उनके दिव्य दर्शन करें उससे पहिले मैं तुम्हें उनके बारे में जानकारियां देता चलता हूँ तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो”
“हे निष्पाप लक्ष्मण..! अब हम महर्षि भरद्वाज जी के आश्रम के अति निकट आ गए हैं. उनके दिव्य दर्शनों का हमें लाभ मिलेगा. मुझे उनके बारे में जो-जो जानकारियाँ मुझे प्राप्त हैं, मैं तुम्हें बतलाता चलता हूँ. ऐसी अनूठी और रोचक जानकारियाँ देते हुए मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हो रही है”
“महर्षि अगस्तजी ने इन्द्र से आयुर्वेद का और व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया है. ऋक्तंत्र के अनुसार ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण प्रवक्ता हैं महर्षि भृगु ने उन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश दिया था. तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय महर्षि भारद्वाज वाल्मिकी के साथ थे”
“वे आयुर्वेद व्याकरण और आयुर्वेद के ज्ञाता होने के अतिरिक्त धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि ग्रंथों के रचयिता भी हैं. आयुर्वेद संहिता संहिता के अनुसार उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को काय-चिकित्सा का ज्ञान दिया था”.
“जिस प्रयागराज में हम जा रहे हैं, उसको महर्षि भरद्वाजजी ने ही बसाया था और धरती के सबसे बड़े गुरुकुल (विश्वविद्यालय) की स्थापना भी उन्होंने ही की थी. इस गुरुकुल में वे वर्षों तक विद्यादान करते रहे है. वे कुशल शिक्षाशास्त्री, शस्त्रविद्या, राजतंत्र मर्मज्ञ, अर्थशास्त्री, शस्त्रविद्या विशारद, आयुर्वेद विशारद, विधि वेत्ता, अभियांत्रिकी विशेषज्ञ, विज्ञानवेत्ता, और मंत्र द्रष्टा भी है. ऋग्वेद के छटे मंडल के द्रष्टाऋषि, भारद्वाज जी ही हैं. इस मंडल में 765 मंत्र हैं. अथर्ववेद में भी ऋषि भारद्वाज के 23 मंत्र हैं. वैदिक ऋषियों में इनका स्थान ऊँचा स्थान है. आपके पिता का नाम वृहस्पति और माता का नाम ममता था”.
“ऋषि भरद्वाज जी को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इन्द्र और कालान्तर में भगवान ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त हुआ था. अग्नि के सामर्थ्य के आत्मसात कर ऋषि ने अमृत-तत्व प्राप्त किया था और स्वर्गलोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था. संभवतः इसी कारण ॠषि भारद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में एक हैं”.
“हे लक्ष्मण ! ऐसी दिव्य छवि वाले महर्षि से हमें शस्त्र और शास्त्र की विद्या सीखने को मिलेगी. उनसे प्राप्त शिक्षा के बल पर हम बहुत सारी विपत्तियों से सहज में ही छुटाकारा पा सकेंगे. निश्चित ही हम सभी बड़भागी हैं जिन्हें ऐसे महात्मा के दिव्य दर्शनों का पुण्य़ लाभ मिलने जा रहा है”.
पर्णशाला में प्रवेश करते हुए उन्होंने तपस्या के प्रभाव से तीनों कालों की सारी बातें देखने देखने की दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेने वाले महात्मा भरद्वाज जी के दर्शन किए, जो अग्निहोत्र संपन्न करने के पश्चात अपने शिष्यों से घिरे हुए थे. महर्षि को देखते ही तीनो ने हाथ जोडकर उनके चरणॊं में प्रणाम किया.
प्रणाम निवेदित करने के बाद रामजी जी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर अपना परिचय देते हुए कहा:-” भगवन ! हम दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं. मेरा नाम राम है और इनका लक्ष्मण तथा ये वेदेहराज जनक की पुत्री और मेरी धर्मपत्नी सीता है, जो इस निर्जन तपोवन में मेरा साथ देने आयी हुई हैं. पिताश्री ने मुझे चौदह वर्षों के लिए वनवास में रहने की आज्ञा दी है. मुझे आता देख अनुज लक्ष्मण भी वन में रहने का व्रत लेकर मेरे साथ चले आए हैं..हम तीनों वन में रहते हुए कंद-मूल और फ़लों का आहार करते हुए धर्म का पालन कर रहे हैं”.
रामजी की विनयशीलता और मधुर वचनों को सुनकर महर्षि भरद्वाज जी को परम संतोष हुआ. इस समय उनके चारों ओर मृग, पक्षी और ऋषि-मुनि बैठे हुए थे. अपने आश्रम पर अतिथि के रूप में पधारे श्रीराम, सीता जी सहित लक्ष्मण का स्वागतपूर्वक सत्कार करते हुए उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर उन तीनों के लिए सुस्वादु और मीठा जल और नाना प्रकार के जंगली फ़ल-मूल लाने को कहा
रामजी बिछाए गए आसन पर विराजमान हो गए, तब महर्षि भरद्वाज ने रामजी से कहा: ”राम ! मैं दीर्घकाल से तुम्हारे शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. आज मेरा मनोरथ सफ़ल हुआ. मैंने यह भी सुन रखा है कि तुम्हें अकारण ही वनवास दे दिया गया है”.
“गंगा और यमुना की यह संगम-स्थल बड़ा ही पवित्र और एकान्त है. यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता बड़ी ही मनोरम है. उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर उन तीनों के लिए सुस्वादु और मीठा जल और नाना प्रकार के जंगली फ़ल-मूल-फ़ल लाने को कहा. अतः तुम लोग यहाँ सुखपूर्वक रहो. मैंने आपके ठहरने की उत्तम व्यवस्था करवा दी है. आप तीनों इसी स्थान पर सुखपूर्वक रहो”.
महर्षि अगस्त जी के आश्रम में रात्रि विश्राम करते हुए रामजी ने अनुज लक्ष्मण से जानना चाहा :-
“सुमित्रनंदन !हमारे इस वनवासकाल में हमें महर्षि, ऋषि, मुनि, साधु, संत-महात्मा आदि के दर्शन होंते रहेंगे. क्या तुम बतला सकते हो कि इनके बीच क्या अन्तर होता है?.”
“हे ज्येष्ठ भ्राता, मुझे नहीं मालुम कि इनके बीच क्या विभेद होता है. कृपया आप ही बतलाने की कृपा करें, तो उत्तम होगा?”.लक्ष्मण ने जानना चाहा.
“सुमित्रानंदन ! इनके बीच क्या विभेद होता है, वह मैं तुम्हें कह सुनाता हूँ. भार्या सीता, तुम भी इसे ध्यान से सुनो. भारत प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेश महत्व रहा है. ये सभी अपने तप के बल पर समाज का कल्याण का कार्य करते हैं. आज भी तीर्थ स्थलों, जंगल और पहाड़ों में कई साधु-संतादि के दर्शन हमें मिलते है.
महर्षि वह होता है जिसके पास कुछ सिध्दियाँ और भक्ति एवं ज्ञान हो. ठीक इसी प्रकार परम तेजस्वी, भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचने वाले मुनि को ब्रह्मर्षि कहा जाता है. वे हमेशा लोककल्याण के कार्यों में ही लगे रहते है. उनकी भक्ति और तपस्या का एकमात्र उद्देश्य जनता की भलाई करना होता है. विश्वामित्र जी. वसिष्ठ जीवाल्मीक जी, तथा अगस्त्य जी, महर्षि के पद पर प्रतिष्ठित हैं.
देवर्षि उसे कहते है जिसने देवताओं के बारे में बहुत ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, जैसे देवर्षि नारद. महाऋषि वे होते है जो ऋषियों के भी ऋषि होते है. राजर्षि का मतलब है कि कोई राजा ऋषियों के स्तर का ज्ञान प्राप्त कर लेता था, उन्हें राजर्षि कहा जाता है..
वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ऋषि का दर्जा प्राप्त है. ऋषि को सैकड़ों सालों के तप या ध्यान के कारण सीखने और समझने के उच्च स्तर पर माना जाता है. वैदिक काल में सभी ऋषि गृहस्थ आश्रम से आते थे. ऋषि पर किसी तरह का क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और ना ही किसी भी तरह का संयम का उल्लेख मिलता है. ऋषि अपने योग के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त हो जाते थे और अपने सभी शिष्यों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे.
मुनि उसे कहते हैं जिसके मन में किसे भी प्रकार की कामना का कोई ज्वार नहीं उठता है. उसका मन एकदम शांत होता है. उसका संबंध बाहरी मौन से नहीं है.जिसने भी मौन व्रत धारण कर लिया है, वहीं मुनि है.
संत, महात्मा और साधु-‘संत’ वो है जिसने अविनाशी सत् को जान लिया है ‘महात्मा’ वह है जिसकी आत्मा किसी भी क्षुद्र विचारों से व्यथित नहीं होती, वो महान और पवित्र कार्यों के संलग्न रहता है. ‘साधु’ एक सरल स्वभाव है जो किसी के भी अंदर हो सकता है.
योगी और सिद्ध-जिसने कर्मयोग के द्वारा समत्व बुद्धि को प्राप्त कर अविनाशी सत् के साथ स्वयं का योग करा लिया है वही योगी है. सिद्ध वो है जिसने कुंडलिनी जागरण के द्वारा अविनाशी सत् का साक्षात्कार किया है.
ऋषि मुनियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी से रामजी ने सीताजी और लक्ष्मण को रोचक जानकारी देते हुए कहा:- अनुज ! संभवतः हम मध्यरात्रि तक जाग चुके हैं. अब हमें विश्राम करना चाहिए. सूर्योदय होने के साथ ही हमें किसी अन्य स्थान के लिए जाना होगा.” ऐसा निर्देश देकर वे विश्राम करने लगे थे.
सूर्योदय से ठीक पहले सभी जाग गए थे. नित्य क्रिया-कर्म के बाद सभी ने स्नान किया और तैयार होकर महर्षि अगस्तजी के पास पहुँचे. महर्षि को प्रणाम निवेदित करने के पश्चात रामजी ने विनय पूर्वक कहा :- “ हे महात्मन ! मेरे नगर और जनपद के लोग यहाँ बहुत ही निकट पड़ते हैं. अतः वे सुगमता से मुझसे मिलने के लिए आते-जाते रहेंगे. उनके इस तरह आने-जाने से आपको भी अकारण कष्ट उठाने पड़ेगे और तप-आदि करने में विघ्न उत्पन्न होगा. अतः हे भगवन ! किसी एकान्त प्रदेश में आश्रम योग्य उत्तम स्थान के बारे में मुझे बतलाएं, जहाँ हम तीनों प्रसन्नतापूर्वक रह सकें”. बड़े विनय के साथ हाथ जोड़कर रामजी ने महर्षि से ऐसा स्थान बतलाने का अनुरोध किया.
महामना वसिष्ठ ने कहा:-“राम…यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक सुन्दर परम पवित्र पर्वत है, जिसे “चित्रकूट” के नाम से जाना जाता है, चित्रकूट पर्वत पर बड़ा ही रमणीय स्थल है. इस पर्वत पर लंगूर, वानर और रीछ निवास करते हैं. यहाँ बड़े-बड़े, विशाल हाथियों के दल विचरते दिख जाएंगे. इनके अलावा इस पर्वत पर बहुत से ऋषि-मुनि तपस्या में लीन होकर साधनाएं कर रहे हैं. एकान्त के उद्देश्य से यह स्थान आपके लिए उपयुक्त है. अतः वहाँ जाकर निवास करें”.
“राम ! इस परम पवित्र पर्वत रमणीय तथा बहुसंख्यक फ़ल-मूलोंसे संपन्न है. बड़ी संख्या में हिरणॊं के झुण्ड यहाँ-वहाँ स्वछंद विचरते, उछलते-कूदते देखे जा सकते हैं. वहाँ तुम्हें पवित्र मन्दाकिनी नदी, अनेकानेक जलस्त्रोत, पर्वतशिखर, गुफ़ाएँ. कन्दराएँ तथा छलछल के स्वर निनादित करते मनभावन झरने भी तुम्हें देखने को मिलेंगे. यह पर्वत सीता के साथ विचरते हुए तुम्हारे मन को आनन्द प्रदान करेगा. जमीन पर घोंसला बनाकर रहने वाला पक्षी टिट्तिभ ( टिटहरी ) और स्वरसाधिका कोकिला के मधुर कूक भी तुम्हारा मनोरंजन करेंगी. अतः हे राम ! आप उस रम्य पर्वत पर निवास करें”.
रामजी अपनी भार्या सीता जी और अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि के आश्रम में रात्रि को सुखपूर्वक विश्राम किया. और सबेरे प्रयाग में स्नान किया और अपने सेवक गुह के सहित रामजी ने अपनी भार्या सीताजी और लक्ष्मण के सहित महर्षि के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए बिदा मांगी. तब महर्षि ने स्वस्तिवाचन करते हुए उन्हें अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा:- “हे रघुनन्दन श्रेष्ठ !. तुम दोनों भाई गंगा और यमुना के संगम पर पहुँचकर जिनमें पश्चिमोमुखी होकर गंगा मिली है,, यमुना के निकट पहुँचकर लोगों के आने-जाने के कारण पदचिन्हों को चिन्हित कर घाट को अच्छी तरह देख-भालकर वहाँ जाना और एक बेड़ा बनाकर पार उतर जाना”.
“तत्पश्चात आगे जाने पर तुम्हें बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष मिलेगा, जिसके पत्ते हरे रंग के हैं. वह चारों ओर से बहुसंख्य दूसरे वृक्षों से घिरा हुआ है, उस वृक्ष को “श्यामवट”के नाम से जाना जाता है. उसकी छाया में बहुत-से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं वहाँ पहुँचकर सीता दोनों हाथ जोड़कर उस वृक्ष से आशीर्वाद की याचना करें. इच्छा हो तो उस वृक्ष के पास कुछ काल तक निवास करें अथवा वहां से आगे बढ़ जाए.
“श्यामवट के एक कोस दूर जाने पर तुम्हें नीलवण का दर्शन होगा. वहाँ पर तुम्हें सल्लकी (चीड़) और बेर के पेड़ मिलेंगे. यमुना के तट पर उत्पन्न हुए बाँसों के कारण वह और भी रमणीय दिखाई देता है. यह वही स्थान है जहाँ से चित्रकूट को रास्ता जाता है.
कालिन्दी को पार करने के लिए दोनों भाइयो ने सूखे काठ से एक बहुत बड़ा बेड़ा तैयार किया और उस पार उतर गये.
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चित्रकूट की प्रसन्नता-
आज मैं (चित्रकूट) बहुत प्रसन्न हूँ. इतना प्रसन्न तो मैं इससे पहले कभी नहीं हुआ था, जितना की आज हुआ हूँ. समाचार ही कुछ ऐसा है किजिसे सुनकर मेरे हृदय में खुशी का ज्वार-भाट उमड़ने-घुमड़ने लगा है. एक पर्वत होने के नाते, लोग मुझे केवल पत्थर और मिट्टी का ढेर समझते हैं, .जबकि मेरे पास सुनने, समझने और सोचने की बुद्धि है, लेकिन दुर्भाग्यवश मेरे हाथ-पाँव नहीं है, वरना मैं झूम-झूम कर नाचता. जिव्हा भी नहीं है, वरना मैं सारे जनपद में जाकर, ढिंढोरा पीटकर अपनी खुशी अपनों के बीच बांटता. अपनी इन्ही कुछ कमियों (अपंगता) के रहते हुए भी मैंने कभी पराजय नहीं मानी और न ही निरुत्साही हुआ हूँ. मैंने पेड़ों की शाखाओं को अपने हाथ और नदी को अपना पैर माना है, जिनके माध्यम से मैं नाच और गा तो सकता ही हूँ.
मेरी खुशी का कारण क्या है, क्या आप उसे जानना नहीं चाहेंगे?. आप न भी सुनना-जानना चाहोगे, तब भी मै आपको बतलाए बगैर नहीं रह सकता. बात ही कुछ ऐसी है, जिसे सुनकर आप भी प्रसन्नता में झूम उठेंगे. तो चलिए, मैं आपको उस पावन प्रसंग की ओर लिए ले चलता हूँ जहाँ प्रभु रामजी और महर्षि भरद्वाज जी के बीच वार्तालाप हो रहा था. रामजी ने अत्यन्त ही विनम्रतापूर्वक महर्षि से जानना चाहा कि कृपया मुझे उस रम्य स्थान का पता बतलाएं, जहाँ मैं अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण के संग, कुछ समय तक सुखपूर्वक निवास कर सकूँ.
जब यह वार्ता हो रही थी, उस समय मेरे परम सखा पवन-देव जी भी वहाँ उपस्थित रहकर इस वार्तालाप को सुन रहे थे. बिना विलम्ब किए, उन्होंने तत्काल आकर मुझे इस बात से अवगत करा दिया था. सच कहूँ, मैंने तो कभी इस बात की कल्पना तक नहीं की थी, मेरे प्रभु, बिन मांगे, मुझे इतना बड़ा उपहार देने जा रहे हैं, जहाँ तक मुझे याद है कि मैंने भी कभी कोई बड़ा अनुष्ठान या कठोर तप नहीं किया था, तिस पर भी प्रभु रामजी ने मुझ पर बड़ी कृपा की और अपने निवास के लिए मुझे उपयुक्त माना. निश्चित ही मेरे कुछ पुण्यों का उदय हुआ होगा, तभी तो साक्षात परब्रह्म परमेश्वर, मुझे अपने दिव्य दर्शन देने के लिए स्वयं चलकर यहाँ पधार रहे हैं.
मेरे मित्र पवनदेव यहीं नहीं रुके, बल्कि उन्होंने समूचे वनांचल के सहित मन्दाकिनी को भी इस बात से अवगत करा दिया था. मैंने भी मन ही मन में, ऋतुओं के राजा वसंत से प्रार्थना की थी कि वे अपनी सेना के सहित, प्रभु रामजी के आगमन से पूर्व, बिना विलम्ब किए मेरे यहाँ पधारने की कृपा करें. सच्चे मन से की गई प्रार्थना का असर हुआ और वे अपनी पूरी फ़ौज के साथ, बिना देरी किए यहाँ आ गए.
देखते ही देखते समूचा वनांचल अपनी संपूर्णता के साथ खिल उठा था. कोकिला के अलावा, पास-पड़ौस से नाना प्रकार के पखेरुओं का आना शुरु हो चुका था. अपनी-अपनी बोलियों में बोलते पक्षियों के कलरव-गान से समूचा वन-प्रांतर गुंजारित होने लगा था. कोकिला कभी इस पेड़ पर से, तो कभी किसी अन्य पेड़ की शाख पर बैठकर, मीठे स्वर में गाकर प्रभु रामजी के आगमन की सूचना दूर-दूर तक फ़ैलाने में तनमयता से जुटी हुई थी. पेड़ों ने नए पत्ते पहन लिये थे. लताएं भी पीछे कहाँ रहने वाली थीं. वे भी नए पुष्पों से अपने को सजाती हुईं, पेड़ों की शाखाओं पर चढ़कर इठलाने लगी थीं.
मंदाकिनी तो जैसे पगला ही गई थी. उसका जल प्रवाह तेजी से बढ़ने लगा था. कलकल-छलछल के अपने आदिम-स्वर में गीत गाती हुई, प्रसन्नता से हिलोरें लेने लगी थी. बात केवल अब उस तक नहीं रही थी, बल्कि उसके अंदर रहने वाली जलचरों को भी हो चुकी थी. वे भी पानी की सतह से बार-बार अपना सिर निकालकर प्रभु के आगमन की बाट जोहने लगे.
बात है तो बहुत पुरानी. जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाया हूँ. भूल भी कैसे सकता हूँ. एक बार स्वयं भगवान विष्णु, भोले भण्डारी शिवशंकर जी और परमपिता ब्रह्माजी साधु बनकर, मेरे ही प्रांगण में रहने वाली सती-साधवी अनुसुईया जी के सतीत्व की परीक्षा लेने आए थे. उन्होंने उनके समक्ष एक विचित्र शर्त रखी कि वे विवस्त्र होकर उन्हें भोजन करायेंगी, तभी वे भोजन ग्रहण करेंगे. अनुसुईयाजी असमंजस में पड़ गईं थीं कि इससे तो मेरा पातिव्रत्य धर्म खंडित हो जाएगा. अपनी दिव्य शक्तियों के बल पर वे जान चुकी थी साधुओं के वेश में कोई और नहीं बल्कि त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं. उन्होंने मन ही मन अपने पति का स्मरण किया, हाथ में जल लिया और उसे अभिमंत्रित कर, उन तीनों पर छिड़कते हुए, उन तीनों को प्यारे शिशुओं के रूप में बदल दिया. जब नन्हें शिशुओं को भूख लगी और अब वे रोने लगे थे. उन्हें रोता-बिलखता देख अनुसूईया के हृदय में मातृत्व भाव उमड़ पड़ा. उन्होंने तीनों को स्तनपान कराया. दूध-भात खिलाया और अपनी गोद में सुलाया.
करीब छः माह तक उन तीनों को शिशु बनकर सती के आश्रम में रहना पड़ा था. जब वे तीनों अपने-अपने लोकों में नहीं पहुँचे, तब लक्ष्मीजी, पार्वती जी तथा सरस्वती जी को चिंता हुईं और अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर, उन्हे खोजने निकल पड़ीं. काफ़ी खोज-खबर लेने के बाद पता चला कि वे तीनों साधवी जी के यहाँ शिशुओं के रूप में रह रहे हैं. उन तीनों ने अत्यन्त ही विनीत होकर, साधवी जी से क्षमा मांगते हुए कहा कि हम तीनों अपने आपको असाधारण पतिव्रता मान कर चल रही थीं, अतः हमारा अभिमान दूर करने के लिए, इन तीनों को आपकी परीक्षा लेने के लिए विवश होकर आना पड़ा. अब आप हम पर प्रसन्न होइए और तीनों को उनके मूल स्वरूप में लौटा दीजिए. सती जी ने उन तीनों की प्रार्थना से प्रसन्न होकर, जल हाथ में लेकर अभिमंत्रित किया और उन तीनों पर छिड़क दिया. इस तरह वे अपने मूल स्वरूप में आ सके थे और अपने-अपने लोकों को जा सके थे.
ये वही सतीजी है, जिनकी कृपा से मन्दाकिनी को मेरी धरती पर अवतरित होकर प्रवाहित होने का गौरव प्राप्त हुआ है.
इस असाधरण घटना की गूंज आज भी मेरे प्रांगण में यत्र-तत्र गूंज रही है. इन सबके अलावा अनेक ऋषि-मुनि-तपस्वी मेरी कन्दराओं में रहकर कठोर तप कर रहे है. निश्चित ही मैं बड़भागी हूँ. बड़भागी इस अर्थ में कि साक्षात भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी जी, राक्षसराज रावण सहित अन्य दानवों का वध करने के लिए राम और सीता के रूप में मेरे प्रांगण में पधार रहे हैं, इतना बड़ा सौभाग्य मुझे जो मिलने जा रहा है, वह कोई साधारण बात नहीं है.
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चित्रकूट में प्रवेश.
धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए रामजी जी ने चित्रकूट पर्वत की ऊँचे शिखर को देखते हुए कहा :-“लक्ष्मण….यह चित्रकूट पर्वत कितना मनोहारी है. यहाँ कंद-मूल और फ़ल-फ़ूल की भी बहुतायत है. इस मनोरम स्थान पर अनेक साधु-संत, ऋषि-मुनि तपस्या करते हैं. इस रमणीय स्थल पर सुख से जीवन-निर्वाह किया जा सकता है.
बातों ही बातों में पता नहीं चल पाया कि कब वाल्मिकी जी का आश्रम आ चुका है. उन तीनों ने महर्षि के आश्रम में प्रवेश करते हुए ध्यानस्थ महर्षि को प्रणाम निवेदित किया और चरणॊं में शीश झुकाया.
धर्म के मर्मज्ञ महर्षि वाल्मिकी उनके आगमन से बहुत प्रसन्न हुए. “आइए.राम आइए…आप लोगों का स्वागत है…आइये बैठिए”ऐसा कहते हुए उनका आदर-सत्कार किया.
तदनन्तर रामजी ने महर्षि वाल्मिकी को अपना पारिचय देते हुए कहा:-” मैं महाराज दशरथ का पुत्र राम, अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण आपके चरणॊं मे सादर प्रणाम करते हैं”. ऐसा कहते हुए सभी ने महर्षि के चरणों में झुकते हुए प्रणाम किया. फ़िर अत्यन्त ही मधुर स्वर में बोलते हुए रामजी ने महर्षि से कहा:- “हे महाभाग…आपने तो काफ़ी समय पूर्व ही मेरे लिए पटकथा लिख दी है. राम उसके अनुसार सफ़ल अभिनय भी कर रहा है. मैं आपके इस पवित्र पावन पर्णकुटी से कुछ दूरी पर रहकर निवास करना चाहता हूँ. वसंत ऋतु के चलते चित्रकूट इस समय मुझे बड़ा ही मनभावन लग रहा है. इस स्थान पर आकर मैं अपने सारे संताप भूल चुका हूँ. अतः आप मुझे यहाँ निवास करने की आज्ञा प्रदान करें”.
“ राम ! तुमने मेरे मन की बात कह दी है. अब शीघ्रतापूर्वक अपने रहने के लिए एक सुंदर-सी पर्ण-कुटी तैयार करवाओ और सुखपूर्वक तब तक निवास करते रहो, जब तक तुम्हारा मन लगे”कहते हुए महर्षि वाल्मिकी जी राम की प्रार्थना को सुनते हुए अनुमति प्रदान कर दी थी.
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महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम से निकलकर रामजी, मन्दाकिनी के पावन तट पर आए. उन्होंने एक बड़ी-सी शिला का चुनाव किया और उस पर विराजमान होकर प्राकृतिक सुषमा को निहारने लगे. उनके पार्श्व में मंथरगति से बहती पुण्य सलीला मन्दाकिनी थी, ठीक सामने चित्रकूट पर्वत की दूर-दूर तक फ़ैली पर्वत-श्रेणियाँ. सालई तथा अन्य प्रजाति के सघन वृक्ष आच्छादित थे, पेड़ों से झरती शीतल ठंडी-ठंडी हवा प्रवहमान हो रही थी. अनेको प्रकार के लतिकाएं जिनमें रंगीन और सुगंधित पुष्प खि हुए थे, वृक्षों से लिपटकर हवा में झूलती हुई लहरा रही थीं.
प्राकृतिक सुषमा को देर तक निहारते रहने के बाद उन्होंने सीता जी से जानना चाहा:- “सीते.! मेरा मन इस स्थान पर एक पर्णकुटि बनाने को कह रहा है, जिसमें हम सुखपूर्वक निवास कर सकें. पवित्र पावन मन्दाकिनी यहाँ से काफ़ी कम दूरी पर प्रवाहित हो रही है. सामने अपनी विशाल बाहों को फ़ैलाए चित्रकूट पर्वत की श्रेणियाँ दिखाई दे रही हैं. पेड़ों पर धमाचौकड़ी मचाते शाखामृग भी यहाँ-वहाँ विचरते दीख रहे हैं. हिरणॊं के झुण्ड भी हरी-मुलायम घास चरते दिखाई दे रहे हैं. देखो तो सही,…. वे अपने गर्दन उठाकर संभवतः हमें ही निहार रहे है. हाथियों के झुण्ड यहाँ-वहाँ विचर रहे हैं. इस स्थान पर कंद-मूल भी बहुतायत से मिल जाएंगे. आम्रवृक्षों की डालियाँ फ़लों के भार से नीचे झुक आयी है. कदलीवृक्ष तथा सीताफ़ल भी यहाँ प्रचुर मात्रा में पेड़ों पर लगे हुए हैं. मेरे मन ने इस स्थान का चुनाव कर लिया है. यदि तुम्हें भी यह स्थान उचित जान पड़ता हो, तो लक्ष्मण को पर्णकुटि तैयार करने के लिए कहा जा सकता है.”
“स्वामी ! आपने तो मेरे मन की बात कह दी है . मैं भी यही सोच रही थी. मुझे भी यह स्थान पर्णकुटि बनाने के लिए सर्वथा उचित प्रतीत होता है. अब शीघ्रता से हमें पर्णकुटि का निर्माण प्रारंभ कर देना चाहिए.”सीताजी ने कहा.
“अनुज लक्ष्मण ! तुम्हारा क्या विचार है? क्या तुम्हें भी यह स्थान पर्णकुटि के निर्माण के लिए उचित जान पड़ता है? यदि हाँ, तो शीघ्रता से हमें उसके निर्माण में जुट जाना चाहिए’. रामजी ने लक्ष्मण की ओर निहारते हुए जानना चाहा था.
“पर्णकुटि निर्माण के लिए यह जगह मुझे भी पसंद है भैया…. मैं शीघ्र ही वन जाकर लकडियाँ, बांस, और छत पर छप्पर छाने के लिए अमलतास और पलाश लाकर पर्णकुटि के निर्माण का कार्य आरंभ कर देता हूँ.
हवा और प्रकाश को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पर्णकुटि का प्रवेश द्वार पूर्वाभिमुखी रखा ताकि सूरज की किरणें सीधे अन्दर प्रवेश कर सके. प्रभु के विश्राम करने के लिए एक कक्ष, एक बैठक कक्ष तथा रसोई कक्ष का निर्माण करते हुए एक बड़े से आंगन को घेरकर तुलसी, अनार, जामफ़ल, नीम, आंवला, केले के वृक्ष,एक पीपल का पेड, तीन कैथ, तीन बेल और आंवला एवं आम के पांच-पांच पौधे और फ़ूलदार वृक्षों को रोपित किया.
बांस-बल्लियों को आपस में बांधने के लिए उन्होंने पटसन जिसे पाट या पटुआ के नाम से भी जाना जाता है. इसका तना पतला और बेलनाकार होता है. इसे पानी में देर तक भिंगो देने के बाद ऊपरी आवरण को उतारकर रस्सी बनाई जातीहै. बन कर तैयार हुई रस्सी से बांस-बल्लियों को आपस में बांधकर पर्णकुटी का ढांचा खड़ा किया गया. अब छप्पर (छत) पर छानी की जानी थी, ताकि वर्षा जल भीतर प्रवेश न कर सके. कुछ लोगों ने वन से कांस.( एक प्रकार की घास ,) अमलतास और पलाश के पत्तों को लाकर छत को ढंकते हुए छप्पर बना दिया था.
लक्ष्मण भी इस कार्य में दक्षता के साथ उनका हाथ बंटा रहे थे.. कहाँ क्या बनाना चाहिए, कहाँ क्या लगाना चाहिए आदि पर अपना सुझाव देते हुए वे निर्माण कार्य को आगे बढ़ा रहे थे. रामजी और सीताजी लक्ष्मण की कार्यशैली को देखकर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सके थे और उनकी सूझबूझ की प्रसंशा करते थकते नहीं थे.
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चित्रकूट में वसंत.
प्रतिदिन की तरह सूरज ऊगा. सूर्योदय से पूर्व सभी उठ बैठे थे.नित्यक्रिया कर्म के बाद एक स्फ़टिक शिला पर विराजमान होकर रामजी वनों की शोभा को निहारते रहे. फ़िर उन्होंने अपनी भार्या सीता जी से कहा: ”-हे विदेह नन्दिनी ! देखो…देखो तो सही भोर के इस सुहाने मौसम को तो देखो…आकाश रंग-बिरंगे रंगों में नहा उठा है…तोतों, मोरों और जंगली पक्षियों के मिले-जुले स्वरों को सुनो…कितने प्रसन्न होकर सूर्यदेव के स्वागत में गीत गा रहे हैं. मंद-मंद शीतल बयार बह रही है. ऐसे सुहावना मौसम कितना सुखकर लग रहा है”.
“सीते ! इस समय मदमादते वसंत ऋतु में सब ओर पलाश के पुष्पों की अरूण प्रभा के कारण वे चटक-चमकीले-से दीखते हैं. झरे हुए इन लाल-पीले पुष्पों से धरती पर कालीन-सी बिछ गई है. भिलावे और बेल के पेड़ों की डालियाँ अपने फ़ूलों के भार से झुकी हुईं, हवा के झोंकों में वे किस तरह लहरा रही हैं. चातक “पी कहाँ-पी कहाँ” की रट लगा रहा है.
“गिरिवर चित्रकूट पर्वत पर, जामुन, असन, लोध, प्रियाल, कटहल, धव, अंकोल, भव्य, तिनिश, बेल, तिन्दुक, बाँस, काश्मरी, नीम (अरिष्ट), वरण, महुआ, तिलक, बेर, आँवला, कदम्ब, बेत, धन्वन (इंद्रजौ), बीजक (अनार), आदि घनी छायावाले वृक्ष जो फ़ूलों और फ़लों से लदे होने के कारण कितने सुहावने और मनोरम प्रतीत होते हैं”.
“ देखो तो सही, पर्वत शिखर से कितने सारे झरने गिर रहे हैं. गुफ़ाओं से निकलती हुई वायु नाना प्रकार के पुष्पों की गन्ध लेकर प्रवाहित हो रही है”. “फ़ूलों के खिलने के इस मौसम में मधुमक्खियाँ फ़ूलों के आस-पास मंडराने लगती हैं और फ़ूलों से मकरंद चुराकर शहद बनाती है. फ़लों का राजा आम जैसे बौरा उठा है. कोयल इसकी घनी शाखाओं पर बैठकर पीहू….पीहू के गीत गा रही है”.
“मन्दाकिनी कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती हुए मंथर गति से प्रवहमान हो रही है. हे सर्वांगसुन्दरी सीते ! जल के भीतर रहने वाले जीव-जंतु सहित असंख्य मछलियाँ को उछल-कूद करते हुए देखकर मुझे ऐसा प्रतीत होता है मानों वे तुम्हें जी भर के देखना चाहती हों ”( मंद-मंद मुस्काते हुए केवल विनोद करने की मंशा को लेकर रामजी ने सीताजी से कहा.
“ हे प्रियतमे ! मन्दाकिनी में खिले कमल दलों को देखों..भ्रमरों के असंख्य दल इन फ़ूलों पर किस तरह आसक्त होकर गूंजन कर रहे हैं. खिले हुए कमलों की पंखुड़ियाँ, सांझ होते ही अपने आप बंद होने लगती है. पराग के लोभी ये भ्रमर, कभी-कभी उड़ना भूल कर इनमें कैद होकर रह जाते है”
फ़िर लक्ष्मण को इंगित करते हुए बतलाया:-“लक्ष्मण ! देखो..देखों उस डाल पर मधुमक्खियों ने छत्ते लटक रहे हैं. मेरे अनुमान के अनुसार एक-एक छत्ते में सोलह सेर मधु ( एक सेर लगभग 933 ग्राम के बराबर होता है). वृक्षों की डालियाँ अपने फ़लों के भार से झुक गई हैं. हम इनका सेवन करते हुए इस नंदन-काननमें आनन्द के साथ विचरण करते रहेंगे”.
“ हे लक्ष्मण ! मुझे जो बनवास प्राप्त हुआ है, इससे मुझे दो लाभ एक साथ मिल गए. पहला तो यह कि मुझे पिताश्री की आज्ञा का पालन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है और दूसरा यह कि मेरे अनुज भ्राता भरत को अयोध्यापति होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है”.
फ़िर अपनी भार्या सीता जी से कहा. “ हे विदेहराजनन्दिनी ! देखो तो सही…पेड़ो ने नए पत्ते पहन लिए हैं. फ़ूलों पर रंग उतर आया है. वायु में मौसम का संगीत बज रहा है. यह ऋतु मन को रंगती हुए दसों दिशाओं मे झूम रही है. रंग का यह महोत्सव मन को नए संगीत और आशा के सराबोर कर रहा है. यही वे कारण है जिसके कारण मुझे यह पर्वत प्रिय लगने लगा है.
हे सीते…..! मुझे तो ये यह मौसम किसी जादूगर से कम नहीं लगता….देखों न ! .मधुप गुनगुना रहा है और फ़ूल न जाने कौन-सी कहानी कह रहा है.. शाखों ने गुलाबी दुकुल ओढ़ लिया है…कोयल का पंचम महक रहा है उनकी सांसों में…..धरती सुगंधों की सरगम गुननुना रही है…मलयानिल ने हौले से कलियों के कानों में न जाने क्या कह दिया कि वह फ़ूल बनकर खिलखिलाने लगी है.
उन्होंने एक लचकती डाली से सुंदर.-सुगंधित पुष्प को तोड़ कर कहा…”सीते……ये फ़ूल वसंत का सपना है…वसंत का प्रतिफ़ल है…सुगन्धित प्रतिक्रिया है….ये फ़ूल गंध की अनंत यात्रा है…आओ…इस वसंत को हम जी भर के जी लें …सांसों में आकंठ पी लें…ये जीवन फ़ूल बने…सुगंध बने”..ऐसा कहते हुए रामजी ने उस पुष्प को सीताजी के जुड़े में लगा दिया.
उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.-”हे सीते ! वसंत ऋतु में न तो ज्यादा सर्दी की तरह बहुत ठंडा रहता है और न ही गर्मी की तरह बहुत गर्म. रात में मौसम और भी सुहावना और आरामदायक हो जाता है.. इस ऋतु के आते ही प्रकृति में सब कुछ जाग्रत कर देती है. पेड़, पौधे, घास-फ़ूल फ़सलें सहित अन्य जीवों को जैसे लंबी नींद से जगा देती है. पेड़ों पर नई पत्तियाँ और शाखाएँ निकल आती हैं और फ़ूल तरोताजा और रंगीन हो जाते हैं”.
फ़िर लक्ष्मण को इंगित करते हुए कहने लगे- हे ”लक्ष्मण ! वसंत ऋतु का मौसम सभी मौसमों का राजा होता है. वसंत ऋतु के दौरान प्रकृति अपने सबसे सुन्दरतम रुप में प्रकट होती है और हमारे हृदय को आनंद से भरदेती है. सभी वृक्ष और लताएँ नवीन पल्ल्वों और पुष्पों से सजकर झूम रही है. प्रकृति को नया जीवन मिलता है और वह नई उमंग व सजधज के साथ अपनी शोभा बिखेरने लगती है”.
“खेतों में सरसों की पीली मखमली चादर बिछ गई है. आम के पेड़ मंजरी के बोझ से झुक पड़ते हैं. और हवा के झोंकों में झूम उठते हैं. वायु में सुगंध बिखर जाती है. फूलों से अटखेलियां करते भंवरे, मधु पीकर मधुर गुंजार करने लगे हैं. तथा रंग-बिरंगी तितलियों से उड़ते हुए झुंड, सभी के मन को मोह लेते हैं. प्रकृति के मोहक रूप को देखकर मनुष्य का मन भी प्रफुल्लित हो उठता है. कोयल की कूक मानव मन को संगीत लहरी से भर देती है. इस प्रकार वसंत ऋतु में संपूर्ण प्रकृति मानव जगत नई सुंदरता उमंग उल्लास और आनंद से भर जाता है वसंतोत्सव……मनुष्य अपने हृदय के उल्लास को विविध प्रकार से प्रकट करता है. वासंती कपड़े पहन कर स्त्रियाँ वसंत का स्वागत करती हैं. होली भी वसंत का उत्सव है जब पके हुए अन्न के दाने अग्नि को समर्पित करके बसंत का स्वागत किया जाता है. बसंत के सौन्दर्य में डूबे मानव मन मयूर-सा नाच उठता हैं”.
वसंत ऋतु में तापमान में नमी आ जाती है और सभी जगह हरे-भरे पेड़ों और फूलों के कारण चारों तरफ हरियाली और रंगीन दिखाई देता है”.
लक्ष्मण के बाद सीताजी को सम्बोधित करते हुए कहने लगे.:-” सीते ! कोयल पक्षी गाना गाना शुरु कर देती है. प्रकृति में सभी जगह फूलों की खूशबू और प्रेमाख्यान से भरी हुई होती हैं,, क्योंकि इस मौसम में फूल खिलना शुरु कर देते हैं,. आसमान पर बादल छाए रहते हैं और कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती हुई अल्हड़ नदियाँ, उछल-कूद करती हुई बहती हैं. हम कह सकते हैं कि प्रकृति आनंद के साथ घोषणा करती है कि वसंत आ गया है.
“इस मौसम की सुन्दरता और चारों ओर की खुशियाँ, मस्तिष्क को कलात्मक बनाती है और आत्मविश्वास के साथ नए कार्य शुरु करने के लिए शरीर को ऊर्जा देती है. सुबह में चिड़ियों की आवाज और रात में चाँद की चाँदनी, दोनों ही बहुत सुहावने, ठंडे और शान्त हो जाते हैं. आसमान बिल्कुल साफ दिखता है और हवा बहुत ही ठंडी और तरोताजा करने वाली होती है. यह किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण मौसम होता है, क्योंकि उनकी फसलें खेतों में पकने लगती हैं और यह समय उन्हें काटने का होता है. सभी आनंद और खुशियों को महसूस करते हैं क्योंकि, यह मौसम त्योहारों का मौसम है”.
जब वसंत आता है, तो इस ऋतु में प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है .पेड़ों पर नए पत्ते उग आते हैं और ऐसा लगता है मानो प्रकृति ने हरियाली एंव खूबसूरत फूलों की चादर ओढ़ कर अपना श्रृंगार किया हो. इस सुहावने मौसम में जीवन का आनंद दोगुना हो जाता है. हर तरफ नए फूलों की सुगंध वातावरण को मनमोहक बना देती है. आमों के पेड़ों की सुगंध की मादकता का तो कहना ही क्या. कोयल की कूक भी इस मौसम की एक खास विशेषता है .सरसों के पीले फूल एवं महुए की मादक गंध मिलकर पवित्रता एंव मादकता का अनोखा संगम प्रस्तुत करते हैं .सरसों के पीले फूल जहाँ प्रकृति के स्वर्णमयी होने का आभास कराते हैं, वही महुए एवं आम्रमंजरी की मादक गंध से प्रकृति बौराई हुई सी नजर आती है .यह स्थिति मन को मोहने के लिए पर्याप्त होती है
वसंत की इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे ऋतुओं का राजा कहा जाता है .वसंतमें प्रकृति के मनोहारी हो जाने के कारण इसे प्रकृति के उत्सव की संज्ञा भी दी गई है .इस ऋतु में प्रकृति की सुषमा अपने चरम पर होती है, जिस तरह जीवन में यौवन काल को आनंद का काल कहा जाता है, उसी तरह वसंत ऋतु को भी आनंददायी होने के कारण प्रकृति का यौवन काल कहा जाता है .वसंतऋतु में चारों ओर आनंद ही आनंद फैला नजर आता है .लहलहाती फसलों को देखकर किसानों का मन हर्षित हो जाता है. आने वाले समय में सुख एंव सफलता की उम्मीद, उनके लिए वसंत एक संदेश लेकर आता है.
वसंत ऋतु की सुंदरतम व्याख्या करने के बाद, कमलनयन श्रीराम ने चन्द्रमा के समान मनोहर मुख तथा सुन्दर कटिप्रदेशवाली विदेहराजनान्दिनी सीताजी से कहा:-”हे विदेहकुमारी ! मेरे प्रपितामह मनु सहित अनेक राजर्षियों ने नियमपूर्वक किए गए वनवास-काल को अमृत तुल्य बतलाया है. मैं अपने उत्तम नियमों का पालन करते हुए, सन्मार्ग में स्थित रहकर, तुम्हारे और भ्राता लक्ष्मण के साथ, इस पावन और पवित्र स्थल पर कुछ काल तक सानन्द से व्यतीत करते हुए अलौकिक सुखों को प्राप्त करूँगा”.
गोवर्धन यादव
छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश
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