लोक-कथाएँ-अनिता रश्मि


नागपुरी लोक कथाः बालमइत रानी

एक छोटा सा शहर. उसमें एक राजा अप नी दो बेटियों के साथ निवास करते थे. बड़ी का नाम था धनमइत और छोटी का बालमइत! वे दोनों काफी सुन्दर और गुणी थीं. पर छोटी अत्यधिक सुंदर थी. उनके सुनहले बाल सबको आकर्षित कर लेते.
एक दिन दोनों बहनों ने नदी में स्नान करने का मन बनाया. नहाते हुए बालतइत का एक केश उखड गया. उसने इधर-उधर देखा. पानी में बहता हुआ एक बेल आ रहा था. उसने लपककर बेल को थाम लिया और केश को गोल-गोल लपेटकर बेल में भरकर बहा दिया.
उसी नदी में नीचे के घाट पर एक राजकुमार और उसके साथी नहा रहे थे. उसने साथियों को कहकर बेल को मंगा लिया. बेल में एक सुनहला बाल देखकर राजकुमार कल्पना में डूब गया. जिस लडकी का केश इतना सुंदर है, वह जरूर बहुत सुंदर होगी. मैं ब्याह करूंगा, तो इसी सुंदर केशवाली से. राजकुमार ने घर आते ही खटवास-पटवास ले लिया. खाना-पीना छोड़कर बस बालमइत के धियान में रहने लगा. सब पूछते रह गए, उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया. अंत में एक बुढिया को राजकुमार का रोग पता लगाने का जिम्मा दिया गया. उसने अपनी पारखी ऑंखों से राजकुमार के रोग के बारे में पता लगाकर राजा-रानी को बता दिया. राजा और रानी उस लंबे सुनहले केशवाली लडकी से राजकुमार का ब्याह करने के लिए राजी तो हो गए, पर अब उसे ढॅूंढे कहॉं?
बुढिया पता लगाने निकली. उसने काफी ढॅूंढा. अंत में दोनों बहनों के बारे में उसे पता लग गया. उसने बालमइत से भेंट की. उसके सुनहले केशों को देखकर समझ गई, इसी का बाल राजकुमार को मिला था. उसने राजकुमारी को राजकुमार की स्थिति के बारे में बताया. उसे राजकुमार की तस्वीर भी दी. बालमइत यह जानकर खुश हुई कि वह राजकुमार उससे शादी करना चाहता है. उसने अपने माता-पिता से अपनी इच्छा कही. वे दोनों भी सहमत हो गए.
शादी की तारीख पक्की हो गई. सही समय में बारात पहॅुंची. धनमइत ने जैसे ही राजकुमार को देखा, उसके मन में राजकुमार बस गया. अब उसका मन उससे ब्याह करने का होने लगा. उसने ईर्शावश बालमइत के केशों में नाग को गॅुंथवाकर वेणी बनवा दी. बालमइत को नाग ने डंस लिया. विवाह के समय बेहोश बालमइत को उठाया गया. उठाए जाने पर उसने लडखडाते हुए धनमइत के द्वारा नाग से कटवाए जाने की बात राजा को बता दी और मर गई.
राजकुमार का मन कॉंप उठा. वह राकुमारी के प्रेम में पागल था. उसने बालमइत का दाह संस्कार कर दिया तथा चिता की राख को साथ लेता आया. उसकी उदासी दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ने लगी.
वह जहॉं सोता था, वहॉं उसके नहीं रहने पर सब कुछ व्यवस्थित रहता. उसे आश्चर्य होता कि उसकी कोठरी में कौन आता है? सब कुछ इतना सुंदर ढंग से कौन सजाता है? उसने सच्ची बात पता लगानी चाही. उस दिन जान-बूझकर उसने सब अस्त-व्यस्त कर दिया. फिर बाहर निकल एक किनारे जाकर छिप गया.
उसने देखा, घड़े में रखे राख से बालमइत राजकुमारी निकली और पूरा कमरा व्यवस्थित करने लगी. राजकुमार को खूब आश्चर्य हुआ. वह धीरे-धीरे अंदर घुसा और बालमइत राजकुमारी को पकड लिया. राजकुमारी बार-बार छोडने का जिद्‌द करने लगी.
नहीं! हाम तुमको नय छोडेंगे.- राजकुमार ने कहा.
बालमइत जिद्‌द करती रही.
-नहीं! जिद्‌द मत करो. हम तुम्हारे बिना नय रह सकते हैं. बहुत मुश्किल से तुम्हें पाए हैं. अब तो जीवनभर साथ रहेंगे.
बालमइत राजी हो गई और दुबारा राखवाले घड़े में नहीं गई. इस प्रकार उनका सच्चा प्यार जीत गया. अपने पुनर्मिलन के बाद वे दोनों सुखपूर्वक दिन बिताने लगे.

उरॉंव लोककथाः अंगारे को फॅूंकनेवाला
आदिकाल में मानव जाति कन्द-मूल, फल-फूल तथा जानवरों को खाकर पेट की भूख मिटाया करते थे. कच्चे मांस खाते हुए उन्हें कभी कोई घ्रणा नहीं होती थी. पेड़ों की छाल और जानवरों की खाल पहनकर वे लगातार शिकार और अन्य जरूरतों की पूर्ति के लए समूह बनाकर जंगल, पहाड ,-पठार, कंदराओं में घूमा करते. एक बार एक कबीले ने जंगल में जहॉं पडाव बनाया था, वहॉं बॉंसों का झुरमुट था. गर्मी की लू चल रही थी. तेज हवा से सब परेशान थे. हवा थी कि रूकने का नाम नहीं ले रही थी बॉंस आपस में रगड खा रहे थे. लगातार रगड खाने की वजह से उन बॉंसों से चीं-चीं की आवाज आने लगी.
बॉंस की झाड़ी से लाल-लाल कुछ उठकर आकाश की ओर बढ रहा था. वह उपर और उपर की ओर लपकता ही जा रहा था. साथ में आवाज-चीं-चीं!
वे घबरा गए. भय से उस धधकती चीज से दूर भागने लगे.उनके मॅुंह से आवाज निकल रही थी- चीच्च! चीच्च!!
धीरे-धीरे वह लाल धधकती चीज पूरे जंगल में फैल गई. सारे जीव-जंतु, पेड -पौधे धू-धू कर जलने लगे. जंगल से बाहर भाग आए लोगें के पास खाने का अभाव हो गया. अब शिकार करें तो किसका? खाएँ तों क्या? अंत में जले-अधजले मांस ही उठाकर पेट में डालने लगे. वे सब भकोसे जा रहे थे. भूख थोडी शांत हुइ्र तो स्वाद की ओर ध्यान गया.
अरे! ये तो ज्यादा स्वादिष्ट लग रहा है. अब तो कच्चा मांस उन्हें रूचे ही नहीं. आग में सीधे भूनना चाहें, तो हाथ जले. उन सबने आग पर मांस पकाने का आसान तरीका ढॅूंढ निकाला. बॉंस की छडी के कोनों पर या कच्ची लकडी के टुकडों में मांस को गॅूंथकर आग में पकाना शुरू कर दिया.

कालान्तर में जिस आदम समूह ने सबसे पहले आग को देखा था, उसने आग को ‘चिच्च’ कहा. और अपनी भाषा में आग के अवशेष को ‘चिन्द’ कहा. चिन्द अर्थात राख! यह दोनों शब्द आज भी कुड़ुख भाषा के शब्द हैं. उरॉंव शब्द भी कुडुख भाषा के दो मूल धातु- उर और ऑंव से बना है. उर से उरना अर्थात फॅूंकना तथा ऑंव से अंगोर अर्थात अंगारा.
उरॉंव का शाब्दिक अर्थ अंगारे को फूँकनेवाला है. इसी कारण आग को फॅूंकनेवाली जाति उरॉंव और कुडुख भाषा के बीच संबंध बताया जाता है.

शांख और कोइल नदी की उत्पति
एक गॉंव में दो बहनें थीं. एक का नाम शांख, दूसरे का कोइल था. वे दोनो बहनें खजूर के पत्ते के समान एक थीं. बड़ी होने पर दोनों का विवाह जयपुर और नागपुर नामक स्थान में क्रमशः हुआ था. अब वे जितिया के पत्तों के समान अलग-अलग होकर दूर-दूर उड गईं थीं. दोनों को एक-दूसरे तथा मायके की याद खूब आती. पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते. एक-दूसरे से वे मिलने के लिए छटपटा रहीं थीं.
वहॉं पास में एक बाजार लगता था. दोनों ने वहॉं जाकर मिलने का मन बनाया. मायके जाने के लिए भी वे लालायित थीं. उनलोगों ने दिन, स्थान, समय तय किया और बाजार में मिलीं. वहीं उन दोनों ने मायके जाने की योजना बनाई. नैहर जाने का दिन और स्थान तय किया. घर के लोगों को पता नहीं लगे, इसके लिए उन्होंने सॉंप का रूप धारण कर वहॉं जाना चाहा. ससुरालवालों की मर्जी के बिना मायका जाने के लिए यह रूप परिवर्त्तन आवश्यक था.
वे नाग-नागिन बनकर अपने-अपने घर से नियत समय पर निकलीं. दोनों ने तय किया था कि किसी भी परिस्थिति में वे पीछे मुड़कर नहीं देखेंगी.
कुछ दूर जाते ही अकेले चलती शांख को शक हुआ, कोई पीछा तो नहीं कर रहा है. थोडी देर तो वह तेज-तेज चलती रही. फिर पीछे मुड़कर देखने लगी. उसी समय उसकी ऑंख में एक तिनका उड कर पड गया. दर्द से वह बेहाल हो उठी. वह ठीक से रास्ते को देख नहीं पा रही थी. फिर भी चलती रही. सही जगह पर कोइल उसका इंतजार कर रही थी.
दोनों मायके के रास्ते पर एक साथ बढ चलीं. लेकिन एक जगह पर दोनों भटक गईं. नैहर पहॅुंचने के स्थान पर वे दोनों सागर के पास जाकर उसमें मिल गई.
वे दोनों नाग-नागिन बनकर चलीं थीं. इसलिए वे जिस रास्ते से लहराकर निकलीं, वे नदी बन गईं. सर्पिल नदी की तरह. वे दोनों कोइल और शांख नदियॉं अब भी झारखंड की महत्वपूर्ण नदियॉं हैं.
दोनों बहनें जहॉं मिली थीं, वह मिलन बिंदु वेदव्यास… राउरकेला, सुंदरगढ़ उडीसा था. वेदव्यास से मिलकर वे दोनों एक साथ ब्राह्‌मणी नदी कहलाई. और ये दोनों नदियॉं एक होने के बाद आगे बढती हुईं समुद्र में जा समाई.

पुनर्लेखनः अनिता रश्मि
४०१ ए, समृद्धि, चौबे पथ, अनंतपुर रॉंची-२
झारखण्ड

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